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________________ स्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] कारानुपपत्तेश्च । अथ शामि' इति धीओन्ता, मूर्तप्रत्यक्षत्वस्योद्भूतरूपकार्यतावच्छेदकत्वेन कारणाभावस्य बाधकस्य सत्त्वादिति चेत ? न, चाक्षुषे स्पार्शने या बिलक्षणक्षयोपशमनःपयोग्यताया एवं हेतुत्वात् प्रभाविवृत्त्यनुदभूतस्पशादेः स्पार्शनादिप्रतिबन्धकत्याऽकल्पनात्, योग्यताऽभाबादेव सत्र स्पार्शनाद्यनुदयात् । अत एव योग्यताविशेषवतः पुरुषविशेषस्य शब्दे यायेन्द्रियान्तरेणापि प्रतीतो प्रकृतहेतावसिद्धतामप्युद्भावयन्ति संप्रदायवृद्धाः, अन्यथा चक्षुषेवास्मदादिमिरुपलायमानश्चन्द्राकाविभिभिचारात् , 'सर्वदा सर्वत्र सवैवाहाकेन्द्रियग्राह्यः शब्दः, बाह्यन्द्रियग्राह्यत्वे सति विशेषगुणत्वात् , रूपादिवत् ' इत्यत्र च शब्दस्य गुणत्वनिषेत्रेन हेतोरसिद्धत्वात् । अपि च, मूर्तप्रत्यक्षत्वावच्छिन्न उद्भूतरूपस्य हेतुत्वं मीमांसकानुसारिभिरेव निरस्तम्, मूर्तप्रत्यक्षत्वस्य कार्याऽकार्यवृत्तितया कार्यतामवच्छेदका वात् । मूर्तलौकिकप्रत्यक्षत्वापेक्षया च द्रव्यनिष्ठलौकिकविपयतया चाक्षुपत्वस्य व लाघवेन कार्यतावच्छेदकल्बौचित्यात् । अस्तु वा शक्तिविशेषस्य घट का सच और त्वक प्रत्यक्ष प्रजा जाए तो फिर वायु के प्रत्यक्षम का अस्वीकार कैसे हो सकेगा, क्योंकि वायु की भी इसप्रकार प्रत्यक्ष प्रतीति होती है कि वायु रूक्ष लग रहा है, मृदु लग रहा है, गर्म लग रहा है. उण्डा लग रहा है । ' इन प्रतीतियों के बारे में यह कहना सम्भव नहीं है कि-'ये प्रतीतियाँ त्यगिन्द्रियजन्यप्रत्यक्षरूप नहीं हैं किन्तु मनोजन्य प्रत्यक्षरूप हैं-' क्योंकि स्थगिन्द्रिय का व्यापार होने पर ही इन प्रतीतियों का उदय होता है। यदि इन प्रतीतियों को मानस प्रत्यक्षरूप मानेंगे तो-' वायु स्पृशामि' 'बरे, मृदु, उण, शीतं पायुं स्पृशामि' इसप्रकार स्पार्शनस्व रूप से अनुभव न हो सकेगा। [ विलक्षण क्षयोपशम ही मूर्तप्रत्यक्ष का जनक है ] यदि यह कहा जाय कि-'उस प्रतीतियों की 'स्पृशामि' इसप्रकार की बुद्धि स्पार्शनत्व अंश में भ्रमरूप है क्योंकि मृर्तविषयकप्रत्यक्षत्व उद्भूतरूप का कार्यतावच्छेदक है और वायु में उद्भूतरूप न होने से घायु का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि कारणाभाय कार्याभाव का साधक होता है । अतः यायु की प्रतीति में मृतप्रत्यक्षत्य का अभाव उस में स्पानिय का बाधक है-' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि चाक्षुष और स्पार्शन प्रत्यक्ष में बिलक्षण क्षयोपशमरूप योग्यता ही कारण होती है। अर्थात् जिस वस्तु के चाक्षुष और स्पार्शन के बिंघटक आवरणीयकम का क्षयोपशम होता है, उस का चाक्षुष एवं स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है । घायु में स्पाशन प्रत्यक्ष के प्रयोजक इस योग्यता के विद्यमान होने से उसका स्पार्शन हो सकता है। प्रभा अ उक्त योग्यता का अभाव होने से उस का स्पार्शन नहीं होता। यदि यह बात नहीं मानी जाएगी तो प्रभा आदि के अनुभूत स्पर्श को उस के स्थान का प्रतिबन्धक मानने से गौरव होगा । इसीलिए जैन सम्प्रदाय के वृद्ध-मान्य विवान वायु में एकद्रव्यत्य के साधनार्थ प्रयुक्त वाम एकेन्द्रियमान जन्यप्रत्यक्षविषयत्य रूप हेतु में असिद्धि का भी उदभावन करते हैं, क्योंकि योग्यताविशेष सम्पन्न पुरुष को श्रोत्रभिन्न बाह्यन्द्रिय से भी शब्द का प्रत्यक्ष होता है । इस के अतिरिक्त अन्य प्रकार से भी उक्त हेतु एकद्रव्यत्वकप साध्य का व्यभिचारी है । जैसे : चन्द्र, सूर्य आदि का हम लोगों को केवल चक्षु से ही प्रत्यक्ष होने के कारण उन में उक्त हेतु एकद्रव्यत्व रूप साध्य का व्यभिचारी है। "शब्द सर्षदा सर्वत्र सभी को एक ही बाधेन्द्रिय से म २२
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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