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स्या० का टीका एवं हिन्दीविवेचन ]
[ १७
आ सकता कि प्रारब्धकर्म का प्रभाव अज्ञान निवृत्ति का कारण है अत: प्रारत्यकर्म उस प्रभाव का प्रतियोगी होने से अज्ञान निवृत्ति का प्रतिबन्धक कहा जाता है। क्योंकि परमत में अभाव तुन्छअसव होता है अतः वह किसी कार्य का कारण नहीं हो सकता, इस लिये प्रारब्धकम में जो प्रज्ञाननिवृत्ति को प्रतिबन्धकता होगी वह कार्यानुकल शक्ति के विघटकत्व रूप होगी, अर्थात् तत्वज्ञान में जो अज्ञान नितिका शक्ति है उसका विघटन-नाश किंवा कुण्ठन करने से प्रारम्भ कर्म अज्ञाननिवृत्ति का प्रतिबन्धक कहा जायगा और यह तभी सम्भव हो सकता है-जब मुक्ति पर्यन्त एक हो तत्त्वज्ञान का प्रस्तिश्व हो क्योंकि तभी उसमें विद्यमान अज्ञाननियतिका शक्ति का विघटन होने से प्रारम्धकर्म प्रतिबन्धक बन सकेगा । किन्तु ऐसा है नहीं, मुक्तिपर्यत एक ही तत्त्वज्ञान नहीं रहता, किन्तु तब तक अनेक तत्वज्ञान उत्पन्न हो जाते हैं, क्योंकि ऐसा न मानने पर तत्त्वज्ञान का प्रयास सम्भव न होने से उसमें दृढ़ता नहीं आ सकती, और पाब यहाा है तब सभी तत्वज्ञानों में प्रज्ञान नितिका शक्ति के होने में कोई प्रमागम होने से अन्तिम तत्त्वज्ञान में ही उसका अस्तित्व मानना उचित होगा क्योंकि पूर्वतत्त्वज्ञानों में उसे स्वीकार करने पर तत्त्वज्ञान के मेद से उसमें प्रानन्त्य तथा प्रारब्धकर्म द्वारा उसके अनन्त नाश किया कुण्ठन की कल्पना में महान् गौरव होगा और यदि इस गौरव की उपेक्षा कर सभी तत्वज्ञानों में उक्त शक्ति की कल्पना की जायगी तब संसारदशा में होने वाले शुक्ति आदि के अन्य तत्त्वज्ञानों में भी असत्यज्ञानरूप भ्रम एवं उसके उत्पादक शुक्तितत्त्वादि के अज्ञान को निवृत्त करने वाली शक्ति भी कल्पनीय होगो किन्तु इस शक्ति का विघटन प्रारब्धकम से नहीं होता, प्रत: प्रारब्धकर्म में प्रज्ञान निवृत्ति की प्रतिबन्धकता मानने का कोई औचित्य न होने से यह नितान्त निरस्त हो जाती है।
[सम्यक् क्रिया भी मुक्ति का हेतु ] उक्त रीति से अन्तिम तत्त्वज्ञान में ही अज्ञाननितिका शक्ति का अभ्युपगम करने पर पूर्व के तत्वज्ञानों को अन्तिम तत्त्वज्ञान का उपकारक मान कर ही मुक्ति के प्रति उनकी उपयोगिता माननी होगी; और ऐसा मानने पर यह भी मानना निर्वाधरूप से सम्भव हो सकेगा कि जैसे पूर्व तत्वज्ञान आन्तिम तत्त्वज्ञान का उपकारक होने से मुक्ति में उपयोगी होते हैं, वैसे ही पूर्व कर्म भी अन्तिमकर्म का उपकारक हो मुक्ति में उपयोगी हो सकते हैं अतः ज्ञान-कर्म दोनों में समान प्रधानता होने से यह कहना संगत न होगा कि तत्वज्ञान हो मुक्ति का हेतु है, कर्म नहीं । इस कथन का आधार आगम भी है क्योंकि आगम में आत्मवर्शन के समान सम्यक् क्रिया को भी मुक्ति का हेतु बताया गया है। यदि सूक्ष्मता से विवेचन कर यह निष्कर्ष प्राप्त किया जाय कि पूर्वतत्त्वज्ञान मुक्ति के हेतु नहीं होते किन्तु प्रयोजक होते हैं, हेतु तो अन्तिम तत्त्वज्ञान हो होता है, तो यह निष्कर्ष ज्ञान और कर्म दोनों में समान रूप से प्राप्य हो सकता है क्योंकि कर्म के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि पूर्व कर्म मुक्ति के प्रयोजक होते हैं, हेतु नहीं, हेतु तो अन्तिम कर्म ही होता है। अन्ततः इस विषय का विवेचन करने पर यही निर्णय प्राप्त होता है कि अन्तिम तत्वज्ञानक्षण के समान अन्तिम पुरुष. व्यापारक्षण में भी मुक्तिनिका शक्ति विद्यमान है। * कल्पलता में 'अन्तिमतत्त्वज्ञानोपकारकतया' के स्थान में अन्तिम तत्वज्ञानाद्यपकार क.तया' पाठ
उचित प्रतीत होता है, वैसा पाठ होने पर ही आदि शब्द से अन्तिम कर्म को ग्रहण कर उस में पूर्व कर्मों को उपकारक कहकर ज्ञान-कर्म के समप्राधान्य का प्रदर्शन उपपन्न हो सकेगा।