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स्या. फ. टीका-हिन्दीविवेचन ] सर्वतः प्रसरति । अत एव पतिरक्तादिकाचकूपिकातो रश्मयोऽपि तच्छायाः प्रसरन्तो दृश्यन्ते । अथ यथा पारदस्याऽयस्पात्र भेदे सामर्थ्य, न पुनरलाबुपात्रभेदे, तथा लोच नरोचिषामपि स्फटिकादिभेदे शक्तिर्भविष्यति न तूलपटलमेद इति चेत् ? न, प्रत्यभिज्ञायाधात् । तस्मात् कुद्ध्याधन्तरितचाक्षुषजनकक्षयोपशमाभावादेवास्मदादीनां न तदन्तरितचाक्षुषम् , तादृशक्षयोपशमवतामत्तियितज्ञानिनां तु भवत्येव तवानुषम् ।
अथानन्तरितस्यापि कदाचिदन्तरितत्वात् कुझ्यादिव्यवधानकालीनघटादिचाक्षुषे ज्ञानावरणप्रकृतिविशेषस्य प्रतिबन्धकत्वेऽपि तदशायां तदव्यवधानकालीनचाक्षुषापत्तिवारणाय ताशचाक्षुषे तत्तत्कुड्या
निर्माण अवयवों के शिथिल सयोग से नहीं होता किन्तु दृढतर संयोग से होता है, अतः चश्नु की किरणों का उस के पार जाना सम्भव नहीं है । सच बात यह है कि स्फटिक में जब प्रदीप की किरणे प्रवेश करती हैं तो वे उस का भेदन नहीं करती किन्नु उन का सम्पर्क पाकर स्फटिक का परमाणुपुञ्ज तवर्ण के रूप में परिणत होकर चारों ओर फैल जाता हैं । उसके फैलाव से ही स्फटिक आदि से घ्यवहित वष्य का ग्रहण सम्पन्न होता है ? यह देखा ही जाता है कि पीत, रक्त आदि वर्ण के काच की कुप्पी से उसी षर्ण की किरणे फैलती है।
[स्फटिक में अभेद प्रत्यभिज्ञा की अनुपपत्ति ] ___ यदि यह कहा जाय कि-"जैसे पाग लोहे के कठोर पात्र को तोड देने में समर्थ होता है पर कोमल लकडी की नंबडी को तोडने में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार चक्ष की किरण स्फटिक आदि को तोड़ने में समर्थ होती हुई भी कई के गोले को नोडने में असमर्थ हो सकती है। अत: चश्च से स्फटिक से ध्यवहित तथ्य का ग्रहण मानने पर के गोले से व्यवहित द्रव्य के प्रक्षण की आपत्ति नहीं दी जा सकती । इसलिये चक्षु के प्राप्यकारित्व पक्ष का निराकरण युक्त नहीं है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि चक्षु की किरणों से स्फटिक का भेदन मानने पर चक्षु की किरणों के प्रबंश के पूर्व और वाद के स्फटिक में जो अभिन्नता की प्रत्यभिज्ञा होती है वह न हो सकेगी, क्योंकि चक्षु की किरणों से पूर्व स्फटिक का भेदन हो जाने पर बाद में अन्य स्फटिक की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, अतः चक्षु की किरणों के प्रवेश और बाद के स्फटिक में भिन्नता अनिवार्य है।
उक्त त्रुटियों के कारण चक्षु को प्राप्य कारी मानना सम्भव न होने से यह मानना न्याय. संगत है कि जब जिस द्रव्य के चाक्षुषशान का जनक क्षयोपशम विद्यमान होता है तब उम द्रय का चानुपक्षान होता है । स्फटिक आदि स्वच्छ द्रव्य अपने से व्यवहित द्रव्य के चानुषशान के जनक क्षयोपशम का प्रतिबन्धक नहीं होते । अतः उन से व्यवहित द्रव्य का चाप शान होता है किन्तु दिवार आदि अस्वच्छ निविडघ्रस्य अपने से व्यवहित तव्य के चाक्षुषशान के जनक क्षयोपशम का प्रतिबन्धक होते हैं । अतः उन से व्यवहित द्रव्य का चाक्षुषज्ञान नहीं होता । यही कारण है कि जिन शाना तिशय से सम्पन्न महापुरुषों को भित्ति आदि से ध्यवाहित वस्तुओं के भी चाश्चषज्ञान का जनक क्षयोपशम विद्यमान होता है-जिन के क्षयोपशम का प्रतिबन्ध भित्ति आदि व्यवधायक द्रयों से नहीं हो पाता, उन्हें उन व्यवहित वस्तुओं का भी चाक्षुषशान होता ही है।