________________
स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
[ २६३ “समुच्चयादियश्चार्थः कश्चिचादरेमीप्सितः । तदन्यस्य विकल्पादेर्भवेत् तेन व्यपोहनम् ॥१॥" इति ।
यदपि 'फल्माधवर्णवत् शबलैकरूपो वाक्यार्थः तत्रान्यनिवृत्त्यनुपपत्तिः, तदवयवस्य विवेक्तुमशक्यत्वात् , 'चैत्र ! गामानय' इत्यादाबचैत्रादिव्यवच्छेदस्य पदार्थस्यैव प्रत्ययात्' इत्युच्यते; तदपि न, कार्यकारणभावेन संबद्धानां पदार्थानामेव वाक्यार्थत्वात् , तद्व्यतिरिक्तनिरवयवस्य शबलात्मनः फल्माषवर्णप्रख्यस्य वाक्यार्थस्यानुपलब्धः । यदप्युच्यते- अनन्यापोहशब्दादौ वाच्यं न च निरूप्यते'
इस प्रसङ्ग में एक यह भी दोप दिया जाता है कि-'च' आदि निपातशब्द सम्बन्ध के बोधक होते हैं। अतः नञ् शब्द के अभाव में अन्यापोह का बोध नहीं होता, अपितु पक से सम्बद्ध अन्य काही बोध होता है। जैसे 'घट पट च आनय' कहने पर घटसम्बद्ध पट के आनयन का बोध होता है। किसी अन्य के आमयन के निषेध का बोध तब तक नहीं होता जब तक उसके साथ 'न अन्य' न कहा जाय। इसलिए सभी शब्दों से अन्यापोह का बोध मानने का सिद्धान्त अध्यापक है-किन्त यह ठीक नहीं है। क्योंकि 'च' आदि शब्दों से भी शब्द सामर्थ्य के बल से अन्य निषेध की प्रतीति होने में कोई बाधा नहीं हैं। इसी कारण 'धर्ट पढे च आनय' कहने पर बट पढ दोनों के ही आने का बोध होता है। वैकल्पिक कप में घट या पद के आनयन का बोध नहीं होता। इससे स्पष्ट है कि 'च' शब्द से विकल्प की निवृत्ति के साथ सन्चय का बोध होता है। तत्त्व संग्रह की कारिका में कहा भी गया है कि-जिस च नाशि का सामुन्य मावि ऐना है, का समुच्चय से अन्य विकल्प आदि का अपोहन होता है।
[ शबल एक स्वरूप वाक्यार्थ का निरसन ] इस सन्दर्भ में एक यह दोष दिया जाता है कि-'जैसे मित्रवर्ण, नीलपीत आदि रूपात्मक न होकर उनसे विलक्षण उनका मिश्रित रूप होता है, उसी प्रकार वाक्यार्थ भी वाक्य घटक तत्तत् पद का अर्थ रूप न होकर शबल यानी तत्तत् पदार्थों से विलक्षण पक अर्थ रूप होता है। अत: वाक्य से अन्यापोह का बोध नहीं हो सकता, क्योंकि वाक्यार्थ के अवयय का विवेचन शक्य न होने से, वाक्यार्थ से अन्य का बोध असम्भव होने के कारण उसके अपोह की प्रतीति दुर्धट है। यह बात ‘चत्र ! गामानय' इस थाक्य के अधिवेषन से स्पष्ट है। क्योंकि इस वाक्य में “चत्र' आदि पद से 'अचैत्र' आदि से व्यावृत्त पदार्थ का ही बोध होता है न कि वाक्यार्थ का।'-किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि कार्यकारणभाव द्वारा परस्पर सम्बद्ध पदार्थ ही वाक्यार्थ होता है । वाक्यार्थ पदार्थ से विलक्षण नहीं होता। क्योंकि चित्रवर्ण के समान ऐसा शबल वाक्यार्थ उपलब्ध नहीं होता जोशाक्यघटक पदार्थों से भिन्न पचं अवयषहीन एकरूप हो।
इस प्रसंग में शोकवात्तिक कारने यह भी दोष दिया है कि-'अपोह (-अन्य घ्यावृत्ति । को शब्दार्थ मानने पर 'अनन्यन्या अपोह' आदि शन्दों के बाच्य का निरूपण नहीं हो सकता, क्योंकि शब्द मात्र से अन्यापोह ही चाच्य माना गया है और 'अनन्यापोह' शब्द से तो अन्यापोह को निषेध अभिव्यक्त होता है। अतः अन्यापोह रूप वाच्य यहाँ दुर्धर है। -किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यापोह का निषेध वाच्य न होने पर भी उसके वितथ विकल्प मिथ्या बोध से उत्पन्न वासना द्वाग उसका मिथ्या बोध होकर अग्यापोह के भी अपोह (-अन्यापोळ्यावृत्ति ) की बुद्धि का उदय हो सकता है ।