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________________ १७० ] [ शासवार्ताः स्त. १०/३६ शक्तिविशेषवत्त्वेन विषयस्यैव वा चाक्षुषे स्पार्शने च हेतुत्वमिति न वाय्वादेरस्पार्शनत्वम् । न चैवं वायुगतसंख्या-परिमाणादेः प्रत्यक्षतापत्तिः, सजातीयसंचलनाभावे भूयोऽवयवावच्छेदेन त्वसनिक चेष्टत्वात्, पार्श्वद्र्यलग्नकारद्वयसंख्यापरिमाणमहम्यानुभविकत्वादिति । एतेन स्वतन्त्रोक्तीत्या 'विजातीयकत्वाभावादस्पार्शनत्वं वायोः । इत्यपि निरस्तम् . स्पार्शनजनकतावच्छेदक्रबैजात्यव्यापकत्रसरेण्बेकस्यसाधारण बैजात्यस्य नित्यैकत्वसाधारणत्वे महत्त्वोद्भूतरूपयोः पृथक्कारणताद्वयकल्पनस्यावश्यकस्वान्, निखिलतद्धा वृत्तवे च कार्यमात्रवृत्ति( तया ? जातितया तदवच्छिन्नं प्रति कस्यचित् कारगृहीत होता है क्योंकि मह वाश्यन्द्रिय से ग्राम्य विशेषगुण है जसे रूप आदि," इस अनुमान से भी यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि शब्द एक ही बाह्यन्द्रिय से गृहीत होता है, क्योंकि शब्द में गुणत्व का निषेध होने से उक्त हेतु शब्द में असिद्ध है। [ मृतप्रत्यक्ष के प्रति उद्भनरूप की कारणता का अस्वीकार ] वृसी यात यह है कि मृत प्रत्यक्ष के प्रति उदभूतरूप कारण है इस बात को मीमांसकानुयायी विद्वानों ने ही अम्बीकृत कर दिया है, क्योंकि मृतप्रन्यनत्व अन्य और नित्य उभय विधमूनप्रत्यक्ष का धर्म होने से कार्यता का अवच्छेदक नहीं हो सकता । मूर्तविषयक लौकिक प्रत्यक्षत्य भी उद्भूतरूप का कार्यतायन्टेदक नहीं हो सकता, क्योंकि उस की अपेक्षा लघु होने में व्रज्यनिष्ठलौकिकविषयतासम्बन्ध से चाशुपत्य को ही उदभूतरूप का कार्यतावच्छे. दक मानना उचित है। अथवा मिद्धान्ती ओन की और में यह भी कहा जा सकता है कि शक्तिविशेष किंवा शक्तिविशेष से विशिष्ट द्रव्य ही चानुष पत्रं स्पार्शन प्रत्यक्ष का कारण होता है । वायु आदि में भी रूपानजनक शक्तिविशेष को स्वीकार करने से उन का भी शर्शन हो सकता है । अतः यह नहीं कहा जा सकता कि वायु आदि का स्पार्शन नहीं हो सकता । यदि यह शंका की जाय कि 'वायु का स्पार्शन मानने पर उत्त के मख्या, परिमाण आदि के भी स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी ।' -तो यह कोई दोष नहीं है क्योंकि सजातीय का भवन न होने पर तथा बायु के वहुल अवयवों के साथ त्वक् का सन्निकर्ष होने पर वायु की संख्या और वायु के परिमाण का स्पार्शन प्रत्यक्ष मान्य है। जब कई घायु साथ बहने लगता है उसी समय वायु की मख्या का स्पार्शन नहीं हो पाता । पर्व जब वायु के स्वल्प अभावों के साथ ही त्या का सन्निकर्ष होता है, केवल उसी समय उस के परिमाण का ग्रहण नहीं हो पाता । अन्यथा होता ही है । क्योंकि किसी मनुष्य के दोनों पाश्वों में जब फूत्कार से घायु उत्पन्न किया जाता है, तो उसे उस दायु की संख्या और उस के परिमाण के स्थान का स्पष्ट अनुभव होता है। [विजातीय एकत्व को प्रत्यक्ष का कारण मानने में गौरव ] स्वतन्त्र ताकिकों का अपनी नीति के अनुसार जो यह कहना है कि प्रत्यक्ष में विजातीय एकत्य कारण है। घायु में विजातीय एकत्व न होने से उस का स्पार्शन नहीं होता'यह कथन भी निरस्तमाय है क्योंकि विजातीय पकत्व को प्रत्यक्ष का कारण मानने में गौरव है। जैसे : प्रत्यक्ष में यह कार्यकारणभाय 'स्पार्शन प्रत्यक्ष में विजातीय एकत्व कारण है, पत्र चाक्षुपप्रत्यक्ष में विजातीय पकत्व कारण है। इन दो कार्यकारण भावों में पर्यवसिप्त होता है। इस के अनुसार एकत्यगत एक चजात्य स्पार्शन का और अन्य वैज्ञात्य चाक्षुष का जनकतात्रच्छेदक होता है। प्रसरेणु का स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं होता । अतः प्रसरेणुगत एकस्व में
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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