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स्पा. क. टीका-हिन्दीविवेचन ]
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यथा
अपि च लिङ्ग-संख्यादियोगोऽप्यनन्तधर्मात्मकबाह्य वस्तुसमाश्रित एवं इति नापोहस्य वाच्यत्वम् एकत्र स्त्री-पुंनपुंसकारख्यभावत्रयस्य, एकत्व - द्वित्वादिसंख्यायाश्चाऽविरोधात्, विवक्षमनन्त धर्माध्यासिते वस्तुनि कस्यचिद् धर्मस्य केनचित् शब्देन प्रतिपादनात् प्रतिनियतोपाधिविशिष्टवस्तुप्रतिभासस्य प्रतिनियतक्षयोपशमविशेषनिमित्तत्वेन शबलाभासानापत्तेः । अपि च, शब्दस्य बहिरर्थापतिपादकत्वेऽदृष्टेषु नदी - देश -- पर्वत - द्वीपा दिष्वाप्तप्रणीतत्वेन निश्चितात शब्दात् प्रतिपत्तिनं स्यात्, अदृष्टे विकल्पानुपपत्तेः । न च तद्विशेषाऽनिश्चयेऽपि न कथञ्चित् ततो निर्णीतिः, प्रत्यक्षस्यापि स्वविषयप्रतिपत्तेः कथञ्चिदेव संभवात् वस्तुविषयस्य प्रत्यक्षस्याऽनिश्चायकत्वम्, अतथाभूतस्य च विकल्पस्य निश्चायकत्वं च वदतः सौगतस्यैव निर्विकल्पत्वादिति दिग् ॥२६॥
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इस सन्दर्भ में यह भी एक दोष अनिवार्य है कि यदि शब्द और अर्थापोह (अतद्व्यावृत अर्थ ) का शाब्दबोध, इन दोनों में जन्यजनक भावरूप वाच्यवाचकभार माना जायगा तो आकांक्षा आदि के ज्ञान से पहले ही शाब्दबोध हो जाने की आपसि होगी । यदि, यह कहा जाय कि'बौद्धमत में पदार्थोपस्थिति के प्रतिनिधिरूप में मान्य अर्थप्रतिबिस्व के लिये आकांक्षा विज्ञान की अपेक्षा न होने पर भी शब्द से उत्पन्न होने वाले शाब्दबोध स्थानीय अर्थ प्रतिविश्व के लिये नियमतः आकांक्षादिज्ञान की अपेक्षा होने से, उसके सम्पादक आकांक्षा-मादि ज्ञान से पूर्व शाब्दबोध की आपत्ति नहीं हो सकती । तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि शब्द क्षणिक होता है, अतः शाब्दबोध स्थानीय अर्थप्रतिबिश्व के लिये किसी की भी अपेक्षा युक्ति सङ्गत नहीं है। यह भी प्रष्टव्य है कि यदि अव्यवहित उत्तर क्षण में उत्पन्न क्षणिक शब्द में अध्यवहित पूर्वोत्पन्न क्षणिक शब्द की सम्बन्धरूप अपेक्षा होती है तो कार्य में कारण धर्म का संक्रमण होने से नियमतः शाब्दबोध में आकांक्षादि का भान भी हो जायगा क्योंकि निरंश शब्द की किसी एक अंश मात्र से ही अपेक्षणीयता मानना अयुक्त है। यह भी ज्ञातव्य है कि लिङ्ग संख्या आदि का सम्बन्ध अनन्त धर्मात्मक बाह्यवस्तु में समाधित है। अतः वस्तु के पकात्मक न होने से अतदुव्यावृत्ति दुर्घट है। इन दोरों के कारण अपोह शब्द का चाय नहीं हो सकता एक वस्तु में श्री, पुरुष और नपुंसक के स्वभावप्रय में और पकत्व द्वित्यादि संख्या के होने में कोई विरोध नहीं है । वस्तु अनन्त धर्मात्मक होती है । जब जिस धर्म की विवक्षा होती है तब किसी शब्द द्वारा उस धर्मं से वस्तु का प्रतिपादन होता है । तत्तद्वर्म से विशिष्ट वस्तु का बोध तत्तद के ज्ञानावरण के क्षयापशम से होता है । और सभी धर्मों के ज्ञानावरण का क्षयोपशम एक साथ नहीं होता। अत पत्र विवक्षित किसी एक धर्म के रूप में होने वाले वस्तुबोध में अन्य धर्म का भान सम्भव न होने से किसी भी शब्द से वस्तु के शबलाकार (मिश्रिताकार ) बोध की आपत्ति नहीं हो सकती । यह भी ज्ञातव्य है कि यदि शब्द वाचअर्थ का प्रतिपादक न होगा तो जो नदी, देश, पर्वत, द्वीप आदि पूर्व ट नहीं है उनका, निश्चितरूप से आप्त पुरुष भाषित शब्द से भी नियताकार बोध न हो सकेगा। क्योंकि जो अर्थ दृष्ट नहीं है उसका frकल्प बोध अनुपपन्न है ।
यदि यह कहा जाय कि ' अष्टष्ट नदी, देश आदि के विशेष रूप का निश्चय नहीं होता, अतः किसी भी रूप में शब्द द्वारा उनका निर्णय नहीं होता' तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि प्रत्यक्ष के भी विषय की प्रतिपत्ति कथचित् ही होती है। प्रत्यक्ष से वस्तु के सर्वे विशेष का