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शाअवार्ता. स्त० ११५३
तत्त्वतस्तु तत्र प्रतिबन्धकापगमस्यैव हेतुत्वात् । प्रतिबन्धकं च तत्र व्यावाधाजनक वेदनीय कर्मव । इति सिद्धं याबाधाऽभावसिद्धं सिद्धानां सुखम् । न च धर्माभावात् तदा सुखानुपपत्तिः, तदमावेऽपि तजनितसुखना शकाभावेनानुवृत्तेः, स्थैर्यरूपचारिधर्मस्य तदा सद्भाचस्यापि ग्रन्थकदभिमतत्वाद्य । उत्पन्ने सिद्धसुखे प्रध्वंसाभाचे दृष्टमविनाशित्वमनभ्युपगच्छतः, कायदृष्टमयच्युतानुत्पन्नमीश्वरज्ञानादिकं चाभ्युपगच्छतः परस्य तु सुस्थितं नैयायिकत्वमिति दिग् ॥ ५२ ॥
एतद्गुणगर्भमेव सिद्धस्वरूपमभिष्टौतिसर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्ताःसर्वचाधाविवर्जिताः। सवसंसिद्धसत्कार्याः सुखं तेषां किमुच्यते ।। ५३ ॥
___सबैः शीतोष्णादिमिविनिर्मुक्ताः, तथा सर्वाभि धाभिः क्षुत्-पिपासादिपीडाभिर्विवर्जिताः तथा, सर्व संसिद्धं सत्कार्यमानन्दोपयोगि कृत्यं येषां ते तथा । ईशा हि सिद्धा भगवन्तः । किमुच्यते तेषां मुखम् (सुखस्य) ? परिमिताहेतुकत्वात् अपरिमितं हि तत् ; सर्वपामपि सांसारिक सुखानामेतदनन्तभागवर्तित्वात् एतदुपमानस्य कस्याप्यलाभात् । यथा हि नगरगुणान् दृष्ट्या पलियामागतो मिलततिगलं काम पश्यन् जान्न्नपि नोपमाटुमीष्टे परेषां पुरः,
धाओं को उत्पन्न करने वाला वेदनीय कर्म ही है। अत: यह निर्विवाद सिद्ध है कि बदनीय कर्म की निवृत्ति होने पर व्याबाधा के अभाव से सिद्धों को सुख की प्राप्ति होती है । प्रतिबन्धक निवृत्ति हो जाने पर अभ्यास निरुपयोगी होने से मुक्ति में उसकी आवश्यकता नहीं है । यह भी नहीं कहा जा सकता कि 'मुक्ति में धर्म न होने से उसमें सुख के अस्तित्व की उपपत्ति नहीं हो सकती । क्योंकि धर्म का अभाव होने पर भी धर्मजन्य सुख का कोई नाशक न होने मे उसकी अनुकृति होने में कोई बाधा नहीं हैं। और सच तो यह है कि ग्रन्थकारों ने मुक्ति में भी स्थैर्यरूप चारित्र धर्म के अस्तित्व का स्वीकार किया है। सिद्ध सुख के उत्पन्न होने पर उसका प्रध्वंस न होने से उसकी अनश्वरता प्रमाणसिद्ध है । प्रमाणसिद्ध होने पर भी यदि नथायिक उसे स्वीकार नहीं करता. तथा अनुत्पन्न और अविनाशी प्रमाणहीन ईश्वरज्ञान आदि को स्वीकार करता है तो इससे उसके नेयायिक होने की समीचीनता (!)-उपहसनीयता स्पष्ट हो जाती है ।। ५.२ ॥
५३ वीं कारिका में उक्त गुण से सम्पन्न सिद्ध सुख की प्रशस्ति की गयी है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है
सिद्ध जीय शीत, उष्ण आदि सभी द्वन्द्वों-दुःख कारणों से रहित होते हैं, और भूख प्यास आदि की सभी प्रकार की पीड़ाओं से मुक्त होते हैं। उनके द्वारा शाश्वत सुख के सम्पादक समस्त सस्कृत्य-सत् प्रयोजन सिद्ध किये होते हैं, ऐसे सिद्ध भगवान होते हैं। फिर उसके सुख के बारे में क्या कहा जा सकता है? उनका सुख सीमित हेतुजन्य सुख नहीं होता, अत पव उनका सुख स्वाभाविक अत पत्र अपरिमित होता है । सांसारिक समस्त सुख सिद्ध सुख के अनन्त भाग में होता है। इसलिये सिखसुख का कोई उपमान दृष्टान्त नहीं प्राप्त होता है । जसे कोई भील किसी मगर के गुणों को देखकर जब जंगल में अपनी पल्ली में वापस आता है और वहाँ उसके स्वजन द्वारा नगर कैसा ऐसा पूछा जाने पर यह नगर के समान किसी को