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[ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो०४
किश्न, प्रारुधस्य प्रतिबन्धकत्वं न कारणीभूनाऽभावप्रतियोगित्वम् , अभावस्य तुच्छत्वेन परः कारणत्वानभ्युपगमात्, किन्तु कार्यानुकूलशक्तिविघटकत्वम् । विघटनं च नाशः कुण्टनं वेत्यन्यदेतत् । न चैकस्यैव ज्ञानस्य मुक्तिपर्यन्तमयस्थानम् इत्यन्तिमतत्त्वज्ञान एव तच्छक्तिः कल्प्या, अनन्तशक्तिनाशकुण्ठनादिकल्पने गौरवान , अन्यथेदानींतनतत्त्वज्ञानेऽपि तत्कल्पनं दुर्निवारं स्यादिति गतं प्रारब्धप्रतिबन्धकत्वेन । इत्थमेव स्वीकारे च प्राच्यज्ञानवत प्राण्यकर्मणोऽप्यन्तिमतत्वज्ञानोपकारकतया समप्राधान्यमेव, आगमेऽप्यात्मदर्शनस्येय सम्यक्रियाया अपि मुक्तिहेतुत्वं सिद्धमेव । सूश्मेक्षणेन तत्र प्रयोजकत्वविश्रामोऽप्युभयत्र तुल्यः । अन्तिमज्ञानक्षण इवान्तिमपुरुषव्यापारक्षणेऽपि मुक्तिजननी शक्तिस्तुल्येति विवेकः । चैतन्य में कल्पित है और वह 'साक्षित्व मिथ्या होने से अस्तित्वशून्य है, केवल साक्षी हो परमार्थसत् सत्य वस्तु है' इस प्रकार के विधारस्वरूप है । इसी से मोक्ष की प्राप्ति होती है, योग का उपयोग चित्तदोष को दूर करने मात्र में है, मोक्ष के प्रति तो वह अन्यथासिद्ध है।"-इस मत में यह दोष है कि ज्ञानमात्र को मोक्ष का उपाय मानने पर तत्वज्ञान का उदय होते ही संसार के उच्छेव की आयत्ति होगी, फलतः जीवन्मुक्ति की उपपत्ति न हो सकने से शास्त्र-सम्प्रदाय की प्रामाणिकता सिब न हो सकेगी। यदि यह कहा जाय कि 'संसार का उच्छेद प्रजाननिवृत्ति से हो साध्य है और अज्ञान निवृत्ति में प्रारब्धकर्म प्रतिबाधक है अतः स्वज्ञान उत्पन्न हो जाने पर भो प्रारब्धवश अज्ञाननिवृत्ति का प्रतिबन्ध हो जाने से उच्छेदकारण का अभाव होने से तत्काल संसारोच्छेद की आपत्ति नहीं हो सकती'- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अज्ञान को निवृत्त करना तत्वज्ञान का स्वभाव है प्रत: तश्वज्ञान उत्पन्न हो जाने पर प्रतिबन्धक के कारण अज्ञाननिवृत्ति के होने में विलम्ब नहीं हो सकता, क्योंकि शुक्ति के तत्त्वज्ञान से शुक्ति में रजत भ्रम की निवृत्ति होने में प्रतिबन्धक अनित बिलम्ब नहीं देखा जाता।
यदि यह कहा जाय कि-"श में पीतत्व भ्रम के बाद शङ्क में श्वेत्य का अनुमित्यात्मक तत्वज्ञान होने पर ज्ञान पित्तदोषरूप प्रतिबन्धक से शंख में पीतस्वभ्रम को निवृत्ति में बिलम्ब देखा जाता है, अत: आत्मतत्त्व का साक्षात्कार हो जाने पर भी प्रारब्धवश अज्ञाननिवृत्ति में बिलम्ब माना जा सकता हैं"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अनुमितिरूप परोक्ष तत्त्वज्ञान से भ्रमनिवृत्ति में प्रतिबन्धककृत बिलाब, शङ्ख में पीतस्वभ्रम के स्थल में देखा जाता है यह ठीक है। पर साक्षात्कारात्मक तत्त्वज्ञान से भ्रम की निवृत्ति में प्रतिबन्धककृत दिलम्ब कहीं नहीं देखा जाता, प्रतः आत्मविषयक अविद्या जो साक्षात्कारात्मक भ्रम के तुल्य है, आत्मा के साक्षात्कारात्मक तत्त्वज्ञान से उसकी निवृति में प्रारधरूप प्रतिबन्धक द्वारा बिलम्ब का अभ्युपगम नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसके अनुरूप कोई दृष्टान्त नहीं है ।
[प्रारब्धकर्म में अज्ञाननिधृत्तिप्रतिबन्धकत्व असंगत ] उक्त के अतिरिक्त यह भी ध्यान में रखने को बात है कि प्रारब्ध कर्म में अविद्यानिवृत्ति के प्रति मो प्रतिबन्धकता होगी वह कारणीभूताभावप्रतियोगित्व रूप नहीं हो सकती 1 अर्थात यह नहीं कहा