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स्या. क. टीका-हिन्दी विरेचन ]
(२८७ अपि च, एवं शास्त्रादिवैयर्यमपीत्याहएवं च वस्तुनस्तत्वं हन्त : शास्त्रादनिश्चितम् । तदभावे च सुव्यक्तं तदेनच्छुकखण्डनम् ॥२८॥
एवं चकल्पितस्य वाच्यत्वे च वस्तुना=स्वलक्षणस्य, तत्त्वम् =अनित्यत्वादिमत्त्वम् , हन्त ! शास्त्राच-पिटक त्रयलक्षणात् , अनिश्चितं भवन्नीत्या । तदभावे च-तत्त्वनिश्चयाभावे च मुव्यक्तम् अतिस्पटम् , तदेनत शास्त्रप्रणयनम् तन्मूलं भवदनुष्ठानं च शुष्कखण्डनम् , फलकणाऽनासादनात् । अथ शब्दजनितविकल्पात् सामर्थ्यन तथास्वलक्षणप्रतीतेनं दोप इति चेत् ! न. विकरूप स्वलक्षणयोः प्रतिबन्धस्यवासिद्धः, स्खलक्षणमालम्बनं बिनाऽप्यसत्यविकल्पवत् सत्यविकरूपेऽप्याकारनियमोपपत्रः सामथ्र्यजविकल्पस्यापि स्वलक्षणासशिल्यात् , समारोपव्यवन्छेदम्य च शाब्दविकरुपादेवोपपत्तेस्तत्कस्पनायां मानाभावात् । 'अस्त्वेषमेव शास्त्राऽवैयर्थ्य मिति चेत् ? न, तथा सति स्वलक्षणाऽस्पर्शिनो व्याप्त्याधनपेक्षस्त्यार्थपापकस्य शाब्दम्य मानान्तरवासनात् , अर्थविवक्षानमितिरूपत्वे च तस्य स्वातन्व्येण माह्यार्थानध्यवसायिस्वेनाऽपवर्तकत्वापातात् , 'नानुमिनोमि किन्तु शान्दयामि' इत्यनुभवानुपपत्तेश्व ।
कल्पित को शब्दवाच्य मानने पर बौद्धशास्त्र सुतपिटक आदि त्रिपिटक के द्वारा स्पलक्षणवस्तु का अनित्यत्य आदि निश्चित नहीं हो सकेगा। क्योंकि भनिन्यत्व आदि कल्पित न होने से शब्दवाच्य नहीं है । अतएव शास्त्र से उनका निकाय नहीं हो सकेगा, और दस पिति नौद्धशास्त्र का प्रणयन और तन्मूलक बोहों का अनुष्ठान किनित भी फल का प्रापक न होने से सखे डण्ठल को कूटने के समान निरर्थक होगा ।
यदि यह कहा जाय कि-- "शब्द से उत्पन्न विकल्प बोध से अनुमान द्वारा मनित्यत्यादि पसे बरक्षणवस्त की प्रतीति होने से उक्त दोष नहीं हो सकता' तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि विकल्प में स्वलक्षण की व्याप्ति असिद्ध है । यतः जैसे असत्य विकल्प स्वलक्षण यस्त के आलम्बन के अभाव में उत्पन्न होता है उसी प्रकार सत्य विकल्प भी उसके अभाव में नियत आकार में उत्पन्न हो सकता है । और दूसरी बात यह है कि असे शब्दजन्य विकल्प स्वलक्षण वस्तु को विश्य नहीं करता उसी प्रकार अनुमानजन्य विकल्प भी स्वलक्षण वस्तु को विषय नहीं करेगा। अन. अनुमान द्वारा नित्यत्व अनि रूप से स्त्ररक्षण वस्तु की प्रतीति का मानना सम्भव नहीं है। __"समारोप के व्यत्रच्छेद के लिये व्याप्ति मामनी आवश्यक है" ऐसा भी कहना समीचीन नहीं है, क्यों कि समाशोप का व्यवच्छेद ता शाद विकल्प से ही हो जाना उपपन्न है। ऐसे विकल्प-स्वलक्षण के बीच में प्रतिबन्ध की कल्पना करने में कोई प्रमाण रहता नहीं है। " उस प्रतिबन्ध के विना ही शब्द कैसे भी अर्थप्रापक बन जाता है, और अतः शास्त्र से भी अनित्यतादि की प्रतीति हो जाने से शास्त्रधैयर्य नहीं है" ऐसा कहना भी उचित नहीं, क्योंकि इसका फलिस यह होता है कि यह स्वलक्षण का अस्पर्शी है. व्याप्त्यादि से निरपेक्ष है और फिर भी अर्थप्रापक है। इसलिये उसका अनुमान में अन्तर्भाध न हो सकने से उसको प्रमाणान्ता मानने की आपत्ति आयेगी । यह भी नहीं कहा जा सकता कि शान्दजन्य विकल्प अर्थ विवक्षा की अनुमिति रूप है अतः उसमें प्रमाणान्तरत्व की आपत्ति नहीं हो सकती। क्यों कि मर्थ विवक्षा की अनुमितिरूप होने पर स्वतन्त्ररूप से बाधार्थ का माहक न होने के कारण यह अर्थ प्राप्ति के