SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९२ ] [ शासवार्ता० स्त. १०/१८ तूलादिना जलादिगत्यप्रतिबन्धस्य प्रशिथिला वययारभ्यावनिमित्तकस्यैव दर्शनात् । स्फटिकान्तर्गतप्रदीपरश्मग्रस्तु न तं भित्त्वा प्रसरन्ति, किन्तु तत्संपर्कमासाद्य स्फटिकपरमाणुपुञ्ज एव तथा परिणतः अव्याहत और व्यवहित दोनों में चक्षु की असम्बद्धता समान है। यह कथन कि 'भिति आदि से अव्यवहितध्य प्रत्यक्षयोग्य होने से चक्षु से असम्बद्ध होने पर भी गृहीत हो सकता है किग्नु भित्ति आदि से व्यवहित द्रस्य अयोग्य होने से गृहीत नहीं हो सकता' संगत नहीं है; क्योंकि जो लय भित्ति आदि के व्यवधान की दशा में गृहीत नहीं होता वही व्यवधान हट जाने पर गृहीत होने लगता है। एवं जो वध्य भित्ति आदि के अध्ययधानदशा में गृहीत होता है यवधान मा जाने पर गृहीत नहीं होता। यह भी नहीं कहा जा सकता कि 'अव्यवधानरशा में जो व्रव्य प्रत्यक्षयोग्य होता है बह व्यवधानदशा में अयोग्य हो जाता है क्योंकि भाव के स्थर्य पक्ष में उस के रहते उस की योग्यता का अपाय नहीं हो सकता । अपाय की बात भाव की क्षणिकता के पक्ष में ही सम्भव हो सकती है। नैयायिक भावक्षणिकत्वचावी नहीं है, किन्तु भावस्थैर्यवादी हैं, मतः उस के सामने उक्त बात का अभिधान अथवा समर्थन सम्भव नहीं है।" [प्राप्यकारित्व पक्ष में उक्त दोष तदवस्थ-प्रत्युत्तर] किन्तु उक्त शङ्कात्मक दोष उचित नहीं है, क्योंकि यह योष चक्षु के प्राप्यकारित्वपक्ष में भी है। जैसे: उस पक्ष में भी यह भतिप्रसङ्ग उद्भावित किया जा सकता है कि चक्षु में जैसे। स्फटिक आदि से व्यवहित का ग्रहण होता है उसी प्रकार अन्य द्रध्य से म्यवहित का भी चक्षु द्वारा ग्रहण होना चाहिये । “चक्षु की किरणे स्फटिक आदि का भेदन कर उस से व्यवहित द्रष्टव्यविषय तक पहुंच जाती हैं, अत: अक्षु से स्फटिक आदि से व्यवहित द्रव्य का ग्रहण हो सकता है किन्तु अन्य द्रध्य का भेदन सम्भव न होने से अन्य व्रव्य से व्यवहित द्रव्य के ग्रहण की प्रसक्ति नहीं हो सकती” एसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि चश्च की जिन किरणों से स्फटिक जैसे कठोर द्रव्य का निर्भेदन हो सकता है उन से कोमल रूई के गोलक का निर्भेदन तो और सुकरता से हो सकता है । अतः रूई के गोलक से व्यवहित द्रव्य के ग्रहण की आपत्ति अनिवार्य है । { उदयनाचार्य के समाधान का निरसन] उदयनाचार्य ने उक्त आपत्ति का उत्तर देते हुये जो यह कहा है कि स्फटिक आदि स्वभावत: स्वच्छ द्रव्य है वह तेज की गति का विरोधी नहीं हैं अत: जसे प्रदीप की प्रभा स्फटिक अरवि के पार निकल जाती है उसी प्रकार चच की किरण भी स्फटिक को पार कर सकती हैं, इसलिये उन से ध्यत्रहित अर्थ का ग्रहण चश्च से हो सकता है, किन्तु जो द्रव्य स्वभात्रत: स्थच्छ नहीं है उन से तेज की गति का प्रतिबन्ध हो जाने से उन से ध्यवहित द्रव्य के साथ चक्षु का सम्बन्ध न होने से चक्षु द्वारा ग्रहण नहीं हो सकता"-किन्तु बुद्धों के कथनानुसार यह ठीक नहीं है, क्योंकि स्वच्छ द्रष्य से गति का प्रतिबन्ध न होना कहीं देखा नहीं गया है। प्रत्युत यह देखा गया है कि कई आदि से जल आदि की गति का अप्रतिबन्ध होता है क्योंकि हाई पर पानी डालने पर पानी रूई के पार चला जाता है और यह इसलिये होता है कि रूई अय वर्षों के अत्यन्त शिथिल संयोग से तैयार होती है। स्फटिक आदि का
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy