Book Title: Bhagvati Sutra Part 04
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र चतुर्थ भाग शतक 8-१२ -प्रकाशकश्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा-नेहरू गेट बाहर, ब्यावर-305901 ॐ (01462)251216, 257699, 250328 For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ साहित्य रत्न माला का २४ वा रत्न - - - - - - - - - - - - - - • गणधर भगवान् सुधर्मस्वामि प्रणीत भगवती सूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र) .. चतुर्थभाग (शतक६-१०-११-११) | -सम्पादकपं. श्री घेवरचन्दजी बांठिया “वीरपुत्र" (स्वर्गीय पंडित श्री वीरपुत्र जी महाराज) न्याय व्याकरणतीर्थ, जैन सिद्धांत शास्त्री IIIIIIIIIIIIII I - प्रकाशकश्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर । शाखा-नेहरू गेट बाहर, ब्यावर-305901 - (01462) 251216, 257699 Fax No. 250328 For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य सहायक उदारमना श्रीमान् सेठ जशवंतलाल भाई शाह, बम्बई प्राप्ति स्थान १. श्री अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, सिटी पुलिस, जोधपुर 0 2626145 २. शाखा-अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, नेहरू गेट बाहर, ब्यावर 251216 ३. महाराष्ट्र शाखा-माणके कंपाउंड, दूसरी मंजिल आंबेडकर पुतले के बाजू में, मनमाड़ ४. श्री जशवन्तभाई शाह एदुन बिल्डिंग पहली धोबी तलावलेन पो० बॉ० नं० 2217, बम्बई-2 ५. श्रीमान् हस्तीमल जी किशनलालजी जैन प्रीतम हाऊ० कॉ० सोसा० ब्लॉक नं० १० स्टेट बैंक के सामने, मालेगांव (नासिक) 8252097 ६. श्री एच. आर. डोशी जी-३६ बस्ती नारनौल अजमेरी गेट, दिल्ली-६ 2 23233521 ७. श्री अशोकजी एस. छाजेड़, १२१ महावीर क्लॉथ मार्केट, अहमदाबाद 2. 5461234 | ८. श्री सुधर्म सेवा समिति भगवान् महावीर मार्ग, बुलडाणा ६. श्री श्रुतज्ञान स्वाध्याय समिति सांगानेरी गेट, भीलवाड़ा 0236108 १०. श्री सुधर्म जैन आराधना भवन २४ ग्रीन पार्क कॉलोनी साउथ तुकोगंज, इन्दौर ११. श्री विद्या प्रकाशन मन्दिर, ट्रांसपोर्ट नगर, मेरठ (उ. प्र.) १२. श्री अमरचन्दजी छाजेड़, १०३ वाल टेक्स रोड़, चैन्नई 025357775 १३. श्री संतोषकुमार बोथरा वर्द्धमान स्वर्ण अलंकार ३६४, शांपिग सेन्टर, कोटा2-2360950 य : ३००-०० चतुर्थ आवृत्ति वीर संवत् २५३२ १००० विक्रम संवत् २०६३ अप्रेल २००६ - मुद्रक - स्वास्तिक प्रिन्टर्स प्रेम भवन हाथी भाटा, अजमेर . 2423295 For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | निवेदन । सम्पूर्ण जैन आगम साहित्य में भगवती सूट विशाल रत्नाकर है, जिसमें विविध रत्न समाये हुए हैं। जिनकी चर्चा प्रश्नोत्तर के माध्यम से इसमें की गई है। प्रस्तुत चतुर्थ भाग में नौ, दस, ग्यारह और बारह शतक का निरूपण हुआ है। प्रत्येक शतक के कितने उद्देशक हैं और उनकी विषय सामग्री क्या है? इसका संक्षेप में यहाँ वर्णन किया गया है - शतक ६ - नौवें शतक में ३४ उद्देशक हैं, जम्बूद्वीप के विषय में प्रथम उद्देशक है ज्योतिषी देवों के सम्बन्ध में दूसरा उद्देशक है, तीसरे से तीसवें उद्देशक तक २८ उद्देशकों में अन्तरद्वीपों का वर्णन है। ३१वें उद्देशक में असोच्चा केवली का वर्णन है। ३२वें उद्देशक में गांगेय अनगार के प्रश्न हैं। ३३वें उद्देशक में ब्राह्मण कुण्ड ग्राम विषयक वर्णन है। ३४वें उद्देशक में पुरुष घातक आदि का वर्णन है। शतक १० - दसवें शतक में ३४ उद्देशक इस प्रकार हैं - १. दिशा के सम्बन्ध में पहला उद्देशक है २. संवृत अनगारादि के विषय में दूसरा उद्देशक है ३. देवावासों को उल्लंघन करने में देवों की आत्मऋद्धि (स्वशक्ति) के विषय में तीसरा उद्देशक है ४. श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के श्याम हस्ती नामक शिष्य के प्रश्नों के सम्बन्ध में चौथा उद्देशक है ५. चमर आदि इन्द्रों की अग्रमहिषियों के सम्बन्ध में पाँचवां उद्देशक है ६. सुधर्मा सभा के विषय में छठा उद्देशक है। ७ से ३४. उत्तर दिशा के अट्ठाईस अन्तरद्वीपों के विषय में सातवें से लेकर चौतीसवें तक अट्ठाईस उद्देशक है। - शतक ११ - ग्यारहवें शतक में १२ उद्देशक हैं - १. उत्पल २. शालूक ३. पलाश ४. कुम्भी ५. नाडीक ६ पद्म ७. कर्णिका ८. नलिन ६. शिवराजर्षि १०. लोक ११ काल और १२ आलभिका। शतक १२ - बारहवें शतक में १० उद्देशक हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं - १ शंख २. जयन्ती ३. पृथ्वी ४. पुद्गल ५. अतिपात ६. राहु ७. लोक ८. नाग ६. देव और १०. आत्मा । - उक्त चारों शतक एवं उद्देशकों की विशेष जानकारी के लिए पाठक बंधुओं को इस पुस्तक का पूर्ण रूपेण पारायण करना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4] ******** ******* ****************** ****************************************************** संघ की आगम बत्तीसी प्रकाशन में आदरणीय श्री जशवंतभाई शाह, मुम्बई निवासी का मुख्य सहयोग रहा है। आप एवं आपकी धर्म सहायिका श्रीमती मंगलाबेनशाह की सम्यग्ज्ञान के प्रचार-प्रसार में गहरी रुचि है। आपकी भावना है कि संघ द्वारा प्रकाशित सभी आगम अर्द्ध मूल्य में पाठकों को उपलब्ध हो तदनुसार आप इस योजना के अंतर्गत सहयोग प्रदान करते रहे हैं। अतः संघ आपका आभारी है। आदरणीय शाह साहब तत्त्वज्ञ एवं आगमों के अच्छे ज्ञाता हैं। आप का अधिकांश समय धर्म साधना, आराधना में बीतता है। प्रसन्नता एवं गर्व तो इस बात का है कि आप स्वयं तो • आगमों का पठन-पाठन करते ही हैं, साथ ही आपके सम्पर्क में आने वाले चतुर्विध संघ के सदस्यों को भी आगम की वाचनादि देकर जिनशासन की खूब प्रभावना करते हैं। आज के इस हीयमान युग में आप जैसे तत्त्वज्ञ श्रावक रत्न का मिलना जिनशासन के लिए गौरव की बात है। आपके पुत्र रत्न मयंकभाई शाह एवं श्रेयांसभाई शाह भी आपके पद चिह्नों पर चलने वाले हैं। आप सभी को आगमों एवं थोंकड़ों का गहन अभ्यास है। आपके धार्मिक जीवन को देख कर प्रमोद होता है। आप चिरायु हों एवं शासन की प्रभावना करते रहें, इसी शुभ भावना के साथ। ___ इसके प्रकाशन में जो कागज काम में लिया गया है वह उच्च कोटि का मेफलिथो है साथ ही पक्की सेक्शन बाईडिंग है बावजूद आदरणीय शाह साहब के आर्थिक सहयोग के कारण अर्द्ध मूल्य ही रखा गया है। जो अन्य संस्थानों के प्रकाशनों की अपेक्षा अल्प है। संघ की आगम बत्तीसी प्रकाशन योजना के अन्तर्गत भगवती सूत्र भाग ४ की यह चतुर्थ आवृत्ति श्रीमान् जशवंतलाल भाई शाह, मुम्बई निवासी के अर्थ सहयोग से ही प्रकाशित हो रही है। आपके अर्थ सहयोग के कारण इस आवृत्ति के मूल्य में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं की गयी है। संघ आपका आभारी है। पाठक बन्धुओं से निवेदन है । कि वे इस चतुर्थ आवृत्ति का अधिक से अधिक लाभ उठावें। ब्यावर (राज.) संघ सेवक दिनांकः ४-४-२००६ नेमीचन्द बांठिया अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंक्ति १२ २१ १० १५७६ 1 १५७७ १४ १५७७ १५ १६०४ ११ १६०६ १६२५ १६७६ पृष्ट १५७२ १५७२ १५७४ १७६४ १७७० १७८८ १६७७ १३ १६६८ ३ १६९८ १३ १७०६ १४ १७३० १३ १७३६ १२ १७५५ .-७ १७९५ १७९६ १७९६ १७९४ १८०४ १८०७ १५०७ १८१८ ११ १८ ७ २ १६ ३ .२४ ३ ९ १ २ ३ १६ १ शुद्धि-पत्र अशुद्ध पश्चिम पश्चिम सोभा तिर्णण तरह तीसरो मोहनीय क्षय सासु वालुकप्राभा वाणव्यन्तर गांयेय भंगबं परिबुडे ययायोग्य पण वाहिय गुलवज्जे सेज्जासंथारगंम हि देवलोक बहुत ढआ योनि चक्रवती भराहणा तीण्ण सइस्समों alessatest देवमाज For Personal & Private Use Only शुद्ध पश्चिम सहित पश्चिम में मिला कर शोभा तिण्णि तरफ तीसरी मोहनीयक्ष लेस्सासु वालुकाप्रभा वाणव्यंतर गांगेय भगवं संपरिवुडे यथायोग्य पण्णवणाहि य ४ चरंगुलवज्जे सेज्जासंथारगं वाहि देवलोक से बहुत ढका हुआ योनि चक्रवर्ती आराहणा तिणि सइस्लामो बोयडमग्वोवडा देवराज Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ट = n n 6 K. पंक्ति . अशुद्ध शुद्ध १८७४ नामक नामक नगर १८८२ दिक्रप्रोक्षक दिप्रोक्षक वारा ईए वा राईए १९२९ रोमञ्चित रोमाञ्चित १९६६ अंतिम परिब्वायए परिवायए २०२१ एगयआ एगयओ २०३८ वेमानिक वैमानिक २०६९. किती किसी २०७४ पण्णपुवे वण्णपुग्वे २१०८ कसायाओ कसायायाओ २११२ उमके उसके २१२२ आया य आयाइ य २१२२ अंतिम णो आया णो आयाइ नोंध-(१)पृष्ठ २०१४ पंक्ति १८ का पाठ पं. भगवानदासजी दोषी संपादित भाग ३ पृ. २६६ के अनुसार है और ऐसा ही पाठ सूरतवाली प्रति पृ. १०३४ में भी है, किंतु अन्य प्रतियों में-"अहवाएगयओ दुषएसिए खंधे,एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयभो पंचपएसिए खंधे भवइ।"पाठ है । यह पाठ होना आवश्यक भी है । इसका अर्थ पृ. २०१५ पं. ७ में-'होता है' के आगे-"अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध, एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर पंच प्रदेशी स्कन्ध होता है"-होना चाहिए। (२) प. २०१५ पंक्ति १९ में-"अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ तिष्णि तिपएसिया खंधा भवति"-पाठ पं. भगवानदास दोषी सम्पादित भाग ३ पृ. २६६ में हैं, और उसीसे लिया है, किंतु अन्य प्रतियों में देखने में नहीं आया। (३) प. २०९० पंक्ति २ में "णो उबवाओ" पाठ पं. भगवानदास दोषी सम्पादित भाग ३ पृ. २९० में हैं और उसीसे लिया है, किन्तु अन्य प्रतिषों में नहीं है । For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक विषय उद्देशक १ ३४३ जम्बूद्वीप उद्देशक २ ३४४ जम्बूद्वीपादि में चन्द्रमा विषयानुक्रमणिका - ३४५ अन्तर्द्वीपक मनुष्य उद्देशक ३ से ३० शतक ९ पृष्ठ १५७२ १५७३ १५७६ उद्देशक ३१ ३४६ असोच्चा केवली ३४७ असोच्चा- मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि १५६२ ३४८ असोच्चा-लेश्या ज्ञान योगादि १५९५ ३४९ सोच्चा केवली १६०५ १५७९ उद्देशक ३२ ३५० गांगेय प्रश्न- सान्तरनिरन्तर उत्पत्ति आदि १६१४ १६१८ १६५५ ३५१ गांगेय प्रश्न - प्रवेशनक ३५२ संख्यात नैरयिक प्रवेशनक ३५३ असंख्यात नैरयिक प्रवेशनक ३५४ उत्कृष्ट नैरयिक प्रवेशनक ३५५ नैरयिक प्रवेशनक का अल्प बहुत्व १६६६ १६६१ १६६२ क्रमांक विषय ३५६ तिर्यंच योनिक प्रवेशनक ३५७ मनुष्य प्रवेशनक ३५८ देव प्रवेशनक ३५९ प्रवेशनकों का अल्प-बहुत्व ३६० सांतरादि उत्पाद और उद्वर्तन ३६१ केवली सर्वज्ञ होते हैं ३६२ स्वयं उत्पन्न होते हैं ३६३ गांगेय को श्रद्धा पृष्ठ १६६७ १६७० १६७४ १६७७ १६७८ १६८२ १६८४ १६८८ उद्देशक ३३ ३६४ ऋषभदत्त और देवानन्दा १६९० ३६५ जमाली चरित्र १७०५ ३६६ जमाली का पृथक् विहार १७५२ ३६७ जमाली के मिथ्यात्व का उदय १७५४ ३६८ सर्वज्ञता का झूठा दावा १७५८ ३६९ किल्विषी देवों का स्वरूप १७६४ ३७० जमाली का भविष्य १७६८ उद्देशक ३४ ३७१ पुरुष और नोपुरुष का घातक १७७१ ३७२ ऋषि घातक अनन्त जीवों का For Personal & Private Use Only घातक १७७४ ३७३ एकेंद्रिय जीव और श्वासोच्छ्वास १७७७ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १० क्रमांक विषय पृष्ठ | क्रमांक विषय पृष्ठ उद्देशक १ उद्देशक ४ ३७४ दिशाओं का स्वरूप १७८३ | ३८२ चमरेन्द्र के त्रायस्त्रिशक देव . १८०९ ३७५ शरीर १७९० / ३८३ बलिन्द्र के त्रायस्त्रिशक देव १८१४ उद्देशक २ ३८४ शक्रेन्द्र के त्रास्त्रिशक देव १८१६ ३७६ कषायभाव में सांपरायिकी क्रिया १७९१ उद्देशक ५ ३७७ योनि और वेदना ३८५ चमरेन्द्र का परिवार १७९३ १०१९ ३७८ भिक्षुप्रतिमा और आराधना १७९७ ३८६ बलींद्र का परिवार ... १८२५ ३८७ व्यन्तरेन्द्रों का परिवार १८३० उद्देशक ३ ३८८ ज्योतिषेन्द्र का परिवार १८३५ ३७६ देव की उल्लंघन शक्ति १८०० उद्देशक ६ ३८० देवों के मध्य में होकर निकलने ३८९ शक्रेन्द्र की सभा एवं ऋद्धि १८३९ की क्षमता १८०१ ३८१ अश्व की खु-खु ध्वनि और उद्देशक ७ से ३४ भाषा के भेद १८०६ | ३९० एकोरुक आदि अन्तरद्वीप १८४१ शतक ११ उद्देशक १ | उद्देशक ५ ३९१ उत्पल के जीव १८४३ | ३९५ नालिक के जीव उद्देशक २ उद्देशक ६ ३९२ शालूक के जीव | ३९६ पद्म के जीव १८७१ उद्देशक ३ उद्देशक ७ ३६३ पलास के जीव १८६७ | ३९७ कणिका के जीव १८७१ उद्देशक ४ उद्देशक ८ ३९४ कुंभिक के जीव १८६९ | ३९८ नलिन के जीव १८७२ १८०१ १८७० १८६६ For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ क्रमांक विषय पृष्ठ | क्रमांक विपय उद्देशक ९ उद्देशक ११ ३९९ राजर्षि शिव का वृत्तांत १८७४ | ४०४ सुदर्शन सेठ के काल विषयक उद्देशक १० प्रश्नोत्तर १९२३ ४०० लोक के द्रव्यादि भेद १८९६ | ४०५ महाबल चरित्र ४०१ लोक की विशालता . १९०६ उद्देशक १२ ४०२ अलोक की विशालता १६०६ ४०६ श्रमणोपासक ऋषिभद्र पुत्र की ४०३ आकाश के एक प्रदेश पर जीव की धर्मचर्चा १९६० प्रदेश नतंकी का दृष्टान्त १९११ - ४०७ पुद्गल परिव्राजक शतक १२ उद्देशक १ । | उद्देशक ६ ४०८ श्रमणोपासक शंख पुष्कली १९७१ ४१८ चन्द्रमा को राहु ग्रसता है ? २०६० उद्देशक २ ४१९ नित्य राहु पर्व पाहु २०६४ ४०९ जयन्ती श्रमणोपासिका १९८६ | ४२० चन्द्र सूर्य के भोग २०६७ • ४१० जयन्ती श्रमणोपासिका के प्रश्न १६८९ उद्देशक ७ . उद्देशक ३. ४२१ बकरियों के बाड़े का दृष्टान्त २०७० "४११ सात पृथ्वियां ४२२ जीवों का अनन्त जन्म-मरण २०७३ . १९९८ उद्देशक ४ उद्देशक ८ ४१२ परमाणु और स्कन्ध के विभाग २००० ४२३ देव का नाग आदि में उपपात २०८२ ४१३ पुद्गल परिवर्तन के भेद २०३१ उद्देशक ९ उद्देशक ५ ४२४ भन्यद्रव्यादि पांच प्रकार के देव २०८६ ४१४ पापकर्म के वर्णादि पर्याय २०४६ उद्देशक १० ४१५ विरति आदि आत्म-परिणाम २०५१ ४२५ आत्मा के आठ भेद और ४१६ अवकाशान्तरादि में वर्णादि २०५३ उनका सम्बन्ध . २१०५ ४१७ कर्म परिणाम से जीव के ४२६ आत्मा का ज्ञान अज्ञान और दर्शन २११५ विविध रूप २०५९ | ४२७.पृथ्वी आत्मरूप है ? २११७ | ४२८ परमाणु आदि की सद्रूपता २१२० For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल दो प्रहर . अस्वाध्याय निम्नलिखित बत्तीस कारण टालकर स्वाध्याय करना चाहिये। आकाश सम्बन्धी १० अस्वाध्याय काल मर्यादा १. बड़ा तारा टूटे तो एक प्रहर २. दिशा-दाह * जब तक रहे ३. अकाल में मेघ गर्जना हो तो४. अकाल में बिजली चमके तो एक प्रहर ५. बिजली कड़के तो आठ प्रहर ६. शुक्ल पक्ष की १, २, ३ की रात प्रहर रात्रि तक ७. आकाश में यक्ष का चिह्न हो जब तक दिखाई दे ८-६. काली और सफेद धूअर जब तक रहे १०. आकाश मंडल धूलि से आच्छादित हो- जब तक रहे औदारिक सम्बन्धी १० अस्वाध्याय ११-१३. हड्डी, रक्त और मांस, ये तिर्यंच के ६० हाथ के भीतर हो। मनुष्य के हो, तो १०० हाथ के भीतर हो। मनुष्य की हड्डी यदि जली या धुली न हो, तो १२ वर्ष तक। १४. अशुचि की दुर्गंध आवे या दिखाई दे तब तक १५. श्मशान भूमि सौ हाथ से कम दूर हो, तो।। * आकाश में किसी दिशा में नगर जलने या अग्नि की लपटें उठने जैसा दिखाई दे और प्रकाश हो तथा नीचे अंधकार हो, वह दिशा-दाह है। For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. चन्द्र ग्रहण खंड ग्रहण में ८ प्रहर, पूर्ण हो तो १२ प्रहर (चन्द्र ग्रहण जिस रात्रि में लगा हो उस रात्रि के प्रारम्भ से ही अस्वाध्याय गिनना चाहिये।) १७. सूर्य ग्रहण खंड ग्रहण में १२ प्रहर, पूर्ण हो तो १६ प्रहर (सूर्य ग्रहण जिस दिन में कभी भी लगे उस दिन के प्रारंभ से ही उसका अस्वाध्याय गिनना चाहिये।) १८. राजा का अवसान होने पर, जब तक नया राजा घोषित न हो १६. युद्ध स्थान के निकट जब तक युद्ध चले २०. उपाश्रय में पंचेन्द्रिय का शव पड़ा हो, जब तक पड़ा रहे (सीमा तिर्यंच पंचेन्द्रिय के लिए ६० हाथ, मनुष्य के लिए १०० हाथ। उपाश्रय बड़ा होने पर इतनी सीमा के बाद उपाश्रय में भी अस्वाध्याय नहीं होता। उपाश्रय की सीमा के बाहर हो तो यदि दुर्गन्ध न आवे या दिखाई न देवे तो अस्वाध्याय नहीं होता।) २१-२४. आषाढ़, आश्विन, कार्तिक और चैत्र की पूर्णिमा दिन रात .. २५-२८. इन पूर्णिमाओं के बाद की प्रतिपदा- दिन रात २६-३२. प्रातः, मध्याह्न, संध्या और अर्द्ध रात्रिइन चार सन्धिकालों में १-१ मुहूर्त उपरोक्त अस्वाध्याय को टालकर स्वाध्याय करना चाहिए। खुले मुंह नहीं बोलना तथा सामायिक, पौषध में दीपक के उजाले में नहीं वांचना चाहिए। नोट - नक्षत्र २८ होते हैं उनमें से आर्द्रा नक्षत्र से स्वाति नक्षत्र तक नौ नक्षत्र वर्षा के गिने गये हैं। इनमें होने वाली मेघ की गर्जना और बिजली का चमकना स्वाभाविक है। अतः इसका अस्वाध्याय नहीं गिना गया है। For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अ० भा० सुधर्म जैन सं० रक्षक संघ, जोधपुर आगम बत्तीसी प्रकाशन योजना के अन्तर्गत प्रकाशित आगम अंग सूत्र क्रं. नाम आगम मूल्य १. आचारांग सूत्र भाग-१-२ ५५-०० २. सूयगडांग सूत्र भाग-१,२ ६०-०० ३. स्थानांग सूत्र भाग-१, २ ६०-०० ४. समवायांग सूत्र २५-०० ५. भगवती सूत्र भाग १-७ ३००-०० ६. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र भाग-१, २ ८०-०० ७. उपासकदशांग सूत्र ८. अन्तकृतदशा सूत्र ६. अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र १५-०० १०. प्रश्नव्याकरण सूत्र ३५-०० ११. विपाक सूत्र ३०-०० २०-०० २५-०० २५-०० २५-०० ८०-०० १६०-०० ५०-०० २०-०० २०-०० उपांग सूत्र १. उववाइय सुत्त २. राजप्रश्नीय सूत्र ३. जीवाजीवाभिगम सूत्र भाग-१,२ ४. प्रज्ञापना सूत्र भाग-१,२,३,४ ५. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ६-७. चन्द्रप्रज्ञप्ति-सूर्यप्रज्ञप्ति ८-१२. निरयावलिका (कल्पिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा) मूल सूत्र १. दशवैकालिक सूत्र २. उत्तराध्ययन सूत्र भाग-१, २ ३. नंदी सूत्र ४. अनुयोगद्वार सूत्र छेद सूत्र १-३. त्रीणिछेदसुत्ताणि सूत्र (दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार) ४. निशीथ सूत्र १. आवश्यक सूत्र ३०-०० ८०-०० २५-०० ५०-०० ५०-०० ५०-०० ३०-०० For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ के अन्य प्रकाशन मूल्य क्रं. क्रं. नाम १. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग १ २. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग २ ३. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग ३ ४. अंगपविट्ठसुत्ताणि संयुक्त ५. अनंगपविट्ठसुत्ताणि भाग १ ६. अनंगपविट्ठसुत्ताणि भाग २ ७. अनंगपविट्ठसुत्ताणि संयुक्त ८. अनुत्तरोववाइय सूत्र ६. आयारो १०. सूयगड ११. उत्तरज्झयणाणि(गुटका) १२. दसवेयालियै सुत्तं (गुटका) १३. गंदी सुत्तं (गुटका ) १४. चउछेयसुत्ताई १५. आचारांग सूत्र भाग १ १६. अंतगडदसा सूत्र १७-१६. उत्तराध्ययनसूत्र भाग १,२,३ २०. आवश्यक सूत्र (सार्थ) २१. दशवैकालिक सूत्र २२. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग १ २३. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग २ १४- ०० ४०-०० ३०-०० 50-00 ३५-०० ४०-०० ८०-०० ३-५० ८-00 ६-०० 90-00 ५-०० अप्राप्य १५-०० २५-०० 90-00 ४५ - ०० १०-०० १०-०० १०-०० 90-00 नाम २४. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ३ २५. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ४ २६. जैन सिद्धांत थोक संग्रह संयुक्त २७. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग १ २८. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग २ २६. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग ३ ३० - ३२. तीर्थंकर चरित्र भाग १,२,३ ३३. मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग १ ३५-०० ३४. मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग २ ३०-०० ३५-३७. समर्थ समाधान भाग १, २, ३ ५७-०० ३८. सम्यक्त्व विमर्श १५-०० ३६. आत्म साधना संग्रह २०-०० ४०. आत्म शुद्धि का मूल तत्वत्रयी २०-०० ४१. नवतत्वों का स्वरूप १३-०० ४२. अगार-धर्म 90-00 १०-०० १०-०० ४५-०० १२-०० 95-00 २२-०० ४३. Saarth Saamaayik Sootra ४४. तत्त्व-पृच्छा ४५. तेतली - 1 - पुत्र ४६. शिविर व्याख्यान ४७. जैन स्वाध्याय माला ४८. सुधर्म स्तवन संग्रह भाग १ मूल्य १०-०० १०-०० १५-०० For Personal & Private Use Only ८-०० १०-०० १०-०० १४० -०० Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 若若若若若若若若若若若若若若若若若若器諾若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若答若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若若於光治於 मूल्य ३-०० ४-०० १-०० २-०० १५-०० ०-५० ३-०० १-०० २-०० ३-०० १-०० १-०० नाम ४६. सुधर्म स्तवन संग्रह भाग २ ५०. सुधर्म चरित्र संग्रह ५१. लोकाशाह मत समर्थन ५२. जिनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ५३. बड़ी साधु वंदना ५४. तीर्थंकर पद प्राप्ति के उपाय ५५. स्वाध्याय सुधा ५६. आनुपूर्वी ५७. सुखविपाक सूत्र ५८. भक्तामर स्तोत्र ५६. जैन स्तुति ६०. सिद्ध स्तुति ६१. संसार तरणिका ६२. आलोचना पंचक ६३. विनयचन्द चौबीसी ६४. भवनाशिनी भावना ६५. स्तवन तरंगिणी ६६. सामायिक सूत्र ६७. सार्थ सामायिक सूत्र ६८. प्रतिक्रमण सूत्र ६६. जैन सिद्धांत परिचय ७०. जैन सिद्धांत प्रवेशिका ७१. जैन सिद्धांत प्रथमा मूल्य | क्रं. नाम १५-०० | ७२. जैन सिद्धांत कोविद १०-०० / ७३. जैन सिद्धांत प्रवीण १०-०० | ७४. तीर्थंकरों का लेखा ७५. जीव-धड़ा १०-०० ७६. १०२ बोल का बासठिया -५-०० | ७७. लघुदण्डक ७८. महादण्डक १-०० ७६. तेतीस बोल २-०० ८०. गुणस्थान स्वरूप २-०० | ८१. गति-आगति ६-०० ८२. कर्म-प्रकृति ३-०० ८३. समिति-गुप्ति ७-०० ८४. समकित के ६७ बोल २-०० | ८५. पच्चीस बोल १-०० ८६. नव-तत्त्व २-०० ८७. सामायिक संस्कार बोध ५-०० ८८. मुखवस्त्रिका सिद्धि १-०० ८९. विद्युत् सचित्त तेऊकाय है ३-०० ६०. धर्म का प्राण यतना ३-०० ६१. सामण्ण सहिधम्मो ३-०० ६२. मंगल प्रभातिका ४-०० ६३. कुगुरु गुर्वाभास स्वरूप ४-०० २-०० २-०० ३-०० ६-०० ४-०० ३-०० ३-०० २-०० अप्राप्य १.२५ ४-०० ४-०० For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स गणधर भगवत्सुधर्मस्वामि प्रणीत भगवती सूत्र शतक ९ १ जंबुद्दीवे २ जोइस ३-३० अंतरदीवा ३१ असोच्च ३२ गंगेय । ३३ कुंडग्गामे ३४ पुरिसे णवमम्मि संतंमि चोत्तीसा || .. भावार्थ- नौवें शतक में चौतीस उद्देशक हैं । यथा - जम्बूद्वीप के विषय में प्रथम उद्देशक है । ज्योतिषी देवों के सम्बन्ध में दूसरा उद्देशक है । तीसरे से तीसवें उद्देशक तक अट्ठाईस उद्देशकों में अन्तद्वीपों का वर्णन है । इकत्तीसवें उद्देशक में 'असोच्चा केवली' का वर्णन है । बत्तीसवें उद्देशक में गांगेय अनगार के प्रश्न हैं । तेतीसवां उद्देशक ब्राह्मणकुण्ड ग्राम विषयक है। चौतीसवें उद्देशक में पुरुषघातक पुरुष आदि का वर्णन है । विवेचन - उपरोक्त संग्रह - गाथा में नौवें शतक में प्ररूपित ३४ उद्देशक का नाम निर्देश किया गया है । तीसरे उद्देशक से तीसवें तक अट्ठाईस उद्देशक, अट्ठाईस अन्तद्वीपों के मनुष्यों के विषय में है । इसलिए तीसरे से लगाकर तीसवें तक के उद्देशक का वर्णन एक साथ ही हुआ है । For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक उद्देशक १ जम्बूद्वीप २ प्रश्न - तेणं कालेणं तेणं समर्पणं मिहिला णामं णयरी होत्था । वण्णओ | माणिभद्दे चेइए । वण्णओ । सामी समोसदे, परिसा णिग्गया, जाव भगवं गोयमे पज्जुवासमाणे एवं वयासीकहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे, किंसंठिए णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे ? २ उत्तर - एवं जंबुद्दीवपण्णत्ती भाणियव्वा, जाव एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे चोदस सलिला सयसहस्सा छप्पण्णं च सहस्सा भवतीति मक्खाया । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति || इति णवमस पढमो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ - किस ठिए- किस आकार में, सपुब्वावरेण - पूर्व और पश्चिम, सलिला नदी । भावार्थ - २ प्रश्न - उस काल उस समय में मिथिला नाम की नगरी थी । वर्णन | वहां मणिभद्र नामका चैत्य ( उद्यान ) था । वर्णन । वहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे । परिषद् वन्दन के लिये निकली और धर्मोपदेश सुनकर वापिस लौट गई, यावत् पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछाहे भगवन् ! जम्बूद्वीप कहां है ? हे भगवन् ! जम्बूद्वीप का आकार कैसा है ? उत्तर - हे गौतम! इस विषय में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में कहे अनुसार सारा वर्णन जानना चाहिये, यावत् इस जम्बूद्वीप में पूर्व और पश्चिम चौदह लाख छप्पन हजार नदियां हैं-वहां तक कहना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ९ उ. २ जम्बूद्वीपादि में चन्द्रमा हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते है । १५७३ विवेचन - जम्बूद्वीप के वर्णन के विषय में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति मूत्र का अतिदेश किया गया है । जम्बूद्वीप स द्वीपों के मध्य में है । यह सब से छोटा द्वीप है और इसका आकार 'तेल अपूप' (तेल का मालपुआ ) रथचक्र और पुष्करकणिका तथा पूर्णचन्द्र के समान गोल है । यह एक लाख योजन लम्बा और चौड़ा है, यावत् इसमें चौदह लाख छप्पन हजार नदियाँ पूर्व समुद्र और पश्चिम समुद्र में जाकर गिरती हैं । इत्यादि सारा वर्णन जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र के अनुसार जानना चाहिये । ॥ इति नौवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण || शतक र उद्देशक २ जम्बूद्वीपादि में चन्द्रमा १ प्रश्न - रायगिहे जाव एवं वयासी - जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे केवड्या चंद्रा पभासिं वा, पभासेंति वा, पभासिस्संति वा ? १ उत्तर - एवं जहा जीवाभिगमे, जाव - "एगं च संयसहस्सं तेत्तीस खलु भवे सहस्साई । णव य सया पण्णासा तारागणकोडा - कोडी " । सोभं सोमिंसु, सोभिंति, सोभिस्संति । २ प्रश्न - लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइया चन्दा पभासिंसु वा, पभासिंति वा, पभासिस्संति वा ? For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७४ भगवती सूत्र-श. ९ उ. २ जम्बूद्वीपादि में चन्द्रमा २ उत्तर-एवं जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ। धायइसंडे, कालोदे, पुक्खरवरे, अम्भितरपुक्खरधे, मणुस्सखेत्ते-एएसु सट्वेसु जहा जीवाभिगमे, जाव-“एगससीपरिवारो तारागणकोडिकोडीगं"। ३ प्रश्न-पुक्खरोदे णं भंते ! समुद्दे केवइया चंदा पभासिंसु वा ? . ३ उत्तर-एवं सब्वेसु दीव-समुद्देसु जोइसियाणं भाणियव्वं, जाव सयंभूरमणे, जाव सोभं सोभिंसु वा, सोभंति वा, सोभिस्संति वा। * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति के ॥ णवमसए वीओ उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-केवइया-कितने, पभासिसु-प्रकाश किया, सोमं-सोभा को, ससी-चन्द्रमा, पुक्खरोदे-पुष्करोद (पुष्कर समुद्र)।। भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में कितने चन्द्रमाओं ने प्रकाश किया, प्रकाश करते है और प्रकाश करेंगे? १ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के दूसरे उद्देशक में कहा है, उसी प्रकार जानना चाहिये । यावत् 'एक लाख तेतीस हजार नौ सौ पचास कोडाकोडी ताराओं के समूह शोभित हुए, शोभित होते हैं और शोभित होंगे-यहां तक जानना चाहिये। २ प्रश्न-हे भगवन् ! लवण समुद्र में कितने चन्द्रमाओं ने प्रकाश किया; For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ९ उ. २ जम्बूद्वीपादि में चन्द्रमा प्रकाश करते हैं और प्रकाश करेंगे ? २ उत्तर - हे गौतम ! जिस प्रकार जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के दूसरे उद्देशक में कहा है, उसी प्रकार ताराओं के वर्णन तक जानना चाहिये । धातकीखण्ड, कालोदधि, पुष्करवर द्वीप, आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध और मनुष्य क्षेत्र, इन सब में जीवाभिगम सूत्र के अनुसार जानना चाहिये । यावत् 'एक चन्द्र का परिवार यावत् कोड़ाकोडी तारागण हैं' - - वहां तक जानना चाहिये । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! पुष्करोद समुद्र में कितने चन्द्रमाओं ने प्रकाश किया, प्रकाश करते है और प्रकाश करेंगे ? १५७५ ३ उत्तर - हे गौतम! जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के दूसरे उद्देशक में सब द्वीप और समुद्रों में ज्योतिषी देवों का जो वर्णन कहा है, उसी प्रकार यावत् 'स्वयम्भूरमण समुद्र में यावत् शोभित हुए, शोभते हैं और शोभंगे ।' वहाँ तक जानना चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन – जम्बूद्वीप, लवण समुद्र, घातकीखण्ड द्वीप, कालोद समुद्र और पुष्करवर द्वीप आदि सभी द्वीप समुद्रों में चन्द, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा के विषय में प्रश्न किये गये हैं । उत्तर में जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के दूसरे उद्देशक का अतिदेश किया गया है । ढाई द्वीप ( जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड द्वीप और आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध द्वीप) और दो समुद्र (लवण समुद्र और कालोद समुद्र ) परिमाण मनुष्य क्षेत्र में चन्द्र सूर्य आदि जो ज्योतिषी देव हैं, वे सब चर हैं। मनुष्य क्षेत्र के बाहर के सब द्वीप समुद्रों में चन्द्र, सूर्य आदि ज्योतिषी देव हैं, वे सब अचर ( स्थिर ) हैं । इनकी संख्या आदि का सभी वर्णन जीवाभिगम सूत्र से जान लेना चाहिये । ॥ इति नौवें शतक का दूसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक उद्देशक ३ से ३० अन्तीपक मनुष्य १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-कहि णं भंते ! दाहि. णिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगोरुयदीवे णामं दीवे पण्णते ? ___ १ उत्तर-गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपब्वयम्स पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं उत्तरपुरस्थिमेणं तिण्णि जोयणसयाई ओगाहित्ता एस्थ णं दाहिणिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगोरुयदीवे णामं दीवे पण्णत्ते । गोयमा ! तिणणि जोयणसयाई आयाम-विक्खंभेणं णवएगूणवण्णे जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्ते । से णं एगाए परमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सबओ समंता संपरिक्खिते, दोण्ह वि पमाणं वण्णओ य एवं एएणं कमेणं एवं जहाजीवाभिगमे जाव 'सुद्धदंतदीवे,' जाव 'देवलोगपरिग्गहा णं ते मणुया पण्णत्ता' समणाउसो ! एवं अट्ठावीसपि अंतरदीवा सरणं सएणं आयाम-विक्खंभेणं भाणियव्वा, णवरं दीवे दीवे उद्देसओ, एवं सब्बे वि अट्ठावीसं उद्देसगा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । ॥ इति णवमसयस्स तीसइमो उद्देसो समत्तो ॥ For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवती मूत्र-श. ९ उ. ३ स ३० अन्तहीपक मनुष्य १५७७ कठिन शब्दार्थ-दाहिणिल्लाणं- दक्षिण दिगा के, चरिमंताओ - अंतिम किनारे मे. उत्तरपुरत्यिमेणं-उत्तर पूर्व (ईशान कोन में), ओगाहित्ता--जाने पर, एगणवणेऊनपचास, कित्रिविसेसू गे---किचित् कम, परिक्खेयेणं--परिक्षेप ( परिधि), सव्वओ समंताचारों ओर, गंपरिक्खत्ते-लिपटा हुआ (घिरा हुआ), सएणं-अपने। भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में यावत् गौतमस्वामी ने इस प्रकार पूछा-हे भगवन् ! दक्षिण दिशा का ‘एकोरुक' मनुष्यों का ‘एकोरुक' नामक द्वीप कहां हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! जम्बूद्वीप नाम के द्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण दिशा में चुल्लहिमवन्त नामक वर्षधर पर्वत के पूर्व के चरमान्त (किनारे) से ईशान कोण में तीन सौ योजन लवण समुद्र में जाने पर वहाँ दक्षिण दिशा के . ‘एकोरुक' मनुष्यों का ‘एकोरुक' नामक द्वीप है। हे गौतम ! उस द्वीप की लम्बाई चौड़ाई तीन सौ योजन है और उसका परिक्षेप (परिधि) नव सौ उनचास योजन से कुछ कम है । वह द्वीप एक पनवर वेदिका और एकवन खण्ड द्वारा चारों तरह से वेष्टित है। इन दोनों का प्रमाग और वर्णन जीवाभिगम सूत्र की तीसरो प्रतिपत्ति के पहले उद्देशक के अनुसार जानना चाहिये । इसी क्रम से यावत् शुद्धदन्त द्वीप तक का वर्णन वहां से जान लेना चाहिये । 'इन द्वीपों के मनुष्य मरकर देव गति में उत्पन्न होते हैं'-यहां तक का वर्णन जानना चाहिये। इस प्रकार इन अट्ठाईस अन्तरद्वीपों की अपनी अपनी लम्बाई चौड़ाई भी जान लेनी चाहिये । परन्तु यहां एक एक द्वीप के विषय में एक एक उद्देशक कहना चाहिये । इस प्रकार इन अट्ठाईस अन्तरद्वीपों के अट्ठाईस उद्देशक होते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-लवण समुद्र के भीतर होने से इनको ‘अन्तरद्वीप' कहते हैं। उनमें रहने वाले मनुष्यों को 'अन्तरद्वीपक' कहते हैं। जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र और हैमवत क्षेत्र की मर्यादा करने वाला 'चुल्लहिमवान्' पर्वत है । वह पर्वत पूर्व और पश्चिम में लवणसमुद्र को स्पर्श करता है । उस पर्वत के पूर्व और पश्चिम के चरमान्त से चारों विदिशाओं(ईशान, For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७८ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३ से ३० अन्तर्दीपक मनुष्य आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य) में लवण समुद्र में प्रत्येक विदिशा में तीन तीन सौ योजन जाने पर प्रत्येक दिशा में एकोरुक आदि एक एक द्वीप आता है। वे द्वीप गोल हैं । उनकी लम्बाई चौड़ाई तीन तीन सौ योजन की है। परिधि प्रत्येक की ९४९ योजन से कुछ कम है । इन द्वीपों से चार चार सौ योजन लवण समुद्र में जाने पर क्रमशः पाँचवाँ, छठा, सातवां आठवां, द्वीप आते हैं । इनकी लम्बाई चौड़ाई चार चार सौ योजन की है। ये भी गोल हैं। इनकी प्रत्येक की परिधि १२६५ योजन से कुछ कम है । इसी प्रकार इनसे आगे क्रमशः पांच सौ, छह सौ, सात सो, आठ सौ, नवसौ, योजन जाने पर क्रमशः चार चार द्वीप आते जाते हैं। उनकी लम्बाई चौड़ाई पांचसौ से लेकर नवसौ योजन तक क्रमशः जाननी चाहिये। सभी गोल हैं। तिगुनी से कुछ अधिक परिधि है। इसी प्रकार चल्लहिमवान् पर्वत की चारों विदिशाओं में अट्ठाईस अन्तरद्वीप हैं। जिस प्रकार चुल्लहिमवान् पर्वत के चारों विदिशाओं में अट्ठाईस अन्तरद्वीप कहे गये हैं । उसी प्रकार शिखरी पर्वत की चारों विदिशाओं में भी अट्ठाईस अन्तरद्वीप हैं । जिनका वर्णन दसवें शतक के ७ वें उद्देशक से लेकर ३४ वें उद्देशक तक २८ उद्देशकों में किया गया है। उनके नाम आदि सभी समान हैं। जीवाभिगम और प्रज्ञापना आदि सूत्रों की टीका में चुल्लहिमवान् और शिखरी पर्वत की चारों विदिशाओं में चार चार दाढ़ाएं वतलाई गई हैं और उन दाढ़ाओं पर अन्तरद्वीपों का होना बतलाया गया है। किंतु यह बात सूत्र के मूलपाठ से मिलती नहीं है, क्योंकि , इन दोनों पर्वतों की लम्बाई आदि जो बतलाई गई है, वह पर्वत की सीमा तक ही आई है . उसमें दाढ़ाओं की लम्बाई आदि नहीं वतलाई गई । यदि इन पर्वतों की दाढ़ाएँ होती, तो उन पर्वतों की हद लवण समुद्र में भी बतलाई जाती। लवण समुद्र में भी दाढ़ाओं का वर्णन नहीं है । इसी प्रकार यहाँ भगवती सूत्र के मूलपाठ में तथा टीका में भी दाढ़ाओं का वर्णन नहीं है । ये द्वीप विदिशाओं में टेढ़े टेढ़े आये हुए हैं, इसलिये दाढ़ाओं की कल्पना करली गई मालूम होती है । सूत्र का वर्णन देखने से दाढ़ाएँ किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होती। ॥ इति नौवें शतक के तीन से तीस तक के उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६ उद्देशक ३१ असोच्चा केवली १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा, केवलिसावगस्म वा, केवलिसावियाए वा, केवलिउवासगस्स वा, केवलिउवासियाए वा, तप्पक्खियस्स वा, तप्पक्खियसावगस्स वा, तप्पक्खियसावियाए वा, तप्पविखयउवासगरस वा, तप्पक्खियग्वासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए ? १ उत्तर-गोयमा ! असोचा णं केवलिस्स वा जाव तप्पविखय. उवासियाए वा अत्थेगइए केवलिपण्णतं धम्मं लभेजा सवणयाए, अत्थेगइए केवलिपण्णत्तं धम्मं णो लभेजा सवणयाए । ____प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'असोचा णं जाव णो लभेजा सवणयाए ? - उत्तर-गोयमा ! जस्स णं · णाणोवरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोचा केवलिस्स वा, जाव तप्पविखयउवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज सवणयाए; जस्स णं णाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ से णं असोचा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केलिपण्णत्तं धम्म णो लभेज सवणयाए । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुचइ-तं चेव For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८० भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३१ असोच्चा केवली जाव ‘णो लभेज सवणयाए'। कठिन शब्दार्थ--असोच्चा--अश्रुत्वा (किसी के पास सुने बिना ही), तप्पविया याए-उसके पक्षवाले से, लभेज्जा प्राप्त होता है, सवणयाए-सुनने के लिए, आयगइए-किसी जीव को, खओवसमे-क्षयोपशम, कडे-किया हो। भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने इस कार पूछा-"हे भगवन् ! केवली, केवली के श्रावक, केवली को श्राविका, केवली के उपासक, केवली की उपासिका, केवलीपाक्षिक (स्वयं बुद्ध), केवलीपाक्षिक के श्रावक, केवलिपाक्षिक की श्राविका, केवलिपाक्षिक के उपासक, केवलिपाक्षिक की उपासिका, इनमें से किसी के पास बिना सुने ही किसी जीव को केवलिप्ररूपित धर्म श्रवण का लाभ होता है ? १ उत्तर-हे गौतम ! केवली यावत् केवलीपाक्षिक की उपासिका (इन दस) के पास सुने बिना ही किसी जीव को केवलिप्ररूपित धर्मश्रवण का लाभ होता है (धर्म का बोध होता है) और किसी जीव को नहीं होता। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा किस कारण कहा गया कि-किसी के पास सुने बिना भी किसी जीव को केवलिप्ररूपित धर्म का बोध होता है और किसी को नहीं होता ? उत्तर-हे गौतम ! जिस जीव के ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम किया हुआ है, उसको केवली यावत् केवलिपाक्षिक उपासिका-इनमें से किसी के पास सुने बिना ही केवलिप्ररूपित धर्म श्रवण का लाभ होता है और जिस जीव ने ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, उसको केवली यावत् केवलिपाक्षिक की उपासिका के पास सुने बिना केवलिप्ररूपित धर्म श्रवण का लाभ नहीं होता। हे गौतम ! इस कारण ऐसा कहा कि 'यावत् किसी को धर्म श्रवण का लाभ होता है और किसी को नहीं होता।' २ प्रश्न-असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-दा. ९ उ. ३१ अमोच्चा केवली १५८१ उवासियाए वा केवलं बोहिं बुझेजा ? २ उत्तर-गोयमा ! असोचा णं केवलिस्स वा जाव अत्थेगइए केवलं बोहिं बुझेजा, अत्थेगइए केवलं वोहिं णो बुज्झेजा। प्रश्न-से केणटेणं भंते ! जाव णो बुज्झेजा ? उत्तर-गोयमा ! जस्स णं दरिसणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोचा केवलिस्स वा जाव केवलं बोहिं बुझेजा; जस्स णं दरिसणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ मे णं असोचा केवलिस्स वा जाव केवलं बोहिं णो बुझेजा; मे तेणटेणं जाव णो बुज्झेजा। कठिन शब्दार्थ-बोहि बुझेज्जा-बोधि (समझ-सम्यग्दर्शन) प्राप्त करे-अनुभव करे। भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! केवली यावत् केवलिपाक्षिक की उपासिका से सुने बिना ही कोई जोव शुद्धबोधि (सम्यग्दर्शन) प्राप्त करता है ? ' २ उत्तर-हे गौतम ! केवली आदि के पास सुने बिना कुछ जीव शुद्धबोधि प्राप्त करते हैं और कितनेक जीव शुद्ध बोधि प्राप्त नहीं करते। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा किस कारण कहा गया कि यावत् शुद्धबोधि को प्राप्त नहीं करते ? उत्तर-हे गौतम ! जिस जीव ने दर्शनावरणीय (दर्शनमोहनीय) कर्म का क्षयोपशम किया है, उस जीव को केवली आदि के पास सुने बिना ही शुद्धबोधि का लाभ होता और जिस जीव ने दर्शनावरणीय का क्षयोपशम नहीं किया, उप्त जीव को केवली आदि के पास सुने बिना शुद्धबोधि का लाभ नहीं For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८२ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३१ असोग्चा केवली होता । इसलिये हे गौतम ! यावत् सुने बिना शुद्ध बोधि प्राप्त नहीं करते। ३ प्रश्न-असोचा णं भंते ! केलिस्स वा, जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्व। एजा ? ३ उत्तर-गोयमा ! असोचा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगइए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्बएज्जा; अत्यंगइए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं णो पव्वएजा। प्रश्न-से केणटेणं जाव णो पव्वएजा ? उत्तर-गोयमा ! जस्स णं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोचा केवलिस्स वा जाव केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वएजा; जस्स णं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ से णं असोचा केवलिस्स वा जाव मुंडे भवित्ता जाव णो पव्वएजा, से तेणटेणं गोयमा ! जाव णो पव्वएजा। . .. कठिन शब्दार्थ-मुंडे भवित्ता-मुंडित (दीक्षित) होकर, अगाराओ अणगारियंगृहस्थवास से अनगार (साधु) पन को, पधएज्जा-प्रव्रज्या स्वीकार करे, धम्मंतराइयाणधर्म में वाधक होने वाले । ... .. भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! केवली आदि के पास सुने बिना क्या For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- भगवती मूत्र-ग. ९ उ: ३१ असोच्चा केवली . १५८३ कोई जीव अगारवास छोड़कर और मुण्डित होकर अनगारिकपन (प्रव्रज्या) स्वीकार करता है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! कोई जीव स्वीकार करता है और कोई स्वीकार नहीं करता? प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? - उत्तर-हे गौतम ! जिस जीव के धर्मान्तरायिक कर्म का अर्थात् चारित्र धर्म में अन्तरायभूत चारित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम किया हुआ है, वह जीव केवली आदि के पास सुने बिना ही मुंडित होकर अनगारपने को स्वीकार करता है, परन्तु जिस जीव के धर्मान्तरायिक कर्मों का क्षयोपशम नहीं हुआ, वह प्रव्रज्या स्वीकार नहीं करता, इसलिए पूर्वोक्त कधन है। ___४ प्रश्न-असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा केवलं बंभचेरवास आवसेजा ? ४ उत्तर-गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगइए केवलं वंभचेरवास आवसेज्जा, अत्थेगइए केवलं बंभचेरवास णो आवसेज्जा ? प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'जाव णो आवसेन्जा' ? उत्तर-गोयमा ! जस्स णं चरित्तावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिम्स वा जाव केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा; जस्स णं चरित्तावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव णो आवसेज्जा, For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८४ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३१ असोच्चा केवली से तेणटेणं जाव णो आवसेज्जा । भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! केवली आदि के पास सुने बिना क्या कोई जीव शुद्ध ब्रह्मचर्यवास को धारण करता है ? ४ उत्तर-हे गौतम ! कोई जीव शुद्ध ब्रह्मचर्यवास को धारण करता है और कोई नहीं करता। प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? उत्तर-हे गौतम ! जिस जीव ने चारित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम किया है, वह केवली आदि के पास सुने बिना ही शुद्ध ब्रह्मचर्यवास को धारण करता है, परन्तु जिसने चारित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, वह जीव यावत् 'ब्रह्मचर्यवास को धारण नहीं करता,' इसलिये पूर्वोक्त प्रकार से कहा गया है। .५ प्रश्न-असोजा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव केवलेणं संजमेणं संजमेजा ? ५ उत्तर-गोयमा ! असोचा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगइए केवलेणं संजमेणं संजमेजा; अत्यंगइए केवलेणं संजमेणं णो संजमेजा। प्रश्न-से केणटेणं जाव णो संजमेजा ? - उत्तर-गोयमा ! जस्स णं जयणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोचा णं केवलिस्म वा जाव केवलेणं संजमेणं For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ९ उ. ३१ अमोच्चा केवली संजमेजा; जस्स णं जयणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ से णं असोचा केवलिस्स वा जाव णो संजमेजा; से तेणटेणं गोयमा ! जाव अत्थेगइए णो संजमेजा। कठिन शब्दार्थ-जयणावरणिज्जाणं-यतनावरणीय । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! केवली आदि के पास सुने बिना भी क्या कोई जीव, शुद्ध संयम द्वारा संयम-यतना करता है ? । ___५ उत्तर-हे गौतम ! कोई जीव करता है और कोई नहीं करता। प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? उत्तर-हे गौतम ! जिस जीव ने यतनावरणीय (वीर्यान्तराय) कर्म का क्षयोपशम किया है, वह केवली आदि किसी के पास सुने बिना भी शुद्ध संयम द्वारा संयम-यतना करता है और जिसने यतनावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, वह यावत् 'शुद्ध संयम द्वारा संयम-यतना नहीं करता। इसलिये हे गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से कहा है। ६ प्रश्न-असोच्चा णं भंते ! केवलिम्स वा जाव उवासियाए वा केवलेणं संवरेणं संवरेजा ? ६ उत्तर-गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव अत्थेगइए केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, अत्थेगइए केवलेणं जाव णो संवरेजा। प्रश्न-से केणटेणं जाव णो संवरेजा। उत्तर-गोयमा ! जस्स णं अज्झवसाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोचा केवलिस्स वा जाव केवलेणं For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३१ असोच्चा केवली संवरेणं संवरेज्जा; जस्स णं अज्झवसाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ से णं असोचा केवलिस्स वा जाव णो संवरेज्जा, से तेणद्वेणं जाव णो संवरेज्जा । कठिन शब्दार्थ - अज्झवसाणावरणिज्जाणं-अध्यवसानावरणीय ( भाव चारित्र के आवरक) । १५८६ भावार्थ - ६ प्रश्न - हे भगवन् ! केवली आदि के पास से धर्म श्रवण किये बिना ही क्या कोई जीव शुद्ध संवर द्वारा संवृत्त होता है (आश्रव निरोध करता है) ?. ६ उत्तर - हे गौतम ! कोई करता है और कोई नहीं भी करता । प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? उत्तर - हे गौतम! जिस जीव ने अध्यवसानावरणीय ( भाव चारित्रावरणीय) कर्म का क्षयोपशम किया है, वह यावत् सुने बिना भी शुद्ध संवर द्वारा आश्रव का निरोध करता है और जिस ने अध्यवसानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, वह शुद्ध संवर द्वारा आश्रव का निरोध नहीं करता । इसलिये हे गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से कहा है । ७ प्रश्न - असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव केवलं आभिणिवोहियणाणं उप्पाडेजा ? ७ उत्तर - गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेiइए केवलं आभिणिवोहियणाणं उप्पाडेजा, अत्थेगइए केवलं आभिणिबोहियणाणं णो उप्पाडेजा । प्रश्न-से केणट्टेणं जाव णो उप्पाडेजा ? उत्तर - गोयमा ! जस्स णं आभिणिबोहियणाणावरणिजाणं For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३१ असांच्चा केवली का ज्ञान कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोचा केवलिरस वा जाव केवलं आभिणिबोहियणाणं उप्पाडेजा; जस्स णं आभिणिवोहिय‘णाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ, से णं असोचा केवलिस्स वा, जाव केवलं आभिणिबोहियणाणं णो उप्पा. डेजा; से तेणटेणं जाव णो उप्पाडेजा।... कठिन शब्दार्थ उप्पाडेन्मा-उत्पन्न करे। भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! केवली आदि के पास से सुने बिना ही कोई जीव शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान उत्पन्न करता है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! कोई करता है और कोई नहीं करता। प्रश्न- हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? उत्तर-हे गौतम ! जिस जीव ने आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम किया है, वह यावत् सुने बिना ही आभिनिबोधिक ज्ञान उत्पन्न करता है और जिस जीव ने आमिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया वह यावत् आभिनिबोधिक ज्ञान उत्पन्न नहीं करता । इसलिये हे गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से कहा गया है। ८ प्रश्न-असोचा णं भंते ! केवलि० जाव केवलं सुयणाणं उप्पाडेज्जा ? • ८ उत्तर-एवं जहा आभिणिबोहियणाणस्स वत्तव्वया भणिया तहा सुयणाणस्स वि भाणियब्वा; गवरं सुयणाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे भाणियब्वे । एवं चेव केवलं ओहिणाणं भाणि For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८८ भगवती सूत्र-ग. ९ उ. ३ ? अमोन्ना केवली यवं, णवरं ओहिणाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे भाणियव्वे । एवं केवलं मणपजवणाणं उप्पाडेजा, णवरं मणपज्जवणाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे भाणियव्वे । ___ भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! केवली आदि के पास से सुने बिना ही कोई जीव शुद्ध भुतज्ञान उत्पन्न करता है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञान का कथन किया गया, उसी प्रकार शुद्ध श्रुतज्ञान, शुद्ध अवधिज्ञान और शुद्ध मनःपर्ययज्ञान के विषय में भी कहना चाहिये, परन्तु श्रुतज्ञान में श्रुत-ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम, अवधिज्ञान में अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम और मनःपर्यय ज्ञान में मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम कहना चाहिये। ९ प्रश्न-असोचा णं भंते ! केवलिस्म वा जाव तप्पविखय. उवासियाए वा केवलणाणं उप्पाडेज्जा ? ९ उत्तर-एवं चेव, णवरं केवलणाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए भाणियब्वे, सेसं तं चेव; से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइजाव केवलणाणं णो उप्पाडेज्जा । कठिन शब्दार्थ-खए-क्षय से । भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! केवली आदि के पास सुने बिना ही कोई जीव केवलज्ञान उत्पन्न करता है ? ९ उत्तर-हे. गौतम ! कोई करता है और कोई नहीं करता। प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? उत्तर-हे गौतम ! जिस जीव ने केवल ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय किया For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ९ उ. ३१ अमोच्चा केवली है, वह जीव केवलज्ञान उत्पन्न करता है और जिस जीव ने केवलज्ञानावरणीय कर्म का क्षय नहीं किया, वह केवलज्ञान उत्पन्न नहीं करता । इसलिये हे गौतम! पूर्वोक्त प्रकार से कहा गया है । १० प्रश्न - असोच्चा णं भंते! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए, केवलं बोहिं बुज्झेज्जा, केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वज्जा, केवलं भचेरवास आवसेज्जा, केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, केवलं आभिणिवोहियणाणं उप्पाडेज्जा; जाव केवलं मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा, केवलणाणं उप्पाडेज्जा ? १० उत्तर - गोयमा ! असोचा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेiइए केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए, अत्थे - गए केवलिपण्णत्तं धम्मं णो लभेज्जा सवणयाए; अत्थेगइए केवलं बोहिं बुज्झेज्जा, अत्थेगइए केवलं बोहिं णो बुज्झेजा; अत्येगइए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वज्जा, अत्थेगइए जाव णो पव्वज्जा; अत्थेगइए केवलं बंभचेरवास आवसेज्जा, अत्थे - गइए केवलं बंभचेरवासं णो आवसेज्जा अत्थेगइए केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, अत्थेगइए केवलेणं संजमेणं णो संजमेज्जा; एवं संवरेणं वि; अत्थेगइए केवलं आभिणिवोहियणाणं उप्पाडेजा; अत्थेगइए जाव णो उप्पाडेज्जाः एवं जाव मणपज्जवणाणं, अत्थे १५८९ For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.० भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३१ असोच्चा केवली गइए केवलणाणं उप्पाडेजा, अस्थगइए केवलणाणं णो उप्पाडेजा। प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-असोचा णं तं चेव जाव अत्थेगइए केवलणाणं णो उप्पाडेजा ? उत्तर-गोयमा ! जस्स णं णाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ, जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ, जस्स णं धमंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ, एवं चरित्तावरणिजाणं, जयणावरणिजाणं, अज्झवसाणावरणिजाणं, आभिणियोहियणाणावरणिजाणं, जाव मणपज्जवणाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ; जस्स णं केवलणाणावरणिज्जाणं जाव खए णो कडे भवइ से णं असोचा केवलिस्स वा जाव केवलिपण्णत्तं धम्मं णो लभेजा सवर्णयाए, केवलं बोहिं णो बुझेजा, जाव केवलणाणं णो उप्पाडेजा । जस्स णं णाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, जस्स णं दरिसणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, जस्स णं धम्मंतरा. इयाणं, एवं जाव जस्स णं केवलणाणावरणिजाणं कम्माणं खए कडे भवइ से णं असोचा केवलिस्स वा जाव केवलिपण्णत्तं धम्म लभेजा सवणयाए, केवलं बोहिं बुझेजा, जाव केवलणाणं उप्पाडेजा। भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! केवली यावत् केवलिपाक्षिक की उपा For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ९ उ. ३१ अमोच्चा केवली सिका, इन दस के पास केवली प्ररूपित धर्म सुने बिना भी क्या कोई जीव केवली प्ररूपित धर्म का श्रवण - बोध ( श्रुत सम्यक्त्व का अनुभव ) करता है, मुण्डित होकर अगारवास से अनगारवास को स्वीकार करता है, शुद्ध ब्रह्मचर्यवास धारण करता है, शुद्ध संयम द्वारा संयम-यतना करता है, शुद्ध संवर द्वारा आश्रव का निरोध करता है, शुद्ध आभिनिबोधिक ज्ञान उत्पन्न करता है, यावत् शुद्ध मनः पर्यय ज्ञान तथा केवलज्ञान उत्पन्न करता है ? १५९१ १० उत्तर - हे गौतम ! केवली आदि के पास से सुने बिना भी कोई जीव बोध प्राप्त करता है और कोई जीव नहीं करता । कोई जीव शुद्ध सम्यक्त्व का अनुभव करता है और कोई नहीं करता । कोई जीव मुण्डित होकर अगारवास से अनगारपन स्वीकार करता है और कोई करता । कोई जीव नहीं और कोई नहीं करता । कोई जीव शुद्ध ब्रह्मचर्य वास धारण करता है शुद्ध संयम द्वारा संयम-यतना करता है और कोई नहीं करता । कोई जीव नहीं करता । कोई शुद्ध संवर द्वारा आश्रव का निरोध करता है और कोई जीव शुद्ध आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान उत्पन्न करता है और कोई जीव नहीं करता । प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा कहने का कारण क्या है ? उत्तर - हे गौतम! ( १ ) जिस जीव ने ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया । ( २ ) दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (३) धर्मान्तकि कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (४) चारित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (५) यतनावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (६) अध्यसानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (७) आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, ( ८ से १० ) इसी प्रकार श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय और मन:पर्यय ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (११) केवल ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय नहीं किया, वे जीव केवलज्ञानी आदि के पास के लिप्ररूपित धर्म को सुने बिना धर्म का बोध प्राप्त नहीं करते, शुद्ध For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९२ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३१ असोच्चा-मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व का अनुभव नहीं करते, यावत् केवलज्ञान को उत्पन्न नहीं करते। जिन जीवों ने ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम किया है, दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम किया है, धर्मान्तरायिक कर्म का क्षयोपशम किया है, यावत् केवलज्ञानावरणीय कर्म का क्षय किया है, वे जीव, केवली आदि के पास सुने बिना ही धर्म का बोध प्राप्त करते हैं, शुद्ध सम्यक्त्व का अनुभव करते हैं यावत् केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं। विवेचन-केवलज्ञान, केवलदर्शन के धारक को केवली कहते हैं । जिसने स्वयं केवलज्ञानी से पूछा है, अथवा उनके समीप सुना है, उसे–'केवलिश्रावक' और 'केवलिश्राविका' कहते हैं । केवलज्ञानी की उपासना करते हुए, केवली के द्वारा दुसरे को कहा जाने पर जिसने सुना हो उसे-'केवलिउपासक' और 'केवलिउपासिका' कहते हैं । केवलिपाक्षिक का अर्थ है-'स्वयं बुद्ध' । उसके श्रावक, श्राविका, उपासक, उपासिका क्रमशः केवलि-पाक्षिक श्रावक, केवलिपाक्षिक श्राविका, केवलिपाक्षिक उपासक और केवलिपाक्षिक उपासिका कहते हैं। 'असोच्चा' का अर्थ हैं-'धर्मफलादि प्रतिपादक वचन सुने बिना ही पूर्वकृत धर्मानुराग से ।' इन दस के पास केवलि प्ररूपित धर्मफलादि प्रतिपादक वचन सुने बिना ही कोई जीव धर्म का बोध x प्राप्त करता है और कोई जीव नहीं करता। इसी प्रकार शुद्ध सम्यक्त्व, मुण्डित होकर अगारवास से अनगारपन, शुद्ध ब्रह्मचर्यचास, शुद्ध संयम द्वारा संयमयतना, शुद्ध संवर द्वारा आश्रवनिरोध, आभिनिवोधिक ज्ञान यावत् केवलज्ञान को तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम और क्षय से प्राप्त करता हैं और जिस जीव के तदावरणीय कर्मों का क्षयोपशम और क्षय नहीं हुआ, वह जीव धर्म-बोध यावत् केवलज्ञान प्राप्त नहीं करता। असोच्चा-मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि ११-तस्स णं भंते ! छटुंटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं xमल पाठ में 'सवणयाए' शब्द है, जिसका सीधा अर्थ होता है 'सुनना' किन्तु यहाँ श्रवण का अर्थ श्रुतज्ञानरूप बोध (धर्म का बोध) लेना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३१ अमोच्चा मिय्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि १५१३ उड्ढे वाहाओ पंगिन्झिय पगिझिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्म पगइभद्दयाए, पगइउवसंतयाए, पगइपयणुकोह-माणमाया-लोभयाए, मिउमद्दवसंपण्णयाए, अल्लीणयाए, भद्दयाए, विणीययाए, अण्णया कयाइ मुभेणं अज्झवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, लेस्साहिं विमुन्झमाणीहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहा-ऽपोह-मग्गणगवेसणं करेमाणस्स विभंगे णामं अण्णाणे समुप्पजड़, से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पण्णेणं जहण्णेणं अंगुलम्म.असंखेजड़भागं, उबकोमेणं असंखेजाई जोयणसहस्साई जाणइ पासइ; से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पण्णेणं जीवे वि जाणइ, अजीवे वि जाणइ, पासंडत्थे, सारंभे, सपरिग्गहे, संकिलिस्समाणे वि जाणइ, विसुज्झमाणे वि जाणइ, से णं पुवामेव सम्मत्तं पडिवज्जइ, सम्मत्तं पडिवजित्ता समणधम्मं रोएइ, समणधम्मं रोएत्ता चरित्तं पडिवजड़, चरित्तं पडिवजित्ता लिंगं पडिवज्जइ, तस्स णं तेहिं मिच्छत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेहिं परिहायमाणेहिं सम्मदंसणपज्जवेहिं परिवड्ढमाणेहिं परिवड्ढमाणेहिं से विभंगे अण्णाणे सम्मत्तपरिग्गहिए खिप्पामेव ओही परावत्तइ । कठिन शब्दार्थ-अणिक्खित्तेणं-निरन्तर. पगिज्झिय-रखकर, आयावणभूमीए-आतापना भूमि में. पगइभद्दयाए-प्रकृति (स्वभाव) की भद्रता मे, पगइउवसंतयाए-स्वभाव मे ही क्रोधादि कषायों की उपशांतता से, पगइपयणुकोह-स्वभाव से ही पतले क्रोध, मिउमद्दवसंपण्णयाए-अत्यंत मृदुता (नम्रता से युक्त होने से), अल्लीणयाए-अलीनता (गृद्धि रहित) For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ९ उ. ३१ असोच्चा मिथ्यादृष्टि से सम्यगदष्टि होने से, भहयाए-भद्रता से, अण्णयाकयाइ-अन्य किमी दिन, विसुज्नमाणीहि-विगद्धयमान होने के कारण, ईहाऽपोहमग्गणगवेसणं-ईहा, अपोह, मार्गणा गवेपणा (विचार धारा में संलग्न हो ऊहापोह में बढ़ते हुए), पासंडत्थे-पाखंड में रहे, सारंभे-आरंभवाले. संकिलिस्समाणे-संक्लेश को प्राप्त हुए, रोएइ-रुचि करते हैं, परिहायमाणेहि-क्षीण होते हुए, परिवड्डमाणेहि-बढ़ते हुए, खिप्पामेव-गीघ्र ही, परावत्तइ-परिवर्तन होता है। भावार्थ-११-निरन्तर छठ-छठ का (वेले, बेले का) तप करते हुए सूर्य के संमुख ऊँचे हाथ करके, आतापना भूमि में आतापना लेते हुए, उस जीव के प्रकृति की भद्रता, प्रकृति की उपशांतता, स्वभाव से ही क्रोध-मान-माया-लोभ के अत्यन्त अल्प होने, अत्यन्त मार्दव-नम्रता, अर्थात् प्रकृति की कोमलता, कामभोगों में आसक्ति नहीं होने, भद्रता और विनीतता से, किसी दिन शुभ अध्यवसाय, शुभपरिणाम, विशद्ध लेश्या एवं तदावरणीय (विभंगज्ञानावरणीय) कर्मों के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए 'विभंग' नामक अज्ञान उत्पन्न होता है। उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान द्वारा बह जवन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट असंख्यात हजार योजन तक जानता और देखता है । उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान द्वारा वह जीवों को भी जानता है और अजीवों को भी जानता है। वह पाखण्डी, आरम्भी, परिग्रही और संक्लेश को प्राप्त हुए जीवों को भी जानता है और विशुद्ध जीवों को भी जानता है । इसके बाद वह विभंगज्ञानी, सर्व प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करता है । उसके बाद श्रमग-धर्म पर रुचि करता है, रुचि करके चारित्र अंगीकार करता है । फिर लिंग (साधुवेश) स्वीकार करता है । तब उस विभंगज्ञानी के मिथ्यात्व के पर्याय क्रमशः क्षीण होते-होते और सम्यग्दर्शन के पर्याय, क्रमशः बढ़ते-बढ़ते वह 'विभंग' नामक अज्ञान, सम्यक्त्व युक्त होता है और शीघ्र ही अवधिरूप में परिवर्तित हो जाता है। विवेचन-मूल पाठ में -'छठें छद्रेणं' कहा है। इसका अभिप्राय यह है कि प्रायः बेले-बेले की तपस्या करने वाले बाल तपस्वी अज्ञानी जीवों को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है। --..यद्यपि यहाँ मूलपाठ में चारित्र प्राप्ति के बाद 'सम्मत्तपरिग्गहिए' आदि पाठ आया है, तथापि उस पाठ का सम्बन्ध-'सम्मतं पडिवज्जइ, सम्मत्तं पडिवज्जित्ता' के साथ है। For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ९उ. ३१ असोच्चा-लेश्या ज्ञान योगादि जिसका सीधा अर्थ यह होगा कि चारित्र प्राप्ति के पहले ही वह सम्यक्त्व प्राप्त करता है और सम्यक्त्व परिगृहीत होने पर पर उसका विभंगज्ञान अवधिज्ञान रूप में परिणत हो जाता है । फिर श्रमण-धर्म पर रुचि करके चारित्र धर्म को अंगीकार करता है । अंगीकार करके लिंग स्वीकार करता है । विद्यमान पदार्थों के प्रति ज्ञान- चेष्टा को 'ईहा' कहते हैं । 'यह घट है, पट नहीं ।' इस प्रकार विपक्ष के निराकरणपूर्वक वस्तु तत्त्व के विचार को 'अपोह' कहते हैं । अन्वय व्याप्तिपूर्वक पदार्थ के विचार को 'मार्गण' कहते हैं । व्यतिरेक व्याप्तिपूर्वक पदार्थ के विचार को 'गवेषण' कहते हैं । ईहा, अपोह, मार्गण और गवेषण करते हुए आतापनाभूमि में आतापना लेते हुए, उस वाल तपस्वी को शुभ अध्यवसाय आदि कारणों से विभंगज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होकर विभंगज्ञान उत्पन्न होता । इसके पश्चात् परिणाम अध्यवसाय और लेश्या की विशुद्धि से सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । सम्यक्त्व प्राप्ति के साथ ही वह विभंगज्ञान अवधिज्ञान हो जाता है । इसके पश्चात् वह चारित्र स्वीकार कर साधुवेष को अंगीकार करता है । असोच्चा - लेश्या ज्ञान योगादि १२ प्रश्न - से णं भंते ! कइसु लेस्सासु होजा ? १२ उत्तर - गोयमा ! तिसु विसुद्ध लेस्सासु होज्जा, तं जहातेउलेस्साए, पम्हलेस्साए, सुक्कलेस्साए । १३ प्रश्न - से णं भंते ! कइसु णाणेसु होज्जा ? १३ उत्तर - गोयमा ! तिसु आभिणिबोहियणाण-सुयणाणओहिणासु होज्जा । १४ प्रश्न - से णं भंते ! किं सजोगी होज्जा, अजोगी होज्जा ? १४ उत्तर - गोयमा ! सजोगी होजा, णो अजोगी होज्जा । १५९५ For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९६ १५ प्रश्न - जइ सयोगी होज्जा, किं मणजोगी होजा, वड़जोगी होजा, कायजोगी होज्जा ? १५ उत्तर - गोयमा ! मणजोगी वा होज्जा, वइजोगी वा होज्जा, कायजोगी वा होना । १६ प्रश्न - से णं भंते ! किं सांगारोवउत्ते होज्जा, अणागारोवउत्ते. वा होज्जा ? १६ उत्तर - गोयमा ! सागारोवउत्ते वा होज्जा, अणागारोवउत्ते वा होजो । कठिन शब्दार्थ - सागारोवउत्ते- साकार (ज्ञान) उपयोगवाला, अणागारोवउत्तेअनाकार (दर्शन) उपयोगवाला । भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! वह अवधिज्ञानी, कितनी लेश्याओं में होता है ? १२ उत्तर - हे गौतम! तीन विशुद्ध लेश्याओं में होता है । यथा-१ तेजोलेश्या, २ पद्मलेश्या और ३ शुक्ललेश्या । १३ प्रश्न - हे भगवन् ! वह अवधिज्ञानी, कितने ज्ञान में होता है ? १३ उत्तर - हे गौतम ! १ आभिनिबोधिकज्ञान, २ श्रुतज्ञान और ३ अवधिज्ञान, इन तीन ज्ञानों में होता है । १४ प्रश्न - हे भगवन् ! वह अवधिज्ञानी, सयोगी होता है, या अयोगी ? भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३१ असोच्चा-श्या ज्ञान योगादि १४ उत्तर - हे गौतम ! वह सयोगी होता है, अयोगी नहीं होता । १५ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि वह सयोगी होता है, तो क्या मनयोगी होता है, वचनयोगी होता है, या काययोगी होता है ? For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र ण ९ उ. ३१ असोच्चा-लेण्या ज्ञान योगादि १५ उत्तर - हे गौतम ! वह मनयोगी होता है, वचनयोगी होता है और काययोगी भी होता है । १५९७ १६ प्रश्न - हे भगवन् ! वह साकार उपयोग वाला होता है या अनाकार उपयोग वाला ? १६ उत्तर - हे गौतम! वह साकार (ज्ञान) उपयोगवाला भी होता है और अनाकार (दर्शन) उपयोग वाला भी होता है । १७ प्रश्न - से णं भंते ! कयरम्मि संघयणे होज्जा ? १७ उत्तर - गोयमा ! वइरोसहणारायसंघयणे होज्जा । १० प्रश्न - मे णं भंते! कयरम्मि मंठाणे होजा ? १८ उत्तर - गोयमा ! छण्हं संठाणाणं अण्णयरे संठाणे होजा । १९ प्रश्न - से णं भंते ! कयरम्मि उचते होज्जा ? १९ उत्तर - गोयमा ! जहण्णेणं सत्तरयणीए, उनकोसेणं पंचधणुमइए होना । २० प्रश्न - से णं भंते! कयरम्मि आउए होज्जा ? २० उत्तर - गोयमा ! जहण्णेणं साइरेगट्टवासाउए, उक्कोसेणं पुव्वकोडीओए होज्जा । २१ प्रश्न - से णं भंते! किं सवेदए होज्जा, अवेदए होज्जा ? २१ उत्तर - गोयमा ! सवेदए होजा, गो अवेदए होज्जा । २२ प्रश्न - जड़ सवेदए होजा किं इत्थवेदए होजा, पुरिस For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९८ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३१ असोच्चा-लेश्या ज्ञान योगादि वेदए होज्जा, पुरिस-णपुंसगवेदए होजा; णपुंसगवेदए होज्जा ? ___ २२ उत्तर-गोयमा ! णो इस्थिवेदए होज्जा, पुरिसवेदए वा होज्जा, णो णपुंसगवेदए होज्जा, पुरिस-णपुंसगवेदए वा होज्जा। २३ प्रश्न-से णं भंते ! किं सकसाई होज्जा, अकसाई होज्जा ? २३ उत्तर-गोयमा ! सकसाई होज्जा, णो अकसाई होजा। २४ प्रश्न-जइ सकसाई. होजा, से णं भंते ! कइमु कसाएसु होज्जा ? २४ उत्तर-गोयमा ! चउसु संजलणकोह-माण-माया-लोभेसु होज्जा। २५ प्रश्न-तस्स णं भंते ! केवइया अज्झवसाणा पण्णत्ता ? २५ उत्तर-गोयमा ! असंखेज्जा अज्झवसाणा पण्णत्ता। २६ प्रश्न-ते णं भंते ! किं पसत्था, अप्पसत्था ? २६ उत्तर-गोयमा ! पसत्था, णो अप्पसत्था। कठिन शब्दार्थ-कयरम्मि-किस, वइरोसहणारायसंघयणे-वज्रऋषभनाराच संहनन, संठाणे-आकार में, उच्चत्ते-उच्चत्व-ऊँचाई, सत्तरयणोए-सात हाथ, पसत्था-प्रशस्त (अच्छे)। भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! वह किस संहनन में होता है ? १७ उत्त-हे गौतम ! वह वज्रऋषभनाराच संहनन वाला होता है। १८ प्रश्न-हे भगवन् ! वह किस संस्थान में होता है ? . १८ उत्तर-हे गौतम! वह छह संस्थानों में से किसी भी संस्थान में होता है। .१९ प्रश्न-हे भगवन् ! वह अवधिज्ञानी कितनी ऊँचाई वाला होता है? For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-य. ९ उ. ३१ असोच्चा-लेश्या ज्ञान योगादि १५०० १९ उत्तर--हे गौतम ! वह जघन्य सात हाथ और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की ऊँचाई वाला होता है। २० प्रश्न-हे भगवन् ! वह कितनी आयुष्य वाला होता है ? २० उत्तर-हे गौतम ! जघन्य साधिक आठ वर्ष और उत्कृष्ट पूर्व कोटि आयुष्य वाला होता है २१ प्रश्र-हे भगवन् ! वह सवेदी होता है, या अवेदी ? २१ उत्तर-हे गौतम ! वह सवेदी होता है, अवेदी नहीं होता। २२ प्रश्न-हे भगवन ! यदि वह सवेदी होता है, तो क्या स्त्री-वेदी होता है, पुरुष-वेदी होता है, नपुंसक-वेदी होता है, या पुरुषनपुंसक-वेदी होता है ? २२ उत्तर-हे गौतम ! स्त्रीवेदी नहीं होता, पुरुषवेदी होता है, नपुंसकवेदी नहीं होता, किन्तु पुरुषनपुंसकवेदी होता है। ___ २३ प्रश्न-हे भगवन् ! वह अवधिज्ञानी सकषायी होता है, या अकषायो ? - २३. उत्तर-हे गौतम ! वह सकषायो होता है, अकषायी नहीं होता। २४ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वह सकषायी होता है, तो वह कितने कषाय वाला होता है ? - २४ उत्तर-हे गौतम ! वह संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभइन चार कषायों वाला होता है। २५ प्रश्न-हे भगवन् ! उसके कितने अध्यवसाय होते हैं ? २५ उत्तर-हे गौतम ! उसके असंख्यात अध्यवसाय होते हैं। २६ प्रश्न-हे भगवन् ! वे अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं, या अप्रशस्त ? २६ उत्तर-हे गौतम ! प्रशस्त होते हैं, अप्रशस्त नहीं होते। २७ से णं भंते ! तेहिं पसत्येहिं अज्झवसाणेहिं वड्ढमाणेहिं For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवत -श. ९ उ.३१ असोच्चा-लेश्या ज्ञान योगादि अणंतेहिं णेरइयभवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोएइ, अणंतेहिं तिरिक्खजोणिय-जाव विसंजोएइ, अणंतेहिं मणुस्सभवग्गहणेहितो अप्पाणं विसंजोएइ, अणंतेहिं देवभवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसं. जोएइ जाओ वि य से इमाओ गेरइय-तिरिवखजोणिय मणुरसदेवगइणामाओ चत्तारि उत्तरपयडीओ, तासिं च णं उवग्गहिए अणंताणुबंधी कोह-माण-माया-लोभे खवेइ, अणं० खवेइत्ता अपञ्चक्खाणकसाए कोह-माण-माया-लोंभे खवेड्, अपञ्च० खवेइत्ता पञ्चक्खाणावरण कोह-माण-माया-लोभे खवेइ, पच्च० खवेइत्ता संजलणकोह-माण-माया-लोभे खवेइ, संज० खवेइत्ता पंचविहं णाणा. वरणिजं, णवविहं दरिसणावरणिजं, पंचविहं अंतराइयं,. तालमत्थाकडं च णं मोहणिजे कट्टु कम्मरयविकिरणकर अपुव्वकरणं. अणुपविट्ठस्स अणते अणुतरे णिवाघाए णिरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरणाण-दंसणे समुप्पण्णे । ____२८ प्रश्न-से णं भंते ! केवलिपण्णत्तं धम्म आधवेज्ज वा, पण्णवेज वा, परूवेज्ज वा ? २८ उत्तर-णो इणटे, समढे, णण्णत्थ एगणाएण वा, एगवागरणेण वा। २९ प्रश्न-से णं भंते ! पव्वावेज्ज वा, मुंडावेज वा ? २९ उत्तर-णो इणटे समढे, उवएस पुण करेज्जा। For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. ९ उ. ३१ असोच्चा-लेश्या नान योगादि. १६०१ ३० प्रश्न-से णं भंते ! सिज्झइ जाव अंतं करेइ ? ३० उत्तर-हंता सिज्झइ, जाव अंतं करेइ । कठिन शब्दार्थ-विसंजोएइ-विमुक्त करते हैं, उवग्गहिए आधारभूत, तालमत्थाकडंतालवृक्ष के मस्तक के समान क्षोग करके, कम्मरयविकिरणकर-कर्म रूपी रज को झटककर, अपुवकरणं-अपूर्वकरण में, अणुपविटुस्स-प्रवेश करके, णिव्वाघाए-व्याघात रहित, णिरावरणे-आवरण रहित, कसिणं-सम्पूर्ण, पडिपुण्णे-प्रतिपूर्ण, समुप्पण्णे-उत्पन्न होता है, एगणाएण-एक उदाहरण, एगवागरणेण-एक प्रश्न का उत्तर। भावार्थ-२७-वह अवधिज्ञानी, बढ़ते हुए प्रशस्त अध्यवसायों से, अनन्त नैरयिक-भावों से अपनी आत्मा को विमुक्त करता है, अनन्त तिर्यंच-भवों से अपनी आत्मा को विमुक्त करता है, अनन्त मनुष्य-भवों से अपनी आत्मा को विमुक्त करता है और अनन्त देव-भवों से अपनी आत्मा को विमुक्त करता है । जो ये नरक-गति, तिर्यच गति, मनुष्य-गति और देव-गति नामक चार उत्तर प्रकृतियां हैं, उनके तथा दूसरी प्रकृतियों के आधारभूत अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, और लोभ का क्षय करता है, उनका क्षय करके अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है, उनका क्षय करके प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोम का क्षय करता है, उनका क्षय करके संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है। इसके बाद पाँच प्रकार का ज्ञानावरणीय कर्म, नौ प्रकार का दर्शनावरणीय कर्म, पाँच प्रकार का अन्तराय कर्म तथा कटे हुए मस्तक वाले ताड़-वृक्ष के समान मोहनीय कर्म को बनाकर, कर्म-रज को बिखेर देने वाले अपूर्वकरण में प्रवेश किये हुए उस जीव के अनन्त, अनुत्तर, व्याघात रहित, आवरण रहित, कृत्स्न (संपूर्ण) प्रतिपूर्ण एवं श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न होता है। २८ प्रश्न-हे भगवन् ! वे असोच्चाकेवली, केवलिप्ररूपित धर्म कहते हैं, बतलाते हैं और प्ररूपणा करते हैं ? २८ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । वे एक ज्ञात (उदाहरण) For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०२ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३१ असोच्चा-लेश्या ज्ञान योगादि और एक प्रश्न के उत्तर के सिवाय धर्म का उपदेश नहीं करते। २९ प्रश्न-हे भगवन् ! वे असोच्चाकेवलो किसी को प्रवजित करते हैं, मुण्डित करते हैं ? २९ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं, किन्तु (अमुक के पास तुम प्रवज्या ग्रहण करो-) ऐसा उपदेश करते (कहते) हैं। ३० प्रश्न-हे भगवन् ! वे असोच्चाकवली सिद्ध होते हैं यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं ? ३० उत्तर-हाँ, गौतम ! वे सिद्ध होते हैं, यावत् समस्त दुःखों का अंत करते हैं। ३१ प्रश्न-से णं भंते ! किं उड्ढं होजा, अहे 'होजा, तिरियं होज्जा ? ३१ उत्तर-गोयमा ! उड्ढे वा होज्जा, अहे वा होज्जा, तिरियं वा होजा; उड्ढे होज्जमाणे सद्दावइ-वियडावइ-गंधावइ-मालवंतपरियाएसु वट्टवेयड्ढपव्वएसु होज्जा; साहरणं पडुच्च सोमणसवणे वा पंडगवणे वा होज्जा; अहे होज्जमाणे गड्डाए वा, दरीए वा होजा; साहरणं पडुच्च पायाले वा, भवणे वा होज्जा: तिरियं होजमाणे पण्णरससु कम्मभूमीसु होज्जा; साहरणं पडुच्च अढाइज्जदीवसमुद्द-तदेक्कदेसभाए होज्जा। ३२ प्रश्न ते णं भंते ! एगसमए णं केवइया होज्जा ? ३२ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वाः For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मुत्र-श. ९ . ३१ असोचा-लेश्या ज्ञान योगादि १६०१ उक्कोसेणं दस, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-'असोचा णं केवलिस्स वा जाव अत्थेगइए केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए, अस्थगइए असोचा णं केवलि० जाव णो लभेज्जा सवणयाए, जाव अत्थेगइए केवलणाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगइए केवलणाणं णो उप्पाडेज्जा। कठिन शब्दार्थ-अहे-नीचे, पायाले-पाताल में। : भावार्थ-३१ प्रश्न-हे भगवन् ! वे असोच्चाकेवलो क्या ऊर्ध्वलोक में होते हैं, अधोलोक में होते हैं, या तिर्यग्-लोक में होते हैं ? ३१ उत्तर-हे गौतम ! ऊर्ध्वलोक में भी होते हैं, अधोलोक में भी होते हैं और तिर्यग्-लोक में भी होते हैं। यदि ऊर्ध्व-लोक में हैं, तो शब्दापाती, विकटापाती, गन्धापाती और माल्यवन्त नामक वृत्त वैताढय पर्वतों में होते हैं। तथा संहरण की अपेक्षा सौमनस वन में अथवा पाण्डुक वन में होते हैं। यदि अधोलोक में होता है, तो गर्ता (अधोलोक ग्रामादि) में अथवा गुफा में होते हैं। तथा संहरण की अपेक्षा पाताल-कलशों में अथवा भवनवासी देवों के भवनों में होते हैं । यदि तिर्यग्-लोक में होते हैं, तो पन्द्रह कर्मभूमि में होते हैं । तथा संहरण को अपेक्षा ढाई द्वीप और समुद्रों के एक भाग में होते हैं। ___३२ प्रश्न-हे भगवन् ! वे असोच्चा केवली, एक समय में कितने होते हैं? ३२ उत्तर-हे गौतम ! जयन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट दस होते है। इसलिये हे गौतम ! मैं ऐसा कहता हूं कि केवली यावत् केवलिपाक्षिक की उपासिका के पास, केवली प्ररूपित धर्म सुने बिना ही किसी जीव को केवलिप्ररूपित धर्म का बोध होता है और किसी को नहीं होता, यावत् कोई जीव केवलज्ञान उत्पन्न कर लेता है और कोई उत्पन्न नहीं करता। विवेचन-उपर्युक्त अवधिज्ञानी के विषय में जो कहा गया है, वह सब उस अवधिज्ञानी के लिये समझना चाहिये, जो विभंगज्ञानी से अवधिज्ञानी बना है । वह प्रशस्त भाव For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०४ भगवती सूत्र - श९ उ. ३१ असोच्चा लेग्या ज्ञान योगादि लेश्याओं में ही होता है, अप्रशस्त भाव- लेश्याओं में नहीं । सम्यक्त्व प्राप्त होते ही उसका मति अज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान- ये तीनों अज्ञान, ज्ञानरूप में परिणत हो जाते हैं । अवधिज्ञानी के लिये जो वज्रऋषभनाराच संहनन का कथन किया गया है, वह आगे प्राप्त होनेवाले केवलज्ञान की अपेक्षा समझना चाहिये । क्योंकि केवलज्ञान की प्राप्ति वज्रऋषभनाराच संहनन वालों को ही होती है । अवधिज्ञानी दशा में वह सवेदी होता है । सवेदी में भी पुरुषवेदी और पुरुष नपुंसक वेदी होता है । वह संज्वलन कषायवाला होता है । इसके ' पश्चात् भावों की विशुद्धता से नरकादि चारों गतियों के कारणभूत कषाय का क्षय करता है । पश्चात् जिस प्रकार तालवृक्ष की मस्तक - शूचि के भिन्न होने पर, तालवृक्ष नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म का क्षय करता है । जैसा कि कहा है मस्तकसूचिविनाशे तालस्य यथा ध्रुवो भवति नाशः । तद्वत् कर्म विनाशोऽपि मोहनीयक्षय नित्यम् ॥ अर्थ - जिस प्रकार तालवृक्ष की मस्तकशूचि का विनाश होने पर तालवृक्ष का नाश हो जाता है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म का क्षय होने पर शेष कर्मों का भी नाश हो जाता है । अतः मोहनीय कर्म की शेष प्रकृतियों का क्षय करके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय - इन तीनों कर्मों की सभी प्रकृतियों का क्षय कर देता है । इनका क्षय होते ही केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न हो जाते हैं । केवलज्ञान के लिये शास्त्रकार ने विशेषण दिये हैं । यथा-अनन्त-विषय की अनन्तता के कारण केवलज्ञान अनन्त है । वह अनुत्तर है अर्थात् केवलज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई ज्ञान नहीं है, अर्थात् वह सर्वोत्तम ज्ञान है । फिर वह निर्व्याघात होता है अर्थात् भींत आदि के द्वारा वह प्रतिहत ( स्खलित ) नहीं होता । वह सम्पूर्ण आवरणों के क्षय हो जाते से 'निरावरण' होता है । सकल पदार्थों का ग्राहक होने से 'कृत्स्न' होता है । अपने सम्पूर्ण अंशों से युक्त उत्पन्न होने से 'प्रतिपूर्ण' होता है । इसी तरह केवल दर्शन के लिये भी ये ही विशेषण समझ लेने चाहिये । वे असोच्चा केवली किसी के द्वारा प्रश्न पूछने पर उत्तर देते हैं तथा एक उदाहरण देते हैं । इसके अतिरिक्त वे किसी प्रकार का उपदेशादि नहीं देते। किसी को अपना शिष्य नहीं बनाते, किन्तु किसी दीक्षार्थी के उपस्थित होने पर वे केवल इतना कहते हैं कि 'अमुक के पास दीक्षा लो ।' इस प्रकार के असोच्चा केवली ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिरछा लोक-इन तीनों लोकों में होते हैं । महरण आदि का कथन मूल पाठ में ही कर दिया गया है। For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भगवती मूत्र-श. १. उ. ३१ सोच्चा केवली १६०५ सोच्चा केवली ३३ प्रश्न-सोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा, जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए ? ३३ उत्तर-गोयमा ! सोच्चा णं केवलिस्स वा, जाव अत्थे. गइए केवलिपण्णत्तं धम्मं, एवं जा चेव असोच्चाए, वत्तव्वया सा चेव सोबाए वि भाणियव्वा, णवरं अभिलावो ‘सोच्चे' त्ति, सेसं तं चेव णिरव नेसं, जाव जम्स णं मणपज्जवणाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवड़, जस्स णं केवलणाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए कडे भवइ से णं मोच्चा केवलिस्स वा, जाव उवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए, केवलं बोहिं बुझेजा, जाव केवलणाणं उप्पाडेजा। कठिन शब्दार्थ-सोच्चाणं-सुनकर, सवणयाए-श्रुतज्ञानरूप बोध । • 'भावार्थ-३३ प्रश्न-हे भगवन् ! केवली यावत् केवलिपाक्षिक की उपासिका के पास धर्म-प्रतिपादक वचन सुनकर कोई जीव, केवलिप्ररूपित धर्म का बोध प्राप्त कर सकता है ? ३३ उत्तर-हे गौतम ! केवली यावत् केवलिपाक्षिक की उपासिका में से किसी के पास धर्मप्रतिपादक वचन सुनकर कोई जीव केवलिप्ररूपित धर्म का बोध प्राप्त करता है और कोई नहीं करता। इस विषय में जिस प्रकार 'असोच्चा' की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार 'सोच्चा' की भी कहनी चाहिये, परन्तु यहां 'सोच्चा' ऐसा पाठ कहना चाहिये । शेष सभी पूर्वोक्त वक्तव्यता For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३१ सोच्चा केवली कहनी चाहिये । यावत् जिस के मनःपर्यय ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशन हुआ है और जिस जीव ने केवलज्ञानावरणीय कर्म का क्षय किया है, उस जीव को केवली आदि के पास से सुनकर केवलिप्ररूपित धर्म का बोध होता है, शुद्ध सम्यक्त्व का बोध होता है यावत् केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। ३४-तस्स णं अट्ठमंअट्टमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणस्स पगइभद्दयाए, तहेव जाव गवेसणं करेमाणस्स ओहिणाणे समुप्पज्जइ, से णं तेणं ओहिणाणेणं समुप्पण्णेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं असंखेज्जाई अलोए लोयप्पमाणमेत्ताइं खंडाइं जाणइ पासइ । ३५ प्रश्न-से णं भंते ! कइसु लेस्सासु होज्जा ? ...... ____३५ उत्तर-गोयमा ! छसु लेसासु होज्जा, तं जहा-कण्हलेस्साए, जाव सुक्कलेस्साए। ., ३६ प्रश्न-से णं भंते ! कइसु णाणेसु होन्जा ? ... - ३६ उत्तर-गोयमा ! तिसु वा, चउसु वा होज्जा; तिसु होज्ज. माणे तिसु आभिणियोहियणाण-सुयणाण-ओहिणाणेसु होज्जा, चउसु होज्जमाणे आभिणियोहियणाण-सुयणाण-ओहिणाण-मणपज्जवणाणेसु होज्जा। कठिन शम्बार्थ-अटुमंअट्टमेणं-अष्टम-अष्टम (तेले-तेले की तपस्या), अणिक्खित्तेणेनिरनर, अलोए लोयप्पमाणमेत्ताई-अलोक में लोक प्रमाण। - भावार्थ-३४ केवली आदि के पास से धर्मप्रतिपादक वचन सुनकर For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • भगवती सूत्र-. . ३१ मोच्चा केवली १.०३ सम्यग्दर्शनादि प्राप्त जीव को निरन्तर तेले-तेले की तपस्या द्वारा आत्मा को भावित करते हुए, प्रकृति की भद्रता आदि गुणों से यावत् ईहा, अपोह, मार्गण गवेषण करते हुए अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। उस उत्पन्न हुए अवधिज्ञान के द्वारा वह जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट अलोक में लोक प्रमाण असंख्य खण्डों को जानता और देखता है। ३५ प्रश्न-हे भगवन् ! वह अवधिज्ञानी जीव, कितनी लेश्याओं में होता है ? ३५ उत्तर-हे गौतम ! वह छहों लेश्याओं में होता है । यथा-कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ल लेश्या । ३६ प्रश्न-हे भगवन् ! वह अवधिज्ञानी कितने ज्ञान में होता है ? ३६ उत्तर-हे गौतम ! वह तीन ज्ञान अथवा चार ज्ञान में होता है । यदि तीन ज्ञान में होता है, तो आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान में होता है, यदि चार ज्ञान में होता है, तो आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान में होता है। ३७ प्रश्न-से णं भंते ! किं सजोगी होजा, अजोगी होना ? .३७ उत्तर-एवं जोगो, उवओगो, संघयणं, संठाणं, उच्चत्तं, आउयं च एयाणि सव्वाणि जहा असोचाए तहेव भाणियब्वाणि । .. ३८ प्रश्न-से णं भंते ! किं सवेदए-पुच्छा ? .. ३८ उत्तर-गोयमा ! सवेदए वा होज्जा, अवेदए वा होजा । ३९ प्रश्न-जइ अवेदए होजा किं उवसंतवेदए होजा, खीणवेदए होजा ? ३९ उत्तर-गोयमा ! णो उवसंतवेदए होज्जा, खीणवेदए For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०८ भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३१ सोच्चा केवली होज्जा । ४० प्रश्न - जइ सवेदए होज्जा किं इत्थीवेदए होज्जा, पुरिसवेदए होज्जा, णपुंसगवेदए होजा, पुरिस णपुंसगवेदए होज्जा - पुच्छा ? ४० उत्तर - गोयमा ! इत्थीवेदए वा होज्जा, पुरिसवेदए वा होना, पुरिस- पुंगवेद वा होजा । ४१ प्रश्न - से णं भंते ! किं सकसाई होज्जा, अकमाई होज्जा ? ४१ उत्तर - गोयमा ! सकसाई वा होज्जा, अक्साई वा होजा । ४२ प्रश्न - जइ अक्साई होज्जा किं उवसंतकसाई होज्जा, खोणकमाई होज्जा ? ४२ उत्तर - गोयमा ! णो उवसंतकसाई होज्जा, खीणकसाई होज्जा । ४३ प्रश्न - जइ सकसाई होज्जा से णं भंते! कइसु कसा एसु होना ? ४३ उत्तर - गोयमा ! चउसु वा तिसु वा दोसु वा एवकम्मि वा होज्जा । चउसु होजमाणे चउसु संजलणकोह-माण- माया-लोभेसु होज्जा, तिसु होजमाणे तिसु-संजलणमाण- माया -लोभेमु होज्जा, दोसु होजमाणे दोसु-संजलणमाया-लोभेसु होजा, एगम्मि होज - माणे एगम्मि संजल लोभे होजा । भावार्थ - ३७ प्रश्न - हे भगवन् ! वह अवधिज्ञानी सयोगी होता है, या For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १.उ. ३१ सोच्चा केवली अयोगी होता है ? ३७ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार 'असोच्चा' के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी योग, उपयोग, संहनन, संस्थान, ऊँचाई और आयुष्य, इन सभी के विषय में कहना चाहिये। ___३८ प्रश्न-हे भगवन् ! वह अवधिज्ञानी सवेदी होता है, या अवेदी? ___३८ उत्तर-हे गौतम ! वह अवधिज्ञानी सवेदी होता है अथवा अवेदी होता है। ___ ३९ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वह अवेदी होता है, तो क्या उपशांत वेदी होता है, या क्षीण वेदी होता है ? ३९ उत्तर-हे गौतम ! वह उपशांत वेदी नहीं होता, किन्तु क्षीण वेदी होता है। ४० प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वह सवेदी होता है, तो क्या स्त्री-वेदी होता है, पुरुष-वेदी होता है, नपुंसक-वेदी होता है, या पुरुषनपुंसक-वेदी होता है ? ४० उत्तर-हे गौतम ! वह स्त्री-वेदी होता है अथवा पुरुष-वेदी होता है अथवा पुरुषनपुंसक-वेदी होता है । ४१.प्रश्न-हे भगवन् ! वह अवधिज्ञानी सकषायी होता है, या अकषायो ? ४१ उत्तर-हे गौतम ! वह सकषायी होता है अथवा अकषायी होता है । ४२ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वह अकषायी होता है, तो क्या उपशांत कषायी होता है, या क्षीण कषायो ? ___ ४२ उत्तर-हे गौतम ! वह उपशांत कषायी नहीं होता, किन्तु क्षीणकषायी होता है। - ४३ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वह सकषायी होता है,तो कितने कषायों में होता है। For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३१ सोंच्चा केवली ४३ उत्तर-हे गौतम ! वह चार कषाय में, तीन कषाय में, दो कषाय में, या एक कषाय में होता है। यदि चार कषायों में होता है, तो संज्वलन-क्रोध मान, माया और लोभ में होता है । यदि तीन कषायों में होता है, तो संज्वलन मान, माया और लोभ में होता है। यदि दो कषायों में होता है, तो संज्वलन माया और लोभ में होता है । यदि एक कषाय में होता है, तो एक संज्वलन लोभ में होता है । .. ४४ प्रश्न-तस्स णं भंते ! केवइया अज्झवसाणा पण्णत्ता ? ४४ उत्तर-गोयमा ! असंखेजा; एवं जहा असोचाए तहेव जाव केवलवरणाण-दसणे समुप्पज्जइ । ४५ प्रश्न-से णं भंते ! केवलिपण्णत्तं धम्मं आघवेज वा, पण्णवेज वा, परूवेज वा ? ४५ उत्तर-हंता,आघवेज वा, पण्णवेज वा, परूवेज वा । .४६ प्रश्न-से णं भंते ! पवावेज्ज वा, मुंडावेज वा ? ४६ उत्तर-हंता, गोयमा ! पवावेज वा, मुंडावेज वा। ४७ प्रश्न-तस्स णं भंते ! सिरसा वि पव्वावेज्ज वा, मुंडा. वेज वा? ४७ उत्तर-हंता, पवावेज वा, मुंडावेज वा । ४८ प्रश्न-तस्स णं भंते ! पसिस्सा. वि पव्वावेज वा, मुंडा. वेज वा? For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १. उ. ३१ माच्चा केबली राता ४८ उत्तर- हतो, पव्वावेज वा, मुंडावेज वा । ४९ प्रश्न-से णं भंते ! सिज्झइ बुझइ जाव अंतं करेइ ? ४९ उत्तर-हंता, मिझइ जाव अंतं करेइ ? । ५० प्रश्न-तस्म णं भंते ! सिस्सा वि सिझंति जाव अंतं करति ? ५० उत्तर-हंता, सिझंति जाव अंतं करेंति । ५१. प्रश्न-तस्स णं भंते ! पसिस्सा वि सिझंति जाव अंतं कति ? _ ५१ उत्तर-एवं चेव जाव अंतं करेंति । ५२ प्रश्न-से णं भंते ! किं उड्ढे होजो ? . ५२ उत्तर-जहेव असोचाए जाव तदेकदेसभाए होजा। ५३ प्रश्न-ते णं भंते ! एगसमए णं केवइया होज्जा ? ५३ उत्तर-गोयमा ! जहणेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उकोसेणं अट्ठसयं, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-'सोचा णं केवलिस्म वा, जाव केवलिउवासियाए वा, जाव अत्थेगइए केवलणाणं उप्पाडेजा, अत्थेगइए केवलणाणं णो उप्पाडेजा। * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ णवमसए एगतीसइमो उद्देसो समत्तो ॥ For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१२ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३१ सोच्चा केवली कठिन शब्दार्थ-सिस्सा-शिष्य, पसिस्सा–प्रशिष्य (शिष्यों के शिष्य), अट्ठसयंएक सौ आठ। भावार्थ-४४ प्रश्न-हे भगवन् ! उस अवधिज्ञानी के कितने अध्यवसाय होते हैं ? ४४ उत्तर-हे गौतम ! उसके असंख्यात अध्यवसाय होते हैं । 'असोच्चा केवली' में कहे अनुसार यावत् 'उसे केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न होता है। वहाँ तक कहना चाहिये। __ ५४ प्रश्न-हे भगवन् ! वे 'सोच्चा केवली' केवली-प्ररूपित धर्म कहते हैं, जतलाते हैं, प्ररूपित करते हैं ? ४५ उत्तर-हाँ, गौतम ! वे केवलीप्ररूपित धर्म कहते हैं, जैतलाते हैं और प्ररूपित करते हैं। ४६ प्रश्न--हे भगवन् ! वे किसी को प्रवृजित करते हैं, मुण्डित करते हैं? ४६ उत्तर-हां, गौतम ! वे प्रवजित करते हैं, मण्डित करते हैं। ४७ प्रश्न-हे भगवन् ! उन सोच्चा केवली के शिष्य भी किसी को प्रबजित करते हैं, मुण्डित करते हैं ? ४७ उत्तर-हां, गौतम ! उनके शिष्य भी प्रवजित करते हैं, मुण्डित करते हैं। ४८ प्रश्न-हे भगवन् ! उन सोच्चा केवली के प्रशिष्य भी प्रवजित करते हैं, मुण्डित करते हैं ? ४८ उत्तर-हां, गौतम ! उनके प्रशिष्य भी प्रवजित करते हैं, मुण्डित करते हैं। ४९ प्रश्न-हे भगवन् ! वे सोच्चा केवली सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं ? ४९ उत्तर-हां, गौतम ! वे सिद्ध होते है, बुद्ध होते हैं यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ९ उ. ३१ सोच्चा केवली ५० प्रश्न - हे भगवन् ! उनके शिष्य भी सिद्ध होते हैं, यावत् सभी दुःखों का अन्त करते हैं ? ५० उत्तर - हां, गौतम ! सिद्ध होते हैं, यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं । १६१३ ५१ प्रश्न - हे भगवन् ! उनके प्रशिष्य भी सिद्ध होते हैं, यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं ? ५१ उत्तर - हाँ, गौतम ! सिद्ध होते हैं, यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं । होते हैं ५२ प्रश्न - -हे भगवन् ! वे 'सोच्चा केवली' ऊर्ध्वलोक इत्यादि प्रश्न ? ५२ उत्तर - हे गौतम! 'असोच्चा' केवली के विषय में कहे अनुसार जानना चाहिये यावत् 'वे ढ़ाई द्वीप समुद्र के एक भाग में होते हैं'-वहाँ तक कहना चाहिये । ५३ प्रश्न - हे भगवन् ! वे सोच्चा केबली एक समय में कितने होते है ? ५३ उत्तर - हे गौतम ! वे एक समय में जघन्य एक, दो, या तीन होते हैं और उत्कृष्ट एक सौ आठ होते हैं । इसलिये हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि 'केवली यावत् केवलिपाक्षिक की उपासिका से धर्म-प्रतिपादक वचन सुनकर यावत् कोई जीव केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न करता है और कोई उत्पन्न नहीं करता । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन-- जिस प्रकार केवली आदि के पास धर्म सुने बिना ही जीव को सम्यग् बोध से लेकर यावत् केवलज्ञान होता है, उसी प्रकार धर्म का श्रवण करने वाले जीव को भी सम्यग् बोध से लेकर यावत् केवलज्ञान उत्पन्न होता है । यही बात उपर्युक्त सभी प्रकरण में बतलाई गई है । तेले-तेले की विकट तपस्या करने वाले साधु को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है और For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१४ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-सान्तर निरन्तर उत्पत्ति आदि वह इतना विस्तृत हो सकता है कि अलोक में भी लोक प्रमाण असंख्यात वण्ड जानने की उसकी शक्ति होती है, किन्तु वहाँ ज्ञेय पदार्थ न होने से वह जानता-देखता नहीं। . सवेदी को अवधिज्ञान होता है, तो वह पुरुषवेदी, स्त्रीवेदी, पुरुष-नपुंसकवेदी को होता है और अवेदी को होता है, तो क्षीणवेदी को होता है, किन्तु उपशान्तवेदी को नहीं होता, क्योंकि आगे इसी अवधिज्ञानी के केवलज्ञान उत्पत्ति का कथन विवक्षित है । इस पाठ से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि चरम शरीरी जीव उस भव में उपशम श्रेणी नहीं करता है । अर्थात् मैद्धान्तिक मान्यता से एक भव में दोनों श्रेणियां नहीं होती है । कर्मग्रन्थ, एक भव में दोनों श्रेणियाँ मानता है। सकषापी अकषायी के विषय में भी उपरोक्त प्रकार मे स्वयं घटित कर लेना चाहिये। ॥ इति नौवें शतक का इकत्तीसवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ . शतक उद्देशक ३२ . गांगेय प्रश्न-सान्तर निरन्तर उत्पत्ति आदि ... १-तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे णामं णयरे होत्था। वण्णओ । दूइपलासए चेइए । सामी समोसढे । परिसा णिग्गया । धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जे गंगेए णामं अणगारे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता समणस्म भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिचा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी २ प्रश्न-मंतरं भंते ! णेरड्या उववज्जति, णिरंतरं णेरड्या For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ३२ गयि प्रश्न- सान्तर निरन्तर उत्पत्ति आदि १६१५ उववज्जति ? २ उत्तर - गंगेया ! संतरं पि णेरड्या उववज्जेति णिरंतरं पि णेरड्या उववज्जति । ३ प्रश्न - संतरं भंते! असुरकुमारा उववजंति, णिरंतरं असुरकुमारा उववज्जंति ? ३ उत्तर - गंगेया ! संतरं पि असुरकुमारा उववज्जंति, णिरंतरं पि असुरकुमारा उववज्जति, एवं जाव थणियकुमारा । कठिन शब्दार्थ- पासावच्चिज्जे- पाश्र्वापत्य-भगवान् पार्श्वनाथ के संतानिये ( शिष्यानुशिष्य), अदूरसामंते -थोड़ी दूर ( अति दूर व अति निकट नहीं), ठिच्चा -खड़े रहकर संतरं - अन्तर सहित । भावार्थ - १ उस काल उस समय में वाणिज्य-ग्राम नामक नगर था । (वर्णत) वहाँ दधुतिपलाश नामक चंत्य ( उद्यान ) था । वहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे। परिषद् वन्दन के लिये निकली । भगवान् ने धर्मोपदेश दिया । परिषद् वापिस चली गई। उस काल उस समय में पुरुषादानीय भगवान् पारवनाथ के शिष्यानुशिष्य गांगेय नामक अनगार थे । वे जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी थे, वहाँ आये और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के न अति समीप न अति दूर खड़े रहकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से इस प्रकार पूछा२ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या नैरयिक सान्तर ( अन्तर सहित ) उत्पन्न होते हैं, या निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? २ उत्तर - हे गांगेय ! नरयिक, सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! असुरकुमार सान्तर उत्पन्न होते हैं, या निरन्तरं ? ३ उत्तर - हे गांगेय ! वे सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी । इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक जानना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१६ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-सान्तर निरन्तर उत्पत्ति आदि ४ प्रश्न-संतरं भंते ! पुढविक्काइया उववजंति, णिरंतरं पुढवि. काइया उववनंति ? ४ उत्तर-गंगेया ! णो संतरं पुढविकाइया उववनंति, णिरंतरं पुढविकाइया उववजंति, एवं जाव वणस्सइकाइया, बेइंदिया जाव वेमाणिया एए जहा णेरइया । . ५ प्रश्न-संतरं भंते ! गैरइया उबटुंति, णिरंतरं णेरड्या उब्वटुंति ? ५ उत्तर-गंगेया ! संतर पि णेरइया उव्वद्वृति; णिरंतरं पि णेरड्या उव्वटुंति, एवं जाव थणियकुमारा । ६ प्रश्न-संतरं भंते ! पुढविकाइया उव्वद॒ति-पुच्छा। ६ उत्तर-गंगेया ! णो संतरं पुढविकाइया उव्वटुंति, णिरंतर पुढविक्काइया उव्वटुंति, एवं जाव वणस्सइकाइया णो संतरं, णिरंतरं उव्वद॒ति । ___७ प्रश्न-संतरं भंते ! बेइंदिया उब्वटुंति, णिरंतरं बेइंदिया उव्वटुंति ? ___७ उत्तर-गंगेया ! संतरं पि बेइंदिया उव्वद्वृति, णिरंतरं पि बेइंदिया उब्वटुंति, एवं जाव वाणमंतरा । ८ प्रश्न-संतरं भंते ! जोइसिया चयंति-पुच्छा। For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-सान्तर निरन्तर उत्पत्ति आदि १६१७ ८ उत्तर-गंगेया ! संतरं पि जोइसिया चयंति, णिरंतरं पि जोइसिया चयंति; एवं जाव वेमाणिया वि । कठिन शब्दार्थ-उव्वटुंति--निकलते । भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, सान्तर उत्पन्न होते है, या निरन्तर ? ४ उत्तर-हे गांगेय ! पृथ्वीकायिक जीव, सान्तर उत्पन्न नहीं होते, निरन्तर उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक जानना चाहिये । बेइंद्रिय जीवों से लेकर यावत् वैमानिक देवों तक, नरयिकों के समान जानना चाहिये । ५ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीव, सान्तर उद्वर्तते (मरते) हैं, या निरन्तर ? ५ उत्तर-हे गांगेय ! नरयिक जीव, साम्तर भी उद्वर्तते हैं और निरन्तर भी। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक जानना चाहिये । ६ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव,सान्तर उद्वर्तते हैं,या निरन्तर? ६ उत्तर-हे गांगेय ! पृथ्वीकायिक जीव, सान्तर नहीं उद्वर्तते, किन्तु निरन्तर उद्वर्तते हैं। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक जानना चाहिये-ये सान्तर नहीं, निरन्तर उद्वर्तते हैं ७ प्रश्न-हे भगवन् ! बेइंद्रिय जीव, सान्तर उद्वर्तते हैं, या निरन्तर ? ७ उत्तर-हे गांगेय ! बेइंद्रिय जीव, सान्तर भी उद्वर्तते है और निरन्तर भी। इसी प्रकार यावत् वाणव्यन्तर तक जानना चाहिये। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्योतिषी देव, सान्तर चवते हैं, या निरन्तर ? ८ उत्तर-हे गांगेय ! ज्योतिषी देव, सान्तर भी चवते हैं और निरन्तर भी। इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिये। विवेचन--जीवों की उत्पत्ति आदि में समयादि काल का जो अन्तर (व्यवधान) होता है, वह 'सान्तर' कहलाता है। एकेन्द्रिय जीव प्रति-समय उत्पन्न होते है और मरते For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१८ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक हैं । इसलिये उनकी उत्पत्ति और उद्वर्तन सान्तर नहीं, निरन्तर होता है । एकंद्रियों के सिवाय शेष सभी जीवों की उत्पत्ति और मरण में अन्तर संभव है, इमलिये वे सान्तर और निरन्तर दोनों प्रकार से उत्पन्न होते हैं और मरते हैं। गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक ९ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! पवेसणए पण्णत्ते । ९ उत्तर-गंगेया ! चउविहे पवेसणए पण्णत्ते, तं जहा-णेरइय. पवेसणए, तिरिक्खजोणियपवेसणए, मणुस्सपवेसणए, देवपवेसणए । १० प्रश्न-णेरइयपवेसणए णं भंते ! कइविहे पण्णते ? १० उत्तर-गंगेया ! सत्तविहे पण्णत्ते, तें जहा-रयणप्पभापुढविणेरइयपवेसणए, जाव अहेसत्तमापुढविणेरइयपवेसणए। . ११ प्रश्न-एगे णं भंते ! णेरइए णेरइयपवेसणएणं पविसमाणे किं रयणप्पभाए होजा, सकरप्पभाए होजा, जाव अहे सत्तमाए होजा? ११ उत्तर-गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा, जाव अहेसत्तमाए वा होजा। . कठिन शब्दार्थ-पवेसणए-प्रवेशनक (एक गति से दूसरी गति में प्रवेश करना-जाना)। भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रवेशनक (उत्पाद-उत्पत्ति) कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर-हे गांगेय ! प्रवेशनक चार प्रकार का कहा गया है। यथा For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न- प्रवेशनक नरयिक प्रवेशनक, तिर्यञ्चयोनिक प्रवेशनक, मनुष्य प्रवेशनक और देव प्रवेशनक । १० प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक प्रवेशनक कितने प्रकार का कहा गया है ? १० उत्तर - हे गांगेय ! सात प्रकार का कहा गया है । यथा-रत्नप्रभापृथ्वी नैरयिक प्रवेशनक यावत् अधः सप्तम पृथ्वी नरयिक प्रवेशनक । ११ प्रश्न - हे भगवन् ! एक नैरयिक जीव, नैरयिक प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करता हुआ क्या रत्नप्रभा पृथ्वी में होता है, या शर्कराप्रभा पृथ्वी अथवा यावत् अधः सप्तम पृथ्वी में होता है ? ११ उत्तर - हे गांगेय ! वह रत्नप्रभा पृथ्वी में होता है, या यावत् अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । १६१९ विवेचन - एक गति से मरकर दूसरी गति में उत्पन्न होना - 'प्रवेशनक' कहलाता है। एक नैरयिक जीव रत्नप्रभा आदि नरकों में उत्पन्न हो, तो उसके सात विकल्प होते हैं । यथा - (१) या तो वह रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होता है, (२) या शर्कराप्रभा । इसी प्रकार आगे एक-एक पृथ्वी में यावत् अथवा अधः सप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होता है । इस प्रकार सात विकल्प होते हैं और ये सात ही भंग होते हैं । उत्कृष्ट प्रवेशनक को छोड़कर सभी नरक स्थान में असंयोगी सात विकल्प हैं; इसलिए सात ही भंग होते हैं । २ १२ प्रश्न - दो भंते ! णेरहया णेरहयपवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पमाए होज्जा, जाव अहेसत्तमाए होज्जा ? १२ उत्तर - गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा, जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा | अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होज्जा; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा, जाव एगे रयणभाए एगे असत्तमाए होज्जा | अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा, जाव अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२० भगवती सूत्रा ९.उ. ३२ गांगेयं प्रश्न- प्रवेशनक असत्तमाए होज्जा | अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा; एवं जाव अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे असत्तमाए होज्जा । एवं एक्षका पुढवी छड्डेयव्वा, जाव अहवा एगे तमाए एगे असत्तमाए होज्जा । कठिन शब्दार्थ - छड्डेयव्वा छोड़ देना चाहिये, अहवा - अथवा भावार्थ - १२ प्रश्न - हे भगवन् ! दो नैरयिक जीव, नैरयिक प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत् अधः सप्तम पृथ्वी में ? १२ उत्तर - हे गांगेय ! वे दोनों ( १ ) रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं, अथवा (२-७) यावत् अधः सप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं अथवा (८) एक रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होता है और एक शर्करा ना पृथ्वी में, (९) अथवा एक रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होता है और एक वालुकाप्रभा पृथ्वी में । ( १०- १४) अथवा यावत् एक रत्नप्रभा में उत्पन्न होता है और एक अधः सप्तम पृथ्वी में । ( एक रत्नप्रभा में उत्पन्न होता है और एक पंकप्रभा में, या एक रत्नप्रभा में और एक धूमप्रभा में, या एक रत्नप्रभा में और एक तमः प्रमा में या एक रत्नप्रभा में और एक तमस्तमः प्रभा में उत्पन्न होता है । इस प्रकार रत्नप्रभा के साथ छह विकल्प होते हैं) । अथवा एक शर्कराप्रभा पृथ्वी में होता है और एक वालुकाप्रभा में, अथवा यावत् एक शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होता है, ( एक शर्कराप्रभा में और एक वालुकाप्रभा में, या एक शर्कराप्रभा में और एक पंकप्रभा में, या एक शर्कराप्रभा में और एक धूमप्रभा में, या एक शर्कराप्रभा में और एक तमः प्रभा में, या एक शर्कराप्रभा में और एक तमः तमः प्रभा में उत्पन्न होता है । इस प्रकार शर्कराप्रमा के साथ पांच विकल्प होते हैं ।) अथवा एक वालुकाप्रभा में और एक पंकप्रभा में । ( अथवा एक वालुकाप्रभा में For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शः १. 'उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक और एक धूमप्रभा में । या एक वालुकाप्रभा में और एक तमःप्रभा में।) इस प्रकार यावत् एक वालुकाप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होता है। इस प्रकार पूर्व पूर्व की एक एक पृथ्वी छोड़ देनी चाहिये यावत् एक तमःप्रभा में, और एक अधःसप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होता है । (वालुकाप्रभा के साथ चार विकल्प, पंकप्रभा के साथ तीन विकल्प और धूमप्रभा के साथ दो विकल्प होते. हैं। बिवेचन-दो नैरयिक. जीवों के अट्टाईस विकल्प होते हैं। उनमें से एक एक नरक में दोनों नैरयिक साथ उत्पन्न होने की अपेक्षा मात भंग होते हैं । नरकों में एक एक नैरयिक की उत्पत्ति की अपेक्षा द्विक-मपोगी इक्कीस भंग होते हैं । जिनमें रत्नप्रभा के साथ छह शर्कराप्रभा के साथ पांच, वालुकाप्रभा के साथ चार, पंकप्रभा के साथ तीन, धूमप्रभा के साथ दो और तमःप्रभा के साथ एक विकल्प होता है । इस प्रकार द्विक संयोगी कुल इक्कीस विकल्प तथा भंग होते हैं । असंयोगी (अकेले) सात भंग होते हैं । ये सभी मिलाकर दो जीव की अपेक्षा अट्टाईस ( २१ + ७ = २८ ) भंग होते है । १३-प्रश्न-तिण्णि भंते ! णेरड्या गेरइयपवेसणएणं पविसमाणा 'किं. रयणप्पभाए होजा, जाव अहेसत्तमाए होजा ? . १३ उत्तर-गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा, जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा। अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए होज्जा; जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो अहेसत्तमाए होजा । अहवा दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होजा; जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा । अहवा एगे सक्करप्पभाए दो वालुयप्पभाए होज्जा: जाव अहवा एगे सक्करप्पभाए दो अहेसत्तमाए होज्जा। For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२२ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेगनक अहवा दो सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा: जाव अहवा दो सस्करप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा । एवं जहा सस्करप्पभाए वत्तव्वया भणिया, तहा सव्वपुढवीणं भाणियःवं, जाव अहवा दो तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा । ___ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा; जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे अहे. सत्तमाए होज्जा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमपभाए हो जा; एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुय. प्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूम-पभाए होजा; जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहेसतमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे धूमणभाए एगे अहेसत्तमाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसतमाए होजा । अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होजा; अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालपप्पभाए एगे धूमप्पभाए होना; जाव अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होना । अहवा एगे For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ९. 3. १२ गांगेय प्रश्न – प्रवेशनक १६२३ मकरप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा, जाव अहवा एगे सकरप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे सकरप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा; अहवा एगे सकरप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेमत्तमाए होजा; अहवा एगे सकरप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा। अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा; अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए होजा; अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा; अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा; अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा; अहवा एगे पंकप्पभोए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा; अहवा एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा; अहवा एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा; अहवा एगे घूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा। . 'भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए तीन नरयिक क्या रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होते है ? १३ उत्तर-हे गांगेय ! वे तीन नैरयिक रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं अथवा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं । अथवा एक रत्नप्रभा में वो For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१६२४ भगवती सूत्र-श. ९ ८. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक शर्कराप्रभा में । अथवा यावत् एक रत्नप्रमा में और दो अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं । (इस प्रकार १-२ का रत्नप्रभा के साथ अनुक्रम से दूसरी नरकों के साथ संयोग करने से छह भंग होते है।) अथवा दो नैरयिक रत्नप्रभा में और एक शर्कराप्रभा में उत्पन्न होता है। अथवा यावत् दो जीव रत्नप्रभा में और एक जीव अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । (इस प्रकार २-१ के भी पूर्ववत् छह भंग होते हैं) अथवा एक शर्कराप्रभा में दो वालुकाप्रभा में होते हैं । अथवा यावत एक शर्कराप्रभा में और दो अध:सप्तम पृथ्वी में होते हैं । (इस प्रकार शर्कराप्रभा के साथ १-२ के पांच भंग होते हैं ।) अथवा दो शर्कराप्रभा में और एक वालुकाप्रभा में होता है । अथवा यावत् दो शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होता है । (इस प्रकार २-१ के पूर्ववत् पांच भंग होते हैं।) जिस प्रकार शर्कराप्रभा की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार सातों नरकों की वक्तव्यता जाननी चाहिये। अथवा यावत् दो तमःप्रभा में और एक तमस्तमः प्रभा में होता है। यहां तक जानना चाहिये। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और एक बालुकाप्रभा में होता है । अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रमा में और एक पंकप्रभा में होता है, अथवा यावत् एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (इस प्रकार रत्नप्रभा के और शर्करापमा के साथ पांच विकल्प होते हैं) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में. और एक पंकप्रभा में होता है । अथवा एक रत्तप्रभा में, एक वालकाप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है। इस प्रकार यावत् अथवा एक रलप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (इस प्रकार शर्कराप्रभा को छोड़ देने पर चार विकल्प होते हैं) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है, अथवा यावत् एक रत्नप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (इस प्रकार वालुकाप्रमा को छोड़ देने पर तीन विकल्प होते हैं) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है । अथवा एक For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "भगवती मूत्र-शः ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक रत्नप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है (इस प्रकार पंकप्रभा को छोड़ देने पर दो विकल्प होते हैं) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (धूमप्रभा को छोड़ने पर यह एक विकल्प होता है। इस प्रकार रत्नप्रभा के ५-४-३-२-१ - १५ विकल्प होते हैं) अथवा एक शर्कराप्रमा में, एक वालकाप्रभा में और एक पंकप्रमा में होता है । अथवा एक शर्कराप्रमा में, एक वालुकाप्रमा में और एक धूमप्रभा में होता है । अथका यावत् एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है (इस प्रकार शर्कराप्रभा और वालुकाप्रभा के साथ चार विकल्प होते हैं।) अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है । अथवा यावत् एक शर्कराप्रमा में, एक पंकप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । (इस प्रकार वालुकाप्रभा को छोड़ने पर तीन विकल्प होते हैं ।) अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है अथवा एक शर्कराप्रमा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । (इस प्रकार पंकप्रभा को छोड़ देने पर दो विकल्प बनते हैं।)अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (इस प्रकार धूमप्रभा को छोड़ देने पर एक विकल्प बनता है। इस प्रकार शर्कराप्रमा के साथ-४-३-२-१: ये १० विकल्प होते हैं ।) अथवा एक वालुकाप्रमा में, एक पंकप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है । अथवा एक वालुकप्राभा में एक पंकप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है । अथवा एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । (इस प्रकार वालुकाप्रमा और पंकप्रभा के साथ तीन विकल्प होते हैं।) अथवा एक वालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है। अथवा एक वालकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (इस प्रकार पंकप्रभा को छोड़ने पर दो विकल्प बनते हैं। (अथवा एक वालुकाप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (इस प्रकार धूमप्रभा को छोड़ने पर For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२६ भगवती सूत्र - श. ९ उ. २ गांगेय प्रश्न - प्रवेशनकं एक विकल्प बनता है। इस प्रकार वालुकाप्रमा के साथ ३-२-१ = ये ६ विकल्प होते हैं ।) अथवा एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमः प्रभा में होता है | अथवा एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधः सप्तम पृथ्वी में होता है । ( इस प्रकार पंकप्रभा और धूमप्रभा के साथ दो विकल्प होते हैं ।) अथवा एक पंकप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधः सप्तम पृथ्वी में होता है । ( इस प्रकार पंकमा के साथ २-१ = ये ३ विकल्प होते हैं ।) अथवा एक धूमप्रभा में, एक तमः प्रभा में और एक अधः सप्तम पृथ्वी में होता है । ( इस प्रकार धूमप्रभा पृथ्वी के साथ एक विकल्प होता है । ( १५-१०-६-३-१ ये सब मिलकर त्रिक संयोगो पैंतीस विकल्प तथा पैंतीस ही भंग होते हैं । विवेचन - यदि तीन जीव नरक में उत्पन्न होंवे तो उनके असंयोगी (एक-एक ) ७, द्विक संयोगी ४२ और त्रिक संयोगी ३५, ये सव ८४ भंग होते हैं । जो ऊपर बतला दिये गये हैं । ४ १४ प्रश्न - चत्तारि भंते ! णेरइया रइयपवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होजा - पुच्छा । १४ उत्तर - गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा, जाव अहे सत्तमाए वा होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए तिष्णि सकरप्पभाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए तिष्णि वालुयप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए तिष्णि अहेसत्तमाए होजा । अहवा दो रयणप्पभाए दो सकरप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए दो असत्तमाए होज्जा | अहवा तिणि रयणप्पभाए एगे सकरप्प For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १ ३२ गांगेय प्रश्न - प्रवेशनक भाए होज्जा; एवं जाव अहवा तिष्णि रयणप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होना | अहवा एगे सक्करप्पभाए तिष्णि वालुयपभाए होज्जा एवं जहेब रयणप्पभाए उवरिमाहिं समं चारियं तहा सबक रप्पभाए वि उवरिमाहिं समं चारेयव्वं; एवं एक्केक्काए समं चारेयव्वं, जाव अहवा तिष्णि तमाए एगे असत्तमाए होज्जा ६३ । कठिन शब्दार्थ - पविसमाणा- प्रवेश करते हुए । भावार्थ - १४ प्रश्न - हे भगवन् ! नरयिक प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए चार नैरयिक जीव रत्नप्रभा में उत्पन्न होते है, इत्यादि प्रश्न । १४ उत्तर- हे गांगेय ! वे चार जीत्र, रत्नप्रभा में होते हैं, अथवा यावत् अधः सप्तम पृथ्वी में होते हैं । ( इस प्रकार असंयोगी सात विकल्प और सात ही भंग होते हैं 1 ) ( द्विक संयोगी त्रेसठ भंग ) - ) - अथवा एक रत्नप्रभा में और तीन शर्कराप्रभा होते हैं । अथवा एक रत्नप्रभा में और तीन वालुकाप्रभा में होते हैं। इस प्रकार अथवा यावत् एक रत्नप्रभा में और तीन अधः सप्तम पृथ्वी में होते हैं । ( इस प्रकार १-३ के छह भंग हुए) अथवा दो रत्नप्रभा में और दो शर्कराप्रभा में होते है । इस प्रकार अथवा यावत् दो रत्नप्रभा में और दो अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं । ( इस प्रकार २-२ के छह भंग होते हैं ।) अथवा तीन रत्नप्रभा में और एक शर्कराप्रभा में होता है । इस प्रकार अथवा यावत् तीन रत्नप्रभा में और एक अधः सप्तम पृथ्वी में होता है । ( इस प्रकार ३-१ के छह भंग होते हैं । इस प्रकार रत्नप्रभा के साथ अठारह भंग होते हैं ।) अथवा एक शर्कराप्रभा में और तीन वालुकाप्रभा में होते है । जिस प्रकार रत्नप्रभा का आगे की नरकों के साथ संचार (योग) किया, उसी प्रकार शर्कराप्रभा का भी उसके आगे की नरकों के साथ संचार करना चाहिये । इस प्रकार एक एक नरक के साथ योग करना चाहिये अथवा यावत् तीन तमःप्रभा में और एक अधः सप्तम For Personal & Private Use Only १६२७ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न - प्रवेशनक पृथ्वी में होता है । ( इस तरह ये द्विक संयोगी त्रेसठ भंग हुए ।) १६२८ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो वालुयप्पभाए होना; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो पंकप्पभाए होना; एवं जाव एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो अहे सत्तमाए होना । अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए एंगे वालुयप्पभाए होज्जा; एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्कप्पभाए एगे असत्तमाए होजा | अहवा दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा; एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे असत्तमाए होज्जा | अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो पंकप्पभाए होज्जा; एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो आहेसत्तमाए होजा । एवं एएणं गमरणं जहा तिन्हं तियसंजोगो तहा भाणि - यव्वो; जाव अहवा दो धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा १०५ । कठिन शब्दार्थ - एएन- इस प्रकार, गमए - गमक (पाठ) से, तिय संजोगी- त्रिक संयोग । (त्रिक संयोगी १०५ भंग - ) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और दो वालुकाप्रभा में होते हैं । अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और दो पंकप्रभा में होते हैं । इसी प्रकार यावत् एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और दो अधः सप्तम पृथ्वी में होते हैं । ( इस प्रकार १ - १-२ के पांच For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भगवती सूत्र-ग. ५. उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक भंग होते हैं।) अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और एक वालुकाप्रभा में होता है । इस प्रकार एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (इस प्रकार १-२-१ के पांव भंग होते हैं ।) अथवा दो रत्नप्रभा में एक शर्कराप्रमा में और एक वालुकाप्रभा में होता है । इसी प्रकार यावत् दो रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (इस प्रकार २-१-१ के पांच भंग होते हैं। तीनों को मिलाकर पन्द्रह भंग होते है) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और दो पंकप्रभा में होते हैं । इस प्रकार यावत् एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और दो अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं। इसी अभिलाप द्वारा जिस प्रकार तीन नरयिकों के त्रिक संयोगी भंग कहे, उसी प्रकार चार नैरयिकों के भी त्रिक संयोगी भंग जानना चाहिये यावत् दो धूमप्रभा में एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । (ये त्रिक संयोगी १०५ भंग हुए।) अहवा एगे रयणप्पभाए एगे मक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा १; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा २: अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे तमाए होजा ३; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा ४; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा ५; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए होजा ६; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक एगे पंकप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा ७; अहवा एगे रय. णप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा ८; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा ९; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सवकरप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा १०; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धमप्पभाए होज्जा ११; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए होज्जा १२; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा १३; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा १४; अहवा एगे रयगप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा १५; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे तमाएं एगे अहेसत्तमाए होज्जा १६; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा १७; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा १८; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा १९; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा २०; अहवा एगे सक्क For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ग. उ. ३२ गगिय प्रश्न- प्रवेशनक रपभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा २१ । एवं जहा रयणप्पभाए उवरिमाओ पुढवीओ चारियाओ तहां सकरप्पभाए वि उवरिमाओ चारियव्वाओ जाव अहवा एगे सकरप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा ३० | अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे घूम भाए एगे तमाए होज्जा ३१; अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा ३२, अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा ३३, अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे घूमप्पभाए एगे तमाए एगे असत्तमाए होज्जा ३४, अहवा एगे पंकप्पभाए एगे घूमभाए एगे तमाए एगे असत्तमाए होजा ३५ । १६३१ ( चतुः संयोगी पैतीस भंग ) - ( १ ) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक पंकप्रभा में होता है ( २ ) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता । ( ३ ) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक तमः प्रभा में होता है । ( ४ ) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक अधः सप्तम पृथ्वी में होता है । (ये चार भंग होते हैं।) (१) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है। ( २ ) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है । (३) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शंकराप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक अधः सप्तम पृथ्वी में होता है । For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न- प्रवेशनक ( ये तीन भंग होते है | ) ( १ ) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है । ( २ ) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में एक धूमप्रभा में और एक अधः सप्तम पृथ्वी में होता है । ( ये दो भंग होते हैं ।) अथवा एक रत्नप्रभा में एक शर्कराप्रभा में, एक तमः प्रभा में और एक अधः सप्तम पृथ्वी में होता है (यह एक भंग होता है | ) ( १ ) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है । ( २ ) अथवा एक रत्नप्रभा में एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है । ( ३ ) अथवा एक रत्नप्रभा में एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक अधः सप्तम पृथ्वी में होता है । ( ये तीन भंग होते हैं । ) ( १ ) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है । ( २ ) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधः सप्तम पृथ्वी में होता है । ( ये दो भंग होते हैं ।) (१) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक तमःप्रभी में और एक अधः सप्तम पृथ्वी में होता है । ( यह एक भंग होता है ।) (१) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमः प्रभा में होता है । ( २ ) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधः सप्तम पृथ्वी में होता है । ( ये दो भंग होते हैं) (१) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अध:सप्तम पृथ्वी में होता है । (यह एक भंग होता है ।) (१) अथवा एक रत्नप्रमा में, एक धूमप्रपा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता हं । (यह एक भंग होता है । इस प्रकार रत्नप्रभा के संयोग वाले ४-३-२-१ ३-२-१-२-१-१ = २० भंग होते हैं | ) ( १ ) अथवा शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रमा में, एक पंकप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है । जिस प्रकार रत्नप्रभा का आगे की पृथ्वियों के साथ संचार (योग) किया, उसी प्रकार शर्कराप्रभा का उसके आगे की पृथ्वियों के साथ योग करना चाहिये यावत् अथवा एक शर्करा प्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता १६३२ For Personal & Private Use Only WWWWW Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. १ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक १६३३ है। (शर्कराप्रभा के संयोग वाले दस भंग होते हैं । (१) अथवा एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है । (२) अथवा एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । (३) अथवा एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । (४) अथवा एक वालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । (इस प्रकार वालुकाप्रभा के संयोग वाले चार भंग होते है।) (१) अथवा एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अध:सप्तन पृथ्वी में होता है । (इस प्रकार यह एक भंग होता है । ये २०-१०४-१-ये चतुःसंयोगी ३५ भंग होते हैं। सब मिलकर चार नरयिक आश्रयी असंयोगी ७, द्विक संयोगी ६३, त्रिक संयोगी १०५ और चतुःसंयोगी ३५, ये सब २१० भंग होते हैं।) विवेचन-चार नैरयिक जीवों के १-३, २-२, ३-१, इस प्रकार एक विकल्प के द्विक संयोगी तीन भंग होते हैं। उनमें से रत्नप्रभा के साथ शेष पृथ्वियों का संयोग करने से १-३ के छह भंग होते हैं । इसी प्रकार २-२ के छह भंग और ३-१ के छह भंग होते हैं । इस प्रकार ये अठारह भंग होते हैं । शर्कराप्रभा के साथ उसी प्रकार तीन विकल्प के ५-५-५ ये पन्द्रह भंग होते हैं । इस प्रकार वालुकाप्रभा के साथ ४-४-४-ये बारह भंग होते हैं। इसी प्रकार पकप्रभा के साथ ३-३-३-ये नौ, धूमप्रभा के साथ २-२-२-ये छह, और तमःप्रभा के साथ १-१-१-ये तीन भंग होते हैं । सभी मिलकर विकसंयोगी त्रेसठ भंग होते हैं। उनमें से रत्नप्रभा के अठारह भंग ऊपर मूल अनुवाद में बतला दिये गये है। इसी प्रकार शर्कराप्रभा के साथ आगे की पवियों का योग करने से १-३ के पांच भंग होते हैं। यथा-एक शर्कराप्रभा में और तीन वालुकाप्रभा आदि में होते हैं। इसी तरह २-२ के भी पांच भंग होते हैं । यथा-दो शर्कराप्रभा में और दो बालुकाप्रभा आदि में होते हैं। इसी प्रकार ३-१ के भी पांच भंग होते हैं । यथा-तीन गर्कराप्रभा में और एक बालुकाप्रभा आदि में होता है। इस प्रकार शर्कराप्रभा के साथ पन्द्रह भंग होते हैं। वालुकाप्रभा के साथ आगे को पृथ्वियों का संयोग करने से चार विकल्प होते हैं । उनको पूर्वोक्त तीन भंगों से गुणा करने पर बारह भंग होते हैं । इसी प्रकार पंकप्रभा के साथ आगे की पृथ्वियों का योग For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक करने पर एवं तीन विकल्पों से गुणा करने पर नव भंग होते हैं । इसी प्रकार धूमप्रभा के साय छह भंग और तमःप्रभा के साथ तीन भंग होते हैं। इस प्रकार आगे की पृथ्दियों के साथ योग करने पर ऊपर कहे अनुसार रत्नप्रभा के १८, शर्कराप्रभा के १५, बालकाप्रभा के १२, पंकप्रभा के ९, धूमप्रभा के ६ और तमःप्रभा के ३-ये सभी मिलकर चार नैरयिकों के द्विकसंयोगी ६३ (वेसठ) भंग होते हैं । चार नैरयिकों के त्रिकसंयोगी एक सौ पांच भंग होते हैं । यथा-चार नैरयिकों के १-१-२, १-२-१ और २-१-१-ये तीन भंग एक विकल्प के होते हैं । इनको रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा के साथ बालुकाप्रभादि आगे की पृथ्वियों का योग करने पर पांच विकल्प होते हैं। पूर्वोक्त तीन भंगों के साथ गणा करने से पन्दह भंग होते हैं। इसी प्रकार इन तीन भंगों द्वारा रत्नप्रभा और बालुकाप्रभा-इन दोनों का आगे की पृथ्वियों के साथ संयोग करने पर कुल बारह भंग होते हैं। रत्नप्रभा और पंकप्रभा के साथ शेष पृध्वियों का संयोग करने पर कुल नौ भंग होते हैं । रत्नप्रभा और धूमप्रभा के साथ संयोग करने पर छह, तथा रत्नप्रभा और तमःप्रभा के साथ संयोग करने पर तीन भंग होते हैं। इस प्रकार रत्नप्रभा के संयोग वाले १५, १२, ९, ६ और ३-ये कुल ४५ भंग होते हैं। पूर्वोक्त तीन भंगों द्वारा शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा के साथ संयोग करने पर वारह, शर्कराप्रभा और.पंकप्रभा के साथ संयोग करने पर नौ, गर्कराप्रभा और धूमप्रभा के साथ संयोग करने पर छह, शर्कराप्रभा और तमःप्रभा के साथ संयोग करने पर तीन भंग होते हैं। इस प्रकार शर्कराप्रभा के संयोग वाले १२, ९, ६, ३-ये सब तीस भंग होते हैं । पूर्वोक्त तीन भंगों द्वारा बालुकाप्रभा और पंकप्रभा का शेष पृथ्वियों के साथ संयोग करने पर नौ, बालुकाप्रभा और धूमप्रभा के साथ छह, बालुकाप्रभा और तमःप्रभा के साथ संयोग करने पर तीन भंग होते हैं । इस प्रकार बालुकाप्रभा के संयोग वाले नौ, छह, तीन-ये अठारह भंग होते हैं। पूर्वोक्त तीन भंगों द्वारा पंकप्रभा और धूमप्रभा के साथ शेष का संयोग करने पर छह तथा पंकप्रभा और तमःप्रभा के साथ संयोग करने पर तीन भंग होते हैं । इस प्रकार पंकप्रभा के संयोग वाले छह और तीन ये नौ भंग होते हैं । पूर्वोक्त तीन भंगों द्वारा धूमप्रभा और तमःप्रभा के साथ संयोग करने पर तीन भंग होते हैं । इस प्रकार ४५, ३०, १८, ९ और ३, ये सभी मिलकर त्रिकसंयोगी १०५ भंग होते हैं। उपर्युक्त रीति के अनुसार चार नैरयिकों के चतुःसंयोगी पैतीस भंग होते हैं । इस प्रकार असंयोगी ७ द्विकसंयोगी ६३, त्रिकसंयोगी १०५ और चतुःसंयोगी ३५ (जो कि भावार्थ में बतला दिये हैं) ये सभी मिलकर चार नैरयिक की अपेक्षा २१० भंग होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक १५ प्रश्न-पंच भंते ! णेरइया णेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा किं. रयणप्पभाए होजा-पुच्छा । १५ उत्तर-गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा, जाव अहेसत्तमाए वा होजा। अहवा एगे रयणप्पभाए चत्तारि सक्करप्पभाए होजा; जाव अहवा एगे रयणप्पभाए चत्तारि अहेसत्तमाए होजा । अहवा दो रयणप्पभाए तिण्णि सक्करप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए तिण्णि अहेसत्तमाए होजा । अहवा तिण्णि रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए होजा; एवं जाव अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा चत्तारि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा चत्तारि रयणप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा । अहवा एगे सक्करप्पभाए चत्तारि वालुयप्पभाए होज्जा । एवं जहा रयणप्पभाए समं उवरिमपुढवीओ चारियाओ तहा सक्करप्पभाए वि समं चारेयवाओ, जाव अहवा चत्तारि सक्करप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा; एवं एक्केक्काए समं चारेयवाओ, जाव अहवा चत्तारि तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा । कठिन शम्दार्थ-चारियाओ-संयोग किया है, चारियवाओ-संयोग करना चाहिये । भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! पांच नैरयिक जीव, नैरयिक प्रवेशनक For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं,-इत्यादि प्रश्न । १५ उत्तर-हे गांगेय ! रत्नप्रभा में होते हैं अथवा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं। (इस प्रकार-असंयोगी सात भंग होते हैं।) (द्विक संयोगी ८४ भंग)-अथवा एक रत्नप्रभा में और चार शर्कराप्रभा में होते हैं । अथवा यावत् एक रत्नप्रभा में और चार अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं। (इस प्रकार 'एक और चार' से रत्नप्रभा के साथ शेष पश्वियों का योग करने पर छह भंग होते हैं।) (१) अथवा दो रत्नप्रभा में और तीन शर्कराप्रभा में होते हैं । इस प्रकार यावत् दो रत्नप्रभा में और तीन अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं। (इस प्रकार 'दो और तीन' के छह भंग होते हैं ।) अथवा तीन रत्नप्रभा में और दो शर्कराप्रभा में होते हैं । इस प्रकार यावत् तीन रत्नप्रभा में और दो अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं (इस प्रकार 'तीन और दो' से छह भंग होते हैं।) अथवा चार रत्नप्रभा में और एक शर्कराप्रभा में होता हैं । यावत् चार रत्नप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । (इस प्रकार 'चार और एक' से छह भंग होते हैं । रत्नप्रभा के संयोग से ये कुल चौवीत भंग होते हैं।) अथवा एक शर्कराप्रभा में और चार वालुकाप्रभा में होते हैं । जिस प्रकार रत्नप्रभा के साथ आगे की पृथ्वियों का संयोग किया, उसी प्रकार शर्कराप्रभा के साथ संयोग करने से बीस भंग होते हैं । अथवा यावत् चार शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । इस प्रकार वालुकाप्रभा आदि एक एक पृथ्वी के साथ योग करना चाहिये । यावत् चार तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । (ये द्विक संयोगी के चौरासी भंग होते हैं।) अहवा एगे रयणप्पमाए एगे सक्करप्पभाए तिण्णि वालुयप्पभाए होज्जा; एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए तिणि अहेसत्तमाए होज्जा । अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्क For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवता मूत्र-ग. ५. उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेगनक रप्पभाए दो वालुयप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए दो अहेसत्तमाए होजा । अहवा दो रयणप्पभाए . एगे सक्करप्पभाए दो वालुयप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए दो अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए तिण्णि सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा; . एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए तिणि सक्करप्पभाए एगे अहे. सत्तमाए होजा । अहवा दो रयणप्पभाए दो सरकरप्पभाए. एगे वालुयप्पभाए होजा; एवं जाव अहेसत्तमाए । अहवा तिण्णि रयणप्पभाए.एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा; एवं जाव. अहवा तिण्णि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए तिण्णि पंकप्पभाए होजा । एवं एएणं कमेणं जहा चउण्हं तियासंजोगो भणिओ तहा पंचण्ह वि तियासंजोगो भाणियव्वो; णवरं तत्थ एगो संचारिजइ इह दोण्णि, सेसं तं चेव, जाव अहवा तिण्णि धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा। (त्रिक संयोगी २१० भंग) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और तीन वालुकाप्रभा में होते हैं। इस प्रकार यावत् एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और तीन अधःसप्तम. पृथ्वी में होते हैं। (इस प्रकार 'एक, एक, तीन' के पांच भंग होते हैं।) अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और दो वालुकाप्रभा में होते है। इस प्रकार यावत् एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३८ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक में और दो अधःसप्तम पृथ्वी. में होते हैं। (इस प्रकार 'एक, दो, दो' के पांच भंग होते हैं। ) अथवा दो रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और दो वालुकाप्रभा में होते हैं। इस प्रकार यावत् दो रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और दो अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं। (इस प्रकार 'दो, एक, दो' के पांच भंग होते हैं।) अथवा एक रत्नप्रभा में, तीन शर्कराप्रभा में और एक वालुकाप्रभा में होता है। इस प्रकार यावत् एक रत्नप्रभा में, तीन शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (इस प्रकार 'एक, तीन, एक' के पांच भंग होते हैं।) अथवा दो रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और एक वालुकाप्रभा में होता है । इस प्रकार यावत् दो रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रमा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (इस प्रकार 'दो, दो, एक' के पांच भंग होते हैं।) अथवा तीन रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और एक वालुकाप्रभा में होता है । इस प्रकार यावत् तीन रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (इस प्रकार 'तीन, एक, एक' के पाँच भंग होते हैं ) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और तीन पंकप्रभा में होते है। इस क्रम से जिस प्रकार चार नरयिक जीवों के त्रिक संयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार पांच नरयिकों के भी त्रिक संयोगी भंग जानना चाहिये । परन्तु यहां 'एक' के स्थान में 'दो' का संचार करना चाहिये । शेष सभी पूर्वोक्त जान लेना चाहिए यावत् तीन धूमप्रमा में एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । यहां तक कहना चाहिये। (ये त्रिक संयोगी २१० भंग होते हैं।) अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो पंकप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न- प्रवेशनक होज्जा एवं जाव अहेसत्तमाए | अहवा एगे रयणप्पभाए दो सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे असत्तमाए होज्जा | अहवा दो रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा | अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे पंकल्पभाए दो धूमप्पभाए होज्जा; एवं जहा चउन्हं चउकसंजोगो भणिओ तहा पंचह वि चक्कसंजोगो भाणियव्वो, णवरं अमहियं एगो संचारेयब्यो, एवं जाव अहवा दो पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाएं एगे तमाए एगे असत्तमाए होजा । ( चतु:संयोगी १४० भंग ) - अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रमा में, एक वालुकाप्रभा में और दो पंकप्रभा में होते है । इस प्रकार यावत् एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और दो अधः सप्तम पृथ्वी में होते हैं । (ये चार भंग होते है ।) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, दो वालुकाप्रभा में और एक पंकप्रभा में होता है। इस प्रकार यावत् एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, दो वालुकाप्रभा में और एक अधः सप्तम पृथ्वी में. होता है। (ये चार भंग होते हैं ।) अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में एक वालुकाप्रभा में और एक पंकप्रभा में होता है। इस प्रकार यावत् एक रत्न - प्रभा में, दो शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक अधः सप्तम पृथ्वी में होता है । (ये चार भंग होते हैं ।) अथवा दो रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक पंकप्रभा में होता है। इस प्रकार यावत् दो रत्न For Personal & Private Use Only १६३९ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक प्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रमा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (ये चार भंग होते हैं।) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में और दो धूमप्रभा में होते हैं । जिस प्रकार चार नरयिक जीवों के चतुःसंयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार पांच नैरयिक जीवों के भी चतुःसंयोगी भंग कहना चाहिये, परन्तु यहां एक अधिक का संचार (संयोग) करना चाहिये। इस प्रकार यावत् दो पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । यहाँ तक कहना चाहिये। (ये चतुःसंयोगो १४० भंग होते हैं ।) ___- अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा १; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए होजा २; अहवा एगे रयणप्पभाए जाव एगे पंकप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा ३, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा ४; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा ५; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा ६; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे घूमप्प. भाए एगे तमाए होजा.७; अहवा एगे रयणप्पभाए. एगे सकरणभाए एगे पंकप्पभाए एगे घूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा; For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक १६४१ अहवा एगे रयगप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होना ९, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा १०; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए धूमणभाए एगे तमाए होजा ११; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा १२; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमप्पभाए एगे अहेमत्तमाए होजा १३; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा १४; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होजा १५, अहवा एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए जाव एगे तमाए होजा १६; अहवा एगे सकरप्पभाए जाव एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा १७; अहवा एगे सकरप्पभाए जाव एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा १८; अहवा एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा १९; अहवा एगे सकरप्पभाए एगे पंकप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होजा २०; अहवा एगे वालुयप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होजा २१ । (पंच संयोगी इक्कीस भंग) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४२ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है। (२) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकांप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है । (३) अथवा एक रत्नप्रभा में यावत् एक पंकप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (४) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है। (५) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता हैं । (६) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । (७) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है । (८) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अध:सप्तम पृथ्वी में होता है। (९) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (१०) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (११) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में, और एक तमःप्रभा में होता है। (१२) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धमप्रभा में और एक अधःसप्तम. पृथ्वी में होता है । (१३) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । (१४) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक धमप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अघःसप्तम पृथ्वी में होता है। (१५) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक पंकप्रभा में, यावत् एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । (१६) अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक तालुकाप्रभा में, यावत् एक तमःप्रभा में होता है। (१७) अथवा एक शर्कराप्रभा में, यावत् एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (१८) अथवा एक शर्कराप्रमा में, यावत् एक पंकप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक १६४३ है। (१९) अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में एक धूमप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (२०) अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में, यावत् एक अधः सप्तम पृथ्थी में होता है। (२१) अथवा एक वालुकाप्रभा में, यावत् एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । विवेचम-पांच नैरयिक जीवों के द्विक संयोगी १-४।२-३।३-२। ४-१ । इस प्रकार एक विकल्प के स्थान में चार भंग होते हैं। रत्नप्रभा के द्विक संयोगी छह भंगों के साथ चार से गुणा करने पर चौबीस भंग होते हैं। शर्कराप्रभा के साथ पूर्वोक्त रीति से द्विक संयोगी बीस भंग होते हैं । वालुकाप्रभा के साथ १६, पंकप्रभा के साथ १२, धूमप्रभा के साथ ८ भंग और तमःप्रभा के साथ ४ भंग होते हैं । इस प्रकार २४, २०, १६, १२, ८, ४-ये सभी मिलकर द्विक संयोगी ८४ भंग होते हैं। पांच नैरयिक जीवों के त्रिक संयोगी एक विकल्प के छह भंग होते हैं । यथा-१-१-३ । -२-२ । २-१-२ । १-३-१ । २-२-१। ३-१-१ । सात नरकों के त्रिक-संयोगी पैंतीस विकल्प होते हैं । उन प्रत्येक को छह भंगों से गुणा करने पर पांच नैरयिक जीवों आश्रयी त्रिक-संयोगी २१० भंग होते हैं । इनमें से रत्नप्रभा के संयोग वाले ९०, शर्कराप्रभा के संयोग वाले ६०, वालुकाप्रभा के संयोग वाले ३६, पंकप्रभा के संयोग वाले १८ और .धूमप्रभा के संयोग वाले ६ भंग होते हैं—ये सभी मिलकर २१० भंग होते हैं । - पांच नैरयिक जीवों के चतुःसंयोगो १-१-१-२ । १-१-२-१ । १-२-१-१ । २-१-१-१ । ये एक विकल्प के चार भंग होते हैं। सात नरकों के चतुःसंयोगी पैंतीस विकल्प होते हैं । इन पंतीस को चार से गुणा करने पर १४० भंग होते हैं । यथा-रत्नप्रभा के संयोग वाले ८०, शर्कराप्रभा के संयोग वाले ४०, बालकाप्रभा के संयोग वाले १६ और पंकप्रभा के संयोग वाले ४ । ये सभी मिलकर पांच नैरयिक जीवों के चतुःसंयोगी १४० भंग होते हैं। पांच नैरयिकों के पांच संयोगी १-१-१-१-१ । इस प्रकार एक विकल्प का एक ही भंग होता है। इसके द्वारा सात नरकों के पांच संयोगी २१ ही विकल्प और इक्कीस ही भंग होते हैं। जिनमें से रत्नप्रभा के संयोग वाले १५, शर्कराप्रभा के संयोग वाले ५ और बालुकाप्रभा के संयोग वाला १ भंग होता है। ये सभी मिलकर पांच संयोगी २१ भंग होते हैं । असंयोगी ७, द्विकसंयोगी ८४, त्रिक-संयोगी २१०, चतुःसंयोगी १४० और पंचसंयोगी २१ । ये सभी मिलकर पांच नैरयिक जीवों के कुल ४६२ (७+८४+२१०+१४०+२१-४६२) भंग होते हैं । For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक ___ १६ प्रश्न- छन्भंते ! णेरइया णेरड्यप्पवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होजा-पुच्छा । __ १६ उत्तर-गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा, जाव अहेसत्तमाए वा होजा। _____ अहवा एगे रयणप्पभाए पंच सक्करप्पभाए होज्जा; अहवा एगे रयणप्पभाए पंच वालुयप्पभाए होज्जा, जाव अहवा एगे रयणप्पभाए पंच अहेसत्तमाए होज्जा । अहवा दो रयणप्पभाए चत्तारि सक्करप्पभाए होज्जा; जाव अहवा दो रयणप्पभाए चत्तारि अहे. सत्तमाए होजा । अहवा तिण्णि रयणप्पभाए तिण्णि सक्करप्पभाए, एवं एएणं कमेणं जहा पंचण्हं दुयासंजोगो तहा छण्ह वि भाणियव्वो, णवरं एक्को अन्भहिओ संचारेयव्वो, जाव अहवा पंच तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा। कठिन शब्दार्थ-अन्महिओ-अधिक, संचारेयव्वो-गिनना चाहिए । भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! छह नरयिक जीव, नैरयिक प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न ।। १६ उत्तर-हे गांगेय ! वे रत्नप्रभा में होते हैं अथवा यावत् अधःसप्तम पथ्वी में होते हैं। (ये असंयोगी सात भंग होते हैं।) (द्विक संयोगी १०५ भंग)-(१) अथवा एक रत्नप्रभा में और पांच शर्कराप्रभा में होते हैं । (२) अथवा एक रत्नप्रभा में और पांच वालुकाप्रभा में For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक १६४५ होते हैं । अथवा यावत् (६) एक रत्नप्रमा में और पांच अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं । अथवा दो रत्नप्रभा में और चार शर्कराप्रभा में होते है। अथवा यावत् (६) दो रत्नप्रभा में और चार अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं । अथवा तीन रत्नप्रभा में और तीन शर्कराप्रभा में होते हैं। इस क्रम द्वारा जिस प्रकार पांच नैरयिक जीवों के द्विक-संयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार छह नैरयिकों के भी कहना चाहिये, परन्तु यहां एक अधिक का संचार करना चाहिये यावत् (१०५) अथवा पांव तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए चत्तारि वालुयप्पभाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए चत्तारि पंकप्पभाए होजा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए चत्तारि अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए तिण्णि वालंयप्पभाए होजा, एवं एएणं कमेणं जहा पंचण्हं तियासंजोगो भणिओ.तहा छण्ह वि भाणियव्वो, णवरं एक्को अहिओ उच्चारेयव्वो, सेसं तं चेव । चउक्कसंजोगो वि तहेव, पंचगसंजोगो वि तहेव, णवरं एक्को अन्भहिओ संचारेयवो, जाव पच्छिमो भंगो, अहवा दो वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा। (त्रिक संयोगी ३५० भंग)-(१) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और चार वालुकाप्रभा में होते हैं। (२) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और चार पंकप्रभा में होते है । इस प्रकार यावत् (५) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और चार अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४६ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक (१) अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और तीन वालुकाप्रभा में होते हैं। इस क्रम से जिस प्रकार पांच नरयिक जीवों के त्रिक-संयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार छह नैरयिक जीवों के भी त्रिक-संयोगी भंग कहना चाहिये, परन्तु यहां एक का संचार अधिक करना चाहिये । शेष सभी पूर्ववत् कहना चाहिये। (इस प्रकार ये ३५० भंग होते हैं।) _ (पंच संयोगी १०५ भंग)-जिस प्रकार पांच नरयिकों के भंग कहे गये, उसी प्रकार छह नरयिकों के चतुःसंयोगी और पंच-संयोगी भंग जान लेने चाहिये, परन्तु इनमें एक नैरयिक का संचार अधिक करना चाहिये । यावत् अन्तिम भंग इस प्रकार है-दो वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक तमस्तमःप्रभा में होता है। ___ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए जाव एगे तमाए होज्जा; अहवा एगे रयणप्पभाए जाव एगे धूमप्पभाए एगे अहे. सतमाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए जाव एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा; अहवा एगे रयणप्पभाए जाव एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे पंकप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होजा; अहवा एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए, जाव एगे अहेसत्तमाए होजा। (छह संयोगी सात भंग)-(१) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में यावत् एक तमःप्रभा में होता है । (२) अथवा एक रत्नप्रभा में, यावत् For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक १६४७ एक धूमप्रमा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है ।(३) अथवा एक रत्नप्रभा में यावत् एक पंकप्रभा में एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । (४) अथवा एक रत्नप्रभा में यावत् एक वालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में यावत् एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (५) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में यावत् एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (६) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में यावत् एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । (७) अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में यावत् एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। विवेचन-छह नैरयिकों के द्विक-संयोगी विकल्प के पांच भंग होते हैं । यथा-१-५। २-४ । ३-३ । ४-२ । ५-१ । इन पाँच भंगों द्वारा सात नरकों के द्विक-संयोगी २१ विकल्पों को गुणा करने से १०५ भंग होते हैं । यथा-रत्नप्रभा के संयोग वाले ३०, शर्कराप्रभा के संयोग वाले २५, वालुकाप्रमा के संयोग वाले २०, पंकप्रभा के संयोग वाले १५, धूमप्रभा के संयोग वाले १०, तमःप्रभा के संयोग वाले ५ भंग होते हैं । ये सभी मिलकर १०५ (३०+ २५+२०+१५+१०+५=१०५) भंग होते हैं। छह नरयिकों के त्रिक-संयोगी एक विकल्प के १० भंग होते हैं । यथा-१-१-४ । १-२-३ । २-१-३ । १-३-२ । २-२-२ । ३.१.२ । १.४. . १।२-३-१ । ३-२-१ । ४.१.१ । सात नरकों के त्रिक-संयोगी ३५ विकल्प पूर्वोक्त प्रकार से होते हैं, जो कि पांच नैरयिकों के त्रिक-संयोगी भंगों के प्रसंग में बतला दिये गये हैं । उन पंतीस को दस भंगों से गुणा करने पर तीन सौ पचास भंग होते हैं। छह नैरयिकों के चतुःसंयोगी एक विकल्प के दस भंग होते हैं । यथा-१-१-१-३ । १-१-२-२ । १-२-१-२ । २-१-१-२ । १-१-३-१ । १-२-२-१ । २-१-२-१ । १-३-१-१। २-२-१-१ । ३-१-१-१ । इन दस भंगों द्वारा चतुःसंयोगी पैतीस विकल्पों को गुणा करने से तीन सौ पचास भंग होते हैं। छह नैरयिक जीवों के पंचसंयोगी एक विकल्प के पांच भंग होते हैं । यथा-१-१-११-२ । १.१-१-२-१ । १.१-२.१.१ । १.२-१-१-१ । २-१-१-१-१ । इन पांच भंगों द्वारा सात नरकों के पंच संयोगी इक्कीस विकल्पों को गुणा करने से एक सौ पांच भंग बनते हैं। छह नैरयिक जीवों का छह संयोगी एक ही विकल्प होता है। उसके द्वारा सात नरकों के छह संयोगी सात भंग होते हैं । इस प्रकार छह नरयिकों के असंयोगी ७, द्विक For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४८ भगवती-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक संयोगी १०५ त्रिक-संयोगी ३५०, चतुःसंयोगी ३५०, पंचसंयोगी १०५ और छह संयोगी । ये सभी मिलकर ९२४ भंग होते हैं । . १७ प्रश्न-सत्त भंते ! णेरइया णेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा० पुच्छा। १७ उत्तर-गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा, जाव अहेसत्तमाए वा होजा। अहवा एगे रयणप्पभाए छ सकरप्पभाए होजा। एवं एएणं कमेणं जहा छण्हं दुयासंजोंगो तहा सत्तण्ह वि भाणियवं; प्रवरं एगो अभहिओ संचारिजइ, सेसं तं चेव । तिया. संजोमो, चउक्कसंजोगो, पंचसंजोगो, छक्कसंजोगो य छण्हं जहा तहा सत्तण्ह वि भाणियव्वं, णवरं एक्केको अन्भहिओ संचारे. यम्बो, जाव छक्गसंजोगो। अहवा दो सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होजा। अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होजा। कठिन शब्दार्थ--दुयासंजोगो-द्विक-संयोग। भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! सात नैरयिक जीव, नैरयिक प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न । . .१७ उत्तर-हें गांगेय ! वे सातों नरयिक रत्नप्रभा में होते हैं, अथवा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं-ये असंयोगी सात विकल्प होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में और छह शर्कराप्रभा में होते हैं । इस क्रम से For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "भगवती सूत्र-य. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक १६४९ - जिस प्रकार छह नै रयिक जीवों के द्विक-संयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार सात नैरयिकों के भी जानने चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि यहां एक नरयिक का अधिक संचार करना चाहिये । शेष सभी पूर्ववत् जानना चाहिये। जिस प्रकार छह नैरयिक जीवों के त्रिक संयोगी, चतुःसंयोगी, पंचसंयोगी और षट्संयोगी भंग कहे, उसी प्रकार सात नैरयिकों के विषय में भी जानना चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ एक एक नै रयिक जीव का अधिक संचार करना चाहिये । यावत् षट्संयोगी का अन्तिम भंग इस प्रकार कहना चाहिये । अथवा दो शर्कराप्रभा में, एक वालकाप्रभा में, यावत् एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। यहां तक जानना चाहिये । (सात संयोगो एक भंग ।) अथवा एक रत्नप्रभा में एक शर्कराप्रभा में, यावत् एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। विवेचन-सात नैरयिकों के द्विक संयोगी एक विकल्प के छह भंग होते हैं । यथा१-६ । २-५ । ३-४ । ४-३ । ५-२ । ६-१ । इन छह भंगों द्वारा पूर्वोक्त सात नरकों के द्विकसंयोगी २१ विकल्पों को गुणा करने से सात नैरयिक सम्बन्धी द्विकसंयोगी १२६ भंग होते हैं। सात नैरयिकों के त्रिक संयोगी एक विकल्प के १५ भंग होते हैं । यथा-१-१-५ । १-२-४ । २-१-४ । १-३-३ । २-२-३ । ३-१-३। १-४-२ । २-३-२ । ३-२-२. । ४-१-२ । १-५-१ । २-४-१ । ३-३-१। ४-२-१। ५-१-१। इन पन्द्रह भंगों द्वारा पूर्वोक्त त्रिकसंयोगी पैतीस विकल्पों को गुणा करने से ५२५ भंग होते हैं। . .. सात नैरयिकों के चतुस्संयोगी-१-१-१-४ इत्यादि एक विकल्प के बीस भंग होते हैं। इनके द्वारा पूर्वोक्त चतुःसंयोगी पैतीस विकल्पों को गुणा करने से ७०० भंग होते हैं। सात नरयिकों के पंचसंयोगी १-१-१-१-३ । इत्यादि एक विकल्प के १५ भंग होते हैं। उनके द्वारा पूर्वोक्त पंचसंयोगी इक्कीस विकल्पों को गुणा करने से ३१५ भंग होते हैं। सात नैरयिकों के षट्संयोगी १-१-१-१-१-२। इत्यादि एक विकल्प के छह भंग होते हैं। उनके द्वारा पूर्वोक्त छह संयोगी सात विकल्पों को गुणा करने से बयालीस भंग होते है। सात संयोगी एक विकल्प और एक ही भंग होता है। इस प्रकार (७+१२६+५२५+ ७००+३१५+४२+१=१७१६) कुल मिलाकर सात नैरयिकों के १७१६ भंग होते हैं । For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५० भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न - प्रवेशनक ८ १८ प्रश्न - अटु भंते ! णेरड्या णेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा ० पुच्छा । १८ उत्तर - गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा, जाव असत्तमाए `वा होना | अहवा एगे रयणप्पभाए सत्त सकरप्पभाए होना । एवं दुयासंजोगो, जाव छक्कसंजोगो य जहा सत्तहं भणिओ तहा अट्ठण्ह वि भाणियव्वो, णवरं एक्केक्को अन्महिओ संचारेयव्वो, सेसं तं चैव जाव छक्कसंजोगस्स | अहवा तिष्णि सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए जाव एगे असत्तमाए होज्जा; अहवा एगे रयणप्पभाए जाव एगे तमाए दो असत्तमाए होज्जा; अहवा एगे रयणप्पभाए जाव दो तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा । एवं संचारेयव्वं; जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए जाव एगे असत्तमाए होज्जा । भावार्थ- - १८ प्रश्न हे भगवन् ! आठ नैरयिक जीव, नरयिक प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न । १८ उत्तर - हे गांगेय ! रत्नप्रभा में होते हैं, अथवा यावत् अधः सप्तम पृथ्वी में होते हैं । अथवा एक रत्नप्रभा में और सात शर्कराप्रमा में होते हैं । जिस प्रकार सात नेरयिकों के द्विक-संयोगी, त्रिकसंयोगी, चतुःसंयोगी, पंचसंयोगी और षट्संयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार आठ नैरयिकों के भी कहना चाहिये । परन्तु For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेगनक १६५१ इतनी विशेषता है कि एक एक नरयिक का अधिक संचार करना चाहिये । शेष सभी छह संयोगी तक पूर्वोक्त प्रकार से कहना चाहिये । अन्तिम भंग यह हैअथवा तीन शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में यावत् एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है । (१) अथवा एक रत्नप्रभा में यावत् एक तमःप्रभा में और दो अध:सप्तम पृथ्वी में होते हैं (२) अथवा एक रत्नप्रभा में यावत् दो तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। इसी प्रकार सभी स्थानों पर संचार करना चाहिये । अथवा यावत् दो रत्नप्रमा में, एक शर्कराप्रभा में यावत् एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। विवेचन-आठ नैरयिकों के अमयोगी ७ भंग होते हैं । द्विकसंयोगी एक विकला के सात भंग होते हैं । उनके द्वारा पूर्वोक्त सात नरकों के द्विकसंयोगी इक्कीस विकल्पों को गुणा करने से १४७ भंग होते हैं । - आठ नैरयिकों के १-१-६ इत्यादि त्रिकसंयोगी एक विकल्प के इक्कीस भंग होते हैं । उनके द्वारा पूर्वोक्त मात नरकों के त्रिकसंयोगी पतीस विकल्पों के साथ गुणा करने से ७३५ भंग होते हैं। आठ नैरयिकों के १-१-१-५ इत्यादि चतु:संयोगी एक विकल्प के पंतीस भंग होते हैं । उनके द्वारा पूर्वोक्त सात नरकों के चतुःसंयोगी पैंतीस विकल्पों को गुणा करने से १२२५ भंग होते हैं। आठ नैरयिकों के १-१-१-१-४ इत्यादि पंचसंयोगी एक विकल्प के पैतीस भंग होते हैं। उनके द्वारा पूर्वोक्त मान नरकों के पंचसंयोगी इक्कीस विकल्पों को गुणा करने से ७३५ भंग. होते हैं। आठ नैरयिकों के १-१-१-१-१-३ इत्यादि पद्मयोगी एक विकल्प के इक्कीस भंग होते हैं । उनके द्वारा पूर्वोक्त सात नरकों के पसंयोगी सात विकल्पों को गुणा करने से १४७ भंग होते हैं। आठ नैरयिकों के मात संयोगी १-१-१-१-१-१-२ इत्यादि एक विकल्प के ७ भंग होते हैं । इस प्रकार आठ नैरयिकों के कुल ३००३ (+१४७+७३५+१२२५+७३५+१४७+ ७:३००३) भंग होते हैं । For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५२ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक १९ प्रश्न-णव भंते ! णेरड्या गैरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा किं० पुच्छ। १९ उत्तर-गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा; जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा। अहवा एगे रयणप्पभाए अट्ठ सक्करप्पभाए होज्जा । एवं दुयासंजोगो, जाव सत्तगसंजोगो य जहा अट्टण्ही भणियं तहा णवण्हं पि भाणियव्वं; णवरं एक्केक्को अन्भहिओ संचारेयव्वो, सेसं तं चेव । पच्छिमो आलावगो-अहवा तिण्णि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए जाव एगे अहे. सत्तमाए होजा। कठिन शब्दार्थ-पच्छिमो-पीछे का, बाद का (अंत का) आलावगो-आलापक । भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! नौ नरयिक जीव, नरयिक प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न । १९ उत्तर-हे गांगेय ! वे नौ नरयिक जीव, रत्नप्रभा में होते हैं, अथवा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में और आठ शर्कराप्रमा में होते हैं। इत्यादि जिस प्रकार आठ नरयिकों के द्विक-संयोगी, त्रिक-संयोगी, चतुःसंयोगी, पंचसंयोगी, षट्संयोगी और सप्तसंयोगी भंग कहे, उसी प्रकार नौ नरयिकों के विषय में भी कहना चाहिये । परन्तु विशेषता यह है कि एक-एक नरयिक का अधिक संचार करना चाहिये । शेष सभी पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिये । अन्तिम भंग इस प्रकार है-अथवा तीन रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रमा में, एक बालकाप्रमा में यावत् एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेगनक विवेचन-नौ नैरयिक जीवों आश्रयी असंयोगी सात भंग होते हैं । नौ नैरयिक जीवों के द्विकसंयोगी एक विकल्प के आठ भंग होते हैं उनके द्वारा. पूर्वोक्त सात नरकों के द्विकसंयोगी इक्कीस विकल्पों को गगा करने से १६८ भंग होते हैं। नौ नैरयिक जीवों के १-१-७ इत्यादि त्रिकर्मयोगी एक विकल्प के अट्टाईस भंग होते हैं, उनके द्वारा सात नरकों के पूर्वोक्त त्रिकर्मयोगी पंतीस विकल्पों को गणा करने से , ९८० भंग होते हैं। नौ नैरयिक जीवों के १-१-१-६ इत्यादि चतुःसंयोगी एक विकल्प के ५६ भंग होते हैं । उनके द्वारा सात नरकों के पूर्वोक्त चतुःसंयोगी पैंतीस विकल्पों के साथ गुणा करने से १९६० भंग होते हैं। नौ नैरयिक जीवों के १-१-१-१-५ इत्यादि पंचसंयोगी एक विकल्प के ७० भंग होते हैं, उनके द्वारा सात नरकों के पूर्वोक्त पंचसंयोगी इक्कीस विकल्पों के साथ गुणा करने से १४७० भंग होते हैं। नौ नैरयिक जीवों के १-१-१-१-१-४ इत्यादि पसंयोगी एक विकल्प के ५६ भंग होते है, उनके द्वारा सात नरकों के पूर्वोक्त पट्मंयोगी सात विकल्पों के साथ गुणा करने से ३९२ भंग होते हैं। नौ नैरयिक जीवों के १-१-१-१-१-१-३ इत्यादि सप्तसंयोगी एक विकल्प के २८ भंग होते हैं। उनके द्वारा सात नरकों के पूर्वोक्त सप्तसंयोगी एक विकल्प के साथ गुणा करने पर अट्ठाईस भंग होते हैं । इस प्रकार सभी मिलकर ५००५ (७+१६८+९८०+१९६०+ १४७०+३९२+२८-५००५) भंग होते हैं। २० प्रश्न-दस भंते ! णेरइया णेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा० पुच्छा । २० उत्तर-गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा; जाव अहेसत्तमाए वा होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए णव सक्करप्पभाए होजा । एवं For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५४ . भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-प्रवेशनक दुयासंजोगो जाव सत्तसंजोगो य जहा णवण्हं; णवरं एक्केक्को अब्भहिओ संचारेयव्वो, सेसं तं चेव । अपच्छिमआलावगो-अहवा चत्तारि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा। कठिन शब्दार्थ-अपच्छिमआलावगो-अन्तिम आलापक । भावार्थ-२० प्रश्न-हे भगवन् ! दस नरयिक जीव, नरयिक प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में होते हैं, अथवा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं ? २० उत्तर-हे गांगेय ! वे दस नरयिक जीव, रत्नप्रभा में होते हैं अथवा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में और नौ शर्कराप्रभा में होते हैं। इत्यादि द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी, चतुःसंयोगी, पंचसंयोगी, षट्संयोगी और सप्तसंयोगी भंग जिस प्रकार नौ नरयिक जीवों के कहे गये हैं, उसी प्रकार दस नरयिक जीवों के विषय में भी जानना चाहिये। परन्तु विशेषता यह है कि एक एक नरयिक का अधिक संचार करना चाहिये । शेष सभी पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिये। उनका अन्तिम भंग इस प्रकार है-अथवा चार रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में यावत् एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। विवेचन-दस नैरयिक जीवों के असंयोगी सात भंग होते हैं। दस नैरयिक जीवों के १-९ इत्यादि द्विकसंयोगी एक विकल्प के ९ भंग होते हैं । उनके द्वारा सात नरकों के पूर्वोक्त द्विकसंयोगी इक्कीस विकल्पों के साथ गुणा करने से १८९ भंग होते हैं। दस नैरयिक जीवों के १-१-८ इत्यादि त्रिकसंयोगी एक विकल्प के ३६ भंग होते है। उनके द्वारा सात नरकों के पूर्वोक्त त्रिकसंयोगी पैंतीस विकल्पों के साथ गुणा करने से १२६० भंग होते हैं। दस नैरयिक जीवों के १-१-१-७ इत्यादि चतुःसंयोगी एक विकल्प के ८४ भंग होते For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. ९ . १२ मंख्यात नरयिक प्रदेशनक १६५५ हैं। उनके साथ सात नरकों के पूर्वोक्त पैतीस विकल्पों को गुणा करने से २९४० भंग होते हैं। दस नैरयिक जीवों के १-१-१-१-६ इत्यादि पत्रमयोगी एक विकल्प के १२६ भंग होते हैं, उनके द्वारा सात नरकों के पंचमंयोगी इक्कीस विकल्पों के साथ गुणा करने मे २६४६ भंग होते हैं। दस नैरयिक जीवों के १-१-१-१-१-५ इत्यादि षट्मयोगी एक विकल्प के १२६ भंग होते हैं। उनके द्वारा सात नरकों के पटसंयोगी सात विकल्पों के साथ गुणा करने से ८८२ भंग होते हैं। ___ दस नैरयिक जीवों के १-१-१-१-१-१-४ इत्यादि एक विकल्प के ८४ भंग होते हैं। उनके द्वारा सात नरकों के सप्तसंयोगी एक विकल्प को गुणा करने से ८४ भंग होते हैं । इस प्रकार सभी मिलकर दस नैरयिक जीवों के ८००८(७+१८९+१२६०+२९४०+२६४६+ ८८२+८४-८००८) भंग होते हैं। . संख्यात्त नैरयिक प्रवेशनक २१ प्रश्न-संखेजा भंते ! णेरइया णेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा० पुच्छा। २१ उत्तर-गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा, जाव अहेसत्तमाए वा होजा। अहवा एगे रयणप्पभाए संखेजा सकरप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए संखेज्जा अहेसत्तमाए होजा। अहवा दो रयणप्पभाए संखेजा सकरप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए संखेजा अहेसत्तमाए होजा। अहवा तिण्णि रयणप्पभाए संखेजा सकरप्पभाए होजा। एवं एएणं कमेणं एक्केको संचारेयव्बो, जाव अहवा दस रयणप्पभाए For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५६ भगवती सूत्र-ग. ९ उ. ३२ संख्यात नैरयिक प्रवेशक संखेजा सकरप्पभाए होजा। एवं जाव अहवा दस रयणप्पभाए संखेजा अहेसत्तमाए होजा । अहवा संखेजा रयणप्पभाए संखेज्जा सकरप्पभाए होजा; जाव अहवा संखेजा रयणप्पभाए संखेजा अहेसत्तमाए होजा। अहवा एगे सकरप्पभाए संखेना वालुयप्पभाए होजा, एवं जहा रयणप्पभा उवरिमपुंढवीहिं समं चारिया एवं सकरप्पभा वि उवरिमपुढवीहिं समं चारेयव्वा, एवं एक्केका पुढवी उवरिमपुढवीहिं समं चारेयव्वा; जाव अहवा संखेजा तमाए संखेजा अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए संखेना वालुयप्पभाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए संखेजा पंकप्पभाए होजा; जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए संखेजा अहेसत्तमाए होजा। अहवा एगे रयणप्पभाए दो सकरप्पभाए संखेजा वालुयप्पभाए होजा, जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए संखेजा अहेसत्तमाए होजा। अहवा एगे रयणप्पभाए तिण्णि सक्करप्पभाए संखेजा वालुयप्पभाए होजा; एवं एएणं कमेणं एक्केको संचारेयब्वो (सकरप्पभाए जाव:) अहवा एगे रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए संखेज्जा वालुय. प्पभाए होज्जा; जाव अहवा एगे रयणप्पभाए संखेजा वालुयप्पभाए संखेजा अहेसत्तमाए होजा । अहवा दो रयणप्पभाएं संखेजा सकरप्पभाए संखेजा वालुयप्पभाए होजा; जाव अहवा दो रयण For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ संख्यात नैरयिक प्रवेशनका १६५७ प्पभाए संखेजा सकरप्पभाए संखेजा अहेमत्तमाए होजा। अहवा तिण्णि रयणप्पभाए संखेजा सकरप्पभाए संखेजा वालुयप्पभाए होजा; एवं एएणं कमेणं एक्केको रयणप्पभाए संचारेयन्वो; जाव अहवा संखेजा रयणप्पभाए संखेजा सक्करप्पभाए संखेजा वालुयप्पभाए होजा; जाव अहवा संखेजा रयणप्पभाए सखेजा सकरप्पभाए संखेजा अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए संखेजा पंकप्पभाए होजा; जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा । अहवा एगे रयणप्पभाए दो वालुयप्पभाए संखेजा पंकप्पभाए होजा; एवं एएणं कमेणं तियासंजोगो, चउकसंजोगो; जाव सत्तगसंजोगो य जहा दसण्हं तहेव भाणियब्यो । पच्छिमो आलावगो सत्तसंजोगस्स-अहवा संखेजा रयणप्पभाए संखेजा सकरप्पभाए जाव संखेजा अहेसत्तमाए होजा। कठिन शब्दार्थ--कमेणं--क्रम से, उवरिमपुढविहि--ऊपर की पृथ्वी के । - भावार्थ-२१ प्रश्न-हे भगवन् ! संख्यात नरयिक जीव, नरयिक प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न । . २१ उत्तर-हे गांगेय ! संख्यात नरयिक रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं। (ये असंयोगी सात भंग होते हैं।) (१)अथवा एक रत्नप्रभा में होता है और संख्यात शर्कराप्रभा में होते है । (२-६) इसी प्रकार यावत् एक रत्नप्रभा में और संख्यात अधःसप्तम पृथ्वी For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५८ - भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ संख्यात नैरयिक प्रवेशनक में होते हैं । (ये छह भंग होते हैं ।) (१) अथवा दो रत्नप्रभा में और संख्यात शर्कराप्रभा में होते हैं। (२-६) इस प्रकार यावत् दो रत्नप्रभा में और संख्यात अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं। (ये छह भंग होते हैं।) (१) अथवा तीन रत्नप्रभा में और संख्यात शर्कराप्रभा में होते हैं। इसी प्रकार इसी क्रम से एक-एक नैरयिक का संचार करना चाहिये । अथवा यावत् दस रत्नप्रभा में और संख्यात शर्कराप्रभा में होते हैं । इस प्रकार यावत् दस रत्नप्रभा में और संख्यात अधःसप्तम पथ्वी में होते हैं । अथवा संख्यात रत्नप्रभा में और संख्यात शर्कराप्रमा में होते हैं। इस प्रकार यावत् संख्यात रत्नप्रभा में और संख्यात अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं । अथवा एक शर्कराप्रभा में और संख्यात वालुकाप्रभा में होते हैं। जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी का शेष पृश्वियों के साथ संयोग किया, उसी प्रकार शर्कराप्रमा पृथ्वी का भी आगे की सभी पश्वियों के साथ संयोग करना चाहिये । इस प्रकार एक-एक पृथ्वी का आगे की पवियों के साथ संयोग करना चाहिये। यावत् अथवा संख्यात तमःप्रभा में और संख्यात अधःसप्तम पृथ्वी में होते है। (ये द्विक-संयोगी २३१ भंग होते है।) (१) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और संख्यात वालका: प्रभा में होते हैं। (२) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और संख्यात पंकप्रभा में होते हैं । इस प्रकार यावत् एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और संख्यात अधःसप्तम पृथ्वी होते हैं । अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और संख्यात वालुकाप्रभा में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रमा में और संख्यात अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं । अथवा एक रत्नप्रभा में, तीन शर्कराप्रभा में और संख्यात वालुकाप्रभा में होते हैं। इस प्रकार इस क्रम से एक-एक नरयिक का अधिक संचार करना चाहिये। अथवा एक रत्नप्रभा. में, संख्यात शर्कराप्रमा में और संख्यात वालकाप्रभा में होते हैं । यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, संख्यात वालुकाप्रभा में और संख्यात अधःसप्तम पृथ्वी में होते For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ संख्यात नैरयिक प्रवेशनक १६५९ . हैं। अथवा दो रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में और संख्यात वालुकाप्रभा में होते हैं, यावत् अथवा दो रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में और संख्यात अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं, अथवा तीन रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में और संख्यात वालुकाप्रभा में होते हैं । इस क्रम से रत्नप्रभा में एक-एक नैरयिक का अधिक संचार करना चाहिये, यावत् अथवा संख्यात रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में और संख्यात वालुकाप्रभा में होते हैं, यावत् अथवा संख्यात रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में और संख्यात अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और संख्यात पंकप्रभा में होते हैं । यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और संख्यात अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में, दो वालुकाप्रभा में और सख्यात पंकप्रभा में होते है। इस क्रम से त्रिक-संयोगी, चतुःसंयोगी यावत् सप्तसंयोगी भंगों का कथन, दस नेरयिक सम्बन्धी भंगों के समान कहना चाहिये । अन्तिम भंग यह है-अथवा संख्यात रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में और यावत् संख्यात अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं। ... विवेचन-यहां ग्यारह से लेकर शीर्ष-प्रहेलिका तक की संख्या को-'संख्यात' कहा गया है। उसमें असंयोगी सात भंग होने हैं। द्विक-संयोगी में संख्याता के दो विभाग करने पर-एक और संख्यात, दो और संख्यात यावत् दस और संख्यात तथा 'संख्यात और संख्यात' इस एक विकल्प के ग्यारह भंग होते हैं । ये विकल्प रत्नप्रभादि पृथ्वियों के साथ आगे की पृथ्वियों का संयोग करने पर एक से लेकर संख्यात तक ग्यारह पदों का संयोग करने से और शर्कराप्रभादि पृथ्वियों के साथ केवल संख्यात पद का संयोग करने से बनते हैं। इनसे विपरीत रत्नप्रभादि पूर्व पूर्व की पृथ्वियों के साथ 'संख्यात' पद का संयोग और आगे आगे की पृथ्वियों के साथ एकादि पदों का संयोग करने से जो भंग होते हैं, उनकी विवक्षा यहां नहीं की गई है अर्थात् एक रत्नप्रभा में और संख्यात शर्कराप्रभा में होते हैं, एक रत्नप्रभा में और संख्यात वालुकाप्रभा में होते हैं, इत्यादि भंग करने चाहिये । परन्तु 'संख्यात रत्नप्रभा में और एक शर्कराप्रभा में, संख्यात रत्नप्रभा में और एक वालुकाप्रभा में होता है,'-इत्यादि भंग नहीं करने चाहिये । क्योंकि इससे पूर्व सूत्रों में ये ही क्रम विवक्षित है । पूर्व सूत्रों में दस आदि संख्याओं के दो भाग करके एकादि लघु संख्याओं को पहले दिया है और नौ आदि बड़ो For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६० भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३२ संख्यात नैरयिक प्रवेशनक ¿ संख्याओं के पीछे दिया है अर्थात् 'एक रत्नप्रभा में और नौ शर्कराप्रभा में - इस प्रकार कहा है, परन्तु 'नौ रत्नप्रभा में और एक शर्कराप्रभा में,' 'आठ रत्नप्रभा में और दो शर्कराप्रभा में इस प्रकार पहले की पृथ्वियों में संख्या को घटाते हुए और आगे की पृथ्वियों में संख्या बढ़ाते हुए भंग नहीं बतलाये गये हैं । इस प्रकार यहां भी पहले की नरक पृथ्वियों के साथ एकादि संख्या का और आगे आगे की नरक पृथ्वियों के साथ 'संख्यात' राशि का संयोग करना चाहिये । इनमें आगे आगे नरक पृथ्वियों के साथ वाली 'संख्यात' राशि में से एकादि संख्या को कम करने पर भी 'संख्यात' राशि का संख्यातपन कायम रहता है। इनमें से रत्नप्रभा के साथ एक से लेकर संख्यात तक ग्यारह पदों का और शेष पृथ्वियों के साथ अनुक्रम से 'संख्यात' पद का संयोग करने से ६६ भंग होते हैं। शर्कराप्रभा का शेषं नरक पृथ्वियों के साथ संयोग करने से पाँच विकल्प होते हैं । उन पांच विकल्पों को एकादि ग्यारह पदों से गुणा करने पर शर्कराप्रभा के संयोग वाले ५५ भंग होते हैं । इसी प्रकार वालुकाप्रभा के संयोग वाले ४४, पंकप्रभा के संयोग वाले ३३, धूमप्रभा के संयोग वाले २२ और तमः प्रभा के संयोग वाले ११ भंग होते हैं । इस प्रकार सभी मिलकर द्विकसंयोगी २३१ ६६+५५+४४+३३+२२ + ११ = २३१ ) भंग होते हैं । freiयोगी में 'रत्नप्रभा' 'शर्कराप्रभा' और वालुकाप्रभा' यह प्रथम त्रिकमंयोग है और इसमें 'एक, एक और संख्यात' यह प्रथम भंग है । पहली नरक में एक जीव और तीसरी नरक में संख्यात जीव' इस पद को कायम रख कर दूसरी नरक में अनुक्रम से संख्या का विन्यास किया जाता है अर्थात् दो से लेकर दस तक की संख्या का तथा 'संख्यात' पद का योग करने से कुल ग्यारह भंग होते हैं। इसके बाद दूसरी ओर तीसरी पृथ्वी में 'संख्यात' पद को कायम रखकर पहली पृथ्वी में दो से लेकर दस तक एवं संख्यात पद का संयोग करने पर दस भंग होते हैं। वे सब मिलकर इक्कीस भंग होते हैं। इन इक्कीस भंगों के साथ पूर्वोक्त सात नरक के त्रिक-संयोगी पैंतीस पदों को गुणा करने से त्रिसंयोगी भंग ७३५ होते हैं । पहले की चार नरकों के साथ प्रथम चतुःसंयोगी भंग होता है । उसमें पहले की तीन नरकों में 'एक, एक, एक और चौथी नरक में संख्यात' इस प्रकार प्रथम भंग होता. है । इसके बाद पूर्वोक्त क्रम से तीसरी नरक में, दो से लेकर 'संख्यात' पद तक का संयोग करने से दूसरे दस भंग बनते हैं। इसी प्रकार दूसरी नरक में और पहली नरक में भी दो से लेकर संख्यात पद तक का संयोग करने से बीस भंग होते हैं । ये सब मिलकर इकतीस भंग For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ण. ९.उ. ३२ असंख्यात नैरयिक प्रवेशनक होते हैं । इन इकतीस भंगों द्वारा पूर्वोक्त सात नरकों के चतु:संयोगी पैनीस विकल्पों को गुणा करने से चतु:संयोगी १०८५ भंग होते हैं । १६६१ पहले की पांच नरकों के साथ प्रथम पञ्चसंयोगी भंग होता है । इसमें पहले की चार नरकों में 'एक, एक, एक, एक और पांचवी नरक में संख्यात' यह प्रथम भंग होता है । इसके बाद पूर्वोक्त क्रम से चौथी नरक में अनुक्रम में लेकर संख्यात पद तक का संयोग करना चाहिये। इसी प्रकार तीमरी, दूसरी और पहली नरक में भी दो से लेकर भंग संख्यात पद तक का संयोग करना चाहिये। इस प्रकार सब मिलकर पञ्च संयोगी ४१ होते हैं । उनके साथ पूर्वोक्त मान नरक सम्बन्धी पञ्चसंयोगी २१ पदों को गुणा करने से ८६१ भंग होते हैं । षट्संयोग में पूर्वोक्त क्रम से ५१ भंग होते हैं और उनके साथ पूर्वोक्त सात नरकों के षट्संयोगी सात पदों को गुणा करने से ३५७ भंग होते हैं । सप्तसंयोग में पूर्वोक्त प्रकार से ६१ भंग होते हैं। इस प्रकार संख्यात नैरविक जीवों आश्रयी ३३३७(७+२३१+७३५+१०८५+ ८६१+३५७+६१ = ३३३७ ) भंग होते हैं । असंख्यात नैरायिक प्रवेशनक २२ प्रश्न - असंखेज्जा भंते ! णेरइया णेरइयप्पवेसणएणं० पुच्छा | २२ उत्तर - गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा, जाव अहे सत्त माए वा होज्जा | अहवा एगे रयणप्पभाए असंखेना सकरप्पभाए होज्जा; एवं दुयासंजोगो, जाव सत्तगसंजोगो य जहा संखेज्जाणं भणिओ तहा असंखेज्जाण वि भाणियव्वो, णवरं 'असंखेजाओ' अन्महिओ भाणियव्वो, सेसं तं चैव, जाव सत्तगसंजो For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६२ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ उत्कृष्ट नैरयिक प्रवेशनक गस्स पच्छिमो आलावगो-अहवा असंखेजा रयणप्पभाए असंखेज्जा सक्करप्पभाए जाव असंखेजा अहेसत्तमाए होजा। भावार्थ-२२ प्रश्न-हे भगवन् ! असंख्यात नैरयिक, नरयित प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में होते हैं, इत्यादि प्रश्न ? __२२ उत्तर-हे गांगेय ! रत्नप्रभा में होते हैं, अथवा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं, अथवा एक रत्नप्रमा में और असंख्यात शर्कराप्रभा में होते हैं। जिस प्रकार संख्यात नैरयिकों के द्विकसंयोगी यावत् सप्तसंयोगी भंग कहे, उसी प्रकार असंख्यात के भी कहना चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि यहां 'असंख्यात' का पद अधिक कहना चाहिये अर्थात् बारहवां 'असंख्यात पद' कहना चाहिये। शेष सभी पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिये, यावत् अन्तिम आलापक यह है-अथवा असंख्यात रत्नप्रभा में, असंख्यात शर्कराप्रभा में यावत् असंख्यात अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं । उत्कृष्ट नैरयिक प्रवेशनक २३ प्रश्न-उक्कोसेणं भंते ! णेरइया णेरइयप्पवेसणएणं० पुच्छा । २३ उत्तर-गंगेया ! सव्वे वि ताव रयणप्पभाए होज्जा; अहवा रयणप्पभाए य सकरप्पभाए य होज्जा; अहवा रयणप्पभाए य वालुयप्पभाए य होज्जा; जाव अहवा रयणप्पभाए य अहेसत्तमाए य होजा; अहवा रयणप्पभाए य सकरप्पभाए य वालुयप्पभाए य होज्जा; एवं जाव अहवा रयणप्पभाए य सकरप्पभाए य For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ उत्कृष्ट नैरयिक प्रवेगनक अहेसत्तमाए य होजा; अहवा रयणप्पभाए वालुयप्पभाए पंकप्पभाए य होजा; जाव अहवा रयणप्पभाए वालुयप्पभाए अहेसत्तमाए य होजा; अहवा रयणप्पभाए पंकप्पभाए धूमाए होज्जा, एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा तिहं तियासंजोगो भणिओ तहा भाणियव्यं जाव अहवा रयणप्पभाए तमाए य अहेसत्तमाए य होज्जा । अहवा रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए पंकप्पभाए य होज्जा; . अहवा रयणप्पभाए सकरप्पभाए वालुयप्पभाए धूमप्पभाए य होज्जा; जाव अहवा रयणप्पभाए सकरप्पभाए वालुयप्पभाए अहेसत्तमाए य होज्जा; अहवा रयणप्पभाए सबकरप्पभाए पंकप्पभाए धूमप्पभाए य होज्जा; एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा चउण्हं चउक्कगसंजोगो भणिओ तहा भाणियव्वं, जाव अहवा रयणप्पभाए धूमप्पभाए तमाए अहेसत्तमाए य होज्जा । अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए पंकप्पभाए धूमप्पभाए य होज्जा १; अहवा रयणप्पभाए जाव पंकप्पभाए तमाए य होज्जा २; अहवा रयणप्पभाए जाव पंकप्पभाए अहेसत्तमाए य होज्जा ३; अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए धूमप्पभाए तमाए य होज्जा ४; एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा पंचण्हं पंचगसंजोगो तहा भाणियव्वं; जाव अहवा रयणप्पभाए पंकप्पभाए जाव अहेसत्तमाए य होज्जा; For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६४. भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ उत्कृष्ट नरयिक प्रवेशनक अहवा रयणप्पभाए । सक्करप्पभाए जाव धूमप्पभाए तमाए य होज्जा १; अहवा रयणप्पभाए जाव धूमप्पभाए अहेसत्तमाए य होज्जा २; अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए जाव पंकप्पभाए तमाए य अहेसत्तमाए य होज्जा ३; अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए धूमप्पभाए तमाए अहेसत्तमाए य होजा ४; अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए पंकप्पभाए जाव अहेसत्तमाएं य होजा ५; अहवा रयणप्पभाए वालुयप्पभाए जाव अहेसत्तमाए होजा ६; अहवा रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य जाव अहेसत्तमाए य होजा ७। ...कठिन शब्दार्थ--उक्कोसेणं--उत्कृष्टता से, अमुयंतेसु--न छोड़ते हुए । भावार्थ-२३ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हए नरयिक उत्कृष्ट पद में क्या रत्नप्रभा में होते हैं, इत्यादि प्रश्न ? २३ उत्तर-हे गांगेय ! उत्कृष्ट पद में सभी नैरयिक रत्नप्रभा में होते है। १ अथवा रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा में होते हैं । २ अथवा रत्नप्रभा और वालुकाप्रभा में होते है । इस प्रकार यावत् रत्नप्रभा और अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं। (त्रिकसंयोगी पन्द्रह विकल्प) (१) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा और वालुकाप्रभा में होते हैं । इस प्रकार यावत् (५) रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा और अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं । (६) अथवा रत्नप्रमा, वालुकाप्रभा और पंकप्रभा में होते हैं। (७-९) अथवा यावत् रत्नप्रभा, वालुकाप्रमा और अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं । (१०) अथवा रस्नप्रमा, पंकप्रभा और धूमप्रभा में होते हैं। जिस प्रकार रत्नप्रभा को न छोड़ते हुए तीन नरयिक जीवों के त्रिकसंयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार यहां पर भी कहना चाहिये । यावत् (१५) अथवा रत्नप्रमा, For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. ९ उ. ३२ उत्कृष्ट नैरयिक प्रवेशनक तमः प्रभा और अधः सप्तम पृथ्वी में होते हैं । ( चतु:संयोगी बीस भंग) (१) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा और पंकप्रभा में होते हैं । ( २ ) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा और धूमप्रभा में होते हैं । यावत् ( ४ ) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा और अधः सप्तम पृथ्वी में होते हैं । ( ५ ) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, पंकप्रभा और धूम प्रभा में होते हैं । रत्नप्रभा को न छोड़ते हुए जिस प्रकार चार नरयिक जीवों के चतुःसंयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिये । यावत् (२०) अथवा रत्नप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं । १६६५ (पंच संयोगो पन्द्रह भंग ) (१) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा और धूमप्रभा में होते हैं । ( २ ) अथवा रत्नप्रभा यावत् पंकप्रभा और तमः प्रभा में होते हैं । ( ३ ) अथवा रत्नप्रभा यावत् पंकप्रभा और अधः सप्तम पृथ्वी में होते हैं । ( ४ ) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, धूमप्रभा और तमः प्रभा में होते हैं । रत्नप्रभा को न छोड़ते हुए जिस प्रकार पांच नरयिक जीवों के पंच संयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार कहना चाहिये, अथवा यावत् (१५) रत्नप्रभा, पंकप्रभा यावत् अधः सप्तम पृथ्वी में होते हैं । ( षट्संयोगी छह मंग) (१) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, यांवत् धूमप्रभा और तमः प्रभा में होते हैं । ( २ ) अथवा रत्नप्रभा, यावत् धूमप्रभा और अधः सप्तम पृथ्वी में होते हैं । ( ३ ) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रमा यावत् पंकप्रभा, तमः प्रभा और अधः सप्तम पृथ्वी में होते हैं । ( ४ ) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा और अधः सप्तम पृथ्वी में होते हैं । ( ५ ) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराभा, पंकप्रभा यावत् अधः सप्तम पृथ्वी में होते हैं । ( ६ ) अथवा रत्नप्रभा, वालुकाप्रभा, यावत् अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं । ( सप्तसंयोगी एक भंग ) (१) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, यावत् अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट पद के सभी मिलकर चौसठ (१+६+१५+२०+१५+६+१ = ६४ ) भंग होते हैं । For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६६ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ नैरयिक प्रवेशनक का अल्प बहुत्व विवेचन--संख्यात प्रवेशनक के समान असंख्यात प्रवेशनक का भी कथन करना चाहिये । किन्तु यहाँ 'असंख्यात' का पद अधिक कहना चाहिये । असंख्यात नैरयिक जीवों सम्बन्धी एक संयोगादि भंग क्रमशः इस प्रकार होते है-७+२५२+८०५+११९०+९४५+ ३९२+६७-ये सभी मिलकर ३६५८ भंग होते हैं। उत्कृष्ट प्रवेशनक के भंग ऊपर बतला दिये गये हैं। नैरयिक प्रवेशनक का अल्प बहुत्व २४ प्रश्न-एयस्स णं भंते ! रयणप्पभापुढविणेरइयप्पवेसणगस्स सक्करप्पभापुढवि-जाव अहे सत्तमापुटविणेरइयप्पवेसणगस्स कयरेकयरे जाव विसेसाहिया वा ? ___ २४ उत्तर-गंगेया ! सव्वत्थोवे अहेसत्तमापुढविणेरइयपवेसणए, तमापुढविणेरइयपवेसणए असंखेजगुणे; एवं पडिलोमगं जाव रयणप्पभापुढविणेरड्यपवेसणए असंखेजगुणे । कठिन शब्दार्थ--एयस्सणं--इनमें से, पडिलोमगं-प्रतिलोम (विपरीतक्रम) । - भावार्थ-२४ प्रश्न-हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी नरयिक प्रवेशनक, शकंराप्रभा पृथ्वी नरयिक प्रवेशनक, यावत् अधःसप्तम पृथ्वी नरयिक प्रवेशनक, इनमें कौन प्रवेशनक किस प्रवेशनक से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? २४ उत्तर-हे गांगेय ! सब से अल्प अधःसप्तम पृथ्वी नरयिक प्रवेशनक है, उससे तमःप्रभा पृथ्वी नरयिक प्रवेशनक असंख्यात गण है, इस प्रकार उलटे क्रम से यावत् रत्नप्रभा पृथ्वी नरयिक प्रवेशनक असंख्यात गुण है। विवेचन-अधःसप्तम पृथ्वी में जाने वाले जीव सब से थोड़े हैं। उसकी अपेक्षा तमःप्रभा में जाने वाले असंख्यात गुण हैं । इस प्रकार उलटे क्रम से एक-एक से आगे असंख्यात गुण हैं। For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ तियंच योनिक प्रवेशनक १६६७ तिर्यंच योनिक प्रदेशनक २५ प्रश्न-तिरिक्खजोणियपवेसणए णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? २५ उत्तर-गंगेया ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-एगिदियतिरिखजोणियपवेसणए, जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियप्पवेसणए । २६ प्रश्न-एगे भंते ! तिरिक्खजोणिए तिरिक्खजोणियप्प. वेसणएणं पविसमाणे किं एगिदिएसु होजा, जाव पंचिंदिएसु होजा? २६ उत्तर-गंगेया ! एगिदिएसु वा होजा; जाव पंचिंदिपसु वा होजा। . _२७ प्रश्न-दो भंते ! तिरिक्खजोणिया० पुच्छ। २७ उत्तर-गंगेया ! एगिदिएसु वा होजा, जाव पंचिंदिएसु वा होजा। अहवा एगे एगिदिएसु होजा एगे बेइंदिएसु होज्जा, एवं जहा णेरड्यप्पवेसणए तहा तिरिक्खजोणियप्पवेसणए वि भाणियवे, जाव असंखेज्जा । २८ प्रश्न-उक्कोसा भंते ! तिरिक्खजोणिया० पुच्छा। २८ उत्तर-गंगेया ! सब्वे वि ताव एगिदिएसु होजा, अहवा एगिदिएसु वा वेइंदिएसु वा होजा । एवं जहा णेरड्या चारिया तहा तिरिक्खजोणिया वि चारेयव्वा । एगिंदिया अमुयंतेसु दुया. संजोगो, तियासंजोगो, चउकसंजोगो, पंचसंजोगो उवउंजिऊण For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६८ भगवती-ग. ९ उ. ३२ तिर्यच योनिक प्रवेशनक भाणियव्वो, जाव अहवा एगिदिएसु वा, वेइंदिय० जाव पंचिंदिएसु वा होजा। २९ प्रश्न-एयस्स णं भंते ! एगिदियतिरिक्खजोणियपवेसणगस्स, जाव पंचिंदिय-तिरिक्खजोणियपवेसणगस्स य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? .२९ उत्तर-गंगेया ! सव्वत्थोवे पंचिंदियतिरिक्खजोणियपवे. सणए, चरिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणएं विसेसाहिए, तेइंदिय० विसेसाहिए, बेइंदिय० विसेसाहिए, एगिदियतिरिक्ख० विसेसाहिए । कठिन शब्दार्थ-उवउंजिऊण-उपयोग लगाकर। ... भावार्थ-२५ प्रश्न-हे भगवन् ! तिर्यंचयोनिक प्रवेशक कितने प्रकार का कहा गया है ? २५ उत्तर-हे गांगेय ! वह पांच प्रकार का कहा गया है । यथा-एकेंद्रिय तिर्यंच-योनिक प्रवेशनक यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक प्रवेशनक। . २६ प्रश्न-हे भगवन् ! एक तिर्यच-योनिक जीव, तिर्यंच-योनिक प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करता हुआ क्या एकेद्रियों में उत्पन्न होता है, अथवा यावत् पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होता है ? २६ उत्तर-हे गांगेय ! एक तिर्यंच-योनिक जीव, एकेन्द्रियों में उत्पन्न होता है, अथवा यावत् पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होता है। २७ प्रश्न-हे भगवन् ! दो तियंच-योनिक जीव, तियंच-योनिक प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न ? .. २७ उत्तर-हे गांगेय ! एकेन्द्रियों में होते हैं अथवा यावत् पंचेन्द्रियों में होते हैं । अथवा एक एकेन्द्रिय में और एक बेइन्द्रिय में होता है । जिस प्रकार For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९.उ. ३२ तिर्यच योनिक प्रवेशनक नरयिक जीवों के विषय में कहा, उसी प्रकार तियंच-योनिक प्रवेशनक के विषय में भी कहना चाहिये । यावत् असंख्य तियंच-योनिक प्रवेशनक तक कहना चाहिय । २८ प्रश्न-हे भगवन् ! उत्कृष्ट तियंच-योनिक प्रवेशनक विषयक प्रश्न ? २८ उत्तर-हे गांगेय ! वे सभी एकेन्द्रियों में होते हैं । अथवा एकेन्द्रिय और बेइन्द्रियों में होते हैं, जिस प्रकार नरयिक जीवों में संचार किया गया है, उसी प्रकार तियंचयोनिक प्रवेशनक के विषय में भी संचार करना चाहिये। एकेन्द्रिय जीवों को न छोड़ते हुए द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी, चतुःसंयोगी और पचसंयोगी भंग उपयोगपूर्वक कहना चाहिये । यावत् अथवा एकेन्द्रिय जीवों में, बेइन्द्रियों में यावत् पंचेन्द्रियों में होते हैं। २९ प्रश्न-हे भगवन् ! एकेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक प्रवेशनक यावत् पंचेंद्रियतिर्यंच-योनिक प्रवेशनक, इनमें कौन किससे यावत् विशेषाधिक है ? २९ उत्तर-हे गांगेय ! सब से थोडे पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक प्रवेशनक हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय तिर्यंच-योनिक प्रवेशनक विशेषाधिक हैं, उनसे तेइन्द्रिय तिर्यच-योनिक प्रवेशनक विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय तिर्यच-योनिक प्रवेशनक विशेषाधिक हैं और उनसे एकेन्द्रिय तिर्यञ्च-योनिक प्रवेशनक विशेषाधिक हैं। विवेचन-एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक तिर्यंच होते हैं। उनका प्रवेशनक ऊपर बतलाया गया है । . शङ्का-ऊपर जो यह बतलाया गया है कि 'एक जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न होता है, यह कैसे ? क्योंकि एकेन्द्रियों में एक जीव कदापि उत्पन्न नहीं होता, वहां प्रति-समय अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं । __समाधान-इस शंका का समाधान यह है कि सबसे पहले 'प्रवेशनक' शब्द का अर्थ जानना आवश्यक है। उसका अर्थ यह है 'विजातीय देवादि भव से निकल कर एकेन्द्रियादि में उत्पन्न होना'-'प्रवेशनक'कहलाता है । इस अपेक्षा से एक जीव भी मिल सकता है। क्योंकि प्रवेशनक का यह अर्थ है कि विजातीय भव से आकर विजातीय भव में उत्पन्न होना । सजातीय जीव, सजातीय में उत्पन्न हों, यह प्रवेशनक नहीं कहलाता । क्योंकि वह तो एकेन्द्रिय जाति में प्रविष्ट है ही। अर्थात् एकेन्द्रिय मरकर एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो, वह For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ मनुष्य प्रवेशनक प्रवेशनक की गणना में नहीं आता; जो अनन्त उत्पन्न होते हैं, वे तो एकेन्द्रिय में से ही हैं। एक जीव अनुक्रम से एकेन्द्रियादि पांच स्थानों में उत्पन्न हो, तव उसके पांच भंग होते हैं। दो जीव भी एक एक स्थल में साथ उत्पन्न हों, तो पांच ही भंग होते हैं और द्विकसंयोगी दस भंग होते हैं । तीन से लेकर असंख्यात तिर्यंच-योनिक जीवों का प्रवेशनक नैरयिक प्रवेशनक के समान जानना चाहिये, परन्तु नै रयिक जीव, सात नरक पृध्वियों में उत्पन्न होते हैं और तिर्यंच जीव, एकेन्द्रियादि पांच स्थानों में उत्पन्न होते हैं। इसलिये भंगों की संख्या में भिन्नता है, वह बुद्धिमानों को स्वयं विचार कर जान लेनी चाहिये । ___ यद्यपि अनन्त एकेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं, परन्तु ऊपर बतलाया हुआ प्रवेगनक का लक्षण असंख्यात जीवों में ही घटित हो सकता है । इसलिये असंख्यात तक ही प्रवेशनक कहा गया है। मनुष्य प्रवेशनक ३० प्रश्न-मणुस्सप्पवेसणए णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ३० उत्तर-गंगेया ! दुविहे पण्णत्ते तं जहा-संमुच्छिममणुस्सप्पवेसणए, गम्भवक्कंतियमणुस्सप्पवेसणए य। ३१ प्रश्न-एगे भंते ! मणुस्से मणुस्सप्पवेसगएणं पविसमाणे किं समुच्छिममणुस्सेसु होजा, गम्भवफ्कंतियमणुस्सेसु होज्जा ? ३१ उत्तर-गंगेया ! संमुच्छिममणुस्सेसु वा होजा, गम्भवक्कतियमणुस्सेसु वा होजा। ३२ प्रश्न-दो भंते ! मणुस्सा० पुच्छा । . . ३२ उत्तर-गंगेया ! संमुच्छिममणुस्सेसु वा होजा, गम्भवपकं. तियमणुस्सेमु वा होजा । अहवा एगे संमुच्छिममणुस्सेसु वा होजा For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवनी सूत्र-ग. ९ उ. ३२ मनुष्य प्रवेशनक १६७१ एगे गम्भवक्कंतियमणुस्सेसु वा होजा; एवं एएणं कमेणं जहा णेरइयपवेसणए तहा मणुस्सपवेसणए वि भाणियव्वे, जाव दस । ___३३ प्रश्न संखेज्जा भंते ! मणुस्सा० पुच्छा । ३३ उत्तर-गंगेया ! संमुच्छिममणुस्सेसु वा होजा, गम्भवक्कंतियमणुस्सेसु वा होजा। अहवा एगे समुच्छिममणुस्सेसु होज्जा संखेजा गम्भवक्कंतियमणुस्सेसु वा होजा; अहवा दो समुच्छिममणुस्सेसु होज्जा संखेज्जा गम्भवक्कंतियमणुस्सेसु होज्जा; एवं एक्केक्कं उस्सारितेसु जाव अहवा संखेजा संमुच्छिममणुस्तेसु होजा संखेजा गम्भवक्कंतियमणुस्मेसु होजा । ३४ प्रश्न-असंखेज्जा भंते ! मणुस्सा० पुच्छा। ३४ उत्तर-गंगेया ! सब्वे वि ताव संमुच्छिममणुस्सेसु होज्जा। अहवा असंखेजा संमुच्छिममणुस्सेसु, एगे गम्भवक्कंतियमणुस्सेसु होजा; अहवा असंखेजा संमुच्छिममणुस्सेसु दो गम्भववकंतियमणुस्सेसु होजा; एवं जाव असंखेना संमुच्छिममणुस्सेसु होजा संखेना गम्भवक्कंतियमणुस्सेसु होजा। ३५ प्रश्न-उक्कोसा भंते ! मणुस्सा • पुच्छा । ३५ उत्तर-गंगेया ! सव्वे वि ताव समुच्छिममणुस्सेसु होजा अहवा संमुच्छिममणुस्सेसु य गम्भवक्कंतियमणुस्सेसु य होजा । For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३२ मनुष्य प्रवेशनक ३६ प्रश्न - एयस्स णं भंते ! संमुच्छिममणुस्सप वेसणगस्स भवाकं तियमणुस्सप वेसणगस्स य कयरे - जाव विसेसांहिया वा ? ३६ उत्तर - गंगेया ! सव्वत्थोवे गन्भवक्कंतियमणुस्सपवेसणए, संमुच्छिममणुस्सपवेसण असंखेज्जगुणे । ૧૨૯૨ कठिन शब्दार्थ - उस्सारितेसु बढ़ाते हुए । भावार्थ - ३० प्रश्न - हे भगवन् ! मनुष्य-प्रवेशनक कितने प्रकार का कहा गया है ? ३० उत्तर - हे गांगेय ! दो प्रकार का कहा गया है। यथा1- सम्मूच्छिम मनुष्य-प्रवेशनक और गर्भज मनुष्य प्रवेशनक ३१ प्रश्न - हे भगवन् ! मनुष्य-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करता हुआ एक मनुष्य क्या सम्मूच्छिम मनुष्यों में उत्पन्न होता है, या गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होता है ? ३१ उत्तर - हे गांगेय ! वह सम्मूच्छिम मनुष्यों में उत्पन्न होता है, अथवा गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होता है । ३२ प्रश्न - हे भगवन् ! दो मनुष्य, मनुष्य-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या सम्मूच्छिम मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न । ३२ उत्तर - हे गांगेय ! दो मनुष्य सम्मूच्छिम मनुष्यों में होते हैं, अथवा गर्भज मनुष्यों में होते हैं । अथवा एक सम्मूच्छिम मनुष्यों में और एक गर्भज मनुष्यों में होते हैं। इस क्रम से जिस प्रकार नरयिक प्रवेशनक कहा, उसी प्रकार मनुष्य-प्रवेशनक भी कहना चाहिये । यावत् दस मनुष्यों तक कहना चाहिये । ३३ प्रश्न - हे भगवन् ! संख्यात मनुष्य, मनुष्यप्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए, इत्यादि प्रश्न । ३३ उत्तर - हे गांगेय ! वे सम्मूच्छिम मनुष्यों में होते हैं, अथवा गर्भज For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - स. ९ उ. ३२ मनुष्य प्रवेशनक मनुष्यों में होते हैं । अथवा एक सम्मूच्छिम मनुष्यों में होता है और संख्यात गर्भज मनुष्यों में होते हैं । अथवा दो सम्मूच्छिम मनुष्यों में होते हैं और संख्यात गर्भज मनुष्यों में होते हैं। इस प्रकार एक-एक बढ़ाते हुए यावत् अथवा संख्यात सम्मूच्छिन मनुष्यों में और संख्यात गर्भज मनुष्यों में होते हैं । ३४ प्रश्न - हे भगवन् ! असंख्यात मनुष्य, मनुष्य-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करने के सम्बन्ध में प्रश्न । १६७३ ३४ उत्तर - हे गांगेय ! वे सभी सम्मूच्छिम मनुष्यों में होते हैं । अथवा असंख्यात सम्मूच्छिम मनुष्यों में होते हैं और एक गर्मज मनुष्यों में होता है । अथवा असंख्यात सम्मूच्छिम मनुष्यों में होते हैं और दो गर्भज मनुष्यों में होते हैं । अथवा इस प्रकार यावत् असंख्यात सम्मूच्छिम मनुष्यों में होते हैं और संख्यात गर्भज मनुष्यों में होते हैं । > ३५ प्रश्न – हे भगवन् ! मनुष्य, उत्कृष्ट रूप से किस प्रवेशनक में होते हैं ? इत्यादि प्रश्न | ३५ उत्तर- हे गांगेय ! वे सभी सम्मूच्छिम मनुष्यों में होते हैं । अथवा सम्मूच्छिम मनुष्यों में और गर्भज मनुष्यों में होते हैं । ३६ प्रश्न - हे भगवन् ! सम्मूच्छिम मनुष्य प्रवेशनक और गर्भज मनुष्य प्रवेशतक, इनमें कौन प्रवेशनक किस प्रवेशनक से यावत् विशेषाधिक है । ३६ उत्तर - हे गांगेय ! सब से अल्प गर्भज मनुष्य प्रवेशनक है, उससे 'सम्मूच्छिन मनुष्य-प्रवेशनक असंख्यात गुण हैं । विवेचन - मनुष्य प्रवेशन में दो स्थान हैं । यथा - सम्मूच्छिम मनुष्य-प्रवेशनक और गर्भज मनुष्य प्रवेशनक । इन दोनों की अपेक्षा एक से लेकर संख्यात तक विकल्प पूर्ववत् समझना चाहिये । संख्यात पद में द्विक-संयोग में पूर्ववत् ग्यारह् विकल्प होते हैं । संख् पद में पहले बारह विकल्प बतलाये गये हैं, किन्तु यहां ग्यारह विकल्प ही होते हैं । क्योंकि यदि सम्मूच्छिम मनुष्यों में असंख्यातपन और गर्भजमनुष्यों में भी असंख्यातपन हो, तभी बारहवां विकल्प बन सकता है, किन्तु यह संगत नहीं । क्योंकि गर्भज मनुष्य असंख्यात नहीं हैं, अतएव उनके प्रवेशतक में असंख्यातपन नहीं हो सकता । अतः असंख्यात पद में भी For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७४ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ देव प्रवेशनक ग्यारह विकल्प ही होते हैं। उत्कृष्ट पद में सम्मच्छिम मनुष्य प्रवेशनक कहा गया है । क्योंकि समूच्छिम मनुष्य ही असंख्यात हैं, इसलिये उनका प्रवेशनक भी असंख्यात हो सकता है । अतएव अल्प-बहुत्व में भी गर्भज मनुष्य प्रवेशनक से सम्मूच्छिम मनुष्य प्रवेशनक असंख्यात गुण बतलाया गया हैं। देव प्रवेशनक ३७ प्रश्न-देवपवेसणए णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ३७ उत्तर-गंगेया ! चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-भवणवासिदेवपवेसणए, जाव वेमाणियदेवपवेसणए । __ ३८ प्रश्न-एगे भंते ! देवे देवपवेसणएणं पविसमाणे किं भवणवासीसु होजा, वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु होजा? ____३८ उत्तर-गंगेया ! भवणवासीसु वा होजा, वाणमंतर-जोइ. ". सिय-वेमाणिएसु वा होजा। ३९ प्रश्न-दो भंते ! देवा देवपवेसणएणं० पुच्छा । ३९ उत्तर-गंगेया ! भवणवासीसु वा होजा, वाणमंतर-जोइ. सिय-वेमाणिएसु वा होजा। अहवा एगे भवणवासीसु एगे वाणमंतरेसु होजा, एवं जहा तिरिक्खजोणियपवेसणए तहा देवपवेसगए वि भाणियव्वे, जाव असंखेज ति । ४० प्रश्न-उक्कोसा भंते ! पुच्छा। For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. ९ उ. ३२ देव प्रवेगनक १६७५ ४० उत्तर-गंगेया ! सव्वे वि ताव जोइसिएसु होजा, अहवा जोइसिय-भवणवासिसु य होज्जा, अहवा जोइसिय-वाणमंतरेसु य होजा, अहवा जोइसिय-वेमाणिएमु य होजा, अहवा जोइसिएसु य भवणवासिसु य वाणमंतरेसु य होजा, अहवा जोइसिएमु य भवणवासिमु य वेमाणिएमु य होजा, अहवा जोइसिएसु य वाणमंतरेसु य वेमाणिएसु य होजा, अहवा जोइसिएसु य भवणवासिसु य वाणमंतरेसु य वेमाणिएसु य होजा । ___४१ प्रश्न-एयस्स णं भंते ! भवणवासिदेवपवेसणगस्स, वाणमंतरदेवपवेसणगस्स, जोइसियदेवपवेसणगस्स, वेमाणियदेवपवेसणगस्स य कयरे कयरेहितो-जाव विसेमाहिया वा ? ४१ उत्तर-गंगेया ! सव्वत्थोवे वेमाणियदेवपवेसणए, भवणवासिदेवपवेसणए असंखेजगुणे, वाणमंतरदेवपवेसणए असंखेजगुणे, जोइंसियदेवपवेसणए संखेजगुणे । कठिन शब्दार्थ--कयरे कयरेहितो--कौन किससे । भावार्थ ३७ प्रश्न-हे भगवन् ! देव-प्रवेशनक कितने प्रकार का कहा गया है ? - ३७ उत्तर-हे गांगेय ! चार प्रकार का कहा गया है। यथा-भवनवासी देव-प्रवेशनक, वाणव्यन्तर देव-प्रवेशनक, ज्योतिषीदेव-प्रवेशनक और वैमानिक देव-प्रवेशनक । ३८ प्रश्न-हे भगवन् ! एक देव, देव-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करता हुआ क्या भवनवासी देवों में होता है, वाणव्यन्तर देवों में होता है, ज्योतिषी देवों For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७६ भगवती सूत्र - ग. ९ उ. ३२ देव प्रवेशनक में होता है, अथवा वैमानिक देवों में होता है ? ३८ उत्तर - हे गांगेय ! वह भवनवासी देवों में होता है, अथवा वाणव्यन्तर देवों में, अथवा ज्योतिषी देवों में, अथवा वैमानिक देवों में होता है । ३९ प्रश्न - हे भगवन् ! दो देव, देवप्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुएइत्यादि प्रश्न | उत्तर - हे गांगेय ! वे दो देव, भवनवासी देवों में होते हैं, अथवा वाणन्यन्तर देवों में होते हैं, अथवा ज्योतिषी देवों में होते हैं अथवा वैमानिक देवों में होते हैं । अथवा एक भवनवासी देवों में होता है और एक वाणव्यन्तर देवों में होता है । जिस प्रकार तियंच योनिक प्रवेशनक कहा, उसी प्रकार देवप्रवेशनक भी कहना चाहिये । यावत् असंख्यात देव प्रवेशनक तक कहना चाहिये । ४० प्रश्न - हे भगवन् ! देव उत्कृष्टपने किस प्रवेशनक में होते हैं इत्यादि प्रश्न । ४०. उत्तर - हे गांगेय ! वे सभी ज्योतिषी देवों में होते हैं, अथवा ज्योतिषी और भवनवासी देवों में होते हैं, अथवा ज्योतिषी और वाणव्यन्तर देवों में होते हैं, अथवा ज्योतिषी और वैमानिक देवों में होते हैं, अथवा ज्योतिषी, भवनवासी और वाणव्यन्तर देवों में होते हैं, अथवा ज्योतिषी, भवनवासी और वैमानिक देवों में होते हैं, अथवा ज्योतिषी, वाणव्यन्तर और वैमानिक देवों में होते हैं । अथवा ज्योतिषी, भवनवासी, वाणव्यन्तर और वैमानिक देवों में होते हैं । ४१ प्रश्न - हे भगवन् ! भवनबासी देवप्रवेशनक, वाणव्यन्तर देब - प्रवेशनक, ज्योतिषी देवप्रवेशनक और वैमानिक देव प्रवेशनक, इनमें कौन प्रवेशनक किस प्रवेशनक से यावत् विशेषाधिक है ? ४१ उत्तर - हे गांगेय ! वैमानिक देव- प्रवेशनक सबसे अल्प है, उससे भवनवासी देव प्रवेशनक असंख्यात गुण है, उससे वाणव्यन्तर देव-प्रवेशनक असंख्यात गुण हैं और उससे ज्योतिषी-देवप्रवेशनक संख्यातगुण हैं । विवेचन- ज्योतिषी देवों में जाने वाले जीव बहुत होते हैं। इसलिये उत्कृष्ट पदं में कहा गया है कि वे सभी ज्योतिषी देवों में होते हैं ! For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ९ उ. ३२ प्रवेशनकों का अल्प-बहुत्व वैमानिक देव सबसे थोड़े हैं और उनमें जाने वाले भी सब से थोड़े हैं, इसीलिये अल्प-बहुत्व में यह कहा गया है कि वैमानिक देव-प्रवेशतक सबमे अल्प हैं । प्रवेशनकों का अल्प - बहुत्व ४२ प्रश्न - एयस्स णं भंते ! णेरइयपवेसणगस्स तिरिक्खजोणिय० मणुस्स० देवपवेसणगस्स य कयरे कयरेहिंतो - जाव विसेसाहिए वा ? १६७७ ४२ उत्तर - गंगेया ! सव्वत्थोवे मणुस्सपवेसणए; णेरइयपवेसण ए असंखेजगुणे, देवपवेसणए असंखेज्जगुणे, तिरिक्णजोणियप्पवेसणए असंखेजगुणे | भावार्थ- - ४२ प्रश्न - हे भगवन् ! नं रयिकप्रवेशनक, तिर्यंचयोनिकप्रवेशनक, मनुष्यप्रवेशतक और देव-प्रवेशनक, इनमें कौन प्रवेशनक, किस प्रवेशनक से यावत् विशेषाधिक है ? ४२ उत्तर—हे गांयेय ! सबसे अल्प मनुष्य प्रबेशनक हैं, उससे नैरयिकप्रवेशन असंख्यात गुण हैं, उससे देव-प्रवेशनक असंख्यात गुण हैं और उससे तिचयोनिक प्रवेशनक असंख्यात गुण है । विवेचन - मनुष्य, मनुष्य क्षेत्र में ही होते हैं। इसलिये मनुष्य-प्रवेशनक सबसे अल्प है, क्योंकि मनुष्य क्षेत्र अल्प है। उससे नैरयिक प्रवेशक असंख्यात गुण हैं, क्योंकि नरक में जाने वाले जीव असंख्यात गुण हैं, इसी प्रकार देव-प्रवेशनक और तिर्यंचयोनिक प्रवेशनक के विषय में भी समझना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७८ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ सान्तरादि उत्पाद और उद्वर्तन सान्तरादि उत्पाद और उद्वर्तन ४३ प्रश्न-संतरं भंते ! णेरइया उववजंति णिरंतरं णेरड्या उववजंति, संतरं असुरकुमारा उववजंति णिरंतरं असुरकुमारा उववजंति, जाव संतरं वेमाणिया उववज्जति णिरंतरं वेमाणिया उववजंति, संतरं गेरइया उब्वटुंति णिरंतरं णेरइया उबटुंति, जाव संतरं वाणमंतरा उब्वटुंति णिरंतरं वाणमंतरा उव्वटुंति, संतरं जोइसिया चयंति णिरंतरं जोइसिया चयंति, संतरं वेमाणिया चयंति गिरंतरं वेमाणिया चयंति ? • ४३ उत्तर-गंगेया ! संतरं पि णेरइया उववज्जति णिरंतरं पि णेरइया उववज्जंति, जाव संतरं पि थणियकुमारा उववज्जति णिरंतरं पि थणियकुमारा उववज्जति; णो संतरं पुढविक्काइया उववजंति णिरंतरं पुढविकाइया उववजंति, एवं जाव वणस्सइकाइया, सेसा जहा जेरइया, जाव संतरं पि वेमाणिया उववति णिरंतरं पि वेमाणिया उववजंति; संतरं पि णेरड्या उव्वटुंति णिरंतरं पि णेरइया उव्वटुंति, एवं जाव थणियकुमारा । णो संतरं पुढविकाहया उव्वटुंति णिरंतरं पुढविक्काइया उव्वद्वृति, एवं जाव वणस्सइकाइया, सेसा जहा णेरड्या, णवरं जोइसिय-वेमाणिया चयंति अभिलावो, जाव संतरं पि वेमाणिया चयंति णिरंतरं पि वेमाणिया For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ९ उ. ३२ सान्तरादि उत्पाद और उद्वर्तन चयंति । कठिन शब्दार्थ - संतरं-मान्तर- अन्तर- व्यवधान सहित, चयंति - च्यवते नीचे गिरते ( मरकर नीचे आते) । १६७९ 1 'भावार्थ-४ - ४३ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक सान्तर ( अन्तर सहित ) उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर उत्पन्न होते हैं, असुरकुमार सान्तर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर यावत् वैमानिक देव सान्तर उत्पन्न होते हैं, या निरन्तर । नैरयिक सान्तर उद्वर्तते हैं, या निरन्तर, यावत् वाणव्यन्तर सान्तर उद्वर्तते हैं, या निरन्तर । ज्योतिषी देव सान्तर चबते हैं, या निरन्तर । वैमानिक देव सान्तर चवते हैं या निरन्तर ? ४३ उत्तर - हे गांगेय ! नैरयिक सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी, यावत् स्तनिकुमार सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं । पृथ्वीकायिक सान्तर उत्पन्न नहीं होते, परन्तु निरन्तर उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीव सान्तर उत्पन्न नहीं होते, निरन्तर उत्पन्न होते हैं। शेष सभी जीव, नैरयिक जीवों के समान सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी, यावत् वैमानिक देव सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी। नैरयिक जीव सान्तर भी उद्वर्तते हैं और निरन्तर भी । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिये । पृथ्वीकायिक जीव, सान्तर नहीं उद्वर्तते, निरन्तर उद्वर्तते हैं । इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक कहना चाहिये । शेष सभी जीवों का कथन नैरयिकों के समान जानना चाहिये। किंतु इतनी विशेषता है कि 'ज्योतिषी और वैमानिक देव चवते हैं - ऐसा पाठ कहना चाहिये, यावत् वैमानिक देव सान्तर भी चवते हैं और निरन्तर भी चवते हैं । ४४ प्रश्न - सओ भंते ! णेरइया उववज्जंति, असओ भंते ! रइया उववज्जंति ? For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८० - भगवती–श. ९ उ. ३२ सान्तरादि उत्पाद और उद्वर्तन ४४ उत्तर-गंगेया ! सओ णेरड्या उववजंति, णो असओ णेरइया उववजंति; एवं जाव वेमाणिया । ___४५ प्रश्न-सओ भंते ! गेरइया उव्वद्वृति, असओ णेरड्या उबटुंति ? ४५ उत्तर-गंगेया ! सओ णेरड्या उब्वटुंति, णो असओ णेरइया उबटुंति; एवं जाव वेमाणिया, णवरं जोइसिय-वेमाणिएसु चयंति भाणियव्वं । ४६ प्रश्न-सओ भंते ! णेरड्या उववजंति, असओ भंते ! णेरइया उववज्जति; सओ असुरकुमारा उववजंति, जाव सओ वेमाणिया उववजंति, असओ वेमाणिया उववजंति । सओ गेरइया उव्व. टुंति, असओ गेरइया उव्वटुंति; सओ अमुरकुमारा उब्वटुंति, जाव. सओ वेमाणिया चयंति, असओ वेमाणिया चयंति ? ४६ उत्तर-गंगेया ! सओ णेरड्या उववजंति, णो असओ णेरइया उववजंति; सओ असुरकुमारा उववजति, णो असओ अमुरकुमारा उववजंति, जाव सओ बेमाणिया उववजंति, णो अमओ वेमाणिया उववजति, सओ णेरड्या उब्वटुंति, णो असओ णेरइया उबटुंति; जाव सओ वेमाणिया चयंति, णो असओ वेमा. णिया चयति । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सओ णेरड्या उववजंति, For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-पा. उ. ३२ सान्तरादि उत्पाद और उद्वर्तन १६८१ णो असओ णेरड्या उववजंति; जाव सओ वेमाणिया चयंति, णो असओ वेमाणिया चयंति । उत्तर-से णूणं गंगेया ! पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं सासए लोए बुइए अणाईए अणवयग्गे, जहा पंचमसए, जाव 'जे लोक्कड़ से लोए,' से तेणटेणं गंगेया ! एवं वुन्चइ-जाव सओ वेमाणिया चयंति, णो असओ वेमाणिया चयंति । ___ कठिन शब्दार्थ-सओ-मत् (विद्यमान), सासए-शाश्वत, बुइए-कहा है, अणवयग्गेअनन्त (अन्त रहित) । ___ भावार्थ-४४ प्रश्न-हे भगवन् ! सत् (विद्यमान) नैरयिक उत्पन्न होते है, या असत् (अविद्यमान) नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? ४४ उत्तर-हे गांगेय ! सत् नैरयिक उत्पन्न होते हैं, असत् नैरयिक उत्पन्न नहीं होते । इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिये। ४५ प्रश्न-हे भगवन् ! सत् नैरयिक उद्वर्तते हैं, या असत् नैरयिक ? ४५ उत्तर-हे गांगेय ! सत् नैरयिक उद्वर्तते हैं, असत् नैरयिक नहीं उद्वर्तते । इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि 'ज्योतिषी और वैमानिक देव चवते हैं'-ऐसा कहना चाहिए। ४६ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक जीव, सत् नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, या असत् नरयिकों में । असुरकुमार देव, सत् असुरकुमार देवों में उत्पन्न होते हैं, या असत् असुरकुमार देवों में, इसी प्रकार यावत् सत् वैमानिकों में उत्पन्न होते हैं, या असत् वैमानिकों में । सत् नरयिकों में से उद्वर्तते हैं, या असत् नैरयिकों में से । सत् असुरकुमारों में से उद्वर्तते हैं, या असत् असुरकुमारों में से। इसी प्रकार यावत् सत् वैमानिकों में से चवते हैं, या असत् वैमानिकों में से ? ४६ उतर-हे गांगेय ! नैरयिक जीव, सत् नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, परन्तु असत् नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होते । सत् असुरकुमारों में उत्पन्न होते हैं, For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८२ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ केवली सर्वज्ञ होते हैं असत् असुरकुमारों में नहीं। इसी प्रकार यावत् सत् वैमानिकों में उत्पन्न होते हैं, असत् वैमानिकों में नहीं । सत् नैरयिकों में से उद्वति है, असत् नैरयिकों में से नहीं, यावत् सत् वैमानिकों में से चवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि सत् नरयिकों में उत्पन्न होते हैं, अपत् नरयिकों में नहीं, इसी प्रकार यावत् सत् वैमानिकों से चवते हैं, अप्सत् वैमानिकों से नहीं ? । उत्तर-हे गांगेय ! पुरुषादानीय अरिहन्त श्री पार्श्वनाथ ने 'लोक को शाश्वत, अनादि और अनन्त कहा है।' इत्यादि पांचवें शतक के नौवें उद्देशक में कहे अनुसार जानना चाहिये । यावत् "जो अवलोकन किया जाय, उसे 'लोक' कहते हैं," इस कारण हे गांगेय ! ऐसा कहा गया है कि यावत् सत् वैमानिकों से चवते हैं, असत् वैमानिकों से नहीं। केवली सर्वज्ञ होते है ४७ प्रश्न-सयं भंते ! एवं जाणह, उदाहु असयं, असोचा एए एवं जाणह, उदाहु सोचा; सओ णेरड्या उववजंति, णो असओ णेरइया उववजंति; जाव सओ वेमाणिया चयंति णो असओ वेमाणिया चयंति ? ४७ उत्तर-गंगेया ! सयं एए एवं जाणामि, णो असयं; असोचा एए एवं जाणामि, णो सोचा सओ गेरइया उवषजति, णो असओ णेरड्या उववजंति, जाव सओ वेमाणिया चयंति, णो असओ वेमाणिया चयंति। For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ९. उ. ३२ केवली सर्वज होते हैं १६८३ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ-तं चेव, जाव ‘णो असओ वेमाणिया चयंति? उत्तर-गंगेया ! केवली णं पुरथिमेणं मियं पि जाणइ, अमियं पि जाणइ; दाहिणेणं एवं जहा सद्दुद्देसए, जाव णिव्वुडे णाणे केवलिस्स; से तेणटेणं गंगेया ! एवं वुच्चइ 'तं चेव जाव णो असओ वेमाणिया चयंति'। कठिन शब्दार्थ-सयं-स्वयं, अमियं-अपरिमित (निःमीम = जिसकी कोई सीमा नहीं) णिवुडे-निवृत हुए। ___ भावार्थ-४७. प्रश्न-हे भगवन् ! आप स्वयं इस प्रकार जानते हैं, अथवा अस्वयं जानते हैं, बिना सुने ही इस प्रकार जानते हैं अथवा सुनकर जानते हैं कि 'सत् नरयिक उत्पन्न होते हैं, असत् नरयिक नहीं, यावत् सत् वैमानिकों से चवते हैं, असत् वैमानिकों से नहीं ?' - ४७ उत्तर-हे गांगेय ! ये सभी बातें में स्वयं जानता हूँ, अस्वयं नहीं, "बिना सुने ही जानता हूँ, सुनकर ऐसा नहीं जानता कि 'सत् नैरयिक उत्पन्न होते हैं, असत् नरयिक नहीं, यावत् सत् वैमानिकों से चवते हैं, असत् वैमानिकों से नहीं।' प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है कि 'मैं स्वयं जानता हूँ,' इत्यादि पूर्वोक्त यावत् सत् वैमानिकों से चवते हैं, असत् वैमानिकों से नहीं ? उत्तर-हे गांगेय ! केवलज्ञानी पूर्व में मित (मर्यादित) भी जानते हैं और अमित (अमर्यादित) भी जानते हैं, इसी प्रकार दक्षिण में भी जानते हैं। इस प्रकार शम्ब उद्देशक (छठे शतक के चौथे उद्देशक) में कहे अनुसार जानना चाहिये । यावत् केवली का ज्ञान निरावरण होता है । इसलिए हे गांगेय ! इस For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ स्वयं उत्पन्न होते हैं । कारण में कहता हूँ कि 'मैं स्वयं जानता हूँ। इत्यादि यावत् असत् वैमानिकों से नहीं चवते।' स्वयं उत्पन्न होते हैं ४८ प्रश्न-सयं भंते ! णेरड्या गेरइएमु उववज्जति, असयं णेरइया णेरइएसु उववज्जति ? ४८ उत्तर-गंगेया ! सयं णेरइया गेरइएसु उववज्जति, णो असयं णेरइया णेरइएसु उववज्जति । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चड़-जाव उववज्जति ? उत्तर-गंगेया ! कम्मोदएणं, कम्मगुरुयत्ताए, कम्मभारियत्ताए, कम्मगुरुसंभारियत्ताए; असुभाणं कम्माणं उदएणं, असुभाणं कम्माणं विवागणं, असुभाणं कम्माणं फलविवागेणं सयं णेरइया णेरइएसु उववज्जति, णो असयं णेरड्या णेरइएमु उवज्जति; से तेणटेणं गंगेया ! जाव उववज्जंति। ___४९ प्रश्न-सयं भंते ! असुरकुमारा० पुच्छा ? ४९ उत्तर-गंगेया ! सयं असुरकुमारा जाव उववज्जति, णो असयं असुरकुमारा जाव उववज्जति । . प्रश्न-से केणटेणं तं चेव जाव उववज्जंति ? For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ९ उ. १२ सवयं उपन्न होते हैं उत्तर-गंगेया ! कम्मोदएणं, कम्मोवसमेणं, कम्मविगईए, कम्मविसोहीए, कम्मविसुद्धीए; सुभाणं कम्माणं उदएणं, सुभाणं कम्माणं विवागेणं, सुभाणं कम्माणं फलविवागेणं सयं असुरकुमारा असुरकुमारत्ताए उववज्जति णो असयं अमुरकुमारा जाव उववज्जति; मे तेणटेणं जाव उववजंति, एवं जाव थणियकुमारा । ५० प्रश्न-सयं भंते ! पुढविक्काइया० पुच्छा ? . ५० उत्तर-गंगेया ! सयं पुढविकाइया जाव उववज्जति, णो असयं पुढविकाइया जाव उववज्जति । प्रश्न-से केणटेणं जाव उववज्जति ? उत्तर-गंगेया ! कम्मोदएणं, कम्मगुरुयत्ताए, कम्मभारियत्ताए, कम्मगुरुसंभारियत्ताए सुभा-सुभाणं कम्माणं उदएणं, सुभा-सुभाणं कम्माणं विवागेणं, सुभा-सुभाणं कम्माणं फलविवागेणं सयं पुढवि. काइया जाव उववज्जति, णो असयं पुढविकाइया जाव उववज्जति, से तेणटेणं जाव उववज्जति । एवं जाव मणुस्सा । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। से तेणद्वेणं गंगेया ! एवं वुचइसयं वेमाणिया जाव उववज्जंति, णो असयं जाव उववज्जति । कठिन शब्दार्थ-कम्मोदएणं-कर्मोदय से, कम्मगुरुयत्ताए-कर्म की गुरुता से, विवागेणं-विपाक से, कम्मोवसमेणं-कर्म उपशांत होने पर, कम्मविगईए-कर्म के अभाव से । भावार्थ-४८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नरयिक नरयिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, या अस्वयं उत्पन्न होते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८६ भगवती सूत्र - . ९ उ. ३२ स्वयं उत्पन्न होते है ४८ उत्तर - हे गांगेय ! नैरयिक नैरयिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते । प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहते है ? उत्तर - हे गांगेय ! कर्म के उदय से, कर्म के गुरुपन से, कर्म के भारीपन से, कर्मों के अत्यन्त गुरुत्व और भारीपन से, अशुभ कर्मों के उदय से, अशुभ कर्मों के विपाक से और अशुभ कर्मों के फल- विपाक से नैरयिक, नरयिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं नहीं होते। इस कारण हे गांगेय ! यह कहा गया है कि नैरयिक, नैरयिकों में स्वयं उत्पन्न होते है, अस्वय उत्पन्न नहीं होते । ४९ प्रश्न- -हे भगवन् ! क्या असुरकुमार, असुरकुमारों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, या अस्वयं ? ४९ उत्तर - हे गांगेय ! असुरकुमार, असुरकुमारों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते । प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है ? उत्तर - हे गांगेय ! कर्म के उदय से, अशुभ कर्म के उपशम से, अशुभ कर्म के अभाव से, कर्म की विशोधि से, कर्मों की विशुद्धि से, शुभ कर्मों के उदय से, शुभ कर्मों के विपाक से और शुभ कर्मों के फल-विपाक से असुरकुमार असुरकुमारों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते। इसलिये है गांगेय ! पूर्वोक्त रूप से कहा गया है । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक जानना चाहिये । ५० प्रश्न - हे भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, या अस्वयं उत्पन्न होते हैं ? ५० उत्तर - हे गांगेय ! पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते । प्रश्न- हे भगवन् ! ऐसा किस कारण कहते है कि 'पृथ्वीकायिक स्वयं उत्पन्न होते हैं,' इत्यादि । For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-दा. ९ उ. ३२ स्वयं उत्पन्न होते हैं १६८७ उत्तर-हे गांगेय ! कर्म के उदय से, कर्म के गरुपन से, कर्म के भारी. पन से, कर्म के अत्यन्त गुरुत्व और भारीपन से, शुभ और अशुभ कर्मों के उदय से, शुभ और अशुभ कर्मों के विपाक से और शुभाशुम कर्मों के फल-विपाक से पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते। इसलिये हे गांगेय ! पूर्वोक्त रूप से कहा गया है। इसी प्रकार यावत् मनुष्य तक जानना चाहिये। जिस प्रकार असुरकुमारों के विषय में कहा, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों के विषय में भी जानना चाहिये। इसलिये हे गांगेय ! इस कारण ऐसा कहता हूँ कि 'यावत् वैमानिक, वैमानिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते।' विवेचन-यद्यपि 'प्रवेशनक' से पूर्व नैरयिक आदि जीवों के उत्पाद आदि का तथा सान्तरादि का कथन किया गया है, तथापि यहां जो पुनः कथन किया जाता है, इसका कारण यह है कि पहले नैरयिक आदि के प्रत्येक का उत्पाद और उद्वर्तना का सान्तरादि कथन किया गया है । यहाँ नैरयिक आदि सभी जीवों के उत्पाद और उद्वर्तना का समुदित ' (सम्मिलित) रूप से कथन किया जाता है। . सत् अर्थात् 'द्रव्य रूप में विद्यमान' नैरयिक ही नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, अमत् (अविद्यमान) उत्पन्न नहीं होते। क्योंकि सर्वथा असत् द्रव्य कोई भी उत्पन्न नहीं होता। वह तो 'खरविषाण' (गधे के सींग) के समान असत् है । इन जीवों में 'सत्त्व' जीव द्रव्य की अपेक्षा, अथवा नैरयिक पर्याय की अपेक्षा समझना चाहिये, क्योंकि भावी नैरयिक पर्याय की अपेक्षा द्रव्य से नैरयिक ही नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं । अथवा यहाँ से मरकर नरक में जाते समय विग्रह गति में नरकायु का उदय हो जाता है, इसलिये वे भाव-नारक हैं और भाव-नारक होकर ही नैरविकों में उत्पन्न होते हैं। जो जीव, नरक में उत्पन्न होता है, वह पहले से उत्पन्न हुए नरयिकों में उत्पन्न होता है, किन्तु असत् नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि लोक शाश्वत है । इसलिये नरयिक आदि का सदा सद्भाव रहता है । "लोक शाश्वत है, ऐसा पुरुषादानीय भगवान् पार्श्वनाथ ने भी फरमाया है,"-ऐमा कहकर भगवान् महावीर ने गांगेय सम्मत सिद्धान्त के द्वारा अपने कथन की पुष्टि की है । गांगेय के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा कि इन सब बातों को में किसी अनु For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८८ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय को श्रद्धा मान के द्वारा नहीं, किन्तु स्वयं आत्मा द्वारा जानता हूँ तथा किसी दूसरे पुरुषों के वचनों को सुनकर नहीं जानता, अपितु पारमार्थिक प्रत्यक्ष स्वरूप केवलज्ञान के द्वारा में स्वयं जानता है। _ 'नरयिक स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते'-यह कथन कर के जीव के लिये 'ईश्वर परतन्त्रता' का खण्डन किया गया है। जैसा कि किन्हीं मतावलम्बियों ने कहा है अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ____ईश्वरप्रेरितो गच्छेत, स्वर्ग वा स्वभ्रमेव वा ॥ अर्थ-यह जीव अज्ञ है और अपने लिये सुख-दुःख उत्पन्न करने में असमर्थ है । ईश्वर की प्रेरणा से यह स्वर्ग में चला जाता है, अथवा नरक में चला जाता है।। यह मान्यता जैन सिद्धान्त से विपरीत है । क्योंकि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है। फिर कर्मों के वश वह स्वर्ग या नरक में जाता है, ईश्वर की प्रेरणा से नहीं जाता। ___जीवों की उत्पत्ति के लिये मूल में 'कर्मोदय' आदि शब्द दिये गये हैं, उनका अर्थ इस प्रकार है । यथा-कर्मोदय-कर्मों का उदय । कर्मगुरुता-कर्मों का गुरुत्व । कर्मभारिताकर्मों का भारीपन । कर्मगुरुसंभारिता-कर्मों के गुरुत्व और भारीपन की अति प्रकृष्ट अवस्था। विपाक-यथाबद्ध रसानुभूति । फलविपाक-रसप्रकर्षता। कर्मविगति-कर्मों का अभाव । कर्म विशोधि-कर्मों के रस की विशुद्धि । कर्मविशुद्धि-कर्मों के प्रदेशों की विशुद्धि । उपरोक्त शब्दों में किंचित् अर्थ भेद है अथवा ये सभी शब्द एकार्थक ही हैं । अर्थ प्रकर्ष को बतलाने के लिये दिये गये हैं। गांगेय को श्रद्धा ५१ प्रश्न-तप्पभिई च णं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीरं पञ्चभिजाणइ सव्वण्णु, सम्वदरिसिं । तएणं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदड़ णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. ९. ३. ३२ गांगेय को श्रमा णं भंते ! तुम्भं अंतियं चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहब्वइयं, एवं जहा कालासवेसियपुत्तो तहेव भाणियव्वं, जावं सव्वदुक्खप्पहीणे । ॥णवमसए गंगेयो बत्तीसइमो उद्देसो समत्तो ।। .. कठिन शब्दार्थ-तप्पभिई-तब से लेकर, पच्चभिजाणइ-विश्वास पूर्वक जाना । भावार्थ-५१ प्रश्न-इसके बाद गांगेय अनगार ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी जाना। पश्चात् गांगेय अनगार ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वन्दना नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया-“हे भगवन् ! में आपके पास चार यामरूप धर्म से पांच महावत रूप धर्म को अंगीकार करना चाहता हूँ।" इस प्रकार सारा वर्णन पहले शतक के नौवें उद्देशक में कथित कालास्यवेषिकपुत्र अनगार के समान जानना चाहिये । यावत् गांगेय अनगार सिद्ध, बुद्ध, मुक्त यावत् समस्त दुःखों से रहित बने । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। विवेचन-पूर्वोक्त प्रश्नोत्तरों से जब गांगेय अनगार को यह विश्वास हो गया कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हैं, तब उन्होंने चतुर्याम धर्म से पञ्चयाम धर्म को स्वीकार किया और क्रमशः कालान्तर में मोक्ष पधारे । ॥ इति नौवें शतक का बत्तीसवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ₹ उद्देशक ३३ ऋषभदत्त और देवानन्दा १- तेणं कालेणं, तेणं समपर्ण माहणकुंडग्गामे णयरे होत्था । वष्णओ | बहुसालए चेइए । वण्णओ । तत्थ णं माहण कुंडग्गाम यरे उसभदत्ते णामं माहणे परिवसह अड्ढे, दित्ते, वित्ते, जाव अपरिभूए, रिउव्वेद-जजुव्वेद सामवेद अथव्वणवेद जहा खंदओ, जाव अण्णेसु य बहुसु बंभण्णएसु नएस सुपरिणिट्टिए समणोवासए अभिगयजीवाऽजीवे, उवलद्वपुण्ण-पावे, जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरड़ | तस्स णं उसभदत्तस्स माहणस्स देवाणंदा णामं माहणी होत्था, सुकुमालपाणि-पाया, जाव पियदंसणा सुरूवा समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा, उवलद्धपुण्ण-पावा जाव विहरड़ । तेणं कालेणं, तेणं समरणं सामी समोसढे । परिसा जाव पज्जुवासइ । कठिन शब्दार्थ- परिवसइ - बसता ( रहता ) था, अड्ढे - समृद्ध, दित्ते दीप्त ( तेजस्वी ) वित्ते - प्रसिद्ध, अपरिभूए- अपरिभूत ( किसी से भी नहीं दबने वाला), बंभणएसु- ब्राह्मणों के शास्त्रों में, सुपरिणिट्टिए – कुशल था, सुकुमालपाणि पाया - जिसके हाथ पाँव बहुत सुकुमार (कोमल) थे, पियदंसणा - प्रियदर्शना ( देखने में प्रिय) । भावार्थ - १ उस काल उस समय में 'ब्राह्मण कुण्डग्राम' नाम का नगर था। (वर्णन) बहुशालक नाम का चंत्य ( उदयान ) था । उस ब्राह्मणकुण्ड ग्राम नामक नगर में 'ऋषभदत्त' नाम का ब्राह्मण रहता था। वह आढ्य ( धनवान् ) तेजस्वी, प्रसिद्ध यावत् अपरिभूत था । वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में निपुण था । ( शतक दो उद्देशक एक में कथित ) स्कन्दक तापस For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-म. ९ उ. ३३ ऋषभदत्त और देवानन्दा की तरह वह भी ब्राह्मणों के दूसरे बहुत से नयों (शास्त्रों) में कुशल था। वह श्रमणों का उपासक, जीवाजीवादि तत्त्वों का जालकार, पुण्य पाप को पहिचानने वाला, यावत् आत्मा को भावित करता हुआ रहता था। उस ऋषभदत्त ब्राह्मण के 'देवानन्दा' नाम को स्त्री थी। उसके हाथ पर सुकुमाल थे, यावत् उसका दर्शन भी प्रिय था। उसका रूप सुन्दर था। वह श्रमणोपासिका थी। वह जीवाजीवादि तत्वों की जानकार तथा पुण्य पाप को पहिचाननेवाली थी। उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे । जनता यावत् पर्युपासना करने लगी। तएणं से उसभदत्ते माहणे इमीसे कहाए उवलद्धटे समाणे हट्ट जाव हियए, जेणेव देवाणंदा माहणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता देवाणंद माहणिं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! समणे भगवं महावीरे आइगरे, जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी, आगासगएणं चक्केणं जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे बहुसालए चेइए अहापडिरूवं जाव विहरइ । तं महाफलं खलु देवाणुप्पिए ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं णामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमणवंदण-णमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए, एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए; तं गच्छामो णं देवाणुप्पिए ! समणं भगवं महावीर श्री ऋषभदत्तजी पहले तो वैदिक मनावलम्बी रहे होंगे, किंतु बाद में भ. पार्वनाथजी के सन्तानिक मुनिवरों के सम्पर्क से श्रमणोपासक बने होंगे-डोशी । For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९२ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ ऋषभदत्त और देवानन्दा वंदामो णमंसामो जाव पज्जुवासामो; एयं णं इहभवे य, परभवे य हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्मइ । तएणं सा देवाणंदा माहणी उमभदत्तेणं माहणेणं एवं वुत्ता समाणी हट्ट जाव हियया, करयल जाव कट्टु उसमदत्तस्स माहणस्स एयमटुं विणएणं पडिसुणेड़। ___कठिन शब्दार्थ-इमोसे कहाए-यह कथा (बात), उवलद्धे-प्राप्त (जान) कर, हट्ठ-हृष्ट, आगासगएण चक्केणं-आकाशगत चक्र, अहापडिरूवं-यथाप्रतिरूप (कल्प के अनुसार), विउलस्स-विपुल, अट्ठस्स-अर्थ का, हियाए-हितकारी, सुहाए-मुन्वकारी, खमाएक्षेमकारी, णिस्सेसाए-निःश्रेयमकारी, आणुगामियत्ताए-अनुगमन करने, (शुभ बन्ध करने ) वाली। भावार्थ-श्रमग भगवान महावीर स्वामी के आगमन की बात सुनकर वह ऋषभदत्त ब्राह्मण बड़ा प्रसन्न हुआ। यावा उल्लसित हृदय वाला हुआ। वह अपनी पत्नी देवानन्दा ब्राह्मणी के पास आया और इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये ! तीर्थ की आदि के करने वाले यावत् सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, आकाश में रहे हुए चक्र से युक्त यावत् सुखपूर्वक विहार करते हुए यहां पधारे और बहुशालक नामक उदयान में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण कर के यावत् विचरते है । हे देवानुप्रिये ! तथारूप के अरिहन्त भगवान् के नामगोत्र के श्रवण का भी महान् फल है, तो उनके सम्मुख जाने, वन्दन नमस्कार करने, प्रश्न पूछने और पर्युपासना करने आदि से होनेवाले फल के विषय में तो कहना ही क्या है । तथा एक भी आर्य और धार्मिक सुवचन के श्रवण से महाफल होता है, तो फिर विपुल अर्थ को ग्रहण करने से महाफल हो, इसमें तो कहना ही क्या है । इसलिये हे देवानुप्रिये ! अपन चलें और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन नमस्कार करें यावत् उनकी पर्युपासना . करें। यह कार्य अपने लिये इस भव में और परभव में हित, सुख, संगतता, निःश्रेयस और For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवती सूत्र-श..९ उ. ३३ ऋपभदत्त और देवानन्दा १६९३ शुभ अनुबन्ध के लिये होगा।' ऋषभदत्त से यह बात सुनकर देवानन्दा बडी प्रसन्न यावत् उल्लसित हृदय वाली हुई और दोनों हाथ जोड़, मस्तक पर अंजली करके ऋषभदत्त ब्राह्मण के इस कथन को विनय पूर्वक स्वीकार किया। ___२-तएणं से उमभदत्ते माहणे कोडंवियपुरिमे सद्दावेइ. कोडं. बियपुरिमे सदावेत्ता एवं वयामी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! लहुकरणजुत्त-जोइय-समखुरवालिहाण-समलिहियसिंगेहिं, जंबूणयामयकलावजुत्त-परिविसिटेहिं, स्ययामयघंटा-सुत्तरज्जुयपवरकंचणणाथपग्गहोग्गहियएहिं, णीलुप्पलकयामेलएहि, पवरगोणजुवाणएहिं णाणामणि-रयण-घंटियाजाल-परिगयं, सुजायजुग-जोत्तरज्जुयजुगपसत्थसुविरचियणिमियं, पवरलक्षणोववेयं धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवठ्ठवेह, उवटुवेत्ता मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह । तएणं ते कोडुवियपुरिसा उसभदत्तेणं माहणेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट जाव हियया, करयल एवं सामी ! तहत्ताणाए विणएणं वयणं जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव लहुकरणजुत्त जाव धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्टवेत्ता जाव तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति । ___ कठिन शब्दार्थ-कोडुंबियपुरिसे-कौटुम्बिक (कर्मचारी) पुरुष, सद्दावेइ-बुलाये, खिप्पामेव-क्षिप्र-शीघ्रता से, लहुकरणजुत्ता-शीघ्र गतिबाले साधन युक्त, समखुरवालिहाण-समान खुरी और पूंछ वाले, समलिहियसिंहि-समान सिंग वाले, जंबूणयामयकलावजुत्त-स्वर्ण के बलाप-कठाभरण युक्त, सुत्तरज्जयपवरकंचणणत्थपग्गहोग्गहियएहि-स्वर्णमय सूत की नाथ से बचे हुए, गोलुप्पलकयामेलहि-नील कमल के सिरपेच युक्त, पवरगोगजुवाणएहि-उत्तम For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ ऋपभदत्त और देवानन्दा यौवन वाले बैलों से, सुजायजुगजोत्तरज्जयजगपसत्यसूविरचियणिमियं-उत्तम काष्ठ के जूए और जोत्र की युगल रस्सियों से सुनियोजित, पवरलक्खणोववेयं - उत्तम लक्षण युक्त, जाणप्पवरं-श्रेष्ठ यान-रथ, जुत्तामेव-जोतकर, उवट्ठवेह-उपस्थित करो, एयमाणत्तियं-यह आजा, पच्चप्पिणह-प्रत्यर्पण करो (पीछी अर्पण करो) तहत्ताणाए-आज्ञा मान्यकर । भावार्थ-२-इसके बाद ऋषभदत्त ब्राह्मण ने अपने कौटुम्बिक (सेवक) पुरुषों को बुलाया और इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! जल्दी चलने वाले सुन्दर और समान रूप वाले, समान खुर और पूंछ वाले, समान सींग वाले, स्वर्ण निर्मित कण्ड के आभूषणों से युक्त, उत्तम गति (चाल) वाले चाँदी को घण्टियों से युक्त, स्वर्णमय नासारज्जु (नाथ) द्वारा बांधे हुए, नील-कमल के सिरपेच वाले दो उत्तम युवा बैलों से युक्त, अनेक प्रकार की मणिमय घण्टियों के समूह से व्याप्त, उत्तम काष्ठमय धोंसरा (जुआ) और जोत की दो उत्तम डोरियों से युक्त, प्रवर (श्रेष्ठ) लक्षण युक्त धार्मिक श्रेष्ठ यान (रथ) तैयार करके यहां उपस्थित करो और आज्ञा का पालन कर निवेदन करो (अर्थात् कार्य सम्पूर्ण होजाने की सूचना दो)। ऋषभदत्त ब्राह्मण को इस प्रकार आज्ञा होने पर वे सेवक पुरुष प्रसन्न यावत् आनन्दित हृदय वाले हुए और मस्तक पर अंजली करके इस प्रकार कहा-'हे स्वामिन् ! यह आपकी आज्ञा हमें मान्य है'-ऐसा कहकर विनय पूर्वक उसके वचनों को स्वीकार किया और आज्ञानुसार शीघ्र चलने वाले दो बैलों से युक्त यावत् धार्मिक श्रेष्ठ रथ को शीघ्र उपस्थित किया, यावत् आज्ञा पालन कर निवेदन किया। ३-तएणं से उसभदत्ते माहणे हाए जाव अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छड़, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढे । तएणं सा For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. उ.३३ ऋषभदत्त और देवानन्दा १६९५ देवाणंदा माहणी अंतो अंतेउरंसि बहाया; कयवलिकम्मा, कय. कोउय-मंगल-पायच्छित्ता, किंच वरपायपत्तणेउर-मणिमेहला - हाररचिय -उचियकडग - खुड्डाग - एगावली - कंठमुत्त - उरत्थगेवेज - सोणिसुत्तग-णाणामणि- रयणभूमणविराइयंगी, चीणंसुयवस्थपवरपरिहिया, दुगुल्लसुकुमालउत्तरिजा, मन्बोउयमुरभिकुमुमवरियसिरया, वरचंदणवंदिया, वराभरणभूसियंगी, कालागरुधूवधूविया, सिरिसमाणवेसा, जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा, वहहिं खुजाहिं, चिलाइयाहिं, णाणादेस-विदेमपरिपिंडियाहिं, सदेसणेवत्थगहियवेसाहि, इंगियचिंतिय-पत्थियवियाणियाहिं, कुसलाहिं, विणीयाहिं, चेडियाचकवालवरिसधर-थेरकं वुइज-महत्तरगवंदपरिक्खित्ता अंतेउराओ णिग्गच्छड़, णिग्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा। कठिन शब्दार्थ-हाए-स्नान किया, अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे-अल्प किंतु महामूल्यवान् आभरणों से शरीर को अलंकृत करके, साओ-स्वयं के, गिहाओ-घर से, पडिणिक्खमइ-निकला, बाहिरिया-बाहर की, उवट्ठाणसाला-उपस्थानशाला, उवागच्छइउपागच्छति-आया, दुरूढे-आरूढ (सवार) हुआ, अंती-भीतर के, अंतेउरंसि-अन्तःपुर के, कयबलिकम्मा-कृतबलिकर्म अर्थात् स्नान के समय करने योग्य कार्य (यह शब्द जहाँ स्नान का अर्थ संक्षिप्त में बतलाना होता है, वहां प्रयुक्त होता है), कयकोउय-कौतुक किया, मंगलपायच्छित्ता-मंगल और प्रायश्चित्त किया, वरपायपत्तणेउर-पाँवों में उत्तम नूपुर पहने, मणिमेहला-मणि जड़ित मेखला (कन्दोरा), हाररचिय-हार (माला)से सुशोभित, उचिय. कडग-उचित कड़े, पुड्डाग–अंगुठियाँ, एकावली-कंठसुत्त-एक लड़ीवाला कंठसूत्र (माला,) For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३३ ऋषभदत्त और देवानन्दा उरत्थगेवेज्ज - हृदय पर रहे हुए ग्रैवेयक ( आभूषण), सौणिसुत्तग- कटिसूत्र, गाणामणिरयणभूण-विराइयंगी - जिसके अंग (शरीर ) पर विविध प्रकार के मणि एवं रत्नों के आभूषण विराज रहे (शोभित हो रहे हैं, चीणंसुयवत्थपवरपरिहिया - चीनांशुक (रेशमी ) उत्तम वस्त्र को पहिनकर, दुगुल्लसुकुमालउत्तरिज्जा - ऊपर सुकोमल वस्त्र ओढ़कर, सव्वोउयसुरभि - कुसुमवरयसिरया - सभी ऋतुओं के उत्तम पुष्पों से अपने केशों को गूंथ कर, वरचंदणवं दियाललाट पर उत्तम चन्दन लगाकर, वराभरणभूसियंगी - उत्तम आभूषणों से शरीर को श्रृंगारित करके, कालागरुधूवधूविया - कालागरु के धूप से धूपित होकर, सिरिसमाणवेसा-श्री-लक्ष्मी के समान वेशवाली, खुज्जाहि-दासियों के साथ, चिलाइयाहि-चिलात देश की, परिपिडियाहि-एकत्रित हुई, सदेसणे वत्थगहियवे साहि-अपने देश की विभूषानुसार वेश पंहिनी हुई, इंगिय - चितिपत्थियवियाणियाहि संकेत से ही मन त्रितित एवं इच्छित इष्ट विषय को जानने वाली, कुसलाहि - कुशलता युक्त, विणीयाहि-विनय करने वाली. चेडियाचक्कवालदासियों से घिरी हुई, वरिसधर - वर्षधर (नपुंसक बनाये हुए अन्त. पुर रक्षक ). थेर कंचुइज्ज - वृद्ध कंचुकी (अंतःपुर के कार्य का निवेदन करने वाला, प्रतिहारी). महत्त रगबंदपरिकित्ता - मान्य पुरुषों के वृन्द सहित, णिग्गच्छइ-निकली । १६९६ भावार्थ - ३ तब ऋषभदत्त ब्राह्मण ने स्नान किया यावत् अल्प भार और महामूल्य वाले आभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत किया और घर बाहर निकल कर जहां बाहरी उपस्थान शाला है और जहां धार्मिक श्रेष्ठ रथ है वहां आया, आकर रथ पर चढ़ा । तब देवानन्दा ब्राह्मणी ने अंतःपुर में स्नान किया, बलिकर्म किया (स्नान संबंधी कार्य किये) कौतुक (मषि - तिलक ), मंगल और प्रायश्चित्त किया ( अनिष्ट निवारण के लिए योग्य कार्य किया) फिर पैरों में पहनने के सुन्दर नूपुर, मणि युक्त मेखला ( कन्दोरा ), हार, उत्तम कङ्कण अंगुठियां, विचित्र मणिमय एकावली ( एक लड़ा) हार कण्ठ-सूत्र, ग्रैवेयक ( वक्षस्थल पर रहा हुआ गले का लम्बा हार), कटिसूत्र और विचित्र मणि तथा रत्नों के आभूषण, इन सब से शरीर को सुशोभित करके, उत्तम चीनांशुक (वस्त्र) पहनकर शरीर पर सुकुमाल रेशमी वस्त्र ओढ़कर, सब ऋतुओं के सुगन्धित फूलों से अपने केशों को गूंथकर, कपाल पर चन्दन लगाकर, उत्तम आभूषणों से शरीर को अलंकृत कर, काला For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १ उ. ३३ ऋषभदत और देवानन्दा गुरु के धूप से सुगन्धित होकर, लक्ष्मी के समान वेषवालो यावत् अल्पभार और बहुमूल्यवाले आभरणों से शरीर को अलंकृत करके, बहुतसी कुब्जा दासियां, अपने देश की दासियाँ यावत् अनेक देश-विदेशों से आकर एकत्रित हुई दासियां अपने देश के वेष धारण करनेवाली, इंगित - आकृति द्वारा चिन्तित और इष्ट अर्थ को जाननेवाली कुशल और विनय सम्पन्न दासियों के परिवार सहित तथा स्वदेश की दासियाँ, खोजा पुरुष, वृद्ध कंचुकी और मान्य पुरुषों के समूह के साथ वह देवानन्दा अपने अन्तःपुर से निकली और जहाँ बाहर की उपस्थान शाला है और जहां धार्मिक श्रेष्ठ रथ खड़ा है वहां आई और उस धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर चढी । तरण से उसभदते माहणे देवानंदाए माहणीए सर्दिध धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढे समाणे णियगपरियालसंपरिवुडे माहणकुंडग्गामं णयरं मज्झमज्झेणं णिग्गच्छड, णिग्गच्छित्ता जेणेव बहुसालए चेहए तेणेव उवागच्छ तेणेव उवागच्छित्ता छत्ताईए तित्थगराइसए पासह, पासित्ता धम्मियं जाणप्पवरं ठवेs, ठविता धम्मियाओ जाणप्पराओ पचोरुes पचोरुहित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ तं जहा सचित्ताणं दव्वाणं विउसरणयाए, एवं जहा बियसए जाव तिविहाए पज्जुवा सणयाए पज्जुवास | तरणं सा देवानंदा माहणी धम्मियाओ जाणप्पवराओ पचोरुहह, पचोरुहित्ता बहूहिं खुजाहिं, जाव महत्तरगवंद - परिक्खित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभि १६९७ For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१८ भगवती सूत्र -श. ९ उ. ३३ ऋषभदत्त अंर देवानन्दा गच्छइ, तं जहा-सचित्ताणं दव्वाणं विसरणयाए, अचित्ताणं दवाणं अविमोयणयाए, विणयोणयाए गायलट्ठीए, चक्षुप्फासे अंजलिपग्गहेणं, मणस्स एगत्तीभावकरणेणं; जेणेव समणे भंगवं महावीरे तेणेव उवोगच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर तिखुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ करित्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता उसभदलं माहणं पुरओ कटु ट्ठिया चेव सपरिवारा सुस्सूसमाणी, धर्मसमाणी, अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा जाव पज्जुवासइ। ____४-तएणं सा देवाणंदा माहणी आगयपण्हाया, पप्फुयलोयणा संवरियवलयबाहा, कंचुयपरिक्खित्तिया धाराहयकलंबगं पिव समूसवियरोमकूवा समणं भगवं महावीरं अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणी पेहमाणी+ चिट्ठइ । - कठिन शब्दार्य-सद्धि-माथ, णियगपरियाल संपरिबुडे-अपने परिवार से घिरी हुई, तित्थगराइसए-तीर्थङ्कर के अतिशय, ठवेइ-स्थिर किया- खड़ा रक्खा, पच्चोरुहइ -नीचे उतरे, अभिगमेणं अभिगच्छइ-धर्म सभा में जाने योग्य अभिगम (नियम) से गये, सचित्ताणं दवाणं विउसरणयाए-सचित्त द्रव्य का त्यागना, अचित्ताणं दवाणं अविउसरणयाए-अचित्त द्रव्य मर्यादित करना, एगसाडिएणं उत्तरासंगकरणेणं-एक (विना सिये) वस्त्र का उत्तरासंग करना, चक्खुप्फासे अंजलिप्पग्गहेणं-भगवान् के दृष्टि गोचर होते ही हाथ जोड़कर मस्तक परलगाना, मणस्स एगत्तीभावकरणेणं-मन को एकाग्र करना, पुरओ कट्ट-आगे करके, ट्ठिया-ठहरी, आगय पण्हाया-आयात प्रथवा (स्तन में दूध आया) पप्फुयलोयणा-प्रफुल्ल-लोचना (नयन + "देहमाणी" पाठ कई प्रतियों में है। इसीसे मिलता हुआ पाठ अंतगडदसा वगं ३ १०८ में है, वहां पहमाणी' है । अर्थ दोनों का समान ही है-डोशी। .. For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३.३ ऋषभदत्त और देवानन्दा हर्पित हुए) संरियवलय बाहा- हर्ष से फूलती हुई भुजाओं को कड़ों ने रोकी, कंचुयपरिविता - कंचुकी विस्तृत हुई, धाराहयकलंबगं - मेघधारा से विकसित कदम्व पुष्प की तरह, समूस वियरोमकूवा - रोमकूप विकसित हुए, अणिमिसाए - अनिमेष दृष्टि से, पेहमाणी-देखती हुई । १६९९ भावार्थ - इसके बाद वह ऋषभदत्त ब्राह्मण देवानन्दा ब्राह्मणी के साथ धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर चढ़ा हुआ और अपने परिवार से परिवृत, ब्राह्मणकुण्ड ग्राम नामक नगर के मध्य में होता हुआ निकला और बहुशालक उद्यान में आया । तीर्थङ्कर भगवान् के छत्र आदि अतिशयों को देख कर उसने धार्मिक श्रेष्ठ रथ को खड़ा रखा और नीचे उतरा। रथ पर से उतर कर वह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास पाँच प्रकार के अभिगम से जाने लगा। वे अभिगम इस प्रकार हैं । यथा: - ' सचित्त द्रव्यों का त्याग करना, इत्यादि दूसरे शतक के पाँचवें उद्देशक में कहे अनुसार यावत् तीन प्रकार की उपासना करने लगा। देवानन्दा ब्राह्मणी भी धार्मिक रथ से नीचे उतरी और अपनी दासियाँ आदि के परिवार से परिवृत होकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास पांच प्रकार के अभिगम युक्त जाने लगी। वे अभिगम इस प्रकार हैं; - ( १ ) सचित्त द्रव्य का त्याग करना, ( २ ) अचित्त द्रव्य का त्याग नहीं करना अर्थात् वस्त्रादिक को समेट कर व्यवस्थित करना, ( ३ ) विनय से शरीर को अवनत करना ( नीचे की ओर झुका देना ), (४) भगवान् के दृष्टिगोचर होते ही दोनों हाथ जोड़ना और (५) मन को एकाग्र करना । इन पांच अभिगम द्वारा जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हैं, वहाँ आई और भगवान् को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करके वन्दन नमस्कार किया । वन्दन नमस्कार के बाद ऋषभदत्त ब्राह्मण को आगे कर अपने परिवार सहित शुश्रूषा करती हुई और नत बन कर सन्मुख स्थित रही हुई, विनय पूर्वक हाथ जोड़ कर उपासना करने लगी । (४) इसके बाद उस देवानन्दा ब्राह्मणी के पाना चढ़ा अर्थात् उसके स्तनों में दूध आया । उसके नेत्र आनन्दाश्रुओं से भीग गये । हर्ष से प्रफुल्लित होती हुई उसकी भुजाओं को वलयों ने रोका ( उसकी भुजाओं के कडे तंग हो For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०० भगवती सूत्र-श. ५ उ. ३३ ऋषभदत्त और देवानन्दा गये) हर्ष से उसका शरीर प्रफुल्लित हो गया। उसकी कंचुकी विस्तीर्ण हो गई। मेघ की धारा से विकसित कदम्ब पुष्प के समान उसका सारा शरीर रोमाञ्चित हो गया। वह श्रमग भगवान् महावीर स्वामी की ओर अनिमेष दृष्टि से देखने लगी। विवेचन-ऋषभदत्त ब्राह्मण और देवानन्दा ब्राह्मणी धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर चढ़कर भगवान् के दर्शन करने के लिये गये । भगवान् को वन्दनार्थ जाते हुए उन्होंने पांच अभिगम किये । यया-(१) सचित्त द्रव्य, जैसे-पुष्प, ताम्बूल आदि का त्याग करना । (२) अचित्त द्रव्य,-वस्त्र आदि को मर्यादित करना (३) एक पटवाले दुपट्टे का उत्तरासंग करना । (४) मुनिराज के दृष्टिगोचर होते ही हाथ जोड़ना और (५) मन को एकाग्र करना। साधुसाध्वियों के पास जाते समय श्रावक-श्राविकाओं को पांच अभिगमों का पालन करना चाहिये। साधु साध्वियों के सन्मुख जाते समय पाले जाने वाले नियमों को 'अभिगम' कहते हैं । श्राविका के अभिगमों में थोड़ा सा अन्तर है । वह यह हैं-तीसरे अभिगम के स्थान पर 'विनय से शरीर को झुका देना'-कहना चाहिये। भगवान को देखते ही देवानन्दा के नेत्र आनन्दाश्रओं में भर गये। मेघधारा से विकसित कदम्ब पुष्प के समान उसका सारा शरीर रोमाञ्चित हो उठा । उसकी कञ्चुकी तंग हो गई और स्तनों में दूध आ गया। ५ प्रश्न-भंते ! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदह णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-किं णं भंते ! एसा देवाणंदा माहणी आगयपण्हया, तं चेव जाव रोमकूवा देवाणुप्पियं अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणी पेहमाणी चिट्ठइ ? ५ उत्तर-गोयमाइ ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी-एवं खलु गोयमा ! देवाणंदा माहणी ममं अम्मगा, अहं णं देवाणंदाए माहणीए अत्तए; तएणं सा देवाणंदा माहणी तेणं For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ५ ३. ३३ ऋषभदत्त और देवानन्दा पुन्यपुत्तसिणेहरागेणं आगयपण्हया, जाव समूसवियरोमकूवा ममं अणिमिसाए दिट्टीए पेहमाणी पेहमाणी चिट्ठइ । तएणं समणे भगवं महावीरे उसभदत्तस्म माहणस्स देवाणंदाए माहणीए तीसे य महतिमहालियाए इसिपरिसाए जाव परिसा पडिगया । कठिन शब्दार्थ-अम्मगा-माता, भत्तए-आत्मज, पुश्वपुत्तसिणेहरागेणं-पूर्व के पुत्रस्नेहानुराग से, इसिपरिसाए-ऋषियों की परिषद को । ___ भावार्थ-५ प्रश्न-इसके पश्चात् 'हे भगवन् !' ऐसा कहकर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-'हे भगवन् ! इस देवानन्दा ब्राह्मणी को किस प्रकार पाना चाढा (इसके स्तनों में से दूध कैसे आगया) यावत् उसको रोमाञ्च किस प्रकार हुआ ? और आप देवानुप्रिय की ओर अनिमेष दृष्टि से देखती हुई क्यों खडी है ? ५ उत्तर-'हे गौतम !'-ऐसा. कहकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा-"हे गौतम ! यह देवानन्दा मेरी माता है, मैं देवानन्दा का आत्मज (पुत्र) हूँ। इसलिये देवानन्दा को पूर्व के पुत्र-स्नेहानुराग से पाना चढ़ा यावत् रोमाञ्च हुआ और यह मेरी ओर अनिमेष दृष्टि से देखती हुई खडी है।" ... इसके बाद श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने ऋषभदत ब्राह्मण, देवानन्दा ब्राह्मणी और उस बडी ऋषिपरिषद् आदि को धर्म-कथा कही, यावत् परिषद् वापिस चली गई। . ६-तएणं से उसभदत्ते माहणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा णिसम्म हट्ठ-तुट्टे उठाए उट्टेइ, उठाए उतॄत्ता For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०२ - भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ ऋषभदत्त और देवानन्दा समणं भगवं महावीरं तिखुत्तो जाव णमंसित्ता एवं वयासी-एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! जहा खंदओ जाव से जहेयं तुम्भे वदह ति कटु उत्तरपुरस्थिमं दिसिभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता सयमेव आभरण-मल्ला-ऽलंकार ओमुयइ, सयमेव०ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ, करित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिवखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं, जाव णमंसित्ता एवं वयासी-आलित्ते णं भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते ! लोए, आलित्तपलिते णं भंते ! लोए जराए मरणेण य, एवं एएणं कमेणं जहा खंदओ तहेव पव्वइओ, जाव सामाइयमाइयाइं.एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, जाव बहूहिं चउत्थछट्ट-टुम-दसम-जाव विचित्तेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणे बहूइं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, झूसित्ता सटुिं भत्ताइं अणसणाए छेदेइ, छेदित्ता जस्सहाए कीरइ णग्गभावे जाव तमढें आराहेइ, आराहेत्ता जाव सब्वदुक्खप्पहीणे। . कठिन शब्दार्थ-एवमेयं-इसी प्रकार, तहमेयं-उसी प्रकार, अवक्कमइ-जाकर, लोयंलोच, आलिते-जल रहा है, पलिते-प्रज्वलित हो रहा है, जस्सट्टाए-जिसके लिए। भावार्थ-६-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास धर्म श्रवण कर और हृदय में धारण कर के ऋषभदत ब्राह्मग बड़ा प्रसन्न हुआ, तुष्ट हुआ। उसने खडे होकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी की तीन बार प्रदक्षिणा की For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ ऋपभदत्त और देवानन्दा १७०३ यावत् नमस्कार किया और इस प्रकार निवेदन किया कि 'हे भगवन् ! आपका कथन यथार्थ है,' 'हे भगवन् ! आपका कथन यथार्थ है।' इत्यादि दूसरे शतक के पहले उद्देशक में स्कन्दक तापस के प्रकरण में कहे अनुसार यावत् 'जो आप कहते हैं वह उसी प्रकार है ।' इस प्रकार कह कर ऋषभदत ब्राह्मण ईशानकोण की ओर गया और स्वयमेव आभरण, माला और अलंकारों को उतार दिया । फिर स्वयमेव पञ्चमुष्टि लोच किया और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आया। भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा की यावत् नमस्कार करके इस प्रकार कहा-“हे भगवन् ! जरा और मरण से यह लोक चारों ओर प्रज्वलित है, हे भगवन् ! यह लोक चारों ओर अत्यन्त प्रज्वलित है।" इस प्रकार कहकर स्कन्दक तापस की तरह प्रव्रज्या अंगीकार की, यावत् सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और बहुत से उपवास, बेला, तेला, चौला आदि विचित्र तप-कर्म से आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन किया और एक मास को संलेखना से आत्मा को संलिखित करके साठ भक्तों के अनशनों का छेदन किया और जिसके लिये नग्न-भाव (निग्रंथपनसंयम) स्वीकार किया था यावत् उस निर्वाण रूप अर्थ की आराधना करली यावत् वे सर्व दुःखों से मुक्त हुए। ____७-तएणं सा देवाणंदा माहणी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा णिसम्म हट्ठा तुट्ठा समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं, जाव णमंसित्ता एवं वयासी-एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! एवं जहा उसभदत्तो तहेव जाव धम्मं आइक्खियं । तएणं समणे भगवं महावीरे देवाणंदं माहणिं सयमेव पब्वावेइ, सयमेव पव्वा वित्ता सयमेव अजदणाए अजाए सीसिणित्ताए दल For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०४ . भगवती सूत्र-शः ९ उ. ३३ ऋषभदत्त और देवानन्दा यह । तएणं सा अजचंदणा अजा देवाणंदामाणिं सयमेव पव्वावेइ,सयमेव मुंडावेइ, सयमेव सेहावेइ, एवं जहेव उसभदत्तो तहेव अजचंदणाए अजाए इमं एयारूवं धम्मियं च उवएसं संमं संपडिवजह, तमाणाए तहा गच्छइ, जाव संजमेणं संजमइ । तएणं सा देवाणंदा अजा अजचंदणाए अजाए अतियं सामाइयमाझ्याई एकारस अंगाई अहिज्जइ, सेसं तं चेव, जाव सव्वदुक्खणहीणा। ___ कठिन शब्दार्थ-आइक्खियं-कहा, दलयइ-देते हैं, सेहावेइ-शिक्षित करती है, सम्वदुक्खप्पहीणा-समस्त दुःग्वों को नष्ट कर मुक्त हुई। भावार्थ-७-श्रमण भगवान महावीर स्वामी से धर्म सुनकर और हृदय में धारण करके देवानन्दा ब्राह्मणी हृष्ट (आनन्दित) और तुष्ट हुई । श्रमण भगवान महावीर स्वामी को तीन बार प्रदक्षिणा कर यावत् नमस्कार कर इस प्रकार बोली-'हे भगवन ! आपका कथन यथार्थ है।' इस प्रकार ऋषभदत्त ब्राह्मण के समान कहकर निवेदन किया कि-हे भगवान् ! मै प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ। तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने देवानन्दा को स्वयमेव दीक्षा दी । दीक्षा देकर आर्यचन्दना आर्या को शिष्या रूप में दिया । इसके पश्चात् आर्या चन्दना ने आर्या देवानन्दा को स्वयमेव प्रवजित किया, स्वयमेव मण्डित किया, स्वयमेव शिक्षा दी। देवानन्दा ने भी ऋषभदत्त ब्राह्मण के समान आर्याचन्दना के वचनों को स्वीकार किया और उनकी आज्ञानुसार पालन करने लगी यावत् संयम में प्रवृत्ति करने लगी। देवानन्दा आर्या ने आर्यचन्दना आर्या के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। शेष वर्णन पूर्ववत् है यावत् वह देवानन्दा आर्या सभी दुःखों से मुक्त हुई। ... For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ९ उ. ३३ जमाली चरित्र जमाली चरित्र ८ - तस्स णं माहणकुंडग्गामस्म णयरस्स पचत्थिमेणं एत्थ णं खत्तियकुं डग्गामे णामं णयरे होत्था । वण्णओ । तत्थ णं स्खत्तियकुं डग्गामे णयरे जमाली णामं खत्तियकुमारे परिवसड़, अड्ढे दित्ते, जाव अपरिभूए उपिं पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुहंगमत्थएहिं बतीसइबधेहिं णाडएहिं णाणाविहवरतरुणीसं प उत्तेहिं उवणच्चिज्जमाणे-उवणच्चिज्जमाणे, उवगिज्जमाणे उवगिज्जमाणे, उवलालिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे, पाउस वासारत सरय- हेमंत वसंतगिम्हपजंते छप्पि उऊ जहाविभवेणं माणमाणे. कालं गालेमाणे. इट्टे सद-फरिस रस रूव गंधे पंचविहे माणुस्सएं कामभोगे पञ्चभवमाणे विहरइ । तरणं खत्तियकुंडग्गामे णयरे सिंघाडग-तिकचक-चबर- जाव बहुजणसद्दे इ वा जहा उववाइए जाव एवं पण, एवं परूवे, एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे आइगरे, जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी माहणकंडग्गामस्स णयरस्स बहिया बहुसालए चेइए अहापडिरूवं जाव विहरइ । तं महफ्फलं खलु देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं जहा उववाइए जाएगाभिमुहे खत्तियकुंडग्गामं णयरं मज्झमज्झेणं णिग्गच्छड, णिग्गच्छिता जेणेव माहणकुं डग्गामे णयरे जेणेव बहुसालए चेइए, १७०५ For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र एवं जहा उववाइए, जाव तिविहाए पज्जुवासणयाए पज्जुवासइ । कठिन शब्दार्थ-पच्चत्थिमेणं-पश्चिम दिशा, उप्पि-ऊपर के. पासायवरगए-उत्तम प्रासाद (भवन) में, फुट्टमाणेहि-अति आस्फालन से (बजाने से) आवाज करते हुए, मुइंगमत्थरहि-मृदंग के मस्तक से, णाडएहि-नाटक से, णाणाविहवरतरुणीसंपउत्तेहि-अनेक प्रकार की सुन्दर युवतियों से, उवणच्चिज्जमाणे-नचाता हुआ, उवगिज्जमाणे-स्तुति कराता हुआ उवलालिज्जमाणे-काम-क्रीड़ा करता हुआ, पाउस-प्रावृट्, वासारत्त-वर्षा, गिम्हपज्जतेग्रीष्म पर्यन्त, छप्पि-छह, जहाविभवेणं-अपने वैभव के अनुसार, माणमाणे-सुखानुभव करता हुआ, कालं गालेमाणे-समय व्यतीत करता हुआ, पच्चणुब्भवमाणे अनुभव करता हुआ। भावार्थ-८-उस ब्राह्मणकुण्ड ग्राम नामक नगर के पश्चिम दिशा में क्षत्रियकुण्ड ग्राम नामक नगर था। उस क्षत्रियकुण्ड ग्राम नामक नगर में जमाली नाम का क्षत्रियकुमार रहता था। वह आढय, (धनिक) दीप्त-तेजस्वी यावत् अपरिभूत था । वह अपने उत्तम भवन पर, जिसमें मृदंग बज रहे हैं, अनेक प्रकार की सुन्दर युवतियों द्वारा सेवित है, बत्तीस प्रकार के नाटकों द्वारा हस्तपादादि अवयव जहां नचाए जा रहे हैं, जहां बारबार स्तुति की जा रही है, अत्यन्त खुशियां मनाई जा रही हैं, उस भवन में प्रावट, वर्षा, शरद, हेमन्त, बसन्त और ग्रीष्म, इन छह ऋतुओं में अपने वैभव के अनुसार सुख का अनुभव करता हुआ, समय बिताता हुआ, मनुष्य सम्बन्धी पांच प्रकार के इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध, इन काम भोगों का अनुभव करता हुआ रहता था। क्षत्रियकुंड ग्राम नामक नगर में शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क और चत्वर में यावत् बहुत-से मनुष्यों का कोलाहल हो रहा था, इत्यादि सारा वर्णन औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार जानना चाहिये, यावत् बहुत-से मनुष्य परस्पर इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि-'हे देवानुप्रियो ! आदिकर (धर्म-तीर्थ की आदि करने वाले) यावत् सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, श्रमण भगवान महावीर स्वामी, इस ब्राह्मगकुंड ग्राम नगर के बाहर, बहुशाल नामके उदयान में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके यावत् विचरते हैं । हे देवानप्रियो ! तथारूप अरिहन्त भगवान् के For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूटा-म. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र १७०७ नाम, गोत्र के श्रवण मात्र से भी महाफल होता है, इत्यादि औपपातिक सूत्र के अनुसार वर्णन जानना चाहिये, यावत् वह जन-समूह एक दिशा की ओर जाता है और क्षत्रियकुंड ग्राम नामक नगर के मध्य में होता हुआ, बाहर निकलता है और वहुशालक उदयान में आता है । इसका सारा वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार जानना चाहिये, यावत् वह जन-समूह तीन प्रकार की पर्युपासना करता है। तएणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स तं महया जणसदं वा जाव जणसण्णिवायं वा सुणमाणस्स वा पासमाणस्स वा अयं एयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-"किं णं अज्ज खत्तियकुंडग्गामे णयरे इंदमहे इ वा, खंदमहे इ वा, मुगुंदमहे इ वा, णागमहे इ वा, जखमहे इ वा, भूयमहे इ वा,कूवमहे इ वा, तडागमहे इ वा, णई. महे इ.बा, दहमहे इ वा, पव्वयमहे इ वा, रुक्खमहे इ वा, इयमहे इ वा, थूभमहे इ वा, जण्णं एए बहवे उग्गा, भोगा, राइण्णा, इक्खागा, णाया, कोरव्वा, खत्तिया, खत्तियपुत्ता, भडा, भडपुत्ता, जहा उववाइए, जाव सत्थवाहप्पभिइओ बहाया, कयवलिकम्मा जहा उववाइए, जाव णिग्गच्छंति” एवं संपेहेइ, एवं संपेहित्ता कंचुइजपुरिसं सद्दावेइ, कं० सद्दावित्ता एवं वयासी-किं णं देवाणुप्पिया ! अज खत्तियकुंडग्गामे णयरे इंदमहे इ वा, जाव णिग्गच्छंति ? तएणं से कंचुइजपुरिसे जमालिणा खत्तियकुमारेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ट-तुट्टे For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०८ भगवती-सूत्र श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र समणस्स भगवओ महावीरस्स आगमणगहियविणिच्छए करयल० जमालिं खत्तियकुमारं जएणं विजएणं वद्धावेइ, बद्धावित्ता एवं वयासी-णो खलु देवाणुप्पिया ! अज्ज खत्तियकुंडग्गामे णयरे इंदमहे इ वा, जाव णिग्गच्छंति; एवं खलु देवाणुप्पिया ! अज्ज समणे भगवं महावीरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी माहणकुंडग्गामरस णयरस्स बहिया बहुसालए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं जाव विहरई । तएणं एए बहवे उग्गा भोगा, जाव अप्पेगइया वंदणवत्तियं जाव णिग्गच्छति । तएणं से जमाली खत्तियकुमारे कंचुइपुरिसस्स अंतियं एयं अटुं सोचा, णिसम्म हट्ठ तुट्टे० कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, को० सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंटे आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह, उवट्ठवेत्ता मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह । तएणं ते कोडुंबियपुरिसा जमालिणा खत्तियकुमारेण एवं वुत्ता समाणा जाव पञ्चप्पिणंति । कठिन शब्दार्थ-इंदमहे-इन्द्र महोत्सव, खंदमहे-स्कन्ध महोत्सव, मुगुंदमहे-मुकुन्द महोत्सव, मडा-भट, सत्यवाहप्पभिइयो-सार्थवाह प्रभृति (इत्यादि), आगमणगहियविणिच्छए-आगमन का निश्चय करके, आसरहं-अश्वरथ । ___ भावार्थ-बहुत से मनुष्यों के शब्द और कोलाहल सुनकर और अवधारण कर क्षत्रियकुमार जमाली के मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि"क्या आज क्षत्रियकुंड ग्राम नगर में इन्द्र का उत्सव है, स्कन्द का उत्सव है, वासुदेव का उत्सव है, नाग का उत्सव है, यक्ष का उत्सव है, भूत का उत्सव है, कूप-उत्सव है, तालाव-उत्सव है, नदी का उत्सव है, द्रह का उत्सव है, पर्वत का For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र १७०९ उत्सव है, वृक्ष का उत्सव है, चैत्य का उत्सव है, या स्तूप का उत्सव है, कि जिससे ये सब उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल, इक्ष्वाकुकुल, ज्ञातकुल और कुरुवंश, इन सब के क्षत्रिय, क्षत्रियपुत्र, भट और भटपुत्र इत्यादि औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार यावत् सार्थवाह प्रमुख, स्नानादि कर के यावत् बाहर निकलते हैं-इस प्रकार विचार करके जमाली क्षत्रियकुमार ने कञ्चुकी (सेवक) को बुलाया. और इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय ! क्या आज क्षत्रियकुंड ग्राम नामक नगर के बाहर इन्द्र आदि का उत्सव है, जिससे ये सब लोग बाहर जा रहे हैं ?" जमाली क्षत्रियकुमार के इस प्रश्न को सुनकर वह कञ्चुकी पुरुष हर्षित एवं संतुष्ट हुआ । श्रमण भगवान महावीर स्वामी के आगमन का निश्चकरके उसने हाथ जोड़कर जमाली क्षत्रियकुमार को जय-विजय शब्दों द्वारा बधाया। तदनन्तर उसने इस प्रकार कहा-“हे देवानुप्रिय ! आज क्षत्रियकुंड प्राम नामक नगर के बाहर इन्द्र आदि का उत्सव नहीं है, किन्तु सर्वज्ञ, सर्वदर्शी श्रमण भगवान महावीर स्वामी नगर के बाहर बहुशाल नामक उद्यान में पधारे हैं और ययायोग्य अवग्रह ग्रहण करके यावत् विचरते हैं। इसलिये ये उग्रकुल भोगकुलादि के क्षत्रिय आदि वन्दन के लिये जा रहे हैं ।" कंचुकी पुरुष से यह बात सुनेकर एवं हृदय में धारण करके जमाली क्षत्रियकुमार हर्षित एवं संतुष्ट हुआ और कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियों ! तुम शीघ्र चार घण्टा वाले अश्वरथ को जोड़कर यहां उपस्थित करो और मेरी आज्ञा को पालन कर निवेदन करो। जमाली क्षत्रियकुमार की इस आज्ञा को सुनकर तदनुसार कार्य करके उन्हें निवेदन किया। ९ तएणं से जमालिखत्तियकुमारे जेणेव मज्जणघरे तेणेब उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता हाए कयवलिकम्मे जाव उववाइए परिसा वण्णओ तहा भाणियव्बं, जाव चंदणोकिण्णगायसरीरे सव्वा For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१० भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र लंकारविभूसिए मजणघराओ पडिणिक्खमइ, मजणघराओ पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छड़, तेणेव उवागच्छित्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ, चाउग्घंटं आसरहं दुरूहित्ता सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं, महया-भड-बडकरपहकरवंद-परिविखत्ते, खत्तियकुंडग्गामं गयरं मझमझेणं णिग्गच्छड, णिग्गच्छित्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे णयरे, जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तुरए णिगिण्हेइ, तुरए णिगिण्हित्ता रहं ठवेइ, रहं ठवेत्ता रहाओ पचोरुहइ, पचोरहित्ता पुष्फ-तंबोलाऽऽउहमाइयं वाहणाओ य विसज्जेइ, वाहणाओ विसज्जेत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ, एग० करित्ता आयंते, चोक्खे, परमसुइन्भूए, अंजलिमउलियहत्थे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, ति० २ करेत्ता जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ । तएणं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स खत्तियकुमारस्स, तीसे य महतिमहालियाए इसि० जाव धम्मकहा, जाव परिसा पडिगया। कठिन शब्दार्थ-सकोरंटमल्लदामेणं-कोरंट पुष्प की माला युक्त, तुरए-घोड़े को, पुप्फतंबोलाऽऽउहमाइयं-ताम्बुल पुष्प आयुधादि, विसज्जेइ-त्याग करता है, आयते-स्वच्छ होकर, चोक्खे-पवित्र, परमसुइब्मूए-परम शुचिभूत । भावार्थ-९-इसके बाद जमाली क्षत्रियकुमार स्नानघर में गया। वहां For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शं. ९ उ. :३ जमाली चरित्र १७११ जाकर स्नान-सम्बन्धी सभी क्रियापूर्वक स्नान किया यावत् औपपातिक सूत्र में वणित परिषद् का सारा वर्णन जानना चाहिये । यावत चन्दन से लिप्त शरीर वाला वह जमाली सभी अलंकारों से विभूषित होकर स्नान घर से बाहर निकला और उपस्थानशाला में आकर अश्वरथ पर चढ़ा । सिर पर कोरण्ट पुष्प की माला युक्त छत्र धारण किया हुआ और महायोद्धाओं के समूह से परिवृत वह जमालीकुमार क्षत्रियकुंड ग्राम नामक नगर के मध्य में होकर बाहर निकला और बहुशालक उद्यान में आया। घोडों को रोककर रथ खड़ा किया और नीचे उतरा । फिर पुष्प, ताम्बूल, आयुध (शस्त्र) आदि तथा उपानह (जूता) छोड़ दिया और एक पट वाले वस्त्र का उत्तरासंग किया। इसके बाद परम पवित्र बनकर और मस्तक पर दोनों हाथ जोड़कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी के निकट पहुँचा । श्रमण भगवान महावीर स्वामी को तीन बार प्रदक्षिणा की यावत् त्रिविध पर्युपासना से उपासना करने लगा। श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने जमाली क्षत्रियकुमार को तथा उस बडी ऋषिगण आदि की महापरिषद् को धर्मोपदेश दिया। धर्मोपदेश श्रवण कर वह परिषद् वापिस चली गई। __ १०-तएणं से जमालिखत्तियकुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा, णिसम्म हट्ट-तुट जाव हियए, उट्ठाए उठेइ, उट्टाए उद्वेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव णमंसित्ता एवं वयासी-गदहामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, रोएमि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, अब्भुट्टेमि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! जाव से जहेयं तुम्भे वयह, जं णवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि, तएणं अहं देवा For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१२ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र गुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयामि । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं । __ कठिन शब्दार्थ-रोएमि-मैं रुचि करता हूँ, अठभुढेमि-म उद्यत (तत्पर) होता हूँ, एवमेयं-इसी प्रकार है, तहमेयं-उसी प्रकार सत्य-तथ्य है, अवितह-अवितथ-सत्य, असंदिद्ध सन्देह रहित । भावार्थ-१०-श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास धर्म सुन कर और हृदय में धारण करके जमाली क्षत्रियकुमार हर्षित और संतुष्ट हृदय वाला हुआ यावत् खडे होकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दन नमस्कार किया और इस प्रकार कहा-“हे भगवन् ! मैं निग्रंथ-प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ, हे भगवन् ! में निग्रंथ-प्रवचन पर विश्वास करता हूँ, हे भगवन ! में निग्रंथ-प्रवचन पर रुचि करता हूँ, हे भगवन् ! मैं निग्रंथ-प्रवचन के अनुसार प्रवृत्ति करने को तत्पर हुआ हूं। हे भगवन् ! यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन सत्य है, तथ्य है, असंदिग्ध है, जैसा कि आप कहते है। हे देवानप्रिय ! मैं अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर, गृहवास का त्याग करके, मुण्डित होकर आपके पास अनगार-धर्म को स्वीकार करना चाहता हूँ।" भगवान ने कहा;-“हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो, धर्म-कार्य में समयमात्र भी प्रमाद मत करो।" ११-तएणं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ट-तुटे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव णमंसित्ता तामेव चाउग्घंटं आसरहं दुरूहेइ, दुरूहित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ बहुसालओ चेइयाओ पडिणिरखमइ, पडिणिवखमित्ता सकोरंट ० जाव धरिज्जमाणे णं महया For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र भडचडगर जाव परिक्खित्ते, जेणेव खत्तिय कुंडग्गामे णयरे तेणेव उवागच्छड़, उवागच्छित्ता खत्तियकुंडग्गामं णयरं मज्झमज्झेणं, जेणेव सए गेहे, जेणेव बाहिरिया उवद्वाणसाला तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता तुरए णिगिण्हइ, णिगिरिहत्ता रहं ठवेइ, टवित्ता रहाओ पचोरुहर, रहाओ पचोरुहित्ता जेणेव अभितरिया उबाणसाला, जेणेव अम्मा- पियरो तेणेव उवागच्छछ, उषागच्छित्ता अम्मा-पियरो जपणं विजएणं वद्धावेड़, जएणं विजएणं वद्धावित्ता एवं वयासी - एवं खलु अम्म-याओ ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अतियं धम्मे णिसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए । तरणं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मा- पियरो एवं क्यासी-धणे सि णं तुमं जाया ! कयत्थे सि णं तुमं जाया ! कयपुणे सि णं तुमं जाया !, कयलक्खणे सि णं तुमं जाया ! जं णं तुमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मे णिसंते, से विय धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुहए । * कठिन शब्दार्थ- इच्छिए - इच्छित - इप्ट, पडिच्छिए - प्रतीच्छित - अत्यन्त इष्ट, अभिहहए-अभिरुचित-रुचिकर, कयत्थे - कृतार्थ हुए, कयपुष्णे - कृतपुण्य । १७१३ भावार्थ - ११ - जब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जमाली से पूर्वोक्त प्रकार से कहा तो जमाली हर्षित और संतुष्ट हुआ । उसने भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दना नमस्कार किया । फिर चार घंटा वाले अश्वरथ पर चढ़कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास से और बहुशालक उद्यान For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१४ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ३३ जमाली चरित्र . से निकला, यावत् सिर पर कोरण्ट पुष्प की माला युक्त छत्र धराता हुआ और महासुभटों के समूह से परिवृत वह जमालीकुमार क्षत्रियकुंड ग्राम नगर के मध्य होता हुआ अपने घर के बाहर की उपस्थानशाला में आया और घोडों को रोक कर रथ से नीचे उतरा । वह अपने माता-पिता के पास आया और जय-विजय शब्दों से बधाकर इस प्रकार बोला-“हे माता पिता ! मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से धर्म सुना है । वह धर्म मझे इष्ट, अत्यन्त इष्ट और रुचिकर हुआ है ।" जमालीकुमार की यह बात सुनकर उसके माता-पिता ने कहा-'हे पुत्र! तू धन्य है, तू कृतार्थ है, तू कृतपुण्य है और कृतलक्षण है कि तूने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से धर्म सुना है और वह धर्म तुझ इष्ट, अत्यन्त इष्ट और रुचिकर हुआ है। १२-तएणं से जमालिखत्तियकुमारे अम्मा-पियरो दोच्चं पि एवं वयासी-एवं खलु मए अम्मयाओ ! समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे णिसंते, जात्र अभिरुइए । तएणं अहं अम्मयाओ ! संसारभउन्विग्गे, भीए जम्म-जरा-मरणेणं, तं इच्छामि गं अम्म-याओ ! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए । कठिन शब्दार्थ-संसार भउठिवग्गे-संसार के भय से उद्विग्न हुआ, भीए-डरा, अब्भ. गुण्णाए-आज्ञा होने पर। भावार्थ-१२-जमाली क्षत्रियकुमार ने दूसरी बार अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा-'हे माता-पिता ! मैं संसार के भय से उद्विग्न हुआ हूँ, जन्म, जरा और मरण से भयभीत हुआ हूँ। अतः हे माता-पिता ! मैं आपकी आज्ञा For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र १७१५ होने पर श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास मुण्डित होकर गृहवास का त्याग करके अनगार-धर्म स्वीकार करना चाहता हूँ।" विवेचन-श्रद्धा:-जहाँ तर्क का प्रवेश न हो--मे धर्मास्तिकायादि द्रव्यों पर, व्याख्याता के कथन से विश्वाम कर लेना 'श्रद्धा' है। . प्रतीति-व्याख्याता के साथ तर्क-वितर्क करके युक्तियों द्वारा पुण्य पाप आदि को समझ कर विश्वास करना 'प्रतीति' है। रुचि-व्याख्याता द्वारा उपदिष्ट विषय में श्रद्धा करके उसके अनुसार तप चारित्र आदि सेवन करने की इच्छा करना 'रुचि' है। निग्रंथ-प्रवचन 'तथ्य' है अर्थात् आप्त पुरुषों के द्वारा कथन किया गया होने के कारण अभिमत है । यह निग्रंथ-प्रवचन 'अवितथ' है, अर्थात् जिस प्रकार इस समय अभिमत है, उसी प्रकार यह सदा-काल अभिमत रहता है, किन्तु कभी भी अनभिमत नहीं होता। - भगवान् के पास धर्म श्रवण कर जमाली क्षत्रियकुमार को उस पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि हुई । वह उसके अनुसार प्रवृत्ति करने को तत्पर हुआ और अपने माता-पिता मे दीक्षा की आज्ञा माँगने लगा। १३-तएणं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया तं अणिटुं, अकंतं, अप्पियं, अमणुण्णं, अमणामं असुयपुठ्वं गिरं सोच्चा, णिसम्म, सेयागयरोमकूवपगलंतविलीणगत्ता, सोगभरपवेवियंगमंगी, णित्तेया, दीण-विमणवयणा, करयलमलियव्य-कमलमाला, तक्षण ओलुग्गदुब्बलसरीरलावण्णसुण्णणिच्छाया, गयसिरीया, पसिढिलभूसण-पडतखुण्णियसंचुण्णियधवलवलयपन्भट्ठउत्तरिज्जा, मुच्छावसणटुचेयगरई, सुकुमालविकिण्णकेसहत्था, परसुणिकत्त व चंपगलया, णिवत्तमहे व इंदलट्ठी, विमुक्कसंधिबंधणा कोट्टिमतलंसि धसत्ति For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१६ भगवती सूत्र-श..९ उ. ३३ जमाली चरित्र . सव्वंगेहिं संणिवडिया । तएणं मा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया ससंभमोवत्तियाए तुरियं कंचणभिंगारमुहविणिग्गय-सीयल विमल. जलधारपरिसिच्चमाणणिव्वावियगायलट्ठी, उबखेवय-तालियंटवीयणगजणियवाएणं, संफुसिएणं अंतेउरपरिजणेणं आसासिया समाणी, रोयमाणी, कंदमाणी, सोयमाणी, विलवमाणी जमालिं खत्तिय कुमारं एवं वयासी--तुमं सि णं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते इटे, कंते, पिए, मणुण्णे, मणामे, थेज्जे, वेसासिए, सम्म ए, बहुमए, अणुमए, भंडकरंडगसमाणे, रयणे रयणभूए, जीविऊसविये, हिययणंदिजणणे, उंबरपुप्फमिव दुल्लहे सवणयाए, किमंग ! पुण पासणयाए; तं णो खलु जाया ! अम्हे इच्छामो तुम्भं खणमवि विप्पओगं, तं अछाहि ताव जाया ! जाव ताव अम्हे जीवामो, तओ पच्छा अम्हेहिं कालगएहिं समाणेहिं परिणयवये, वढियकुलवंसतंतुकज्जम्मि णिरवयक्खे समणस्म भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिसि । कठिन शब्दार्थ-अणिठें-अनिष्ट, अकंतं-अकांत, अप्पियं- अप्रिय, अमणुष्ण-अमनोज्ञ, अमणाम-अनिच्छनीय, असुयपुव्वं-पहले नहीं सुने ऐसे, गिरं सोच्चा-वाणी सुनकर, सेयाणयरोमकूवपगलंतविलीणगत्ता-रोम कूपों में से वहते हुए पसीने से भीग गया है गरीर जिसका, सोगभरपवेवियंगमंगी-शोक के कारण जिसके अंग कम्पायमान हो रहे हैं, णित्तेया-निस्तेज (म्लान) दोण-विमणवयणा-जिसका मुंह दीन एवं शोकाकुल है, करयलमलियध्वकमलमालाहाथों से मसली हुई कमल-माला जैसी, तक्खणओलग्गदुव्वलसरीरलावण्णसुण्णणिच्छायाजिसका शरीर तत्क्षण ग्लान, दुर्बल, लावण्य शून्य एवं प्रभा रहित हो गया, गयसिरिया-गत For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भगवती गुत्र-स. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र १७१७ श्री (शोभा रहित). पसिढिलभूसण-आभूपण ढीले हो गए, पडतखुणियसंचुण्णियधवलवलयपन्भट्टउत्तरिज्जा-श्वेत वलय (चडिया) गिरकर चूर्ण होगई, उत्तरीय वस्त्र गिर गया, मच्छावसणट्टचेयगरुई-मर्छा से चेतनता नट होकर शरीर भारी होगया, सुकुमालविकिष्णकेसहत्था-मुकोमल केश पाम बिखर गया, परसुणिकत्त व्व चंपगलया-कुल्हाड़ी से काटी हुई चम्पकलता की तरह, णिवत्तमहे व्व इंदलट्ठी-निवन महोत्सव के इन्द्र-ध्वज की लट्ठी (दंड) की तरह, विमुक्कसंधिबंधणा-शरीर के मंधि-बन्धन शिथिल होगा, कोट्टिमतलंसिधसत्ति सम्वंगेहि संणिवडिया-धरती की फर्श पर धसक कर सर्वांग से गिर गई, ससंभमोवत्तियाए-व्याकुलता पूर्वक उठी हुई, तुरियं-त्वरित, कंचभिगारमुहविणिग्गयसीयलविमलजलधारपरिसिच्चमाणिवावियगायलट्ठी- स्वर्ण कलश के मुख से निकलती हुई शीतल निर्मल जल धाग के सिंचन में स्वस्थ किया, उक्ने वय तालियंट वौयणगजणियवाएणं-वांस और नाल वृक्ष के पं.चे की जल विन्दुयुक्त वायु से, संफुसिएणं - स्पर्श से, अंतेउरपरिजणेणं अंतः पुरस्थ परिजनों मे, आसासियासमाणी-आश्वासन पाई हुई, रोयमाणी-रोती हुई, कंदमाणीआक्रन्द करती हुई, सोयमाणी-गोक करती हुई, विलवमाणी-विलाप करती हुई, थेज्जेस्थिरता गुण युक्त, वेमासिए-विश्वास योग्य, संनए-पम्मत, बहुमए-बहुमत, अणुमए-अनुमत, भंडकरंडगसमाणे-आभूषगों की पेटी जैसा, रयणभूए-रत्न के समान, जीविऊसवियेजीविकोत्सव ममान, हिययणंदिजणणे-हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाला, उंबरपुप्फमिवदुल्लहे-गुलर के फूल के समान दुर्लभ, खणमवि-क्षण मात्र भी, विप्पओग-वियोग नहीं चाहते, कालगएहि-मग्ने पर, परिणयवये-वृद्धावस्था में, वडियकुलवंसतंतुकज्जम्मि-कुलवंश के तन्तु की वृद्धि करके, गिरवयक्खे-निरपेक्ष होकर। ___ भावार्थ-१३-जमाली क्षत्रियकुमार की माता उसके उपरोक्त अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, मन को अप्रिय, अश्रुतपूर्व (जो पहले कमी नहीं सुनी! ऐसी (आघात कारक) वाणी सुनकर और अवधारण कर (शोक ग्रस्त हुई) शरीर के रोमकूपों से झरते हुए पसीने से वह भीग गई । शोक के भर : उसका सारा शरीर कम्पित होने लगा, चेहरे की कान्ति निस्तेज हो गई । उसका मुख, दीन और शोकातुर हो गया । हाथों से मसली हुई कमल-माला की तरह उसका शरीर तत्काल ग्लान एवं दुर्बल हो गया । वह लावण्य रहित, प्रभा रहित और शोभा रहित हो गई । उसके शरीर पर पहने हुए आभूषण ढीले हो गये । उसको For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१८ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र चूड़ियाँ हाथों से गिर पड़ी और टूट कर चूर्ण हो गई । उसका उत्तरीय वस्त्र अस्तव्यस्त हो गया । मूर्छा द्वारा उसका वैतन्य विलुप्त होजाने से वह भारी शरीर वाली हो गई। उसके सुकुमाल केशपाश बिखर गये । कुल्हाड़ी से काटी हुई चम्पक लता के समान और उत्सव पूरा हो जाने पर इन्द्रध्वजदण्ड के समान उसके सन्धि बन्धन शिथिल हो गये । वह सभी अंगों से 'धस' करती हुई धरती पर गिर पड़ी। इसके बाद जमाली क्षत्रियकुमार की माता के शरीर को दासियों ने शीघ्र ही स्वर्ण कलशों के मुख से निकली हुई शीतल और निर्मल जलधारा का सींचन करके स्वस्थ बनाया और बाँस के बने हुए उत्क्षेपक (पंखों) तथा ताड़ पत्र के बने हुए पंखों द्वारा जल बिन्दु सहित पवन करके दासियों ने उसे आश्वस्त और विश्वस्त किया । स्वस्थ होते ही रोती हुई, आक्रन्दन करती हुई, शोक करती हुई और विलाप करती हुई वह जमालीकुमार की माता इस प्रकार कहने लगी-“हे पुत्र! तू मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम (मन गमता), आधारभूत, विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत आभूषणों की पेटी के तुल्य, रत्न स्वरूप, रत्न तुल्य, जीवन के उत्सव समान और हृदय को आनन्ददायक एक ही पुत्र है । उदुम्बर (गुलर) के पुष्प के समान तेरा नाम सुनना भी दुर्लभ है, तो तेरा दर्शन दुर्लभ हो, इसमें तो कहना ही क्या ? अतः हे 'पुत्र! तेरा वियोग मुझ से एक क्षण भी सहन नहीं हो सकता । इसलिए जब तक हम जीवित हैं, तब तक घर ही रह कर कुल वंश को अभिवृद्धि कर । जब हम कालधर्म को प्राप्त हो जायें और तुम्हारी वृद्धावस्था आ जाय, तब कुल वंश की वृद्धि करके तुम निरपेक्ष होकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास मुण्डित होकर अनगारधर्म को स्वीकार करना ।" ___१४-तएणं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासीतहा विणं तं अम्म-याओ ! जं गं तुम्भे मम एवं वयह, तुमं सि णं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते इटे कंते तं चेव, जाव पव्वइहिसि; एवं For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र --श. ९. उ. ३३ जनाली चरित्र १७१९ खलु अम्मयाओ ! माणुस्सए भवे अणेगजाइ-जरा-मरण-रोग-सारीरमाणसपकामदुक्ख-वेयण-वसण-सओवद्दवाभिभूए, अधुवे, अणिइए, असासए, संज्झन्भरागसरिसे, जलबुब्बुयसमाणे, कुसग्गजलबिंदु. सण्णिभे, सुविणगदंसणोवमे, विज्जुलयाचंचले, अणिच्चे, सडणपडणविधंसणधम्मे, पुट्विं वा पच्छा वा अवस्सं विप्पजहियव्वे भविस्सइ, से केस णं जाणइ अम्मयाओ ! के पुट्विं गमणयाए, के पच्छा गमणयाए ? तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्म जाव-पव्वइत्तए । कठिन शब्दार्थ--वसणसओवद्दवाभिभूए-सैकड़ों व्यसनों (दुःखों) से पीड़ित, अधुवेअध्रुव, अणिइए-अनियत, असासए-अशाश्वत्, संज्झन्भरागसरीसे-संध्या के सुन्दर रंग जैसा, जलबब्बयसमाणे-पानी के बुदबुदे जैसा, कुसग्गजलबिदुसण्णिभे-घास पर रहीं हुई जलबिन्दु के समान, सुविणगदसणोवमे-स्वप्न दर्शन जैसा, विज्जुल्लयाचंचले-विजली के समान चंचल, अणिच्च-अनियत, सडणपडणविद्धंसणधम्मे-सड़न-गिरन और विध्वंशन धर्मवाला, विप्पजहियव्वे-त्याग करने योग्य । भावार्थ-१४-तब राजकुमार जमाली ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा-“हे माता-पिता ! अभी जो आपने कहा कि-'हे पुत्र ! तू हमें इष्ट, कांत, प्रिय आदि है यावत् हमारे कालगत होने पर तू दीक्षा अंगीकार करना" इत्यादि। परन्तु हे माता-पिता ! यह मनुष्य जीवन जन्म,, जरा, मरण, रोग, व्याधि आदि अनेक शारीरिक और मानसिक दुःखों की अत्यन्त वेदना से और सैंकडों व्यसनों (कष्टों) से पीडित है। यह अध्रुव, अनित्य और अशाश्वत है । संध्याकालीन रंगों के समान, पानी के परपोटे (बुदबुदे) के समान, कुशाग्र पर रहे हुए जल-बिंदु के समान, स्वप्न-दर्शन के समान तथा बिजली की चमक के समान चञ्चल और अनित्य है । सड़ना, पड़ना, गलना और विनष्ट होना इसका धर्म (स्वमाव) है। For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२० . भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र पहले या पीछे एक दिन अवश्य ही छोड़ना पड़ता है; तो हे माता-पिता ! इस बात का निर्णय कौन कर सकता है कि हममें से कौन पहले जायेगा (मरेगा) और कौन पीछे जायेगा। इसलिए हे माता-पिता ! आप मुझे आज्ञा दीजिये। आपकी आज्ञा होने पर मैं श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास प्रवज्या अंगीकार करना चाहता हूँ।" १५-तएणं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो एवं वयासी-इमं च ते जाया ! सरीरगं पविसिगुरूवलक्षण-वंजणगुणोववेयं, उत्तमवल-वीरिय-सत्तजुत्तं, विष्णाणवियवखणं, ससोहग्गगुणसमुस्सियं अभिजायमहक्खमं, विविवाहिरोगरहियं णिस्वहयउदत्त-लटुं, पंचिंदियपडपटमजोव्वणत्थं, अणेगउत्तमगुणेहिं मंजुत्तं, तं अणुहोहि ताव जाया ! णियग-सरीररूव-सोहग्ग-जोव्वणगुणे, तओ पच्छा अणुभूय णियगसरीररूव-सोहग्गजोव्वणगुणे अम्हेहिं कालगएहिं समाणेहिं परिणयवये, वढियकुलवंसतंतुकज्जम्मि णिरव. यक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिसि । .. कठिन शब्दार्थ-जाया-पुत्र, पविसिटुरूव-विशिष्ट रूप, सत्तजुत्तं-सत्त्वयुक्त, विण्णाणवियपखणं-विज्ञान में विचक्षण है, ससोहग्गगुणसमुस्सियं-मौभाग्यगुण से उन्नत है, अभिजायमहक्लम-कुलीन है और अत्यन्त क्षमता (सामर्थ्य ) वाला है, विविहवाहिरोगरहियं-विविध प्रकार की व्याधि एवं रोग से रहित है, णिरुवहय-उदत्त-लट्ठ-निरुपहत, उदात्त और मनोहर है, पंचिदियपड़पढमजोव्वणत्थं-पांच इंद्रिय और नवयुवावस्था प्राप्त है, अणुहोहि तावअनुभा हो रहा है तबतक, णियगसरीररूवसोहग्गजोधणगुणे-तेरे शरीर में रूप सौभाग्य For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र १७२१ तथा यौवनादि गुण है, अणुभूय-अनुभव किया हुआ। भावार्थ-१५-जमाली क्षत्रियकुमार की बात सुनकर उसके माता-पिता ने इस प्रकार कहा-“हे पुत्र ! यह तेरा शरीर उत्तम रूप, लक्षण, व्यञ्जन (मस तिल आदि चिन्ह) और गुणों से युक्त है, उत्तम बल, वीर्य और सत्त्व सहित है, विज्ञान में विचक्षण है, सौमाग्यगुण से उन्नत है, कुलीन है, अत्यंत समर्थ है, व्याधि और रोगों से रहित है, निरुपहत, उदात्त और मनोहर है, पट (चतुर) पांच इन्द्रियों से युक्त और प्रथम युवावस्था को प्राप्त है, इत्यादि अनेक उत्तम गुणों से युक्त है । इसलिए हे पुत्र ! जबतक तेरे शरीर में रूप, सौभाग्य और यौवन आदि गुण हैं, तबतक तू इनका अनुभव कर। इसके पश्चात् जब हम कालधर्म को प्राप्त हो जायें और तुझे वृद्धावस्था प्राप्त हो जाय तब कुल-वंश की वृद्धि करने के पश्चात् निरपेक्ष होकर, श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास दीक्षा लेना।" . १६-तएणं से जमाली खत्तियकुम.रे अम्मा-पियरो एवं वयासीतहा विणं तं अम्म-याओ ! ज णं तुम्भे ममं एवं वयह-इमं च णं ते जाया ! सरीरगं तं चेव जाव पव्वइहिसि, एवं खलु अम्म-याओ ! माणुस्सगं सरीरं दुक्खाययणं, विविहवाहिसयसंणिकेयं, अट्ठियकट्ठट्ठियं, छिरा-हार-जालओणद्धसंपिण, मट्टियभंडं व दुब्बलं, असुइसंकिलिटुं, अणिट्ठवियसव्वकालसंठप्पयं, जराकुणिम-जज्जरघरं व सडण-पडण-विद्धंसणधम्मं, पुट्विं वा पच्छा वा अवस्सं विप्पजहियव्वं भविस्सइ; से केस णं जाणइ अम्मयाओ ! के पुट्विं तं चेव जाव पव्वइत्तए । कठिन शब्दार्थ-दुक्खाययणं-दुःखों का घर, विविहवाहिसयसंणिकेयं-विविध प्रकार For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२२ भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र की सैकड़ों व्याधियों का निकेतन (स्थान) है, अट्ठियकछुट्ठियं - अस्थिरूप लकड़ी का बना है, छिराहारु जाल ओणद्ध संपिषद्धं नाड़ियों और स्मायु समूह में अत्यन्त लिपटा हुआ है, मट्टिय भंड व दुब्बलं - मिट्टी के बर्तन की तरह दुर्बल है, असुइ संकिलिट्ठ - अशुचि से भरपूर है, अणि विसव्वकाल संठप्पयं - अनिष्ट होने से सदैव शुश्रूषा करनी होती है, जरा-कुणिमजज्जरघर - जीर्ण मांस का जीर्ण घर । भावार्थ - १६ - जमाली क्षत्रियकुमार ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा - "हे माता-पिता ! आपने कहा - 'हे पुत्र ! यह तेरा शरीर उत्तम रूप, लक्षण व्यञ्जन और गुणों से युक्त है, इत्यादि यावत् हमारे कालगत होने पर तू दीक्षा लेना ।" परन्तु हे माता-पिता ! यह मनुष्य का शरीर दुःखों का घर है । अनेक प्रकार की व्याधियों का स्थान है । अस्थिरूप लकडी का बना हुआ है । नाडियों और स्नायुओं के समूह से वेष्टित है। मिट्टी के बर्तन के समान दुर्बल है । अशुचि का भण्डार है । निरन्तर इसकी सम्हाल करनी पड़ती है । जीर्णघर के समान सड़ना, गलना और विनष्ट होना इसका स्वभाव है । इस शरीर को पहले या पीछे एक दिन छोड़ना ही पडेगा। कौन जानता है कि हम में से पहले कौन जायेगा और पीछे कौन ? इसलिए आप मुझे आज्ञा दीजियें ।" १७ -तएणं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो एवं वयासी - इमाओ य ते जाया ! विपुलकुलवा लियाओ, सरिसियाओ, सरितयाओ, सब्वियाओ, सरिसलावण्ण-रूव-जोव्वणगुणोववेयाओ, सरिसएहिंतो कुलेहिंतो आणिएल्लियाओ कलाकुसल - सव्वकाललालिय- सुहोचियाओ, मद्दवगुणजुत्त - णिउणविणओवयारपंडिय'विक्खणाओ, मंजुल मिय-महुरभणिय- विहसिय-विप्पेक्खियगडविलास-चिट्ठियविसारयाओ, अविकलकुल सीलसालिणीओ, विसुद्ध For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ९, उ. ३३ जमाती चरित्र १७२३ कुल-वंससंताणतंतुवद्धणप्पगम्भवयभाविणीओ, मणाणुकूल-हियइच्छियाओ, अट्ठ तुझ गुणवल्लहाओ, उत्तमाओ, णिच्चं भावागुरत्तसव्वंगसुंदरीओ भारियाओ; तं भुंजाहि ताव जाया ! एयाहिं सदिधं विउले माणुस्सए कामभोगे, तो पच्छा भुत्तभोगी, विसयविगयवोच्छिण्णकोउहल्ले अम्हेहिं कालगएहिं जाव पव्वइहिसि । ___ कठिन-शब्दार्थ-विपुलकुलबालियाओ-विशाल कुल की वालाएँ, सरिसियाओ-समान : हैं, सरित्तयाओ-समान त्वचा वाली, सरिव्वयाओ-समानवयवाली, आणिएल्लियाओ-लाई हुई, सव्वकाललालिय-सुहोचियाओ-सभी काल में ललित एवं सुखप्रद, णिउणविणओवयारपंडिय-निपुण विनयोपचार में पंडिता, वियक्खणा-विचक्षणा (चतुर), मंजुल-मिय-महुरभणिय-सुन्दर मित एवं मधुर भाषण, विहसिय विपेक्खियगइ-विलास-चिट्ठियविसारया-हास्य, कटाक्ष, गति, विलास एवं स्थिति में विशारद, अविकलकुल-सीलसालिणी-उत्तम कुल और शील से सुशोभित, संताणतंतुबद्धणप्पगब्भवयमाविणी-सन्तान तंतु की वृद्धि करने में समर्थ यौवन वाली है, हियइच्छियाओ-हृदय में चाहने योग्य, गुणवल्लहा-गुणवल्लभा, विसयविगयवोच्छिण्णकोउहल्ले-विषयेच्छा एवं उत्सुकता नष्ट होने पर। भावार्य-१७-तब जमालीकुमार के माता-पिता ने उससे इस प्रकार कहा-'हे पुत्र ! ये तेरे आठ स्त्रियाँ हैं । वे विशाल कुल में उत्पन्न और तरुण , अवस्था को प्राप्त है, वे समान त्वचावाली, समान उम्रवाली, समान रूप, लावण्य और यौवन गुण से युक्त हैं, वे समान कुल से लाई हुई हैं, वे कला में कुशल, सर्वकाललालिस और सुख के योग्य हैं। वे मार्दव गुण से युक्त, निपुण, विनयोपचार में पण्डिता और विचक्षणा है । सुन्दर, मित और मधुर बोलने वाली हैं। हास्य, विप्रेक्षित (कटाक्ष दृष्टि), गति, विलास और स्थिति में विशारद हैं। वे उत्तम कुल और शील से सुशोभित हैं । विशुद्ध कुलरूप वंश तन्तु की वृद्धि, करने में समर्थ यौवनवाली हैं। मन के अनुकूल और हृदय को इष्ट हैं और गुणों के द्वारा प्रिय और उत्तम हैं। वे तुम्न में सदा अनुरक्त और सर्वांग सुन्दर है। For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२४ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ३३ जमाली चरित्र इसलिये हे पुत्र ! तू इन स्त्रियों के साथ मनुष्य सम्बन्धी विपुल काम भोगों का भोग कर । जब विषय की उत्सुकता नहीं रहे और भुक्त भोगी हो जाय तब हमारे कालधर्म को प्राप्त हो जाने पर यावत् तू दीक्षा लेना। १८-तएणं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासीतहा वि णं तं अम्म-याओ ! ज णं तुम्भे मम एयं वयह-इमाओ ते जाया ! विपुलकुल जाव पव्वइहिसि; एवं खलु अम्मयाओ! माणुस्सगा कामभोगा अमुई, असासया, वंतासवा. पित्तासवा, खेलासवा, सुवकासवा, सोणियासवा, उच्चार-पासवण खेल-सिंघाणग-वंतपित-पूय-सुक्क सोणियसमुभवा, अमणुण्णदुरूव-मुत्त-पूइय-पुरिसपुण्णा, मयगंधुस्सास-असुभ-णिस्सासउव्वेयणगा, बीभत्था, अप्पकालिया, लहुसगा, कलमलाहिवासद्वखबहुजणसाहारणा, परिकिले. सकिन्छटुक्खसज्झा, अबुहजणणिसेविया, सया साहुगरहणिज्जा, अणंतसंसारवद्धणा, कडगफलविवागा चुल्लिव अमुच्चमाणदुक्खाणुबंधिणो, सिद्धिगमणविग्धा; से केस णं जाणइ अम्मयाओ ! के पुट्विं गमणयाए के पच्छा ? तं इच्छामि णं अम्म-याओ ! जाव पव्वइत्तए । कठिन शब्दार्थ-वंतासवा पित्तासवा-वात और पित्त से वहनेवाला, खेलासवा, सुक्कासवा, सोणियासवा-श्लेष्म, शुक्र एवं शोणित के झरनेवाला, उच्चार-पासवण-विष्ठा मूत्र, समुन्भवा-उत्पन्न हुआ, पुइय पुरिस पुण्णा-पीप और विष्ठा से भरपूर, मयगंधुस्सास असुमहिस्सास उन्वेयणगा-मृतक जैसी गंधवाले उच्छ्वास और अशुभ निश्वास से उद्वेग उत्पन्न For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. ९. उ. ३३ जमाली चरित्र १७२५ करनेवाला, अप्पकालिया-अल्पकालीन । भावार्थ-१८-माता-पिता की उपरोक्त बात के उत्तर में जमाली क्षत्रिय कुमार ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा-“हे माता-पिता! आपने कहा कि-'विशाल कुल में उत्पन्न तेरी ये आठ स्त्रियां हैं, इत्यादि ।' हे मातापिता ! ये मनुष्य सम्बन्धी काम भोग निश्चित रूप से अशुचि और अशाश्वत हैं । वात, पित्त, श्लेष्म (कफ), वीर्य और रुधिर के झरने हैं । मल, मूत्र, श्लेष्म (खंखार), सिंघाण (नासिका का मेल), वमन, पित्त, राध, शुक्र और शोणित से उत्पन्न हुए हैं। ये अमनोज, बुरे, मूत्र और विष्ठा से भरपूर तया दुर्गन्ध से युक्त हैं। मृत कलेवर के समान गन्धवाले एवं उच्छ्वास ओर निश्वास से उद्वेग उत्पन्न करने वाले हैं। बीभत्स, अल्प काल रहने वाले, हलके और कलमल (शरीर में रहा हुआ एक प्रकार का अशुद्ध द्रव्य) के स्थानरूप होने से दुःखरूप है और सभी मनुष्यों के लिए साधारण है। काम-भोग, शारीरिक और मानसिक अत्यन्त दुःखपूर्वक साध्य है । अज्ञानी पुरुषों द्वारा सेवित तथा उत्तम पुरुषों द्वारा सदा निन्दनीय हैं, अनन्त संसार की वृद्धि करने वाले है, परिणाम में कटु फलवाले हैं. जलते हुए घास के पूले के स्पर्श के समान दुःखदायो तथा कठिनता से छुटने वाले हैं, दुःखानुभव वाले हैं। य काम-भोग मोक्षमार्ग में विघ्नरूप हैं। हे माता-पिता! यह भी कौन जानता है कि हमारे में से कौन पहले जायगा और कौन पीछे । इसलिए मुझे दीक्षा लेने की आज्ञा दीजिए। १९-तपणं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो एवं वयासी-इमे य ते जाया ! अज्जय-पज्जय-पिउपज्जयागए सुबहुहिरण्णे य, सुवण्णे य, कंसे य, दूमे य, विउलधण-कणग-जाव संतसारसावएज्जे, अलाहि जाव आसत्तमाओ कुल-वंसाओ पकामं दाउं, पकामं भो, परिभाएउं, तं अणुहोहि ताव जाया ! विउले माणुस्सए For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२६ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र इड्ढि-सकारसमुदए, तओ पच्छा अणुहूयकल्लाणे, वड्ढियकुलवंस जाव पबाहिसि । ___ कठिन शब्दार्थ-अज्जय-दादा, पज्जय-परदादा, पिउपज्जय-पिता का पर दादा, सावएज्जे-स्वापतेय-धन, अलाहि-पर्याप्त, पकाम-प्रकाम (अतिशय), परिभाएउ-वितरण करने । भावार्थ-१९-इसके पश्चात् जमालीकुमार के माता-पिता ने इस प्रकार कहा-“हे पुत्र ! यह दादा, परदादा और पिता के परदादा से प्राप्त बहुत हिरण्य, सुवर्ण, कांस्य, वस्त्र, विपुल धन, कनक यावत् सारभूत द्रव्य विद्यमान है । यह द्रव्य इतना है कि यदि सात पीढ़ी तक पुष्कल (खुले हाथों) दान दिया जाय, भोगा जाय और बांटा जाय, तो भी समाप्त नहीं हो सकता। अतः हे पुत्र ! मनष्य सम्बन्धी विपुल ऋद्धि और सम्मान का भोग कर। सुख का अनुभव करके और कुल-वंश की वृद्धि करके पीछे यावत् तू दीक्षा लेना। २०-तएणं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासी-तहा वि णं तं अम्म-याओ ! जंणं तुम्भे ममं एवं वयहइमं च ते जाया ! अज्जय-पज्जय-जाव पव्वइहिसि; एवं खलु अम्मयाओ ! हिरण्णे य, सुवण्णे य, जाव सावएज्जे अग्गिसाहिए, चोरसाहिए, रायसाहिए, मच्चुसाहिए, दाइयसाहिए, अग्गिसामण्णे जाव दाइयसामण्णे, अधुवे, अणिइए, असासए, पुचि वा पच्छ। वा अवस्सं विप्पजहियब्वे भविस्सइ, से केस णं जाणइ तं चेव जाव पवइत्तए। कठिन शब्दार्थ-अग्गिसाहिए-अग्नि-साध्य (अग्नि का विभाग)अग्नि के लिए साधा For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भगवती सूत्र - ९ उ. ३३ जमाली चरित्र रंग, मच्त्र - मृत्यु, साहिए - साध्य, दाइय-दायाद (बन्धु आदि भागीदार), सामणे - सामान्य । भावार्थ-२०-तब जमाली क्षत्रियकुमार ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा - " आपने धन सम्पत्ति आदि के लिए कहा है, परन्तु हे माता-पिता ! यह हिरण्य, सुवणं यावत् सर्व सारभूत द्रव्य अग्नि, चोर, राजा और मृत्यु (काल) के लिए साधारण ( अधीन ) है । बन्धु इसे बँटा सकते हैं । अग्नि यावत् दायाद ( भाई आदि हिस्सेदार) के लिए सामान्य ( विशेष अधीन ) है । यह अध्रुव, अनित्य और अशाश्वत है । इसे पहले या पीछे, एक न एक दिन अवश्य छोड़ना पडेगा । · हममें से पहले कौन जायगा और पीछे कौन जायगा, यह भी कौन जानता है ? इसलिए आप मुझे दीक्षा की आज्ञा दीजिये ।" १७२७ २१ - तणं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मन्याओ जाहे णो संचाएंति विसयाणुलोमाहिं बहूहिं आघवणाहि य, पण्णवणाहि य, सष्णवणाहि य, विष्णवणाहि य आघवेत्तए वा, पण्णवेत्तए वा, सण्णवेत्तए वा, विष्णवेत्तए वा, ताहे विसय डिकूलाहिं संजमभयुब्वेयणकराहिं पण्णवणाहिं पण्णवेमाणा एवं वयासी एवं खलु जाया ! णिग्गंथे पावणे सच्चे, अणुत्तरे, केवले जहा आवस्सए, जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ । अहीव एतदिट्टीए, खुरो इव एगंतधाराए, लोहमया जवा चावेयव्वा, वालुयाकवले इव णिस्साए, गंगा वा महाई डिसोयगमणयाए, महासमुद्दो वा भुयाहिं दुत्तरो; तिक्खं कमियव्वं, गरुयं लंबेयव्वं, असिधारगं वयं चरियव्वं । णो खलु कपड़ जाया ! समणाणं णिग्गंथाणं आहाकम्मिए इवा, उद्देसिए For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२८ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३३ जमाली चरित्र इ वा, मिस्सजाए इ वा, अझोयरए इ वा, पूइए इ वा, कीए इवा, पामिच्चे इ वा, अच्छेजे इ वा, अणिसटे इ वा, अभिहडे इ वा, कंतारभते इ वा, दुभिक्खभत्ते इ वा, गिलाणभत्ते इ वा, वदलिया. भते इ वा, पाहुणगभत्ते इ वा, सेज्जायरपिंडे इ वा, रायपिंडे इ वा, मूलभोयणे इ वा, कंदभोयणे इवा, फलभोयणे इवा, बीयभोयणे इवा, हरियभोयणे इ वा, भुत्तए वा पायए वा । तुम सि च णं जाया ! सुहसमुचिए, णो चेव णं दुहसमुचिए; णालं सियं, णालं उण्हं, णालं खुहा, णालं पिवासा, णालं चोरा, णालं वाला, णालं दंसा, णालं मसगा, णालं वाइय-पित्तिय-सेभिय-सण्णिवाइए विविहरोगायके, परिस्सहोवसग्गे उदिण्णे अहियासित्तए । तं णो खलु जाया.! अम्हे इच्छामो तुम्भं खणमवि विप्पओगं, तं अच्छाहिं ताव जाया ! जाव ताव अम्हे जीवामो; तओ पच्छा. अम्हेहिं जाव पवइहिसि । कठिन शब्दार्थ-णो संचाएंति-समर्थ नहीं हुए, विसयाणुलोमाहि-विषय के अनुकूल, विसयाडिकूलाहि-विषय के प्रतिकूल, संजमभयम्वेयणकराहि-संयम में भय एवं उद्वेग करने वाली, अणुतरे-सर्वोत्तम (प्रधान), अहीव एगंतदिट्ठीए-सर्प की तरह एकांत दृष्टिवाला, खुरो इव एगंतधारए-उस्तरे की तरह एक धारवाला, वालुया कवले इव णिस्साए-रेत के निवाले की तरह निःस्वाद, पडिसोयगमणाए-प्रतिश्रोत (बह व के सामने) गमन, दुत्तरोदुस्तर (तैरना कठिन), तिनं कमियन्वं-तीक्ष्ण खड्गादि पर चलने जैसा, गरुयं लंबेयव्वंभारी शिला उठाने जैसा, असिधारगं वयं चरियवं-तलवार की धार पर चलने जैसा, सहसमचिए-सुख के योग्य, नालं-असमर्थ, वाला-व्याल (सर्पादि), सेभिय-श्लैष्मिक, सण्णिवाइय-सन्निपातजन्य, विविहरोगायंके-विविध प्रकार के रोग-आतंक से, परिस्सहोवसग्गेपरीपह और उपसर्ग, उदिण्णे-उदय होने पर, अहियासित्तए-सहन करने में। For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १. इ. ३३ जमाली चरित्र . १७२९ भावार्थ-२१-जब जमालीकुमार के माता-पिता उसे विषय के अनुकल बहुत-सी उक्तियाँ, प्रज्ञप्तियां, संज्ञप्तियाँ और विज्ञप्तियों द्वारा कहने, जतलाने और समझाने-बुझाने में समर्थ नहीं हुए, तव विषय के प्रतिकूल और संयम में भय तथा उद्वेग उत्पन्न करने वाली उक्तियों से समझाते हुए इस प्रकार कहने लगे-"हे पुत्र ! यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन सत्य, अनुत्तर (अनुपम), अद्वितीय, परिपूर्ण, न्याययुक्त, शुद्ध, शल्य को काटने वाला, सिद्धिमार्ग, मुक्तिमार्ग, निर्यागमार्ग और निर्वागमार्ग रूप है, यह अवितथ (असत्य रहित) है, अविसंधि (निरन्तर) है और समस्त दुःखों का नाश करनेवाला है। इसमें तत्पर जीव सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त होते हैं, निर्वाण प्राप्त करते हैं तथा समस्त दुःखों का अन्त करते हैं । परन्तु हे पुत्र ! यह धर्म, सर्प की एकांत दृष्टि, शस्त्र को एक धार और लोहे के जौ (चने) चाबने के समान दुष्कर है, बालु (रेत) के कवल (ग्रास) के समान निस्वाद है, गंगा महानदी के प्रवाह के सम्मुख जाने के समान तथा भुजाओं से महा-समुद्र तैरने के समान इस का पालन करना बड़ा कठिन है। यह धर्म खड्ग आदि की तीक्ष्ण धार पर चलने के समान दुष्कर है । महाशिला को उठाने के समान है और तलवार की तीक्ष्ण धारा के समान व्रत का आचरण करना कठिन है। हे पुत्र ! श्रमण-निग्रंथों को इतने कार्य करना नहीं कल्पते, यथा-(१).आधाकर्मिक, (२) औद्देशिक, (३) मिश्र जात, (४) अध्यवपूरक, (५) पूर्तिकर्म, (६) क्रीत, (७) प्रामित्य, (८) अछेद्य, (९) अनिसृष्ट, (१०) अभ्याहुत, (११) कान्तारभक्त, (१२) दुभिक्षभक्त, (१३) ग्लानभक्त, (१४) वादलिकाभक्त, (१५) प्राघुर्णकभक्त, (१६) शय्यातर-पिण्ड और (१७) राजपिण्ड । इसी प्रकार मूल, कन्द, फल, बीज और हरी वनस्पति का भोजन करना और पीना नहीं कल्पता। हे पुत्र ! तू सुख-भोग करने योग्य है, दुःख के योग्य नहीं है । तू शीत, उष्ण, भूख, प्यास, चोर, श्वापद (हिंसक सर्पादि), डांस और मच्छर के उपद्रव वात, पित्त, कफ और सन्निपात सम्बन्धी अनेक प्रकार के रोग और उन रोगों से होने वाला कष्ट तथा परिषह और उपसर्गों को सहन करने में तू समर्थ नहीं है । हे पुत्र ! हम एक क्षण के लिए भी तेरा वियोग सहन For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७.३० भगवती सूत्र-श. ९. उ. ३३ जमाली चरित्र नहीं कर सकते । इसलिए जब तक हम जीवित हैं तब तक तू गहस्थवास में रह और हमारे काल-धर्म को प्राप्त होने पर यावत् दीक्षा लेना। २२-तएणं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासी-तहा वि णं तं अम्म-याओ ! जं णं तुभे ममं एवं वयह, एवं खलु जाया ! णिग्गंथे पावयणे सच्चे, अणुत्तरे, केवले तं चेव जाव पवइहिसि; एवं खलु अम्मयाओ ! णिग्गंथे पावयणे कीवाणं, . कायराणं, कापुरिसाणं, इहलोगपडिबद्धाणं, परलोगपरंमुहाणं, विसयतिसियाणं दुरणुचरे पागयजणस्स; धीरस्त, णिन्छियस्स, ववसियस्स णो खलु एत्थं किंचि वि दुक्करं करणयाए, तं इच्छामि णं अम्म-याओ ! तुन्भेहिं अन्भणुण्णाए समाणे संमणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइत्तए । तएणं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरो जाहे णो संचाएंति विसयाणुलोमाहि य, विसयपडिकूलाहि य बहूहिं आघवणाहि य, पण्णवणाहि य आघवित्तए वा, जाव विष्णवित्तए वा, ताहे अकामाई चेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स णिक्खमणं अणुमण्णित्था। कठिन शब्दार्थ-कापुरिसाण-डरपोक मनुष्य के लिए, इहलोग-पडिबवाण-इस लोक से आबद्ध (आसक्त), परलोगपरंमुहार्ण-परलोक से परान्मुख (विमुख), विसयतिसियाणविषयों की तृष्णावाले, दुरणचरे-आचरण दुष्कर, पागयजणस्स-प्राकृतजन-साधारण मनुष्य के लिए, णिच्छियस्स-निश्चित (निश्चयवाले), ववसियस्स-निर्णय किये हुए, णिक्खमणंनिष्कमण (त्यागकर निकलने) का, अणुमणिस्था-अनुमति दी। For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवंती सूत्र-श. ६ उ. ३३ जमाली चरित्र - moi - भावार्थ-२२-माता-पिता को उत्तर देते हुए जमालीकुमार ने इस प्रकार कहा-“हे माता-पिता ! आपने निग्रंन्य-प्रवचन को सत्य, अनुत्तर और अद्वितीय कह कर संयम पालन में जो कठिनाइयां बतलाई, वे ठीक हैं, परन्तु कृपण-मन्द शक्तिवाले कायर और कापुरुष तथा इस लोक में आसक्त और परलोक से परांमुख ऐसे विषयभोगों की तष्णा वाले पुरुषों के लिए इसका पालन करना अवश्य कठिन है । परन्तु धीर और शूरवीर, दृढ़ निश्चय वाले तथा उपाय करने में प्रवृत्त पुरुषों के लिए इसका पालन करना कुछ भी कठिन नहीं है । इसलिए हे माता-पिता ! आप मुझे दीक्षा की आज्ञा दीजिए। आपकी आज्ञा होने पर में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास दीक्षा लेना चाहता हूँ। - जब जमालीकुमार के माता-पिता, विषय में अनुकूल और प्रतिकूल बहुत-सी उक्तियां, प्रज्ञप्तियां, संज्ञप्तियां और विज्ञप्तियों द्वारा उसे समझाने में समर्थ नहीं हुए, तब बिना इच्छा के जमालीकुमार को दीक्षा लेने की आज्ञा दो। विवेचन-जमाली क्षत्रिय कुमार के माता-पिता ने संयम की कठिनाइयाँ बतलाते हुए कहा, कि आगे बताये जानेवाले दोष युक्त आहारादि लेना साधु को नहीं कल्पता । यथा १ आधार्मिक-'आधया साधुप्रणिधानेन यत्सचेतनमचेतनं क्रियते, अचेतनं वा पच्यते, चीयते वा गृहादिकं, वयते वा वस्त्रादिकं तदाधाकर्म ।' अर्थात् किसी खास साधु को मन में रखकर उसके निमित्त से सचित्त वस्तु को अचित्त करना या अचित्त को पकाना, घर आदि.बनाना, वस्त्र आदि बुनना-'आधाकर्म' कहलाता है । यह दोष चार प्रकार से लगता है। यथा-१ प्रतिसेवन-आधाकर्मी आहार आदि का सेवन करना, २ प्रतिश्रवण-आधाकर्मी आहारादि के लिये निमन्त्रण स्वीकार करना, ३ संवसन-आधाकर्मी आहारादि भोगनेवालों के साथ रहना और ४ अनुमोदन-आधाकर्मी आहार आदि भोगनेवालों की अनुमोदना करना । . २ औद्देशिक-सामान्य याचकों को देने की बुद्धि से जो आहारादि तैयार किये जाते हैं, उन्हें 'औद्देशिक' कहते हैं। इसके दो भेद हैं, यथा-ओघ और विभाग। भिक्षुकों के लिये अलग तयार न करते हुए अपने लिये बनते हुए आहारादि में ही कुछ और मिला देना'ओघ' है । विवाह आदि में याचकों के लिये निकाल कर पृथक् रख छोड़ना 'विभाग' है। यह उद्दिष्ट, कृत और कर्म के भेद से तीन प्रकार का है। फिर प्रत्येक के उद्देश, समुद्देश, For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३२ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र M आदेश और समादेश, इस प्रकार चार-चार भेद होते है । किसी खास साधु के लिये बनाया गया आहार यदि वही ले, तो 'आधाकर्म' है और यदि दूसरा साधु ले, तो 'औद्देशिक' है। आधाकर्म पहले से ही किसी खास के निमित्त से बनाया जाता है । औद्देशिक साधारण दान के लिये पहले या पीछे कल्पित किया जाता है । ३ मिश्रजात-अपने लिये और साधु के लिये एक साथ पकाया हुआ आहार 'मिश्रपात' कहलाता है । इसके तीन भेद हैं । यथा-१ यावदर्थिक, २ पाखण्डीमिथ और ३ साधुमिश्र । जो आहार अपने लिये और सभी याचकों के लिये इकट्ठा बनाया जाय, वह 'यावदथिक' है । जो अपने लिये और बाबा, सन्यासियों के लिये इकट्ठा बनाया जाय, वह 'पाखण्डीमिश्र' है और जो अपने लिये और साधुओं के लिये इकट्ठा बनाया जाय, वह 'साधुमिश्र' है। - ४ अध्यवपूरक-साधुओं का आगमन सुनकर आधण में अधिक बढ़ा देना अर्थात् अपने लिये बनते हुए भोजन में साधुओं का आगमन सुनकर उनके निमित्त से और मिला देना। ५ पूतिकर्म-शुद्ध आहार में आधाकर्मादि का अंश मिल जाना—'पूतिकर्म' है। आधाकर्मादि आहार का थोड़ा-सा अंश भी शुद्ध और निर्दोष आहार को सदोष बना देता है। .., ६ क्रीत-साधु के लिये मोल लिया हुआ आहारादि। ७ पामिच्चे (प्रामित्य)-साधु के लिये उधार लिया हुआ आहारादि । ८ आछेदय-निर्बल व्यक्ति से या अपने आश्रित रहने वाले नौकर चाकर और पुत्र आदि से आहारादि छीन कर साधु को देना । ९ अनिःसृष्ट-किसी वस्तु के एक से अधिक स्वामी होने पर सब की इच्छा के बिना देना, 'अनिःसृष्ट' है । १० अभ्याहृत-साधु के लिये गृहस्थ द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर या एक गाँव से दूसरे गांव सामने लाया हुआ आहारादि । ११ कान्तरभक्त-वन में रहे भिखारी लोगों के निर्वाह के लिये तैयार किया हुआ आहारादि । १२ दुभिक्षभक्त-दुभिक्ष (दुष्काल) के समय, भिखारी लोगों के निर्वाह के लिये तैयार किया हुआ आहारादि। १३ ग्लानभक्त-रोगियों के लिये तैयार किया हुआ आहारादि । १४ बालिकाभक्त-दुदिन अर्थात् वर्षा के समय भिखारियों की भिक्षा कहां और For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र कैसे मिलेगी ? ऐसा सोचकर उस समय उन भिग्वारी लोगों के लिये बनाया हुआ आहारादि । १५ प्राघूर्णकभक्त-पाहुनों के लिये बनाया हुआ आहारादि । १६ शय्यातरपिण्ड-साधुओं को ठहरने के लिये जो स्थान देता है, वह व्यक्ति 'भय्यातर' कहलाता है। उसके वहाँ का आहार आदि ‘शय्यातर पिण्ड' कहलाता है। १७ राजपिण्ड-राजा के लिये तैयार किया गया, जिसका विभाग दूसरों को मिलता हो, वह आहार आदि । उपर्युक्त प्रकार का आहार आदि लेना साधु को नहीं कल्पता। . जमाली क्षत्रियकुमार ने उत्तर दिया कि आपका यह कथन ठीक है। कायर पुरुषों के लिये संयम पालना कठिन है, किन्तु शूरवीर पुरुषों के लिये कुछ भी कठिन नहीं है। जमाली के माता-पिता विषय के अनुकूल और प्रतिकूल सभी प्रकार की युक्तियों मे जब उसे समझाने में समर्थ नहीं हुए, तब अनिच्छापूर्वक दीक्षा की आज्ञा दी। २३-तएणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! खत्तियकुंडग्गामं णयरं सभितरबाहिरियं आसिय-संमज्जि-ओवलित्तं जहा उसवाइए, जाव पञ्चप्पिणंति । तएणं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया दोच्चं पि कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! जमालिस्स खत्तियकुमारस्स महत्थं, महग्धं, महरिहं विपुलं णिक्खमणाभिसेयं उवट्ठवेह । तएणं ते कोडुंबियपुरिसा तहेव जाव पञ्चप्पिणंति । तएणं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहं णिसीयावेंति, णिसीयावेत्ता अट्ठसएणं सोवण्णियाणं कलसाणं, एवं जहा रायप्पसेणइज्जे, जाव अट्ठसएणं भोमेज्जाणं कलसाणं सविड्ढिए For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र जाव महया वेणं महया महया णिक्खमणाभिसेएणं अभिसिंचति । कठिन शब्दार्थ - आसिय-पानी छिड़कना, संमज्जिओवलितं-साफ कराकर लिपाना, महत्थं-महान् अर्थवाला, महरिहं - महापूज्य, महग्धं - महामूल्यवान्, निसियावेंति - बिठाते हैं, भोज्जाणं भूमि संबंधी 1 १७३४ पिता ने कौटुम्बिक भावार्थ - २३ - इसके बाद जमाली क्षत्रियकुमार के पुरुषों को बुलाया और इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही इस क्षत्रियकुंड ग्राम नगर के बाहर और भीतर पानी का छिटकाव करो । झाड़-बुहार “कर जमीन को साफ करो, इत्यादि औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार कार्य करके उन पुरुषों ने आज्ञा वापिस सौंपी। इसके पश्चात् उसने सेवक पुरुषों से इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र इस जमाली क्षत्रियकुमार का महार्थ, महामूल्य, महापूज्य ( महान् पुरुषों के योग्य) और विपुल निष्क्रमणाभिषेक की तैयारी करो । सेवक पुरुषों ने उसकी आज्ञानुसार कार्य करके आज्ञा वापिस सौंपी। . इसके पश्चात् जमाली क्षत्रियकुमार के माता-पिता ने उसे उत्तम सिंहासन पर पूर्व की ओर मुंह करके बैठाया । और एक सौ आठ सोने के कलशों से इत्यादि राजप्रश्नीय सूत्र में कहे अनुसार यावत् एक सौ आठ मिट्टी के कलशों से सर्वऋद्धि द्वारा यावत् महा शब्दों द्वारा निष्क्रमणाभिषेक से अभिषेक करने लगे । महा महया क्खिमणाभिसेपणं अभिसिंचित्ता करयल - जाव जपणं विजपणं वद्धावेंति, जपणं विजपणं वद्धावित्ता एवं वयासीभण जाया ! किं देमो, किं पयच्छामो, किणा वा ते अट्टो ? तपणं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा- पियरो एवं वयासी - इच्छामि गं अम्म-याओ कुत्तियावणाओ रयहरणं च पडिग्गहं च आणिउं कासवगं च सद्दाविडं । तरणं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ९ उ. ३३ जमाली चरित्र कोई बियपुरिसे सहावें, कोई बियपुरिसे सदावित्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सिरिघराओ तिष्णि सय सहरसाई गहाय दोहिं समस्सेहिं कुत्तियावणाओ स्यहरणं च पडिग्गहं च आणेह, सयसहस्सेणं कासवगं सद्दावेह । तएणं ते कोटुंबिय पुरिसा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा एवं वृत्ता समाणा हट्ट तुट्ट करयल जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सिरिघराओ तिष्णि सय सहस्साईं, तहेव जाव कासवर्ग सहावेंति । तरणं से कासवए जमालिस्स खत्तिय - कुमारस्स पिउणा कोटुंबियपुरिसेहिं सदाविए समाणे हडे तुट्ठे पहाए कयबलिकम्मे जाव सरीरे, जेणेव जमालिस्स खत्तियकुमाररस पिया तेणेव उवागच्छड् । कठिन शब्दार्थ - देमो- देवें, पयच्छामो- प्रदान करें, किणा वा ते अट्ठी-तेरे क्या प्रयोजन है, कुत्तियावण - कुत्रिकापण - कु अर्थात् पृथ्वी, त्रिक अर्थात् तीन, आपण अर्थात् दुकान, स्वर्ग, मर्त्यं और पाताल रूप तीन लोकों में रही हुई वस्तु मिलने का देवाधिष्ठित स्थान, पडिग्गहं - पात्र, कासवग - काश्यपक - नाई, सिरिघर - श्री घर - खजाना, सयसहस्सालाख की संख्या, आणेह - लाओ, पिउणा - पिता द्वारा, एवं वृत्ता समाणा - इस प्रकार कहने पर । - १७३५ भावार्थ - अभिषेक करने के बाद जमालीकुमार के माता-पिता ने हाथ जोड़ कर यावत् उसे जय विजय शब्दों से बधाया । फिर उन्होंने उससे कहा"हे पुत्र ! हम तेरे लिए क्या देवें ? तेरे लिए क्या कार्य करें ? तेरा क्या प्रयोजन है ?" तब जमालीकुमार ने इस प्रकार कहा - 'हे माता-पिता ! में कुत्रिकाप ग से रजोहरण और पात्र मंगवाना तथा नापित को बुलाना चाहता हूँ ।' तब जमाली कुमार के पिता ने कौटुंबिक पुरुषों को बुलाया और कहा - "हे देवानुप्रियों ! शीघ्र ही भंडार में से तीन लाख सोनंया निकालो । उनमें से दो लाख सोनैया देकर For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र लाओ और एक लाख सोनैया देकर नाई को बुलाओ । उपर्युक्त आज्ञा सुन कर हर्षित और तुष्ट हुए सेवकों ने हाथ जोड़कर स्वामी के वचन स्वीकार किये और भंडार में से तीन लाख सोनंया ( सुवर्ण मुद्रा ) निकाल कर कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र लाए तथा नाई को बुलाया । जमालीकुमार के पिता के सेवक पुरुषों द्वारा बुलाये जाने पर नाई बड़ा प्रसन्न हुआ । उसने स्नानादि किया और अपने शरीर को अलंकृत किया । फिर जमाली कुमार के पिता के पास आया । १७३६ उवागच्छित्ता करयल जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पियरं जएणं विजपणं वद्धावे; जणं विजएणं वद्धावित्ता एवं वयासी - संदिसंतु णं देवाणुपिया ! जं मए करणिज्जं ? तरणं से जमालिस्स खत्तिय - कुमारस्स पिया तं कासवगं एवं वयासी - तुमं देवाणुप्पिया ! जमालिम्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउंगुलवज्जे णिक्खमणपाओगे अग्ग से कप्पेहि । तपणं से कासवगे जमालिस्स खत्तिय कुमारस्स पिउणा एवं वृत्ते समाणे हटु-तुट्ट-करयल जाव एवं सामी ! तहत्ताणाए विणणं वयणं पडिसुणेड़, पडिणित्ता सुरभिणा गंधोदणं हत्थ पाए पक्खालेह, पक्खालित्ता सुद्धाए अट्टपडला ए पोत्तीए मुहं बंध, मुहं बंधित्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरंगुलवज्जे णिक्खमणपाओगे अग्गकेसे कप्पेड़ । तरणं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पडसाडएणं अग्गके से पडिन्छ, अग्गके से पडिच्छित्ता सुरभिणा गंधोदपणं For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग..९.उ. ३३ जमाली चरित्र १७३७ पक्खालेइ, सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालित्ता अग्गेहिं वरहिं गंधेहि, मल्लेहिं अच्चेइ, अग्गेहिं वरेहिं गंधेहिं, मल्लेहिं अच्चित्ता सुधे वत्थे बंधह, सुधे वत्थे बंधित्ता रयणकरंडगंसि पक्खिवइ, पविखवित्ता हार-वारिधार-सिंदुवार छिण्णमुत्तावलिप्पगासाई सुयवियोगदूसहाई असूई विणिम्मुयमाणी विणिम्मुयमाणी एवं वयासी-एस णं अम्हं जमालिस्स खत्तियकुमारस्स बहूसु तिहीसु य पव्वणीमु य उस्सवेसु य जण्णेसु य छणेसु य अपच्छिमे दरिसणे भविस्सईति कटु ऊसीसगमूले ठवेइ। कठिन शब्दार्थ-जएणं विजएणं-'जय हो, विजय हो'-इस प्रकार कहकर, वद्धावेइबधाये, संदिसंतु-दिखाओ, कहो, परेणं जत्तेणं-अत्यंत यत्नपूर्वक, णिक्खमणपाओग्गे-निष्क्रमण के योग्य, अग्गकेसे-आगे के बाल, कप्पेहि-काटो, तहत्ताणाए-आज्ञा स्वीकार कर, सुरभिणागंधोदए-मुगन्धित गन्धोदक (सुगन्धित पानी) से, पक्खालेइ-धोये, अट्ठपडलाए-आठ परत वाली, पडसाडएणं-पटसाटक (वस्त्र), पडिच्छइ-ग्रहण किये, अग्गेहि-उत्तम, अच्चेइ-अर्चित किये, पक्खिवइ-प्रक्षिप्त किये (रखे), हार-वारिधार-सिंदुवार-छिण्णमुत्तालिप्पगासाइं- . हार, पानी की धारा, सिन्दुवार के पुष्पों और टूटी हुई मोती की माला के मोती जैसे, सुवियोगदूसहाई-पुत्र वियोग से दुःसह, अंसूई विणिम्मुयमाणी-आँसू डालती हुई तिहिसुतिथि में, पव्वणीसु-पर्व पर, उस्सवेसु-उत्सव पर, जण्णेसु-यज्ञों पर, अपच्छिमे-अपश्चिम, ऊसीसगमले-तकिये के नीचे, ठवेई-रखती है। भावार्थ-वह नापित जमालीकुमार के पिता के पास आया। उन्हें जय-विजय शब्दों से बधाया और इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय ! मेरे करने योग्य कार्य कहिये।" जमालीकुमार के पिता ने उस नापित से इस प्रकार कहा-"हे देवानुप्रिय ! जमालीकुमार के अग्रकेश, अत्यन्त यत्नपूर्वक चार अंगुल छोड़कर निष्क्रमण के योग्य काट दे।" जमालीकुमार के पिता की आज्ञा सुन कर नापित अत्यंत प्रसन्न हुआ और दोनों हाथ जोड़कर बोला-"हे स्वामिन् ! में आपकी For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३८ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र आज्ञानुसार करूँगा,"-इस प्रकार कह कर विनयपूर्वक उनके वचनों को स्वीकार किया। फिर सुगन्धित गन्धोदक से हाथ-पैर धोए और शुद्ध आठ पट वाले वस्त्र से मुंह बांधा, फिर अत्यन्त यत्नपूर्वक जमालीकुमार के, निष्क्रमण योग्य चार अंगुल अग्रकेश छोड़कर शेष केशों को काटा। इसके बाद जमालीकुमार की माता ने हंस के समान श्वेत वस्त्र में उन अग्र-केशों को ग्रहण किया। सुगन्धित गन्धोदक से धोया । उत्तम और प्रधान गन्ध तथा माला द्वारा उनका अर्चन किया और शुद्ध वस्त्र में बांधकर उन्हें रत्न करण्डिये में रखा । इसके बाद जमालीकुमार की माता, पुत्र वियोग से रोती हुई हार, जलधारा, सिन्दुवार वृक्ष के पुष्प और टूटी हुई मोतियों की माला के समान आंसू गिराती हुई इस प्रकार बोली-"ये केश हमारे लिए बहुत-सी तिथियां, पर्व, उत्सव, नागपूजादि रूप यज्ञ और महोत्सवों में जमालीकुमार के अन्तिम दर्शन-रूप या बारम्बार दर्शनरूप होंगे"-ऐसा विचार कर उसने उन्हें अपने तकिये के नीचे रखा । ..२४-तएणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मा-पियरो दोच्चं पि उत्तरावक्कमणं सीहासणं रया-ति, दोच्चं पि उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयावित्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स सेयापीयएहिं कलसेहिं पहावेंति सेया० पहावित्ता पम्हलसुकुमालाए सुरभीए गंधकासाईए गायाई लूटेति, प० लूहित्ता सरसेणं गोसीसचन्दणेणं गायाई अणुलिंपति स० अणुलिंपित्ता णासा. णिस्सासवायवोज्झं, चक्खुहरं, वण्ण-फरिसजुत्तं, हयलालापेलवाऽ. इरेगं, धवलं, कणगखचितंतकम्म, महरिहं, हंसलक्खणपडसाडगं परिहिंति, परिहित्ता हारं पिणधेति, पिणद्धित्ता अद्धहारं पिणधेति, For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ९ उ. ३३ जामली ल " द्वित्ता एवं जहा सूरियाभस्स अलंकारो तहेब जाव चित्तं रयणसंकडुक्कर्ड मउडे पिणिर्धति, किं बहुणा ? गंथिम वेढिम-पूरिमसंघाइमेणं चव्विणं मल्लेणं कप्परुवखगं पिव अलंकिय-विभूसियं करेंति । तए से जमालिरस खत्तियकुमाररस पिया कोटुंबिय - पुरिसे सहावे, महावित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अगखं भसयसणिविनं, लीलट्टियसालभंजियागं जहा रायप्पसेणइज्जे विमाणवण्णओ, जाव मणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्तं पुरिससहस्वाहिणिं सीयं उववेह, उववेत्ता मम एयमाणत्तियं पचपिणह । तणं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पच्चष्पिणंति । तएणं से जमाली खत्तियकुमारे केसालंकारेणं, वत्थालंकारेणं, मल्लालंकारेणं, आभरणालंकारेणं चउव्विणं अलंकारेणं अलंकारिए समाणे पडिपुष्णालंकारे सीहासणाओ अमुह, सीहासणाओ अब्भुट्टित्ता सीयं अणुप्पदा हिणीकरेमाणे सीयं दुरूह, दुरूहित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाऽभिमुहे सणसणे । कठिन शब्दार्थ - उत्तरावक्कमणं-उत्तराभिमुख- - उत्तर दिशा की ओर, रयावेंति-रखवाया, सेयापीयएहि ध्वेतपीत ( रजतस्वर्ण ), व्हावेंति - स्नान कराया, पम्हलसुकुमालाएरोयेंदार कोमल मुलायम वस्त्र से, सुरभीए - सुगंधित, गंधकासाईए-लालरंग का सुगन्धित, गाया लूहेंति-शरीर पोंछा, सरसेणं- रसवाले, गोसीसचंदणेणं - गोशीर्ष चन्दन से, गायाई अणुलपति-शरीर पर विलेपन किया, णासाणिस्सासवायवोज्यं नासिका के श्वास से उड़े वैसा हलका, चक्रं - आंखों को आकर्षित करने वाला, हयलाला पेलवाऽइरेगं - घोड़े के मुंह की लार से भी अधिक नरम, कणगखचितंतकम्मं - जिसकी किनारों पर सोना जड़ा है, परि १७३९ For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४० भगवती सूत्र-ग. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र हिति-पहिनाया, पिणद्धेति-धारण कराया, रयणसंकडुक्कडं-रत्नों से जड़े हुए, मउडंमुकुट, किं बहुणा-अधिक क्या कहें, गंथिम-वेढिम-पूरिम-संघाइमेणं-गुंथे हुए लपेटे, पिरोये और परस्पर जोड़े हुए, अणेगखंभसयसण्णिविट्ठ–अनेक सैकड़ों स्तंभों से युक्त, लीलट्टियतालभंजियागं-लीला पूर्वक सालभंजिका (पुतली) वाली, सीयं अणुप्पदाहिणीकरेमाणे-शिविका गो प्रदक्षिणा करते हैं, पुरत्थाभिमुहे - पूर्व की ओर मुंह करके, सण्णिसण्णे--बैठा। भावार्थ-२४-इसके बाद जमालीकुमार के माता-पिता ने उत्तर दिशा की ओर दूसरा सिंहासन रखवाया और जमालीकुमार को सोने और चांदी के कलशों से स्नान कराया, फिर सुगन्धित गन्धकालायित (गन्ध प्रधान लाल) वस्त्र से उसके अंग पोंछे । उसके बाद सरस गोशीर्ष चन्दन से गात्रों का विलेपन किया। तत्पश्चात् ऐसा पटशाटक (रेशमी वस्त्र) पहिनाया जो नासिका के निश्वास की वायु से उड़ जाय, ऐसा हलका, नेत्रों को अच्छा लगे वैसा सुंदर,सुंदर वर्ण और कोमल स्पर्श से युक्त था । वह वस्त्र घोड़े के मुख को लार से भी अधिक मुलायम, श्वेत सोने के तार से जड़ा हुआ महामूल्यवान् और हंस के चिन्ह से युक्त था। फिर हार ( अठारह लड़ीवाला हार), अर्द्ध हार (नवसर हार ) पहनाया। जिस प्रकार राजप्रश्नीय सूत्र में सूर्याभ देव के अलंकारों का वर्णन है, उसी प्रकार यहां भी समझना चाहिए । यावत् विचित्र रत्नों से जड़ा हुआ मुकुट पहिनाया। अधिक क्या कहा जाय, ग्रंथिम (गूंथी हुई), वेष्टिम (वींटी हुई), पूरिम । पूरी की हुई) और संघातिम (परस्पर संघात की हुई) से तैयार की हुई चारों प्रकार की मालाओं से कल्प वृक्ष के समान उस जमालीकुमार को अलंकृत एवं विभूषित किया गया। इसके बाद उसके पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और इस प्रकार कहा-“हे देवानुप्रियों ! सैकड़ों स्तम्भों से युक्त लीलापूर्वक पुत. लियों से युक्त इत्यादि राजप्रश्नीय सूत्र में वणित विमान के समान यावत् मणिरत्नों की घण्टिकाओं के समूहों से युक्त, हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिविका (पालकी) तैयार करके मझे निवेदन करो।" इसके बाद उन सेवक पुरुषों ने उसी प्रकार की शिविका तैयार कर निवेदन किया। इसके बाद जमाली कुमार केशालङ्कार, वस्त्रालङ्कार, मालालङ्कार और आभरणालङ्कार, इन चार For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र प्रकार के अलङ्कारों से अलंकृत होकर और प्रतिपूर्ण अलङ्कारों से विभूषित होकर सिंहासन से उठा । वह दक्षिण की ओर से शिविका पर चढ़ा और श्रेष्ठ सिंहासन पर, पूर्व की ओर मुँह करके बैठा । तरणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारम्स माया व्हाया, कयबलिकम्मा जाव सरीरा हंसलक्खणं पडसाडगं गहाय सीयं अणुप्पदाहिणीकरमाणी सोयं दुरूहड़ सीयं दुरूहित्ता जमालिस्तं खत्तिय - कुमारस्स दाहिणे पासे भदासणवरंसि सष्णिसण्णा । तरणं तरस जमालिस खत्तियकुमारस्स अम्माई व्हाया जाव सरौरा, रयहरणं पडिग्गहं च गहाय सीयं अणुष्पदा हिणीकरेमाणी सीयं दुरूहइ सोयं दुरूहित्ता जमालिस्म खत्तियकुमारस्स वामे पासे भद्दासणवरंसि सष्णिमण्णा । तरणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिट्टओ एगा वरतरुणी सिंगारागारचारुवेसा संगयगय जाव रूव-जोव्वणविलासकलिया सुंदरथण • हिम- रयय· कुमुद · कुंदें- दुप्पगासं सकोरंटमल्लदामं धवलं आयवत्तं गहाय सलीलं उवरिं धारेमाणी धारेमाणी चिट्ठ । तरणं तस्स जमालिस्स उभओ पासिं दुवे वर तरुणीओ सिंगारागारचारु जाव कलियाओ, णाणामणि कणग-रयण-विमलमहरिहतवणिज्जु-ज्जलविचित्त-दंडाओ, चिल्लियाओ, संखंक-कुंदें-दुदगरय-अमयमहिय - फेणपुंजसण्णिकासाओ धवलाओ चामराओ गहाय सलीलं वीयमाणीओ वीयमाणीओ चिट्ठति । तएणं तस्स १७४१ For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४२ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ३३ जमाली चरित्र जमालिस्स खत्तियकुमारस्म उत्तरपुरस्थिमेणं एगा वरतरुणी सिंगारागार जाव कलिया सेयं श्ययामयं विमलसलिलपुण्णं मत्तगयमहामुहाकिइसमाणं भिंगारं गहाय चिट्ठइ । तएणं तरस जमालिस्स खत्तियकुमारस्स दाहिणपुरस्थिमेणं एगा वरतरुणी सिंगारागार जाव कलिया चित्तकणगदंडं तालवेट गहाय चिट्ठइ । . कठिन शब्दार्थ-महासणवरंसि-उत्तम भद्रासन पर, अम्मधाई-धायमाता, पिट्टओपीछे की ओर, वरतरुणी-श्रेष्ठ युवती, सिंगारागारचारवेसा-मनोहर आकृति और सुन्दर वेश वाली, संगयगय-संगत गतिवाली, धवलं आयवत्तं-श्वेत छत्र, महरिहतवणिज्जज्जलविचित्तवंडाओचिल्लियाओ-महामूल्यवान तपनीय (रक्त स्वर्ण) से बने हुए उज्ज्वल विचित्र दंडवाले, संखंककुंदेंदुरगरय-अमयमहिय-फेणपुंजसणिकासाओ- शंख, अंक, चन्द्र, मोगरे के . फूल, जल-बिन्दु और मथे हुए अमृत फेन के समान, विमलसलिलपुण्णं-स्वच्छ जल से परिपूर्ण, मत्तगयमहामहाकिइसमाणे-उन्मत्त हाथी के फैले हुए मुंह के आकार वाले, भिगारंकलश को, तालवेंट-पंखा । . भावार्थ-इसके बाद जमालीकुमार की माता, स्नानादि करके यावत् शरीर को अलंकृत करके, हंस के चिन्ह वाला पटशाटक लेकर दक्षिण की ओर से शिविका पर चढ़ी और जमालीकुमार के दाहिनी ओर उत्तम भद्रासन पर बैठी। इसके बाद जमालीकुमार की धायमाता स्नानादि करके यावत् शरीर को अलंकृत करके रजोहरण और पात्र लेकर दाहिनी ओर से शिविका पर चढ़ी और जमालीकुमार के बाई ओर उत्तम भद्रासन पर बैठी । इसके बाद जमालीकुमार के पीछे मनोहर आकार और सुन्दर वेष वाली, सुन्दर गतिवाली, सुन्दर शरीरवाली यावत् रूप और यौवन के विलास युक्त, एक युवती हिम, रजत, कुमुद, मोगरे के फूल और चन्द्रमा के समान कोरण्टक पुष्प की माला से युक्त श्वेत छत्र हाथ में लेकर, लीलापूर्वक धारण करती हुई खड़ी रही। फिर जमालीकुमार के दाहिनी तथा बांयी ओर, श्रृंगार के घर के समान मनोहर आकारवाली और सुन्दर वेषवाली For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र उत्तम दो युवतियाँ दोनों ओर चामर बुलाती हुई खड़ी हुई। वे चामर मणि, कनक, रत्न और महामूल्य के विमल तपनीय ( रक्त सुवर्ण) से बने हुए विचित्र दण्ड वाले थे और शंख, अङ्क, मोगरा के फूल, चन्द्र, जलबिन्दु और मथे हुए अमृत के फेन के समान श्वेत थे । इसके वाद जमालीकुमार के उत्तर-पूर्व दिशा ( ईशान कोण) में, श्रृंगार के गृह के समान और उत्तम वेषवाली, एक उत्तम स्त्री श्वेत रजतमय पवित्र पानी से भरा हुआ, उन्मत्त हाथी के मुख के आकार वाला कलश लेकर खड़ी हुई । जमालीकुमार के दक्षिण-पूर्व (आग्नेय कोण ) में, शृंगार के घर के समान उत्तम वेषवाली एक उत्तम स्त्री, विचित्र सोने के दण्डवाले पंखे लेकर खड़ी हुई । १७८३ " तपणं तस्स, जमालिस्स खत्तियकुमाररस पिया कोडं बियपुरिसे सद्दावे को ० सदावित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सरिसयं, सरित्तयं, सरिव्वयं, सरिसलावण्ण-रूव-जोव्वण-गुणोववेयं, एगा भरण-वसणगहियणिज्जोय कोडुंबियवरतरुणसहस्सं सद्दावेह | तणं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पडिसुणित्ता खिप्पामेव सरिसयं, सरितयं जाव सद्दावेंति । तएणं ते कोडुंबियपुरिया जमालिस्स वत्तियकुमारस्स पिउणा कोडुंबिय पुरिसेहिं सदाविया समाणा हट्ट तुटु पहाया, कयबलिकम्मा, कयकोउय-मंगल-पायच्छिता एगा भरणवसणगहिय- णिज्जोया जेणेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता करयल जाव वढावेत्ता एवं वयासी - संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं अम्मेहिं करणिज्जं । तपणं से जमालिस खत्तियकुमारस्स पिया तं कोडुंबियवरतरुण सहरसं पि For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४४ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ३: जमाली चरित्र एवं वयासी-तुन्भे णं देवाणुप्पिया ! पहाया कयवलिकम्मा जाव गहियणिज्जोआ जमालिस्स खत्तियकुमारस्स सीयं परिवहह । तएणं ते कोडं वियपुरिसा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स जाव पडिमुणित्ता व्हाया जाव गहिय-णिज्जोआ जमालिस्स खत्तियकुमारस्स सीयं परिवहति । तएणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूढस्स समाणस्स तप्पढमयाए इमे अट्ठ मंगलगा पुरओ अहाणुपुब्बीए संपट्ठिया; तं जहा-सोस्थिय सिरिवच्छ जाव दप्पणा; तयाणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगारं जहा उपवाइए, जाव गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुवीए संपट्ठिया, एवं जहा उववाइए तहेव भाणियबं, जाव आलोयं च करेमाणा जयजयसई च पउंजमाणा पुरओ अहाणुपुटवीए संपट्टिया। तयाणंतरं च णं वहवे उग्गा भोगा जहा उववाइए जाव महापुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता, जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरओ य मग्गओ य पासओ य अहाणुपुवीए. संपट्ठिया । कठिन शब्दार्थ-एगाभरण-एक सरीखे भूपण, णिज्जोया-योजित किये (नियुक्त किये), सीयं परिवहह-शिविका वहन करो, सोत्थिय-स्वस्तिक, सिरिवच्छ-श्रीवत्स, दप्पणादर्पण, तदाणंतरं-इसके बाद, गगणतलमणुलिहंति-गगन तल को स्पर्श करतो, वग्गुरापरिक्खिता-घेरे से घिरा हुआ। ___भावार्थ-जमालीकुमार के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बला कर इस प्रकार कहा-“हे देवानुप्रियों ! समान त्वचावाले, समान उम्रकाले, समान रूप लावण्य और यौवन गुणों से युक्त तथा एक समान आभूषण और वस्त्र पहने हुए। For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. ९ ३. ३३ जमाली चरित्र १७८५ एक हजार उत्तमं युवक पुरुषों को बुलाओ।" सेवक पुरुषों ने स्वामी के वचन स्वीकार कर शीघ्र ही हजार पुरुषों को बुलाया। वे हजार पुरुष हर्षित और तुष्ट हुए। वे स्नानादि कर के एक समान आभूषण और वस्त्र पहन कर जमाली कुमार के पिता के पास आए और हाथ जोड़ कर बधाये तथा इस प्रकार बोले.. "हे देवानुप्रिय ! हमारे योग्य जो कार्य हो वह कहिये । तब जमालीकुनार के पिता ने उनसे कहा-'हे देवानुप्रियों ! तुम सब जमालीकुमार को शिविका को उठाओ।" उन पुरुषों ने शिविका उठाई। हजार पुरुषों द्वारा उठाई हुई जमालोकुमार की शिविका के सब से आगे ये आठ मंगल अनुक्रम से चले । यथाः(१) स्वस्तिक, (२) श्रीवत्स, (३) नन्द्यावर्त, । ४) वर्धमानक, (५) भद्रासन, .. (६ कलश, (७) मत्स्य और (८) दर्पण । इन आठ मंगलों के पीछे पूर्ण कलश चला, इत्यादि औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार यावत् गगनतल को स्पर्श करती हुई वैजयन्ती (ध्वजा) चलो । लोग जय-जयकार का उच्चारण करते हुए अनुक्रम से आगे चले । इसके बाद उग्रकुल, भोगकुल में उत्पन्न पुरुष यावत् महापुरुषों के समह जमालीकुमार के आगे पीछे और आसपास चलने लगे। .. २५-तएणं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया ण्हाया कयबलिकम्मा जाव विभूसिए हथिक्खंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं सेयवरचामराहिँ उधुव्बमाणीहिं हयगय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिखुडे, महयाभडचडगर जाव परिक्खित्ते जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिट्ठओ अणुगच्छइ । तएणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरओ महं आसा, आसवरा, उभओ पासिं गागा, णागवरा, पिटुओ रहा, रहसंगेल्ली। For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र तर से जमाली खत्तियकुमारे अन्भुग्गयभिंगारे, परिग्गहियता लियंटे, ऊसवियसे यछत्ते, पवीइयसेयचामरबालवीयणीए, सव्विड्ढीए जाव णाइयरवेणं तयाणंतरं च णं बहवे लट्ठिग्गाहा कुंतग्गाहा जाव पुत्थयग्गाहा, जाव वीणग्गाहा, तयाणंतरं च णं असयं गयाणं, अनुसयं तुरयाणं असयं रहाणं; तयानंतरं चणं लउडअसि- कोंतहत्थाणं बहूणं पायताणीणं पुरओ संपट्टियं तयाणंतरं च णं बहवे राईसरतलवरजाव सत्थवाहप्पभिइओ पुरओ संपट्टिया खत्तियकुंडग्गामं णयरं मज्झमज्झेणं जेणेव माहणकुंडग्गामे णयरे, जेणेव बहुसालए चेहए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए । कठिन शब्दार्थ - जागा - हाथी, रहा- रथ, रहसंगेल्ली-ग्थ समूह. अब्भुग्गर्याभगारेआगे कलश, परिगहिय तालयंटे - पंखे ग्रहण कर ऊसवियसेयछत्ते - ऊँचा श्वेत छत्र धारण किया हुआ, पवोइय सेयचामरबालवीयणीए – बगल में श्वेत चामर और छोटे पंखे विजते हुए, जाइयरवेणं - नादित शब्द युक्त, पुत्थयगाहा पुस्तकवाले, पहारेत्य प्रारम्भ हुए । भावार्थ - २५ - जमालीकुमार के पिता ने स्नानादि किया, यावत् विभूषित होकर हाथी के उत्तम कंधे पर चढ़ा। कोरण्टक पुष्प की माला से युक्त छत्र धारण करते हुए, दो श्वेत चामरों से बिजाते हुए, घोड़ा, हाथी, रथ और सुभटों से युक्त, चतुरंगिनी सेना सहित और महासुभटों के वृन्द से परिवृत जमालीकुमार के पिता, उसके पीछे चलने लगे । जमालीकुमार के आगे महान् और उत्तम घोड़े, दोनों ओर उत्तम हाथी, पीछे रथ और रथ का समूह चला। इस प्रकार ऋद्धि सहित यावत् वादिन्त्र के शब्दों से युक्त जमालीकुमार चलने लगा । उसके आगे कलश और तालवृन्त लिये हुए पुरुष चले । उसके सिर पर श्वेत छत्र धारण किया हुआ था। दोनों ओर श्वेत चामर और पंखे बिजायें जा रहे थे । इनके पीछे बहुत-से लकडीवाले, भालावाले, पुस्तकवाले यावत् वीणावाले १७४६ For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ९ उ. ?: जमाली चरित्र १७४७ पुरुष चले । उनके पीछे एक सौ आठ हाथी, एक सौ आठ घोड़े और एक सौ आठ रथ चले। उनके बाद लकड़ी, तलवार और भाला लिये हुए पदाति पुरुष चले। उनके पीछे बहुत-से युवराज, धनिक, तलवर, यावत् सार्थवाह आदि चले। इस प्रकार क्षत्रियकुण्ड ग्राम नगर के बीच में चलते हुए माहग कुंडग्राम नगर के बाहर बहशालक उद्यान में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास जाने लगे। २६-तएणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स खत्तियकुंडग्गामं णयरं मझमझेणं णिग्गच्छमाणस्म सिंघाडग-तिय चउक्क जाव पहेसु बहवे अत्यत्थिया जहा उववाइए, जाव अभिणंदिया य अभित्थुणंता य एवं वयासी-'जय जय गंदा ! धम्मेणं, जय जय गंदा ! तवेणं, जय जय गंदा ! भई ते अभग्गेहिं णाण-दंसणचरित्तमुत्तमेहि, अजियाइं जिणाहि इंदियाई, जीयं च पालेहि समणधम्म; जियविग्यो वि य वसाहि तं देव ! सिद्धिमज्झे णिहणाहि य राग-दोसमल्ले, तवेणं धिइधणियबद्धकच्छे, मदाहि य अट्ट कम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं मुक्केणं, अप्पमत्तो हराहि आराहणपडागं च धीर ! तेलोक्करंगमञ्झे, पावय वितिमिरमणुत्तरं केवलं च णाणं, गच्छ य मोक्खं परं पदं जिणवरोवदिटेणं सिद्धिमग्गेणं अकुडिलेणं, हंता परीमहचमू, अभिभविय गामकंटकोवसग्गाणं, धम्मे ते अविग्धमत्यु' त्ति कटु अभिणंदंति य अभिथुणंति य । कठिन शब्दार्थ-बहवे अत्यत्यि-बहुत से धन के अर्थी, अभित्थुणंता-स्तुति करते हुए, अमगहि-अखंडित, अजियाइं जिणाहि-नहीं जीते को जीतो, जियविग्यो-विघ्नों को For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४८ भगवती सूत्र - ग. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र जीतो, णिहणाहि - नष्ट करो, धिइधणियबद्ध कच्छे-धैर्यरूपी कच्छ को दृढ़ता से बाँधकर मद्दाहि मर्दन कर, आराहणपडागं-आराधना रूपी पताका, तेलोक्करंगमज्झं- त्रिलोक रूपी रंग मंडप में पावय-प्राप्त करो, अकुडिलेणं - सरलता मे, परिसहचमूं - परिषह रूपी मेना, अभिभविय गामकंटकोवसग्गाणं- इन्द्रियों के प्रतिकूल कंटक समान उपसर्गों को हराकर, अविग्धमत्थु - निर्विघ्न होवो । भावार्थ - २६ - क्षत्रियकुण्डग्राम के बीच से निकलते हुए जमालीकुमार को शृंगाटकं, त्रिक, चतुष्क यावत् राजमार्गों में बहुत-से धनार्थी और कामार्थी पुरुष, अभिनन्दन करते हुए एवं स्तुति करते हुए इस प्रकार कहने लगे - "हे नन्द ( आनन्द - दायक ) ! धर्म द्वारा तेरी जय हो । हे नन्द ! तप से तुम्हारी जय हो । हे नन्द ! तुम्हारा भद्र (कल्याण) हो । हे नन्द ! अखण्डित उत्तम ज्ञान, दर्शन और चारित्र द्वारा अविजित ऐसी इन्द्रियों को जीतें और श्रमण धर्म का पालन करें। धैर्य रूपी कच्छ को मजबूत बाँध कर सर्व विघ्नों को जीतें । इन्द्रियों को वश कर के परीषह रूपी सेनापर विजय प्राप्त करें । तप द्वारा रागद्वेष रूपी मल्लों पर विजय प्राप्त करें और उत्तम शुक्लध्यान द्वारा अष्ट कर्म रूपी शत्रुओं का मर्दन करें । हे धीर ! तीन लोक रूपी विश्व-मण्डप में आप आराधना रूपी पताका लेकर अप्रमत्तता पूर्वक विचरण करें और निर्मल विशुद्ध ऐसे अनुत्तर केवलज्ञान प्राप्त करें तथा जिनवरोपदिष्ट सरल सिद्धि मार्ग द्वारा परम पद रूप मोक्ष को प्राप्त करें। तुम्हारे धर्म मार्ग में किसी प्रकार का विघ्न नहीं हो ।” इस प्रकार लोग अभिनन्दन और स्तुति करते हैं । तणं से जमाली खत्तियकुमारे णयणमाला सहस्सेहिं पिच्छिनमाणे पिच्छिज्जमाणे एवं जहा उववाइए कुणिओ, जाव णिग्गच्छछ; णिग्गच्छित्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे णयरे जेणेव बहुसालए चेहए तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता छत्ताईए तित्थगराइसए पासह, For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-दा. ९. उ. ३३ जमाली चरित्र पासित्ता पुरिसमहस्सवाहिणिं सीयं ठवेड, पुरिससहस्सवाहिणिओ सियाओ पचोरुहइ । तएणं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव ममणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव णमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु भंते ! जमाली खत्तियकुमारे अम्हं एगे पुत्ते इटे कंते जाव किमंग ! पुण पासणयाए, से जहा णामए उप्पले इ वा, परमे इ वा, जाव सहम्मपत्ते इ वा पंके जाए जले संवुड्ढे णोऽवलिप्पड़ पंकरएणं, णोऽवलिप्पड़ जलरएणं, एवामेव जमाली वि खत्तियकुमारे कामेहिं जाए, भोगेहिं संवुड्ढे णो विलिप्पइ कामरएणं णो विलिप्पड़ भोगरएणं णो विलिप्पड़ मित्त-गाइ-णियगमयणसंबंधिपरिजणेणं । एस णं देवाणुप्पिया ! संसारभयुब्बिग्गे भीए जम्मण-मरणेणं; देवाणुप्पियाणं अतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए; तं एयं णं देवाणुप्पियाणं अम्हे सीसभिक्ख दलयामो, पडिच्छेनु णं देवाणुप्पिया ! सीसभिकरवं । ___ कठिन शब्दार्थ-गोवलिप्पइ-लिप्त नहीं होता, पंकरएणं-पंक की रज से, संसारभयुन्विग्गे-मंमार के भय से उद्विग्न हुआ, पडिच्छंतु-ग्रहण करें। भावार्थ-औपपातिक सूत्र में वर्णित कोणिक के प्रसंगानुसार जमालीकुमार, हजारों पुरुषों से देखाजाता हुआ ब्राह्मणकुण्ड ग्राम नगर के बाहर बहुशाल उद्यान में आया और तीर्थङ्कर भगवान् के छत्र आदि अतिशयों को देखते ही सहस्रपुरुषवाहिनी से नीचे उतरा। फिर जमालीकुमार को आगे करके उसके माता-पिता, For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५० भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवामें उपस्थित हुए और भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा करके इस प्रकार बोले - "हे भगवन् ! यह जमालीकुमार हमारा इकलौता, प्रिय और इष्ट पुत्र है। इसका नाम सुनना भी दुर्लभ है, तो दर्शन दुर्लभ हो इसमें तो कहना ही क्या । जिस प्रकार कीचड़ में उत्पन्न होने और पानी में बड़ा होने पर भी कमल, पानी और कीचड़ से निर्लिप्त रहता है, इसी प्रकार जमालीकुमार भी काम से उत्पन्न हुआ और भोगों में बड़ा हुआ, परन्तु वह कामभोग में किचित् भी आसक्त नहीं है। मित्र, ज्ञाति, स्वजन सम्बन्धी और परिजनों में लिप्त नहीं हैं । हे भगवन् ! यह जमालीकुमार संसार के भय से उद्विग्न हुआ है, जन्म-मरण के भय से भयभीत हुआ है । यह आपके पास मुण्डित होकर अनगार धर्म स्वीकार करना चाहता है । अतः हे भगवन् ! हम यह शिष्यरूपी भिक्षा देते हैं । आप इसे स्वीकार करें । २७ - तरणं समणे भगवं महावीरे जमालिं खत्तियकुमारं एवं वयासी - अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं ! तरणं से जमाली खतियकुमारे समणं भगवया महावीरेणं एवं वृत्ते समाणे हटु-तुट्ठे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव णमंसित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसि - भागं अववकमड़, अवक्कमित्ता सयमेव आभरण-मल्ला-लंकारं ओमुयइ । तरणं सा जमालिस खत्तियकुमारस्स माया हंसलक्खणं पडसाडणं आभरण-मल्ला-लंकारं पडिच्छह, आ० २ पडि च्छित्ता हार वारि जाव विणिम्मुयमाणी विणिम्मुयमाणी जमालिं खत्तियकुमारं एवं वयासी - घडियव्वं जाया ! जड़यव्वं जाया ! परिक्कमियव्वं जाया ! अस्सि च णं अट्ठे, णो पमाएयव्वं ति कटु For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवती सूत्र - श. . उ. २३ जमाली चरित्र जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मा-पियरो समणं भगवं महावीर वंदंति, णममंति, वंदित्ता णमंसित्ता जामेव दिमिं पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। ___ कठिन शब्दार्थ - अहासुहं-यथासुग्व (जैसा मुख हो वैमा करो), मा पडिबंध-प्रतिबंध (रुकावट) मत करो. विणिम्मुयमाणी-विमोचन करती (डालती) हुई, घडियन्वं-प्रयन्न करना चाहिये, जइयत्वं यन्न करना, पडिक्कमियव्वं-पराक्रम करना।। भावार्थ-२७-तत् पश्चात् श्रनग भगवान महावीर स्वामी ने जमालीक्षत्रिय कुमार से इस प्रकार कहा-“हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा करो, किन्तु विलम्ब मत करो।" भगवान् के ऐसा कहने पर जमाली क्षत्रिय कुमार हर्षित और तुष्ट हुआ और भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा कर यावत् वन्दना नमस्कार कर, उत्तर पूर्व (ईशान कोण) में गया । उसने स्वयमेव आभरण, माला और अलङ्कार उतारे । उसको माता ने उन्हें हंस के चिन्हवाले पटशाटक (वस्त्र) में ग्रहण किया। फिर हार और जलधारा के समान आसू गिराती हुई अपने पुत्र से इस प्रकार बोली-“हे पुत्र ! संयम में प्रयत्न करना, संयम में पराक्रम करना । संयम पालन में किंचित् मात्र भी प्रमाद मत करना ।" इस प्रकार कहकर जमाली क्षत्रिय कुमार के माता पिता भगवान् को वन्दना नमस्कार कर के जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में वापिस चले गये। २८-तएणं से जमाली खत्तियकुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करिता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, एवं जहा उसभदत्तो तहेव पव्वइओ; णवरं पंचहिं पुरिससएहिं सद्धि तहेव जाव सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाई अहिज्झइ, सा० For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ९ उ. ३३ जमाली का पृथक् विहार अहिज्झित्ता बहूहिं चउत्थ - टुम- जाव मासद्ध-मासखमणेहिं विचितेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरs | १७५२ भावार्थ - २८ - इसके बाद जमाली क्षत्रियकुमार ने स्वयमेव पंचमुष्टिक लोच किया और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में आकर ऋषभदत्त ब्राह्मण की तरह प्रव्रज्या अंगीकार की । इसमें इतनी विशेषता है कि जमाली क्षत्रियकुमार ने पांच सौ पुरुषों के साथ प्रव्रज्या लो। फिर जमाली अनगार ने सामायिकादि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। बहुत से उपवास, बेला, तेला यावत् अर्द्धमास, मासखमण आदि विचित्र तप द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ विचरने लगा | जमाली का पृथक् विहार २९ - से जमाली अणगारे अण्णया कयाह जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं बंदर णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - इच्छामि गं भंते! तुमेहिं अग्भणुण्णाए समाणे पंचहिं अणगारमएहिं सर्दिध बहिया जणवयविहारं विहरित्तए । तरणं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगारस्स एयमहं णो आढाइ, जो परिजाणइ, तुसिणीए संचिइ । तरणं से जमाली अणगारे समणं भगवं महावीरं दोच्चं पि तच्च पि एवं वयासी- इच्छामि णं भंते! तुभेहिं अभ जुष्णाए समाणे पंचहि अणगारसहिं सधि जाव विहरितप । For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. ९ उ. जमाली का पृथक् विहार १७५३ तएणं समणे भगवं महावीरे जमालिस्म अणगारम्म दोच्चं पि तचं पि एयमढें णो आढाइ, जाव तुमिणोए मंचिट्टइ । तएणं मे जमाली अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदड़ णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता समणस्म भगवओ महावीरस्म अंतियाओ वहुमालाओ चेइयाओ पडिणिक्वमइ, पडिणिस्खमित्ता पंचहिं अणगारसएहिं सद्धि बहिया जणवयविहारं विहरइ । कठिन शब्दार्थ-जणवयविहारं-जनपद विहार, णो आढाइ-आदर नहीं किया, णो परिजाणइ-अच्छा नहीं जाना, तुसिणीए संचिट्ठइ-मौन रहे, अंतियाओ-पास से । भावार्थ-२९-एक दिन जमाली अनगार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार बोले-“हे भगवन् ! आपकी आज्ञा हो, तो में पांच सौ अनगारों के साथ अन्य प्रान्तों में विचरना चाहता हूँ।" भगवान् ने जमाली अनगार की इस मांग का आदर नहीं किया, स्वीकार नहीं किया और मौन रहे । जमाली अनगार ने यही बात दूसरी बार और तीसरी बार कही, परन्तु भगवान् पूर्ववत् मौन रहे । तब जमाली अनगार भगवान् को वन्दना नमस्कार करके उनके पास से एवं बहुशालक उद्यान से निकल कर पाँच सौ साधुओं के साथ अन्य देशों में विचरने लगे। ३० तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी णामं णयरी होत्था, वण्णओ; कोट्ठए चेइए, वण्णओ जाव वणसंडस्स । तेणं कालेणं तेणं समएणं, चंपा णामं णयरी होत्था, वण्णओ । पुण्णभद्दे चेइए, वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ। तएणं से जमाली अणगारे अण्णया कयाई पंचहि अणगारसएहिं सद्धि संपरिबुडे पुन्वाणुपुन्धि For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५४ भगवती सूत्र-श. ६ उ.:: जमाली के मिथ्यात्व का उदय चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे जेणेव सावत्थी णयरी, जेणेव कोट्ठए चेहए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हइ, अ० ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ । तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाई पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव चपा णयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ. उवागच्छिता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हइ, अ० ओगिण्हित्ता संजमेणं तवमा अप्पाणं भावे. माणे विहरइ । . . कठिन शब्दार्थ- महापडिरूवं - यथा प्रतिरूप-मुनियों के योग्य । भावार्थ-३०-उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थीवर्णन । वहाँ कोष्ठक नामक उद्यान था-वर्णन यावत् वनखण्ड तक । उस काल उस समय में चम्पा नाम को नगरी थी-वर्णन। पूर्णभद्र उद्यान था-वर्णन यावत् उसमें पृथ्वीशिलापट्ट था। एक बार वह जमाली अनगार पांच सौ साधुओं के साथ अनुक्रम से विहार करते हुए और ग्रामानुग्राम विचरते हुए श्रावस्ती नगरी के बाहर कोष्ठक उद्यान में आये और यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। इधर भगवान् महावीर स्वामी अनुक्रम से विचरते हुए यावत् सुखपूर्वक विहार करते हुए चम्पा नगरी के पूर्णभद्र उद्यान में पधारे और यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके तप संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। जमाली के मिथ्यात्व का उदय ३१-तएणं तस्स जमालिस्स अणगारस्स तेहिं अरसेहि य For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ जमाली के मिथ्यात्व का उदय १७५.५ विरमेहि य अंतहि य पंतेहि य लूहेहि य तुच्छेहि य कालाइयकतेहि य, पमाणाइक्कंतेहि य, सीएहि य पाण-भोयणेहिं अण्णया कयाई सरीरगंसि विउले रोगायके पाउन्भूए, उज्जले, विउले, पगाढे, कक्कसे, कडुए, चंडे, दुक्खे, दुग्गे, तिव्वे, दुरहियासे । पित्तज्जरपरिगयसरीरे, दाहवुक्कंतिए या वि विहरइ । तएणं से जमाली अणगारे वेयणाए अभिभूए समाणे समणे णिग्गंथे सद्दावेइ स० सदावित्ता एवं वयासी-तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! मम सेज्जासंथारगम संथरह । तएणं ते समणा णिग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एयमद्वं विणएणं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जमालिस्स अणगाररस सेज्जासंथारगं संथरंति । तएणं से जमाली अणगारे बलियतरं वेयणाए अभिभूए समाणे दोच्चं पि समणे णिग्गंथे सद्दावेइ, सद्दा. वित्ता, दोव्वं पि एवं वयासी-ममं णं देवाणुप्पिया ! सेज्जासंथारए णं किं कडे, कज्जइ ? तएणं ते समणा णिग्गंथा जमालिं अणगार एवं वयासी-णो खलु देवाणुप्पिया णं सेज्जासंथारए कडे, कज्जइ । ___ कठिन शब्दार्थ-अरसेहि-बिना रस वाले, विरसेहि-खराब रस वाले, अंतेहि-भोजन के बाद बचा हुआ. पंतेहि-तुच्छ (हलका), लूहे-रूक्ष से. कालाइक्कतेहि-जिसका काल बीत चुका ऐसे आहार से, पाउन्भुए-उत्पन्न हुआ, पगाढे-जोरदार, दुग्गे-कष्ट सांध्य, दुरहियासेअसह्य, पित्तजरपरिगयसरीरं-शरीर में पित्तज्वर व्याप्त हुआ, दाहवुक्कंतिए-जलन युक्त हुआ, सेज्जासंथारगं संथरह-बिछौना विछाओ, कि कडे, कज्जइ ?-क्या किया है, या कर रहे हो? भावार्थ-३१-जमाली अनगार को अरस, विरस, अन्त, प्रान्त, रूक्ष, तुच्छ, कालातिक्रान्त (भूख, प्यास का समय बीत जाने पर किया गया आहार), For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ९. ३३ जमाली के मिथ्यात्व का उदय प्रमाणातिक्रान्त ( प्रमाण से कम या अधिक ।) और ठण्डे पान-भोजन से शरीर में महारोग हो गया । वह रोग, अत्यन्त दाह करने वाला, विपुल, प्रगाढ़, कर्कश, कटुक, चण्ड (भयङ्कर), दुःखरूप, कष्ट साध्य, तीव्र और असह्य था । उसका शरीर पित्तज्वर से व्याप्त होने से दाह युक्त था । वेदना से पीड़ित बने जमालो अनगार ने श्रमण निर्ग्रन्थों से कहा - "हे देवानुप्रियो ! मेरे सोने के लिये संस्तारक ( बिछौना) बिछाओ।" श्रमण-निर्ग्रन्थों ने जमालो अनगार की बात, विनय पूर्वक स्वीकार की और बिछौना बिछाने लगे । जमाली अनगार वेदना से अत्यन्त व्याकुल थे, इसलिये उन्होंने फिर श्रमण निर्ग्रन्थों से प्रियो ! क्या बिछौना बिछा दिया, या बिछा रहे हो ?” तब कहा - "हे देवानुप्रिय ! बिछौना अभी बिछा नहीं है, बिछा रहे हैं ।" पूछा - "हे देवानु श्रमण रिन्थों ने १७५६ - तरणं तस्स जमालिस्म अणगारस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पजित्था - जं णं समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खर, जाव एवं परूवेड़ एवं खलु चलमाणे चलिए, उदीरिजमाणे उदीरिए, जाव णिजरिमाणे णिजिणे; तं णं मिच्छा; इमं च णं पञ्चखमेव दीसइ सेना संथारए कजमाणे अकडे, संथरिज्जमाणे असंथरिए; जम्हा णं सेज्जासंथारए कज्रमाणे अकडे, संथरिजमाणे असंथरिए तम्हा चलमाणे वि अचलिए, जाव णिजरिजमाणे वि अणिजिणे, एवं संपे, संहिता समणे णिग्गंथे सहावेइ, सम० सहा वित्ता एवं वयासी - जं णं देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खह जात्र परूवेइ - एवं खलु चलमाणे चलिए; तं चैव सव्वं जाव णिज्ज - रिज्जेमाणे अणिजिष्णे । तपणं तस्स जमालिस्स अणगारस्स एवं For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श... उ. ३३ जमली के मिथ्यात्व का उदय १७५७ आइक्वमाणस्म जाव परूवमाणस्म अस्थगइया समणा णिग्गंथा एयमढे संदहति पत्तियति रोयंति, अत्थेगडया समणा णिग्गंथा एयमलृ णो सदहंति, णो पत्तियंति, णो रोयंति । तत्थ णं जे ते समणा गिग्गंथा जमालिस्स अणगारस्म एयमढें मदहति, पत्तियंति, रोयंति ते णं जमालिं चेव अणगार उपसंपजित्ता णं विहरंति; तत्थ णं जे ते समणा णिग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एयं अटुं णो सदहंति, णो पत्तियंति, णो रोयंति ते णं जमालिस्स अणगा. रस्म अंतियाओ कोट्टयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता पुवाणुपुल्लिं चरमाणा गामाणुगामं दृइज्जमाणा जेणेव चंपा णयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति, करित्ता वंदंति णमंसंति, वंदित्ता - णमंसित्ता समणं भगवं महावीरं उपसंपजिता णं विहरति । कठिन शब्दार्थ-अज थिए-अध्यवसाय, चलमाणे चलिए-चलता हो वह चला, पच्चक्खमेव-प्रत्यक्ष ही, संपेहेइ-विचार करता है, उवसंपज्जित्ताणं-आश्रय करके। भावार्थ-श्रमणों को यह बात सुनने पर जमाली अनगार को इस प्रकार विचार हुआ-"श्रमण भगवान महावीर स्वानी इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपगा करते हैं कि 'चलमान चलित है, उदीर्यमाग उदीरित है यावत् निर्जीयमाण निर्जीर्ण है, परन्तु यह बात मिथ्या है । क्योंकि यह बात प्रत्यक्ष है कि जब तक बिछौना बिछाया जाता हो, तब तक 'बिछाया हुआ नहीं है, इस कारण चलमान चलित नहीं, किन्तु अचलित है, यावत् निर्जीय नाण निर्जीर्ण नहीं, परन्तु अनिर्जीर्ण For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५८ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३३ नर्वज्ञता का झूठा दावा है।" इस प्रकार विचार कर जमाली अनगार ने श्रमण-निर्ग्रन्थों को बुलाकर इस प्रकार कहा-“हे देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि 'चलमान चलित कहलाता है' इत्यादि (पूर्ववत्), यावत् निर्जीर्यमाण निर्जीर्ण नहीं, किन्तु अनिर्जीर्ण है।" जमाली अनगार की इस बात पर कितने ही श्रमण-निग्रंथों ने श्रद्धा, प्रतीति और रुचि की तथा कितने ही श्रमण-निर्ग्रन्थों ने श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की। जिन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने जमाली अनगार की उपरोक्त बात पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि की, वे जमाली अनगार के पास रहे और जिन्होंने उनकी बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की, वे जमाली अनगार के पास से-कोष्ठक उद्यान से निकल कर अनुक्रम से विचरते हुए एवं ग्रामानुग्राम विहार करते हुए, चम्पा नगरी के बाहर पूर्णभद्र उद्यान में, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास लौट आये और भगवान को तीन बार प्रदक्षिणा करके एवं वन्दना-नमस्कार करके उनके आश्रय में विचरने लगे। - विवेचन-'चलमान चलित यावत् निर्जीर्यमाण निर्जीर्ण'-यह भगवान् का सिद्धान्त है। इसका सयुक्तिक विवेचन भगवती सूत्र के प्रथम शतक के प्रथम उद्देशक के प्रारम्भ में कर दिया गया है । जमाली ने इस सिद्धान्त से विपरीत प्ररूपणा की। उनके पास रहने वाले कितने ही श्रमण-निर्ग्रन्थों ने इस सिद्धान्त पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि की और कितने ही श्रमण निर्ग्रन्यों ने इस सिद्धान्त पर श्रद्धा, प्रतीति, रुचि नहीं की। वे जमाली अनगार के पास से निकल कर श्रमग भावान् महावीर स्वामी के पास चले आये । सर्वज्ञता का झूठा दावा ३२-तएणं से जमाली अणगारे अण्णया कयाइ. ताओ रोगायंकाओ विष्पमुक्के, हट्टे जाए, अरोए बलियसरीरे, सावस्थीए णयरीए कोट्टयाओ चेइयाओ पडिणिस्खमइ, पडिणिक्खमित्ता For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - शं. ९ उ. ३३. सर्वज्ञता का झूठा दाव पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे. गामाशुंग्गामं दूइजमाणे जेणेव चंपा णयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छड़, तेणेव उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदरसामंते ठिचा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी जहा णं देवाणुप्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउमत्था भवित्ता छउमत्थाववकमणं अवक्कता, णो खलु अहं तहा छउमत्थे भवित्ता छउमत्था - वक्कमणेणं अवक्कंते, अहं णं उप्पण्णणाण-दंसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अवक्कते । कठिन शब्दार्थ - अण्णया कयाइ - किसी अन्य दिन बलियसरीरे - वलवान् शरीर वाले, छउमत्था - असर्वज, छउमत्थावक्कमणेणं असर्वज्ञ रहे हुए विचर रहे हैं । १७५९ भावार्थ - ३२ - किसी समय जमाली अनगार पूर्वोक्त रोग मुक्त हुआ, रोग रहित और बलवान् शरीर वाला हुआ । श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से निकल कर अनुक्रम से विचरता हुआ एवं ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ चंपा नगरी के पूर्णभद्र उद्यान में आया। उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी भी वहाँ पधारे हुए थे । वह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आया और भगवान् केन अति दूर और न अति समीप खड़ा रहकर इस प्रकार बोला - " जिस प्रकार आपके बहुत से शिष्य छद्मस्थ रहकर, छद्मस्थ विहार से विचरण करते हुए आपके पास आते है, उस प्रकार में छद्मस्थ बिहार से विचरण करता हुआ नहीं आया हूँ, किन्तु उत्पन्न हुए केवलज्ञान केवलदर्शन को धारण करने वाला अरिहन्त, जिन, केवली होकर केवली - विहार से विचरण करता हुआ आया हूँ ।" ३३- तणं भगवं गोयमे जमालिं अणगारं एवं वयासी - णो For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -श. ९ उ. ३३ सर्वज्ञता. खलु जमाली ! केवलिस्म णाणे वा दंसणे वश मेलसि वा थंभसि वा थूभसि वा आवरिजइ वा णिवारिज्जड वा. जइ णं तुम जमाली ! उप्पण्णगाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलिअवकमणेणं अवकंते तो णं इमाइं दो वागरणाई वागरेहि-मासए लोए जमाली ! असासए लोए जमाली ! सासए जीव जमाली ! अमासए जीवे जमाली ! तएणं से जमाली अणगारे भगवया गोयमेणं एवं वुत्ते समाणे संकिए कंखिए जाव कलुससमावण्णे जाए या वि होत्था, णो संचायइ भगवओ गोयमस्स किंचि वि पमोक्खं आइविखत्तए, तुसिणीए संचिट्टइ। कठिन शब्दार्थ-सेलसि-पर्वत से, आवरिज्जइ-ढकता है. णिवारिज्जइ-निवारित होता है, कलुससमावण्णे-कलुपित भाव को प्राप्त हुआ। भावार्थ-३३-जमाली की बात सुनकर भगवान् गौतम स्वामी ने जमाली अनगार से इस प्रकार कहा-“हे जमाली ! केवली का ज्ञान दर्शन पर्वत, स्तम्भ और सूप आदि से आवृत और निवारित नहीं होता । हे जमाली ! यदि तू उत्पन्न केवलज्ञान दर्शन का धारण करने वाला अरिहन्त, जिन, केवली होकर केवली-विहार से विचरण करता हुआ आया है, तो इन दो प्रश्नों का उत्तर दे(प्रश्न) हे जमाली ! क्या लोक शाश्वत है या अशाश्यत है ? हे जमाली ! क्या जीव शाश्वत है या अशाश्वत है ? ___ गौतम स्वामी के इन प्रश्नों को सुनकर जनाली शंकित और कांक्षित हुआ यावत् कलुषित परिणाम वाला हुआ। वह गौतम स्वामी के प्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ नहीं हुआ। अंतः मौन धारण कर चुपचाप खड़ा रहा। For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ९ उ. ३३ सर्वज्ञता का झूठा दावा ३४ - ' जमाली' त्ति ममणे भगवं महावीर जमालिं अणगारं एवं वयासी - अस्थि णं जमाली ! ममं बहवे अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउमत्था, जेणं पभू एयं वागरणं वागरित्तए, जहा णं अहं णो व णं एयपगारं भासं भासितए, जहा गं तुमं ! सासए लोए जमाली ! जंण कयाड़ णासी, ण क्याड़ ण भवइ, ण कयाड़ ण भविस्पड़, भुवि च भवड़ य, भविस्सड़ य, धुवे, णिइए, सासए, अक्खर, अव्वए, अडिए णिच्चे । असासर लोए जमाली ! जं ओमप्पणी भवित्ता उस्सप्पिणी भवइ, उस्सप्पिणी भवित्ता ओसपिणी भव । सास जीवे जमाली ! जंण कयाड़ गासी, जाव णिच्चे । असास जीवे जमाली ! जं णं णेरहए भविता तिरिखजोणिए भवइ तिरिक्खजोगिए भवित्ता मणुस्ते भवड़, मणुस्से भविता देवे भवइ । कठिन शब्दार्थ - एक्प्गारं - इस प्रकार, अव्वए - अव्यय अवट्ठिए-अवस्थित । 'भावार्थ - ३४ - इसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जमाली अनगार को सम्बोधित करके कहा - "हे जमाली ! मेरे बहुत से श्रमण-निर्ग्रन्थ शिष्य छवस्थ हैं, परन्तु वे मेरे ही समान इन प्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ हैं, किंतु जिस प्रकार तू कहता है कि ' में सर्वज्ञ अरिहन्त, जिन, केवली हूँ,' वे इस प्रकार की भाषा नहीं बोलते ।" हे जमाली ! लोक शाश्वत है, क्योंकि 'लोक कदापि नहीं था, नहीं है और नहीं रहेगा' - यह बात नहीं है, किंतु 'लोक था, है और रहेगा ।' लोक ध्रुव नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । हे जमाली ! लोक अशात भी है, क्योंकि अवसर्पिणी काल होकर उत्सर्पिणी काल होता है । ܕܐܕ For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६२ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ सर्वज्ञता का झूठा दावा उत्सर्पिणी काल होकर अवसर्पिणी काल होता है।" "हे जमाली ! जीव शाश्वत है, क्योंकि ‘जीव कदापि नहीं था, नहीं है और नहीं रहेगा'-ऐसी बात नहीं है, किन्तु 'जीव था, है और रहेगा।' यावत् जीव नित्य है । हे जमाली ! जीव अशाश्वत भी है । क्योंकि वह नैरयिक होकर तिथंच योनिक हो जाता है, तिर्यंच योनिक होकर मनुष्य हो जाता है और मनुष्य होकर देव हो जाता है । ३५-तएणं से जमाली अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स एवं आइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स एयं अटुं णो सद्दहइ, णो पत्तियई, णो रोएड; एयमटुं असदहमाणे, अपत्तियमाणे, अरोए. माणे दोच्चं पि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ आयाए अवक्कमइ, दोच्चं पि आयाए अवक्कमित्ता बहहिं असम्भावुभा. वणाहिँ मिच्छताभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गाहे. माणे, वुप्पाएमाणे बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झुसेइ, झूसित्ता तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेइ, तीसं० छेदित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयअपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे तेरससागरोवमटिडएसु देवकिन्विसिएसु देवेसु देवकिदिवसियत्ताए उववण्णे । कठिन शब्दार्थ-आइक्खमाणस्स-कही गई वात का, असन्मावग्भावणाहि-असत्य भाव प्रकट करने से, मिच्छत्ताभिणिवेसेहि-मिथ्यात्वाभिनिवेश (असत्य के दृढ़ आग्रह से), बुगाहेमाणे-भ्रान्त करता हुआ, वुप्पाएमाणे-मिथ्याज्ञान वाला करता हुआ, अणालोइयबालोचना नहीं किया हुआ। For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-गः ५. उ. ३ सर्वज्ञता का झूठा दावा १७६३ भावार्थ-३५-इसके बाद जमाली अनगार इस प्रकार कहता यावत् प्ररूपणा करता हुआ और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की बात पर श्रद्धा, प्रतीति, रुचि नहीं करता हुआ, अपितु अश्रद्धा, अप्रतीति और अरुचि करता हुआ, दूसरी बार भगवान् के पास से निकल गया। जमाली ने बहुत से असद्भूत भावों को प्रकट करके तथा मिथ्यात्व के अभिनिवेश से अपनी आत्मा को, पर को और उभय को भ्रान्त तथा मिथ्या ज्ञान वाले करता हुआ बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन किया। फिर अर्द्ध मात को संलेख ना द्वारा अपने शरीर को कृश करके और अनशन द्वारा तीस भक्तों का छेदन करके, पूर्वोक्त पाप की आलोचना प्रतिक्रमण किये बिना ही काल के समय में काल करके लान्तक देव. लोक में, तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देवों में, किल्विषिक देव रूप से उत्पन्न हुआ। ... ३६ प्रश्न-तएणं भगवं गोयमे जमालिं अणगारं कालगयं जाणित्ता जेणेव ममणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासीएवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुसिस्से जमाली णामं अणगारे, से णं भंते ! जमाली अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए, कहिं उववण्णे ? ___ ३६ उत्तर-गोयमाइ ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयामी-एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी कुसिस्से जमाली णामं अणगारे से णं तया मम एवं आइक्खमाणस्स ४ एयं अटुं णो सद्दहइ ३ एयं अटुं असदहमाणे ३ दोच्चं पि ममं अंतियाओ For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६४ भगवती सूत्र-श. . उ. ३३ किल्विपी देवी का स्वरूप आयाए अवक्कमइ, दोच्चं० अवक्कमित्ता बहूहिं असम्भावुभा. णाहिं तं चेव जाव देवकिन्विसियत्ताए उववण्णे। . कठिन शब्दार्थ-कुसिस्से-कुशिष्य । .. भावार्थ-३६ प्रश्न-जमाली अनगार को कालधर्म प्राप्त हुआ जानकर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार पूछा-'हे भगवन् ! आप देवानुप्रिय का अन्तेवासी कुशिष्य जमाली अनगार काल के समय काल करके कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ?' .. .. ३६ उत्तर-'हे गौतम ! 'इस प्रकार सम्बोधित करके श्रमग भगवान् महावीर स्वामी ने इस प्रकार कहा-'हे गौतम ! मेरा अन्तेवासी कुशिष्य जो जमाली अनगार था, वह जब मैं इस प्रकार कहता था यावत् प्ररूपणा करता था, तब इस प्रकार की यावत् प्ररूपणा करते हुए मेरी बात पर श्रद्धा, प्रतीति, रुचि नहीं करता हुआ यावत् काल के समय काल करके किल्विषिक देवों में उत्पन्न हुआ है। किल्विषी देवों का स्वरूप ३७ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! देवकिब्विसिया पण्णत्ता ? ३७ उत्तर-गोयमा ! तिविहा देवकिदिवसिया पण्णत्ता, तं जहातिलिओवमट्ठिया, तिसागरोवमट्टिइया, तेरससागरोवमहिइया । . ... ३८ प्रश्न-कहिं णं भंते ! तिपलिओवमट्टिइया देवकिदिवसिया परिवसंति ? ३८ उत्तर-गोयमा ! उप्पिं जोइसियाणं हिटिं सोहम्मीसाणेसु कासु, एत्य णं तिपलिओवमटिड्या देवकिञ्चिसिया परिचसति । For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रः-ग.२ ३.३ किल्विपिक देवी का स्वरूप ३९ प्रश्न-कहिं णं भंत ! तिमागरोवमट्टिइया देवकिदिवसिया परिवसंति ? ३९ उत्तर-गोयमा ! उप्पिं मोहम्भीसागाणं कप्पाणं, हिटिं सणंकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु एत्थ णं तिसागरोवमट्टिया देवकिदिवसिया परिवति । ४० प्रश्न-कहिं णं भंते ! तेरससागरोवमट्टिइया देवकिदिवसिया देवा परिवसंति ? ___४० उत्तर-गोयमा ! उप्पिं बंभलोगस्स कप्पस्स हिडिं लंतर कप्पे, एत्थ णं तेरससागरोवमट्टिईया देवकिदिवसिया देवा परिवति । कठिन शब्दार्थ-उम्पि-ऊँचा, हिट्ठि-नीच । भावार्थ-३७ प्रश्न-हे भगवन् ! किल्विषिक देव कितने प्रकार के कहे गये है ? . ३७ उत्तर-हे गौतम ! किल्विषिक देव तीन प्रकार के कहे गये हैं। यथा-तीन पल्योपम की स्थिति वाले, तीन सागरोपम की स्थिति वाले और तेरह सागरोपम को स्थिति वाले । . ३८ प्रश्न-हे भगवन् ! तीन पल्योपम की स्थिति वाले किल्विषिक देव कहाँ रहते हैं ? ३८ उत्तर-हे गौतम ! ज्योतिषी देवों के ऊपर और सौधर्म एवं ईशान देवलोक के नीचे तीन पल्योपम की स्थिति वाले किल्विषिक देव रहते हैं। ३९ प्रश्न-हे भगवन् ! तीन सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देव कहां रहते हैं ? ३९ उत्तर-हे गौतम ! सौधर्म और ईशान देवलोक के ऊपर तथा For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६६ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ३३ किल्विषिक देवों का स्वरूप सनत्कुमार और माहेंद्र देवलोक के नीचे तीन सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देव रहते हैं। ४० प्रश्न-हे भगवन् ! तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देव कहाँ रहते हैं ? ४० उत्तर-हे गौतन ! ब्रह्म देवलोक के ऊपर और लान्तक देवलोक के नीचे तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देव रहते हैं। ४१ प्रश्न-देवकिदिवसिया णं भंते ! केसु कम्मादाणेसु ‘देवकिबिंसियत्ताए उववतारो भवंति ? ... ४१ उत्तर-गोयमा ! जे इमे जीवा आयरियपडिणीया, उवज्झायपडिणीया, कुलपडिणीया, गणपडिणीया, संघपडिणीयाः आयरियउवज्झायाण अयसकरा, अवण्णकरा, अकित्तिकरा, वहूहिं असभाबुभावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं परं च तदुभयं च वुग्गाहेमाणा, वुप्पाएमाणा बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणिता, तस्स ट्ठाणस्स अणालोइयपडिपकंता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवकिदिवसिएसु देवकिदिवसियत्ताए उववत्तारो भवंति; तं जहा-तिपलिओवमट्टिइएसु वा, तिसागरोवमट्टिइएसु वा, तेरससागरोवमट्ठिइएसु वा। कठिन शब्दार्थ-कम्मादाणेसु-कर्म के कारण, उववतारो-उत्पन्न होते, पडिणियाद्वेपी, अवष्णकरा-निन्दा करने वाले। भावार्थ-४१ प्रश्न-हे भगवन् ! किल्विषिक देव किस कर्म के निमित्त से For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ कित्यषिक देवों का स्वरूप १७६७ किल्विषिक देवपने उत्पन्न होते हैं ? ४१ उत्तर-हे गौतम ! जो जीव आचार्य, उपाध्याय, कुल, गण और संघ के प्रत्यनीक (द्वेषी) होते हैं, आचार्य और उपाध्याय के अयशः करनेवाले, अवर्णवाद बोलने वाले और अकीति करने वाले होते हैं। बहुत असत्य अर्थ को प्रकट करने से तथा मिथ्या-कदाग्रह से अपनी आत्मा को, दूसरों को और उभय को भ्रान्त और दुर्बोध करने वाले जीव, बहुत वर्षों तक श्रम ग-पर्याय का पालन कर, अकार्यस्थान (पापस्थान) की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना, काल के समय काल करके किन्हीं किल्विषिक देवों में किल्विषिक देवपने उत्पन्न होते हैं। वे इस प्रकार हैं-तीन पल्योपम की स्थिति वाले, तीन सागर की स्थिति वाले और तेरह सागर की स्थिति वाले। - ४२ प्रश्न-देवकिदिवसिया णं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छंति कहिं उववज्जति ? ४२ उत्तर-गोयमा ! जाव चत्तारि पंच णेरड्य-तिरिक्खजोणिय मणुस्स-देवभवग्गहणाई संसार अणुपरियट्टित्ता तओ पच्छा सिझंति, बुझंति, जाव अंतं करेंति; अत्थेगइया अणाईयं अणवदग्गं दीहमळू चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियटुंति । भावार्थ-४२ प्रश्न-हे भगवन् ! वे किल्विषिक देव, आयु, भव और स्थिति का क्षय होने पर उस देवलोक से चवकर कहां जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? ____४२ उत्तर-हे गौतम ! कुछ किल्विषिक देव नैरयिक, तियंच, मनुष्य और देव के चार, पांच भव करके और इतना संप्तार परिभ्रमण करके सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। और कितने ही For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६८ भगवती सूत्र-श.६ उ. ३३ जमाली का भविप्य किल्विषिक देव अनादि, अनन्त और दीर्घ मार्ग वाले चार गति रूप संसार कान्सार (संसार रूपी अटवी) में परिभ्रमण करते हैं। विवेचन-देवों में जो देव पाप के कारण चाण्डाल के समान होते हैं, उन्हें 'किल्विषिक' कहते हैं । अर्थात् जिस प्रकार यहाँ चाण्डाल अपमानित होता है. उसी प्रकार जो देव, देवसभा में अपमानित होते हैं, उन्हें 'किल्बिषिक' कहते हैं । वे जब सभा में उठकर कुछ बोलते हैं, तो दो-चार महद्धिक देव खड़े होकर कहते हैं- "बस, मत बोलो, चुप रहो, बैठ जाओ," इत्यादि शब्द कहकर उनका अपमान करते हैं। कोई उनका आदर-सत्कार नहीं करता। - प्रश्न ४२ में यह कहा गया है कि किल्विषी मरकर कहाँ उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में 'नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव के चार पांच भव ग्रहण करके मोक्ष जाने का कहा गया, यह सामान्य कथन है । अन्यथा देव और नारक मरकर तुरन्त देव और नारक नहीं होते । वे वहाँ से मनुष्य या तिर्यञ्च में उत्पन्न होते हैं । इसके पश्चात् नारक या देवों में उत्पन्न हो सकते हैं । जमाली का भविष्य - ४३ प्रश्न-जमाली णं भंते ! अणगारे अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे लहाहारे तुच्छाहारे अरसजीवी विरसजीवी जाव तुच्छजीवी उवसंतजीवी पसंतजीवी विवित्तजीवी ? ४३ उत्तर-हंता, गोयमा ! जमाली णं अणगारे अरसाहारे विरसाहारे जाव विवित्तजीवी । ____ ४४ प्रश्न-जइ णं भंते ! जमाली अणगारे अरसाहारे विरसाहारे जाव विवित्तजीवी, कम्हा णं भंते ! जमाली अणगारे कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे तेरससागरोवमटिइएसु देवकिदिवसिएसु For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - दा. ९ उ ३३ जमाली का भविष्य देवे देवकिव्विसियत्ताए उनवणे ? ४४ उत्तर - गोयमा ! जमाली णं अणगारे आयरियपडिणीए, उवज्झायपडिणीए; आयरिय उवज्झायाणं अयसकारए, अवण्णकारए, जाव पारमाणे, जाव वहडं वासाई सामण्णपरियागं पाउ rs, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताई अणसणाए छेदे,, तीसं० छेदित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते कालमासे कालं किचा लंत कप्पे जाव उववण्णे । ४५ प्रश्न - जमाली णं भंते ! देवत्ताओ देवलोगाओ आउक्खएवं जाव कहिं वज्जिहिह ? ४५ उत्तर - गोयमा ! चतारि, पंच तिरिक्खजोणिय मणुस्सदेवभवग्गहणाई संसार अणुपरियट्टित्ता तओ पच्छा सिज्झिहिइ, जाव अंतं काहिङ । * सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति 11 वस तेत्तीस मो उद्देसो समत्तो ॥ १७६१ कठिन शब्दार्थ - अंताहारे-खाने के बाद बचा हुआ आहार, पंताहारे-तुच्छ आहार, उवसंतजीवी - शान्त जीवन वाला, पसंतजीवी - प्रशांत जीवन वाला, विवित्तजीवी- विविक्त जीवी – स्त्री, पशु, पण्डक रहित स्थान का सेवन करने वाला । भावार्थ - ४३ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जमाली अनगार अरसाहारी ( रस रहित आहार करने वाला), विरसाहारी, अन्ताहारी, प्रान्ताहारी, रुक्षाहारी, तुच्छाहारी, अरसजीवी, विरपजीवी यावत् तुच्छजीवी, उपशांत जीवन वाला, For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७० भगवती सूत्र--- श. ५ 3. ३३ जमाली का भविष्य प्रशांत जीवन वाला और विविक्तजीवी (पवित्र और एकांत जीवन वाला) था? ४३ उत्तर-हाँ, गौतम ! जनाली अनगार अरसाहारी, विरसाहारी यावत् विविक्तजीवी था। ४४ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि जमाली अनगार अरसाहारी, विरसाहारी यावत् विविक्तजीवी था, तो काल के समय काल करके वह लान्तक देवलोक में तेरह सागपरोम की स्थिति वाले किल्विषिक देवों में किल्विषिक देवपने क्यों उत्पन्न हुआ ? ४४ उत्तर-हे गौतम ! वह जमाली अनगार, आचार्य और उपाध्याय का प्रत्यनीक (द्वेषी) था । आचार्य और उपाध्याय का अपयश करने वाला और अवर्णवाद बोलने वाला था, यावत् वह मिथ्याभिनिवेश द्वारा अपने आपको, दूसरों को और उभय को भ्रान्त और दुर्बोध करता था यावत् बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन कर, अर्धमासिक संलेखना द्वारा शरीर को कृश कर और तीस भक्त अनशन का छेदन कर, उस पापस्थानक की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना काल के समय काल कर, लान्टक देवलोक में तेरह सागरोपम की स्थितिवाले किल्विषिक देवों में किल्विषिक देव रूप से उत्पन्न हआ। ४५ प्रश्न-हे भगवन् ! वह जमाली देव, देवपन और देवलोक अपनी आयु क्षय होने परं यावत् कहाँ उत्पन्न होगा? . ४५ उत्तर-हे गौतम ! तिर्यंच योनिक, मनुष्य और देव के चार पांच भव करके और इतना संसार परिभ्रमण करके सिद्ध होगा, बुद्ध होगा यावत् समस्त दुःखों का अन्त करेगा। ___हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-यद्यपि जमाली अनगार अरसाहारी, विरसाहारी आदि था, किन्तु आचार्य उपाध्याय का प्रत्यनीक होने से तथा असद्भावना और मिथ्यात्व के अभिनिवेश के कारण झूठी प्ररूपणा द्वारा स्वयं तथा दूसरों को भ्रान्त करने से एवं उस पाप स्थान की आलोचना । For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५. उ. ३४ पुरुष और नोपुरुष का घातक १७७१ और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल करने के कारण किल्विषिक देवों में उत्पन्न हुआ। वहां मे चवकर नियंत्र, मनुष्य और देव के चार पांच भव कर के सिद्ध, बुद्ध यावत् मुक्त होगा। ॥ नौवें शतक का तेतीसवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक उद्देशक ३४ पुरुष और नापुरुष का घातक १ प्रश्न-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासीपुरिसे णं भंते ! पुरिसं हणमाणे किं पुरिसं हणइ, णोपुरिसे हणइ? १ उत्तर-गोयमा ! पुरिसं पि हणइ, णोपुरिसे वि हणइ । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-पुरिसं पि हणइ, जाव णोपुरिसे वि हणइ ? उत्तर-गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं एगंपुरिसं हणामि से णं एगं पुरिसं हणमाणे अणेगे जीवे हणइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-पुरिसं पि हणइ, जाव णोपुरिसे वि हणइ । - २ प्रश्न-पुरिसे णं भंते ! आसं हणमाणे किं आसं हणइ, णोआसे वि हणइ ? For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७२ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ३४ पुरुष और नोपुरुप का चातक २ उत्तर-गोयमा ! आसं पि हणइ, णोआसे वि हणइ । प्रश्न-से केणटेणं ? उत्तर-अट्ठो तहेव, एवं हत्थिं, सीहं, वग्धं जाव चित्तलगं । एए सव्वे इक्कगमा । ३ प्रश्न-पुरिसे णं भंते ! अण्णयरं तसं पाणं हणमाणे किं अण्णयरं तसं पाणं हणइ, णोअण्णयरे तसे पाणे हणइ ? . ३ उत्तर-गोयमा ! अण्णयरं पि तसं पाणं हणइ, णोअण्णयरे वि तसे पाणे हणइ । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-अण्णयरं पि तसं पाणं हणइ, णोअण्णयरे वि तसे पाणे हणइ । ___ उत्तर-गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ एवं खलु अहं एगं अण्णयरं तसं पाणं हणामि, से णं एगं अण्णयरं तसं पाणं हणमाणे अणेगे जीवे हणइ, से तेणटेणं गोयमा ! तं चेव । एए सव्वे वि एक्कगमा । कठिन शब्दार्थ-आसं-घोड़े को, चित्तलगं-चित्रल-एक जंगली जानवर विशेष, इक्कगमा-एक समान पाठ। भावार्थ-१ प्रश्न-उस काल उस समय में राजगृह नगर था। वहां गौतम स्वामी ने भगवान् से इस प्रकार पूछा-“हे भगवन् ! कोई पुरुष, पुरुष की घात करता हुआ, क्या पुरुष को ही घात करता है, अथवा नोपुरुष (पुरुष के सिवाय दूसरे जीवों) की घात करता है ? For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ.८ पृरुप और नोपुरूप का घातक १७७ १ उत्तर-हे गौतम ! वह पुरुष को भी घात करता है और नोपुरुष की भी। प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? उत्तर-हे गौतम ! घात करने वाले उस पुरुष के मन में इस प्रकार का विचार होता है कि 'मैं एक पुरुष को मारता हूँ,' परन्तु वह एक पुरुष को मारता हुआ दूसरे अनेक जीवों को भी मारता है। इसलिये हे गौतम ! यह कहा गया है कि-'वह पुरुष को भी मारता है और नोपुरुष को भी मारता है।' २ प्रश्न-हे भगवन् ! अश्व को मारता हुआ कोई पुरुष, अश्व को मारता है, या नोअश्व को ? २ उत्तर-हे गौतम ! वह अश्व को भी मारता है और नोअश्व (अश्व के सिवाय दूसरे जीवों) को भी मारता है। प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? - उत्तर-हे गौतम ! इसका उत्तर पूर्ववत् जानना चाहिये । इसी प्रकार हाथी, सिंह, व्याघ्र यावत् चित्रल तक जानना चाहिए । इन सभी के लिये एक समान पाठ है। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! कोई पुरुष किसी एक त्रस जीव को मारता हुआ वह उस त्रस जीव ही मारता है, या उसके सिवाय दूसरे त्रस जीवों को भी मारता है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! वह उस त्रस जीव को भी मारता है और उसके सिवाय दूसरे त्रस जीवों को भी मारता है। प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? उत्तर-हे गौतम ! उस त्रस जीव को मारने वाले पुरुष के मन में ऐसा विचार होता है कि-'मैं इस त्रस जीव को मारता हूँ,' परन्तु वह उस स जीव को मारता हुआ उसके सिवाय दूसरे अनेक त्रस्त जीवों को भी मारता है, इसलिये हे गौतम ! पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिये । इन सभी का एक समान पाठ है। For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७४ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३४ ऋषि-घातक अनंत जीवों का घातक মি-ঘানক অতন অনিী কা ঘনক ४ प्रश्न-पुरिसे णं भंते ! इसिं हणमाणे किं इसिं हणइ, णोइसिं हणइ ? ४ उत्तर-गोयमा ! इसिं पि हणइ णोइसि पि हणइ । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ-जाव णोइसि पि हणइ ? उत्तर-गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं एगं इसिं . हणामि, से णं एगं इसिं हणमाणे अणंते जीवे हणइ, से तेणटेणं णिक्खेवो। ___ ५ प्रश्न-पुरिसे णं भंते ! पुरिसं हणमाणे किं पुरिसवेरेणं पुढे, णोपुरिसवेरेणं पुढे ? __५ उत्तर-गोयमा ! णियमं ताव पुरिसवेरेणं पुढे, अहवा पुरिसवेरेण य णोपुरिसवेरेण य पुढे अहवा पुरिसवेरेण य णोपुरिसवेरेहि य पुढे; एवं आसं, एवं जाव चित्तलगं, जाव अहवा चित्तलावेरेण य गोचित्तलावेरेहि य पुढे । ६ प्रश्न-पुरिसे णं भंते ! इसिं हणमाणे किं इसिवरेणं पुढे, णोइसिवेरेणं पुढे ? ६ उत्तर-गोयमा ! णियमं ताव इसिवेरेण य णोइसिवेरेहि य पुढे । For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - शं. ९ उ. ३४ ऋषि घातक, अनंत जीवों का घातक कठिन शब्दार्थ - इस ऋषि, पुट्ठे - स्पर्श करता है (बन्धता है), णिक्खेवो- उपसंहार । भावार्थ - ४ प्रश्न - हे भगवन् ! कोई पुरुष, ऋषि को मारता हुआ ऋषि को ही मारता है, या नोॠषि ( ऋषि के सिवाय दूसरे जीवों) को भी मारता है ? १७७५ ४ उत्तर - हे गौतम! वह ऋषि को भी मारता है और नोॠषि को भी । प्रश्न - हे भगवन् इसका क्या कारण है ? उत्तर - हे गौतम! उस मारने वाले पुरुष के मन में ऐसा विचार होता है कि 'मैं एक ऋषि को मारता हूँ, परन्तु वह एक ऋषि को मारता हुआ अनन्त जीवों को मारता है । इस कारण पूर्वोक्त रूप से कहा गया है । ५ प्रश्न - हे भगवन् ! पुरुष को मारता हुआ कोई व्यक्ति, क्या पुरुष वर से स्पृष्ट होता है, या नोपुरुषवैर से ? ५ उत्तर - हे गौतम ! वह नियम से ( निश्चित रूप से) पुरुष वैर से स्पृष्ट होता है । ( १ ) अथवा पुरुष वैर से और नोपुरुष वैर से स्पृष्ट होता है । (२) अथवा पुरुषवैर से और नोपुरुष-वैरों से स्पृष्ट होता है । इसी प्रकार अश्व के विषय में यावत् चित्रल के विषय में भी जानना चाहिये । यावत् अथवा चित्रल - वर से और नोॠषि-वैर से स्पृष्ट होता है । ६ प्रश्न - हे भगवन् ! ऋषि को मारता हुआ कोई पुरुष, क्या ऋषि-वैर से स्पष्ट होता है, या नोॠषि-वैर से स्पृष्ट होता है ? ६ उत्तर - हे गौतम ! वह नियम से ऋषि-वैर से और नोॠषि-वैरों से स्पष्ट होता है । विवेचन-कोई पुरुष किसी पुरुष को मारता है, तो कभी केवल वह उसी का वध करता है, कभी उसके साथ दूसरे एक जीव का भी वध करता है और कभी उसके साथ अन्य अनेक जीवों का वध भी करता है । इस प्रकार तीन भंग बनते हैं । ऋषि की घात करता हुआ पुरुष, अन्य अनन्त जीवों की घात करता है । यह एक ही भंग बनता है । क्योंकि ऋषि की घात करने में अनन्त जीवों की घात होती है । इसका For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७६ . भगवती सूत्र-श. ९ उ..३४ ऋषि-घातक, अनंत जीवों का घातक कारण यह है कि ऋषि अवस्था में वह सर्व विरत है । इसलिये अनन्त जीवों का रक्षक है। मर जाने के पश्चात् वह अविरत हो जाता है। अविरत होकर वह अनन्त जीवों का घातक बनता है । इसलिये ऋषि की घात करनेवाला पुरुष, अन्य अनन्त जीवों का भी घातक होता है । अथवा जीवित रहता हुआ ऋषि, बहुत से प्रागियों को प्रतिबोध देता है। प्रतिबोध प्राप्त वे प्रागी क्रमशः मोक्ष को प्राप्त होते हैं और मुक्त जीव अनन्त संसारी प्राणियों के अघातक होते हैं । इसलिये उन अनन्त जीवों की रक्षा में ऋषि कारण है । इसलिये ऋषि की घात करने वाला पुरुष, अन्य अनन्त जीवों की भी घात करता है। . पुरुष को मारने वाला व्यक्ति नियम से पुरुष-वध के पाप से स्पृष्ट होता है। यह पहला भंग है। उस पुरुष को मारते हुए यदि किसी दूसरे एक प्राणी की घात करता है, तो वह एक पुरुष-वैर से और एक नोपुरुष-वैर से स्पृष्ट होता है । यह दूसरा भंग है । यदि उस एक पुरुष को घात करते हुए अन्य अनेक प्राणियों की घात करता है, तो वह 'एक पुरुष-वैर से और बहुत नोपुरुष-वैरों से' स्पृष्ट होता है । यह तीसरा भंग है । हस्ती, अश्व आदि के वध में भी सर्वत्र ये तीन भंग पाये जाते हैं, किन्तु ऋषि-घात में केवल एक तीसरा भंग ही पाया जाता है। शंका-जो ऋषि मरकर मोक्ष में चला जाता है, वह वहाँ अविरत नहीं बनता, इसलिये उस ऋषि को घात करने से वह घातक पुरुष, केवल ऋषि-वैर से ही स्पृष्ट होता है । इसलिये प्रथम भंग बन सकता है । तब तीसरा भंग ही क्यों कहा गया ? यदि कोई इसका यह समाधान दे कि चरम-शरोरी जीव तो निरुपक्रम आयष्युवाला होता है, इसलिये उसकी घात नहीं हो सकती । अतः अचरम-शरीरी ऋपि की अपेक्षा केवल तीसरा भंग ही बनता है, प्रथम भंग नहीं, तो यह समाधान भी ठीक नहीं, क्योंकि यद्यपि चरम शरीरी जीव निरुपक्रम आयुष्य वाला होता है, तयापि उसके वध के लिये प्रवृत्ति करनेवाले पुरुष को उसकी हिंसा का पाप लगता ही है और वह ऋषि-वैर से स्पृष्ट होता है । इस प्रकार प्रथम भंग बन सकता है, तब केवल तीसरा भंग ही कहने का क्या कारण है ? समाधान-यद्यपि शङ्काकार का कथन ठीक है, तथापि जिस सौपक्रम आयुष्यवाले ऋषि का पुरुष कृत वध होता है, उसकी अपेक्षा से यह सूत्र कहा गया है । इसलिये तीसरा भंग ही कहा गया है। For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवती सूत्र-श. १ ३.३४ एकेंद्रिय जीव और श्वासोच्छ्वास १७७७ . एकेन्द्रिय जीव और श्वासोच्छवास ७ प्रश्न-पुढविवकाइए णं भंते ! पुढविवकाइयं चैव आणमइ वा, पाणमइ वा, ऊससइ वा, णीससइ वा ? ७ उत्तर-हंता, गोयमा ! पुढविवकाइए पुढविवकाइयं चेव आणमइ वा जाव णीससइ वा ।। ८ प्रश्न-पुढविक्काइए णं भंते ! आउपकाइयं आणमइ, जाव णीससइ वा ? ८ उत्तर-हंता, गोयमा ! पुढविषकाइए आउषकाइयं आणमइ, जाव णीससइ वा; एवं तेउक्काइयं, वाउचकाइयं एवं वणस्सइ. काइयं । ९ प्रश्न-आउक्काइए णं भंते ! पुढविक्काइयं आणमइ वा, पाणमइ वा ? ९ उत्तर-एवं चेव । १० प्रश्न-आउक्काइए णं भंते ! आउषकाइयं चेव आणमइ वा? १० उत्तर-एवं चेव; एवं तेउवाउ-वणस्सहकार्य । ११ प्रश्न-तेउक्काइए णं भंते ! पुढविवकाइयं आणमइ वा ? ११ उत्तर-एवं । For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श९ उ. ३४ एकेंद्रिय जीव और श्वासोच्छवास प्रश्न - जाव वणस्सइकाइए णं भंते ! वणस्सइकाइयं चेव आणमइ वा ? १७७८ उत्तर - तव । १२ प्रश्न - पुढविवकाइए णं भंते! पुढविवकाइयं चेव आणममाणे वा, पाणममाणे वा, ऊससमाणे वा, णीससमाणे वा कहकिरिए ? १२ उत्तर - गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंच करिए । १३ प्रश्न - पुढविक्काइए णं भंते ! आउक्काइयं आणममाणे वा ? १३ उत्तर - एवं चैवः एवं जाव वणस्सइकाइयं, एवं आउक्काइएणवि सव्वे विभाणियव्वा, एवं तेवकाइएण वि, एवं वाउवकाह एणवि । जाव ( प्रश्न ) वणस्सइकाइए णं भंते ! वणस्सइकाइयं चैत्र आणममाणे वा - पुच्छा । (उत्तर) गोयमा ! सिंय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंच करिए । १४ प्रश्न - वाउक्काइए णं भंते ! स्वखस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कइकिरिए ? १४ उत्तर - गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय उकिरिए, सिय पंचकिरिए; एवं कंदं एवं जाव (प्रश्न) वीयं पंचालेमाणे वा पुंच्छा ? For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र- श. ९ उ..३४ एकेंद्रिय जीव और रवासाच्छवान. १७७९ (उत्तर) गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। छ सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति है। ॥ णवमसए चोत्तीसइमो उद्देसो समत्तो ॥ ॥णवमं सयं समत्तं ॥ कठिन शब्दार्थ-आणमइवा पाणमइ वा-श्वासोच्छ्वास के रूप में, पचालेमाणेकम्पाता हुआ. पवाडेमाणे-गिराता हुआ । भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीवों को आभ्यन्तर और बाहरी श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं और छोड़ते ७ उत्तर-हीं, गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीवों को आभ्यन्तर और बाहरी श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं और छोड़ते हैं। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीवों को आभ्यन्तर और बाहरी श्वासोच्छवास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं ? ८ उत्तर-हाँ, गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीवों को यात् ग्रहण करते और छोड़ते है । इसी प्रकार अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों को भी यावत् ग्रहण करते और छोड़ते हैं। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! अकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीवों को आभ्यन्तर और बाहरी श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं ? ९ उत्तर-हाँ, गौतम ! पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिये। १० प्रश्न-हे भगवन् ! अप्कायिक जीव, अप्कायिक जीवों को आभ्यन्तर और बाहरी श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं ? १० उत्तर-हां, गौतम ! पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिये । इसी प्रकार तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के विषय में भी जानना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८० मगवती सूत्र - श. उ. ३४ एकेंद्रिय जीव और श्वासोच्छ्वास ११ प्रश्न - हे भगवन् ! तेजस्कायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीवों को आभ्यन्तर और बाहरी श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहग करते हैं ? ११ उत्तर - हाँ, गौतम ! पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिये । प्रश्न- यावत् हे भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव वनस्पतिकायिक जीवों को आभ्यन्तर और बाहरी श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहग करते और छोड़ते हैं ? उत्तर - हाँ, गौतम ! पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिये । १२ प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीवों को आभ्यन्तर और बाहरी श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हुए और छोड़ते हुए कितनी क्रिया वाले होते हैं ? १२ उत्तर - हे गौतम! कदाचित् तीन क्रिया वाले, कदाचित् चार क्रिया वाले और कदाचित् पांच क्रिया वाले होते हैं । १३ प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, अष्कायिक जीवों को आभ्य. न्तर और बाहरी श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रह करते और छोड़ते हुए कितनी क्रिया वाले होते हैं ? १३ उत्तर - हे गौतम ! पूर्वोक्त रूप से जानेता चाहिये । इसी प्रकार कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक के साथ भी कहना चाहिये। इसी प्रकार अप्कायिक जीवों के साथ पृथ्वीकायिक आदि सभी का कथन करना चाहिये । इसी प्रकार तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के साथ पृथ्वीकायिकादि का कथन करना चाहिए। यावत् ( प्रश्न) हे भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव, वनस्पतिकायिक जीवों को आभ्यन्तर और बाहरी श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हुए और छोड़ते हुए कितनी क्रियावाले होते हैं ? (उत्तर) हे गौतम ! कदाचित् तीन क्रिया वाले, कदाचित् चार क्रियावाले और कदाचित् पांच क्रिया वाले होते हैं । १४ प्रश्न - हे भगवन् ! वायुकायिक जीव, वृक्ष के मूल को कम्पाते हुए और गिराते हुए कितनी क्रिया वाले होते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ५ उ. १४ एकेंद्रिय जीव और श्वासोच्छ्वास १७८१ १४ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् तीन क्रिया वाले, कदाचित् चार क्रिया वाले और कदाचित् पाँच क्रिमा वाले होते हैं। इसी प्रकार यावत् कन्द तक जानना चाहिये । इसी प्रकार यावत् (प्रश्न) पीज को कम्पाने आदि के सम्बन्ध में प्रश्न ! (उत्तर) हे गौतम ! कदाचित् तीन क्रिया वाले, कदाचित् चार क्रिया वाले और कदाचित् पांच क्रिया वाले होते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । दिवेचन-पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवो को श्वासोच्छ्वास रूप में ग्रहण करते हैं और छोड़ते हैं । इसी प्रकार अप्कायिक आदि चारों स्थावर जीव भी पृथ्वीकायिक आदि पांचों स्थावर जीवों को श्वासोच्छ्वास रूप में ग्रहण करते हैं और छोड़ते हैं। इन पाँचों के ये पच्चीस सूत्र होते हैं और इनके क्रिया सम्बन्धी भी पच्चीस सूत्र होते हैं। पृथ्वीकायिकादि जीव, पृथ्वीकायिकादि जीवों को श्वासोच्छ्वास रूप से ग्रहण करते हुए और छोड़ते हुए जब तक उनको पीड़ा उत्पन्न नहीं करते, तब तक कायिकादि तीन क्रियाएँ लगती है । जब पीड़ा उत्पन्न करते हैं तब पारितापनिकी सहित चार क्रियाएँ लगती हैं और जब उन जीवों की घात करते हैं, तब प्राणातिपातिकी सहित पाँच क्रियाएं लगती हैं। वायुकायिक जीव, वृक्ष के मूल को तब कम्पित और पतन कर सकते हैं जब कि वृक्ष नदी के किनारे पर हो और उसका मूल पृथ्वी से ढका हुआ न हो। ।। नौवें शतक का चौतीसवाँ उद्देशक समाप्त । ॥ नौवां शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १० १ गाहा१ दिसि २ संवुडअणगारे ३ आयड्ढी ४ सामहत्थि ५ देवि ६ सभा। ७-३४ उत्तरअंतरदीवा दसमम्मि सयम्मि चउत्तीसा ॥ कठिन शब्दार्थ-संवुडअणगारे-संवृत अनगार । भावार्थ-१-इस शतक के चौंतीस उद्देशक इस प्रकार हैं;-(१) दिशा के सम्बन्ध में पहला उद्देशक हैं, (२) संवृत अनगारादि के विषय में दूसरा उद्देशक है, (३) देवावासों को उल्लंघन करने में देवों की आत्मऋद्धि (स्वशक्ति) के विषय में तीसरा उद्देशक है, (४)श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के श्याम हस्ती नामक शिष्य के प्रश्नों के सम्बन्ध में चौथा उद्देशक है (५) चमर आदि इन्द्रों की अग्रमहिषियों के सम्बन्ध में पांचवां उद्देशक है (६) सुधर्मा सभा के विषय में छठा उद्देशक है (७-३४) उत्तर दिशा के अट्ठाईस अन्तरद्वीपों के विषय में सातवें से लेकर चौतीसवें तक अट्ठाईस उद्देशक हैं । For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देशक १ दिशाओं का स्वरूप २ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-किमियं भंते ! 'पाईणा' ति पवुच्चइ ?. २ उत्तर-गोयमा ! जीवा चेव अजीवा चेव । . ३ प्रश्न-किमियं भंते ! ‘पडीणाति पवुच्चइ ? ३ उत्तर-गोयमा ! एवं चेव; एवं दाहिणा एवं उदीणा एवं उड्ढा एवं अहो वि । ४ प्रश्न-कइ णं भंते ! दिसाओ पण्णत्ताओ? ४ उत्तर-गोयमा ! दस दिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा१ पुरस्थिमा, २ पुरथिमदाहिणा, ३ दाहिणा, ४ दाहिणपञ्चत्थिमा ५ पचत्थिमा, ६ पञ्चत्थिमुत्तरा, ७ उत्तरा, ८ उत्तरपुरस्थिमा, ९ उड्ढा, १० अहो । ५ प्रश्न-एयासि णं भंते ! दसण्हं दिसाणं कइ णामधेजा पण्णता ? ५ उत्तर-गोयमा ! दस णामधेजा पण्णत्ता, तं जहा१ इंदा २ अग्गेयी ३ जमा य ४ णेरई ५ वारुणी य ६ वायव्वा । ७ सोमा ८ ईसाणी य ९ विमला य १० तमा य बोद्धव्वा । For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १० उ. १ दिशाओं का स्वरूप कठिन शब्दार्थ - किमियं - किम् - क्या इयं यह, पाईणा - पूर्व दिशा, पवुच्चई - कहलाती है, पडणा- पश्चिम दिशा, दाहिणा-दक्षिण दिशा, उदीणा - उत्तर दिशा, पुरत्थिमा-पूर्व दिशा, पच्चत्थिता - पश्चिम दिशा, एयासि इन जमा-याम्पा (दक्षिण) दिशा, सोमा - उत्तर, विमला - ऊर्ध्व दिशा, तमा-अधो दिशा । १७८४ भावार्थ - २ प्रश्न - राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा - हे भगवन् ! यह पूर्व दिशा क्या कहलाती है ? २ उत्तर - हे गौतम ! यह जीव रूप भी कहलाती है और अजीव रूप भी कहलाती है । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! यह पश्चिम दिशा क्या कहलाती है ? ३ उत्तर - हे गौतम! पूर्व दिशा के समान जानना चाहिये । इसी प्रकार दक्षिण दिशा, उत्तर दिशा, ऊर्ध्व दिशा और अधो दिशा के विषय में भी जानना चाहिये । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! दिशाएँ कितनी कही गई हैं ? ४ उत्तर - हे गौतम ! दिशाएँ दल कही गई हैं । यथा - १ पूर्व, २ पूर्वदक्षिण (आग्नेय कोण ), ३ दक्षिण, ४ दक्षिणपश्चिम (नैऋत्य कोण ) ५ पश्चिन, ६ पश्चिमोत्तर ( वायव्य कोण ) ७ उत्तर, ८ उत्तरपूर्व (ईशान कोण) ९ ऊर्ध्व दिशा और १० अधो दिशा । ५ प्रश्न - हे भगवन् ! इन दस दिशाओं के कितने नाम कहे गये हैं ? ५ उत्तर - हे गौतम ! दस नाम कहे गये हैं । यथा - १ ऐन्द्री (पूर्व), २ आनेयी ( अग्नि कोण) ३ याम्या (दक्षिण), ४ नैर्ऋती (नैर्ऋत्य कोण ) ५ वारुणी (पश्चिम), ६ वायव्य ( वायव्य कोण ) ७ सौम्या ( उत्तर ) ८ ऐशानी ( ईशान कोण), ९ विमला (ऊर्ध्वदिशा) १० तमा ( अधो दिशा ) । ६ प्रश्न - इंदा णं भंते! दिसा किं-१ जीवा, २ जीवदेसा ३ जीवपएसा, ४ अजीवा, ५ अजीवदेसा, ६ अजीवपएसा ? For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गूत्र-ग. १० उ. १ दिशाओ का स्वरूप १७८५ ६ उत्तर-गोयमा ! जीवा वि, तं चेव जाव अजीवपएसा वि । जे जीवा ते णियमा एगिदिया, वेइंदिया, जाव पंचिंदिया, आणि दिया । जे जीवदेसा ते णियमा एगिदियदेसा, जाव अणिंदियदेसा। जे जीवपणमा ते एगिदियपएसा वेइंदियपएसा, जाव अणिंदियपएमा । जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-रूवि अजीवा य अरूविअजोवा य। जे रूविअजीवा ते चउब्बिहा पण्णत्ता; तं जहाखंधा, खंधदेमा, बंधपएमा, परमाणुपोग्गला । जे अरूविअजीवा ते सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहा-१ णोधम्मस्थिकाए धम्मस्थिकायस्स देसे, २ धम्मत्थिकायस्स पएसा, ३ णोअधम्मस्थिकाए अधम्मस्थिकायस्स देसे, ४ अधम्मत्थिकायस्स पएसा, ५ णोआगासस्थिकाए आगासत्थिकायस्स देसे, ६ आगासस्थिकायस्स पएसा, ७ अद्धा. समए। ___७ प्रश्न-अग्गेयी णं भंते ! दिसा किं जीवा, जीवदेसा, जीवपएसा-पुच्छा। ७ उत्तर-गोयमा ! १ णोजीवा जीवदेसा वि, २ जीवपएसा वि; १ अजीवा वि, २ अजीवदेसा वि, ३ अजीवपएसा वि । जे जीवदेसा ते णियमा एगिंदियदेसा। १ अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स देसे, २ अहवा एगिंदियदेसा य बेइंदियस्स देसा य, ३ अहवा एगिदियदेसा य वेइंदियाण य देसा । १ अहवा एगि: For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १० उ. १ दिशाओं का स्वरूप.. दियदेसाय तेइंदियस्स देसे य । एवं चेव तियभंगो भाणियव्वो । एवं जाव अनिंदियाणं तियभंगो । जे जीवपएसा ते नियमा एगिंदिपसा | अहवा एगिंदियपएसाय वेदियस्स परसा, अहवा एगिंदिपसा य बेइंदियाण य परसा । एवं आइल्लविरहिओ जाव अनिंदियाणं । जे अजीवा ते दुबिहा पण्णत्ता, तं जहारूविअजीवाय अरूविअजीवा य । जे रूविअजीवा ते चउव्विद्या पण्णता, तं जहा - खंधा, जाव परमाणुपोग्गला । जे अरूविअजीवा ते सतविहा पण्णत्ता, तं जहा - १ णोधम्मत्थिकार धम्मत्थिकायस्स देसे, २ धम्मत्थिकायस्स परसा, एवं अहम्मत्थिकायरस वि, जाव ६ आगासत्थिकास पएसा, ७ अद्धासमए । विदिसासु णत्थि जीवा देसे भंगो य होइ सवत्थ । १७८६ ८ प्रश्न - जमा णं भंते! दिसा किं जीवा ? ८ उत्तर - जहा इंदा तहेव णिरवसेसा । णेरई य जहा अग्गेयी । वारुणी जहा इंदा | वायव्वा जहा अग्गेयी । सोमा जहा इंदा । ईमाणी जहा अग्गेयी । विमलाए जीवा जहा अग्गेयीए । अजीवा जहा इंदा । एवं तमाए वि, णवरं अरूवि छव्विहा, अद्धासमयो ण भण्णड़ | कठिन शब्दार्थ - इंदा - पूर्व दिशा, अद्धासमए - अद्धासमय ( काल ) | 1 For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगवती सूत्र - शं. १० उ. १. दिशाओं की स्वरूप भावार्थ - ६ प्रश्न - हे भगवन् ! ऐन्द्री (पूर्व) दिशा - १ २ जीव के देश रूप है, ३ जीव के प्रदेश रूप है, अथवा ४ ५ अजीव के देश रूप है, ६ या अजीव के प्रदेश रूप है ? १७८७ ६ उत्तर - हे गौतम! ऐन्द्री दिशा जीव रूप भी है, इत्यादि पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिये, यावत् वह अजीव प्रदेश रूप भी है । उसमें जो जीव हें वे एकेंन्द्रिय, बेइन्द्रियं यावत् पंचेंद्रिय तथा अनिन्द्रिय ( केवलज्ञानी) हैं । जो जींव के देश हैं, वे एकेंद्रिय जीव के देश हैं यावत् अनिन्द्रिय जीव के देश हैं । जो जीव प्रदेश हैं, वे नियमतः एकेंद्रिय जीव के प्रदेश हैं, बेइन्द्रिय जीव के प्रदेश हैं यावत् अनिन्द्रिय जीव के प्रदेश हैं । जो अजीब हैं, वे दो प्रकार के हैं । यथा - रूपी अजीव और अरूपी अजीव । रूपी अजीवों के चार भेद हैं । यथा-स्कन्ध, स्कन्ध देश, स्कन्ध प्रदेश और परमाणु पुद्गल । अरूनी अजीवों के सात भेद हैं । यथा१ स्कन्ध रूप धर्मास्तिकाय नहीं, किन्तु धर्मास्तिकाय का देश है । २ धर्नास्तिकाय के प्रदेश हैं । ३ अधर्मास्तिकाय नहीं, किन्तु अधर्मास्तिकाय का देश है । ४ अधर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं । ५ आकाशास्तिकाय नहीं, किन्तु आकाशास्तिकाय का एक देश है । ६ आकाशास्तिकाय के प्रदेश हैं । ७ अद्धासमय अर्थात् काल है । जीव रूप है, अजीव रूप है, ७ प्रश्न - हे भगवन् ! आग्नेयी दिशा क्या जीव रूप है, जीव देश रूप है, जीव प्रदेश रूप है, इत्यादि प्रश्न । ७ उत्तर - हे गौतम! १ जीव नहीं, किन्तु जीव के देश, २ जीव के प्रदेश ३ अजीव, ४ अजीव के देश और ५ अजीव प्रदेश भी हैं । जीव के जो देश हैं, वे नियम से एकेंन्द्रियों के देश हैं अथवा एकेन्द्रियों के बहुत देश और बेइन्द्रिय का एक देश है । अथवा एकेंद्रियों के बहुत देश और बेइन्द्रिय के बहुत देश हैं । अथवा एकेंद्रियों के बहुत देश और बहुत बेइन्द्रियों के बहुत देश । अथवा एकद्रियों के बहुत देश और एक तेइन्द्रिय का एक देश । इस प्रकार तीन भंग तेइंद्रिय के साथ कहना चाहिये । इसी प्रकार यावत् अनिन्द्रिय तक के तीन-तीन भंग For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८८ भगवती सूत्र-श. १० उ.१ दिशाओं का स्वरूप कहना चाहिये । जीव के जो प्रदेश हैं वे नियम से एकेन्द्रियों के प्रदेश है अथवा एकेंद्रियों के बहुत प्रदेश और एक बेइन्द्रिय के बहुत प्रदेश । अथवा एकेंद्रियों के बहुत प्रदेश और वहुत बेइन्द्रियों के बहुत प्रदेश । इस प्रकार सभी जगह प्रथम भंग के सिवाय दो दो भंग जानना चाहिये । इस प्रकार यावत् अनिन्द्रिय तक जानना चाहिये । अजीवों के दो भेद हैं । यथा-रूपी अजीव और अरूपी अजीव । रूपी अजीव के चार भेद हैं। स्कन्ध, स्कन्ध देश, स्कन्ध प्रदेश और परमाणु पुद्गल हैं । अरूपी अजीव के सात भेद हैं । यथा-१ धर्मास्तिकाय नहीं, किन्तु धर्मास्तिकाय का देश २ धर्मास्तिकाय के प्रदेश ३ अधर्मास्तिकाय नहीं, किन्तु अधर्मास्तिकाय का देश ४ अधर्नास्तिकाय के प्रदेश ५ आकाशास्तिकाय नहीं, किन्तु आकाशास्तिकाय का देश, ६ आकाशास्तिकाय के प्रदेश, और ७ अद्धा समय। विदिशाओं में जीव नहीं हैं, इसलिये सर्वत्र देश और प्रदेश विषयक भंग होते हैं। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! याम्या (दक्षिण) दिशा क्या जीव रूप है, इत्यादि प्रश्न । ८ उत्तर-हे गौतम ! ऐन्द्री दिशा के समान सभी कथन जानना चाहिये। आग्नेयी विदिशा का कयन नैऋतीविदिशा के समान है। वारुणी (पश्चिन) दिशा का कथन ऐन्द्री दिशा के समान है। वायव्यविदिशा का कथन आग्नेयो विदिशा के समान है । सौम्या (उत्तर) दिशा का कथन ऐन्द्री दिशा के समान है और ऐशानी विदिशा का कथन आग्नेयी विदिशा के समान है। विमला (ऊर्व) दिशा में जीवों का कथन आग्नेयी दिशा के समान है और अजीवों का कथन ऐन्द्री दिशा में कथित अजीवों की तरह है । इसी प्रकार तमा (अधो) दिशा का कयन भी जानना चाहिये । परन्तु इतनी विशेषता है कि तमा दिशा में अरूपी अजीवों के छह भेद हैं। क्योंकि उसमें अद्धासमय (काल) नहीं है। . विवेचन-पूर्व दिशा जीव रूप है । क्योंकि उसमें एकेन्द्रिय आदि जीव रहे हुए हैं। उसमें पुद्गलास्तिकाय आदि अजीव पदार्थ रहे हुए हैं, इसलिये वह अजीव रूप भी है। दिशाओं के दस नाम कहे गये हैं। पूर्व दिशा का स्वामी इन्द्र है । इसलिये उसे 'ऐन्द्री' कहते हैं । इसी प्रकार अग्नि, यम, नैर्ऋती, वरुण, वायु, सोम और ईशान देव स्वामी होने से For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १० . १ दिशाओं का स्वरूप इन दिशाओं को क्रमशः आग्नेयी, नमंती, वाहणी. वायव्या, मौम्या और ऐशानी कहते है । प्रकाग युक्त होने से ऊर्ध्व दिशा को 'विमला' कहते हैं और अन्धकार युक्त होने से अधोदिगा को तमा' कहते हैं। पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण, ये चारों दिशाएं गाड़ी के उद्धि (ओढण) के आकार हैं । अर्थात् मेरु पर्वत के मध्य भाग में आठ रुवक प्रदेश है। चार ऊपर की ओर और चार नीचे की ओर गोस्त ताकार हैं । यहाँ से दस दिशाएँ निकलो हैं । पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ये चार दिशाएँ मूल में दो दो प्रदेशी निकली हैं और आगे दो-दो प्रदेश की वृद्धि होती हुई लोकान्त तक एवं अलोक में चलीगई हैं । लोक में असंख्यात प्रदेश वृद्धि हुई है और अलोक में अनन्त प्रदेश वद्धि हई है। अत: इनका आकार गाडी के ओढण के समान है । आग्नेयी, नैर्ऋती, वायव्य और ईशान, ये चार विदिशाएँ एक-एक प्रदेशी निकली हैं और लोकान्त तक एक प्रदेशो ही चली गई हैं। इनका आकार मुक्तावली (मातियों को लड़ी) के ममान है । ऊर्ध्व दिशा और अधो दिशा चार-चार प्रदेशी निकली हैं और लोकांत तक एवं अलोक में चलो गई है। ये रुवकाकार हैं । पूर्व दिशा समस्त धर्मास्तिकाय रूप नहीं है, किन्तु धर्मास्तिकाय का एक देश है और असख्यात प्रदेश रूप है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय का एक देश और असंख्यात प्रदेश रूप है और अद्धा समय रूप है । इस प्रकार अरूपी अजीव रूप सात प्रकार की पूर्व दिशा है। आग्नेयी विदिया जीव रूप नहीं है । क्योंकि सभी विदिशाओं की चौड़ाई एक-एक प्रदेश रूप हैं, क्योंकि वे एक प्रदेशी ही निकली हैं और अन्त तक एक प्रदेशी ही रही हैं। एक प्रदेश में जीव का समावेश नहीं हो सकता । क्योंकि जीव की अवगाहना असंख्य प्रदेशात्मक है । पूर्व दिशा के समान शेष तीनों दिशाओं का कथन जानना चाहिये और आग्नेयी विदिशा के समान शेष तीनों विदिशाओं का कथन जानना चाहिये। समय का व्यवहार गतिमान् सूर्य के प्रकाश पर अवलम्बित है । वह गतिमान् सूर्य का प्रकाश तमा (अधो) दिशा में नहीं है । इसलिये वहाँ अद्धा समय (काल) नहीं है । यद्यपि विमला (ऊर्ध्व) दिशा के विषय में भी गतिमान् सूर्य का प्रकाश न होने से अद्धा समय का व्यवहार संभव नहीं है, तथापि मेरु पर्वत के स्फटिक काण्ड में गतिमान् सूर्य के प्रकाश का संक्रम होता है, इसलिये वहां समय का व्यवहार हो सकता हैं। For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९० भगवती सूत्र-श. १० उ. १ शरीर . . शरीर ९ प्रश्न-कह णं भंते ! सरीरा पण्णत्ता ? ९ उत्तर-गोयमा ! पंच सरीरा, पण्णत्ता, तं जहा-१ ओरा. लिए जाव ५ कम्मए । १० प्रश्न-ओरालियसरीरे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? १० उत्तर-एवं ओगाहणासंठाणं गिरवसेसं भाणियव्वं, जाव । 'अप्पाबहुगं' ति। • सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति - - - ॥दसमसए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-ओरालिए-औदारिक शरीर ।। भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! शरीर कितने प्रकार के कहे गये है ? ९ उत्तर-हे गौतम ! शरीर पांच प्रकार के कहे गये हैं। यथा-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस् और कार्मण । .. . १० प्रश्न-हे भगवन् ! औदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? . १० उत्तर-हे गौतम ! यहां प्रज्ञापना सूत्र के अवगाहना संस्थान नामक इक्कीसवें पद में वर्णित अल्प-बहुत्व तक सारा वर्णन कहना चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-औदारिक आदि पांच शरीर हैं । इनका संस्थान, प्रमाण, पुद्गल चय, पारस्परिक संगो अल-बहुत्व इन द्वारों से विस्तृत वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के इक्कीसवें अवगाहना संस्थान पद में है । अल-बहुल्व तक का सारा वर्णन यहां कहना चाहिये । ॥ दसवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १० उद्देशक २ कषाय भाव में साम्परायिकी क्रिया १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-संवुडम्स णं भंते ! अणगा. रस्स वीयीपंथे ठिचा पुरओ रूवाई णिज्झायमाणस्स, मग्गओ रुवाई अवयक्खमाणस्स, पासओ स्वाई अवलोएमाणरस, उड्ढं रूवाई आलोएमाणस्स, अहे स्वाणि आलोएमाणरस तस्स पं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कजइ संपराइयाकिरियाकजइ १ . ..१ उत्तर-गोयमा ! संवुडरस णं अणगारस वीयीपंथे ठिचा जाव तस्स णं णो इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कजा। प्रश्न-से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव संपराइया किरिया कजइ ? - उत्तर-गोयमा ! जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा० एवं जहा सतमसए पढमोदेसए जाव से णं उस्सुत्तमेव रियइ से तेणटेणं जाव से संपराइया किरिया कज्जइ। . २ प्रश्न-संवुडस्स णं भंते ! अणगारस्स अवीयीपंथे ठिचा पुरओ रूबाई णिज्झायमाणस्स जाव तस्स णं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कज्जइ ? पुच्छा। For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९२ भगवती सूत्र-श. १० उ. २ कपाय भाव में साम्परायिकी त्रिया २ उत्तर-गोयमा ! संवुड० जाव तस्स णं इरियावहिया किरिया कजइ, णो संपराइया किरिया कन्जइ। . प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ ? उत्तर-जहा सत्तमे सए पटमोदेसए, जाव से णं अहासुत्तमेव रीयइ से तेणटेणं जाव णो संपराइया किरिया कजइ ।। कठिन शब्दार्थ-वीयोपंथे-वीचिमार्ग में-कपाय भाव में, ठिच्चा-स्थित रहकर, पुरओ-आगे, णिज्झायमाणस्स-देखते हुए का. मग्गओ-पीछे, अवक्खयमाणस्स-देखते हुए, पासओ-पार्श्वत:-पसवाड़ा; अवलोएमाणस्स-अवलोकन करते हुए का, संपराइया-सांपरायिक (कषाय सम्बन्धी), संवुडस्स-सवृत (संवर वाले) का, उस्सुत्तं-उत्सूत्र-मूत्रविरुद्ध, एव-ही, अहासुत्तं-यथासूत्र-सूत्र के अनुसार । . . . भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा-हे भगवन् ! वीचिमार्ग (कषाय भाव) में, स्थित होकर सामने के रूपों को देखते हुए, पीछे रहे हुए रूपों को देखते हुए, पार्ववर्ती (दोनों ओर के ) रूपों को देखते हुए, ऊपर के रूपों को देखते हुए और नीचे के रूपों को देखते हुए सवत अनगार को क्या ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, या साम्परायिकी क्रिया लगती है ? ..१ उत्तर-हे गौतम ! वीचिमार्ग में स्थित यावत् रूपों को देखते हए संवत अनगार को ऐर्यापथिको क्रिमा नहीं लगती, साम्परायिकी क्रिया लगती है। प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? उत्तर-हे गौतम ! जिसके क्रोध, मान, माया, और लोभ व्युच्छिन्न (अनुदित-उदयावस्था में नहीं रहे हुए) हो गये हों, उसी को ऐर्यापथिको क्रिया लगती है। यहां सातवें शतक के प्रथन उद्देशक में वर्णित 'वह संवत-अनगार सूत्र विरुद्ध आचरण करता है'-तक सब वर्णन जानना चाहिये। २ प्रश्न-हे भगवन् ! अवीचिमार्ग में (अकषाय भाव में स्थित संवृत अनगार को उपर्युक्त रूपों का अवलोकन करते हुए क्या ऐर्यापथिकी क्रिया लगती For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १०७. २ योनि और वेदना १७९३ है, या साम्परायिकी क्रिया लगती है ? . २ उत्तर-हे गौतम ! अकषाय भाव में स्थित संवत अनगार को उपर्युक्त रूपों का अवलोकन करते हुए ऐपिथिको क्रिया लगती है, किन्तु साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती। प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? उत्तर-हे गौतम ! जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न (अनुदित-उदयावस्था में नहीं रहे हुए)हो गये हों, उसको ऐपिथिकी क्रिया लगती है, साम्परायिकी नहीं लगती। यहां सातवें शतक के प्रथम उद्देशक में वणित 'वह संवृत अनगार सूत्र के अनुसार आचरण करता है'-तक सब वर्णन कहना चाहिये। विवेचन-यहाँ संवृत अनगार को क्रिया लगने के विषय में बतलाया गया है । जिस जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ व्यवच्छिन्न हो जाते हैं, (उदय में नहीं रहते) उसके एक ऐर्यापथिकी क्रिया होती है। एवं सूत्रानुसार प्रवृत्ति करने वाले जीव के एक ऐपिथिकी क्रिया होती है । जिस जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ व्यवच्छिन्न नहीं हुए हैं (उदय में हैं) यावत् जो मूत्र विपरीत प्रवृत्ति करता है, उसे साम्परायिकी क्रिया लगती है । योनि और वेदना ३ प्रश्न-कहविहा णं भंते ! जोणी पण्णता ? ३ उत्तर-गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णत्ता, तं जहा-सीया, उसिणा, सीओसिणा; एवं जोणीपयं गिरवसेसं भाणियव्वं । ४ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! वेयणा पण्णत्ता ? ४ उत्तर-गोयमा ! तिविहा वेयणा पण्णत्ता, तं जहा-सीया, उसिणा, सीओसिणा । एवं वेयणापयं गिरवसेसं भाणियव्वं, जाव For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९४ भगवती सूत्र-श. १० उ. २ योनि और वेदना णेरइया णं भंते ! किं दुक्ख वेयणं वेदेति, सुहं वेयणं वेदेति, अक्खमसुहं वेयणं वेदेति ? गोयमा ! दुवख पि वेयणं वेदेति, सुह पि वेयणं वेदेति, अदुक्खमसुहं पि वेयणं वेदेति । कठिन शब्दार्थ-जोणी-योनि-जीवों का उत्पत्ति स्थान, अदुक्ख-दुःख नहीं, असुहं सुख नहीं। भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! योनि कितने प्रकार की कही गई है ? ३ उत्तर-हे गौतन ! योनि तीन प्रकार की कही गई है । यथा-शीत, उष्ण और शीतोष्ण । यहाँ प्रज्ञापना सूत्र का नौवां योनि पद' सम्पूर्ण कहना चाहिये। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? ४ उत्तर-हे गौतम ! वेदना तीन प्रकार की कही गई है । यथा-शीत, उष्ण और शीतोष्ण । इस प्रकार यहां प्रज्ञापना सूत्र का सम्पूर्ण पैतीसवां वेदना पद कहना चाहिये, यावत् हे भगवन् ! क्या नैरयिक जीव दुःख रूप वेदना वेदते हैं, या सुख-रूप वेदना वेइते हैं, या अदुःख-असुख रूप वेदना वेदते हैं ? हे गौतम ! नरयिक जीव, दुःखरूप वेदना भी वेदते हैं, सुखरूप वेदता भी वेदते हैं और अदुःख-असुख रूप वेदना भी वेदते हैं। विवेचन-योनि शब्द 'यु मिश्रणे' धातु से बना है । इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है"युवन्ति अस्यामिति 'योनिः' अर्थात् जिसमें तैजस कार्मण शरीरवाले जीव, औदारिकादि शरीर योग्य पुद्गल स्कन्ध के समुदाय के साथ मिश्रित होते हैं, उसे 'योनि' कहते हैं । अर्थात् जीवों के उत्पत्ति स्थान को योनि कहते हैं । वह योनि प्रत्येक जीवनिकाय के वर्ग, गन्ध, रस, स्पर्श के भेद से अनेक प्रकार को है। यथा-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय और वायुकाय प्रत्येक की सात-सात लाख, प्रत्येक वनस्पति की दस लाख, साधारण वनस्पति (अनन्त) काय की चौदह लाख, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय प्रत्येक की दो-दो लाख, देव, For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र. श. १० उ. २ योनि और वेदना नारक और तिचपञ्वेन्द्रिय की वार-चार लाख और मनुष्य को चौदह लाख योनि है। सव मिलाकर चौरासी लाख योनि होती है। यद्यपि व्यक्ति भेद की अपेक्षां से अनन्त जीव होने से अनन्त योनियां होती है, तथापि सनान वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शवाली वहुतसी योनियाँ होने पर भी सामान्यतया जाति रूप से एक योनि गिनी जाती है। इसलिये चौरासी लाख हो योनियां होती हैं । जैसा कि कहा है “समवण्णाई समेया बहवोवि हु जोणिभेय लक्खा उ । सामण्णा घेप्पंति हु एक्कजोणीए गहणेणं ॥" . अर्थात् समान वर्णादि सहित योनि के अनेक लाख भेद होते है, तथापि सामान्य रूप से एक योनि के ग्रहण द्वारा उन समान वर्णादि वाली सब योनियों का ग्रहण हो जाता है। यहाँ योनि के सामान्यतया तीन भेद कहे गये हैं। यथा-शीतयोनि, उष्णयोनि और शीतोष्णयोनि । शीत स्पर्श के परिणाम वाली शीतयोनि और उष्ण स्पर्श के परिणाम वाली उप्णयोनि तथा शीत और उष्ण उभय स्पर्श के परिणाम वाली शीतोष्णयोनि कहलाती है। .. देव और गर्भज जीवों के शीतोष्ण योनि, तेउकाय के उष्ण योनि और नरयिक जीवों के शीत और उष्ण दोनों प्रकार की योनि तथा शेष जीवों के तीनों प्रकार की योनि होती है। दूसरी तरह से योनि के तीन भेद कहे गये है। यया-सचित्त, अचित्त और मिश्र । जीव प्रदेशों से सम्बन्ध वाली योनि सचित्त और सर्वया जीव रहित योनि अचित्त कहलाती है । अंशतः जीव प्रदेश सहित और अंशतः जीव प्रदेश रहित योनि सचित्ताचित्त (मिश्र) कहलाती है। . देव और नारक जीवों की अचित्तयोनि होती है । गर्भज जीवों की सचित्ताचित्त योनि होती है और शेष जीवों की तीनों प्रकार को योनि होती है। दूसरे प्रकार से योनि के तीन भेद कहे गये हैं । यथा-संवृत, विवृत और संवृतविवृत। जो उत्पत्ति स्थान ढका हुआ (गुप्त) हो, उसे 'संवृत योनि' और जो उत्पत्ति स्थान खुला हुआ हो, उसे 'विवृत योनि' तथा जो कुछ ढआ और कुछ खुला हुआ हो, उसे 'संवृतविवृत' योनि कहते हैं। - नरयिक, देव और एकेंद्रिय जीवों के संवृत योनि, गर्भज जीवों के संवृत-विवृत योनि और शेष जीवों के विवृत योनि होती हैं । For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १० उ. २ योनि और वेदना अन्य प्रकार से योनि के तीन भेद कहे गये हैं । यथा - कूर्मोन्नता, शंखावर्त्ता और वंशीपत्रा । जो योनि कछुए की पीठ के समान उन्नत हो, उसे 'कूर्मोन्नता' योनि कहते हैं । जो योनि शंख के समान आवर्त्तवाली हो, उसे 'शंखावर्त्ता' यौनि कहते हैं । बांस के दो पत्तों के समान सम्पुट मिले हुए हों, उसे 'वंशीपत्रा' योनि कहते हैं । १७९६ चक्रवर्ती की श्रीदेवी के शंखावर्त्ता योनि होती हैं। उसमें बहुत से जीव और जीव के साथ सम्बन्ध वाले पुद्गल आते हैं और गर्भ रूप से उत्पन्न होते हैं । सामान्यतः चय ( वृद्धि ) और विशेषत: उपचय को प्राप्त होते हैं, किन्तु अति प्रबल कामाग्नि के परिताप से नष्ट हो जाने के कारण गर्भ की निष्पत्ति नहीं होती इस प्रकार प्राचीन आचार्यों का कथन है। तीर्थंकर, चक्रवती, वलदेव और वासुदेव - इन उत्तम पुरुषों की माता के कूर्मोन्नता योनि होती है । शेष सभी संसारी जीवों की माना के वंशीपत्रा योनि होती है । योनि सम्वन्धी विस्तृत विवेचन और अल्पबहुत्व आदि प्रज्ञापना सूत्र के नांवें 'योनि पद' में है । जो वेदी जाय उसे 'वेदना' कहते हैं। उसके तीन भेद हैं। यथा-शीत वेदना, उष्ण . वेदना और शोतोष्ण वेदना । नरक में शीत और उष्ण दो प्रकार की वेदना पाई जाती है । शेष २३ दण्डकों में तीनों वेदनाएँ पाई जाती हैं। दूसरी प्रकार से वेदना चार प्रकार की कही गई है । यथा - द्रव्य से वेदना, क्षेत्र से वेदना, काल से वेदना और भाव से वेदना । चौबीस दण्डक में चारों प्रकार की वेदना पाई जाती हैं । वेदना के तीन भेद हैं। यथा- शारीरिक वेदना, मानसिक वेदना और शारीरिकमानसिक वेदना | पांच स्थावर और तीन विकलेन्द्रिय, इन आठ दण्डकों में एक शारीरिक वेदना पाई जाती है । शेष सोलह- दण्डकों में तीनों प्रकार की वेदना पाई जाती है । पुनः - वेदना के तीन भेद हैं । यथा - सातावेदना, असातावेदना और साताअसातावेदना | चौवीस दण्डक में यह तीनों प्रकार की वेदना पाई जाती है । पुनः - वेदना के तीन भेद हैं । यथा - दुःखा वेदना, सुम्ना वेदना और अदुःखसुखा वेदना। तीनों प्रकार की वेदना चौबीस ही दण्डक में पाई जाती है । वेदना के दो भेद हैं । यथा - आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी । स्वयं कष्ट को अंगीकार करना जैसे - केश- लोच आदि 'आम्पुपगमिकी' वेदना है । स्वभात्र से उदय में आने वाली वेदना - ज्वरादि 'अपक्रमिकी' वेदना है । तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय और मनुष्य में यह दोनों प्रकार की वेदना होती है। शेष बाईस दण्डक में एक औपक्रमिकी वेदना For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शः १० उ. २ भिक्षु प्रतिमा और आराधना १७६७ होती है । वेदना के दो भेद है । यथा-निदा और अनिदा । मन के विवेक सहित जो वंदना वेदी जाय वह 'निदा' वेदना है और जो मन के विवेकपूर्वक न वेदी जाय वह 'अनिदा' वेदना है। नरयिक, भवनपति, वाणव्यन्तर, तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय और मनुष्य-इन चांदह दण्डक के जीव दोनों प्रकार की वेदना वेदते हैं । अर्थात् संजीभूत निदा वेदना वेदते हैं और असंजीभूत अनिदा वेदना वेदते हैं । पांच स्थावर और तीन विकलेन्द्रिय असंज्ञीभूत एक अनिदा वेदना वेदते हैं। ज्योतिषी और वैमानिक देवों के दो भेद हैं। यथा-मायी-मिथ्यादृष्टि और अमायीसमदृष्टि । मायी-मिथ्यादृष्टि अनिदा वेदना वेदते हैं और अमायी-समदृष्टि निदा वेदना वेदते हैं। वेदना सम्बन्धी विस्तृत वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के पैतीसवें पद में है। भिक्ष प्रतिमा और आराधना ५-मासियं णं भंते ! भिक्खुपडिमं पडिवण्णस्स अणगारस्स णिचं वोसटे काए चियते देहे-एवं मासिया भिक्खुपडिमा णिरवसेसा भाणियबा, जहा दसाहिं जाव 'आराहिया भवई'। ६-भिक्खू य अण्णयरं अकिचट्ठाणं पडिसेवित्ता से णं तस्स ठाणस्स अणालोइया अपडिक्कंते कालं करेइ, पत्थि तस्स आरा. हणा, से णं तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिक्कंते कालं करेइ, अस्थि तस्स आराहणा। भिक्खू य अण्णयर अकिवटाणं पडिसेवित्ता तस्स णं एवं भवइ-'पच्छा वि णं अहं चरिमकालसमयंसि एयरस ठाणस्स आलोएस्सामि जाव पडिकमिस्सामि, से णं तस्स ठाणस्स For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९८ भगवती सूत्र-श. १० उ. २ भिक्ष प्रतिमा और आराधना अगालोइय अपडिक्कंते जाव णस्थि तस्स अराहणा, से णं तस्स ठागस्स आलोइय-पडिक्कंते कालं करेइ अस्थि तस्स आराहणा । भिक्खू य अण्णयरं अकिञ्चठाणं पडिसेवित्ता तस्सणं एवं भवइ-जइ ताव समणोवासगा वि कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवताए उववत्तारो भवंति, किमंग ! पुण अहं अणपण्णियदेवत्तणंपि णो लभिस्सामि त्ति कटु से णं तस्स ठाणस्स अणालोइय अपडिक्कते कालं करेइ गत्थि तस्स आराहणा; से णं तस्स ठाणरस आलोइय-पडिबकंते कालं करेइ अस्थि तस्स आराहणा। 8 सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ® ॥ दसमसए बीओ उद्देसो समत्तो ॥ __कठिन शब्दार्थ--पडिवण्णस्स--प्रतिपन्न (जो पहले स्वीकार कर चुका है) के वोसठे--छोड़ा हुआ, चियत्ते--त्यागा हुआ, अकिच्चट्ठाणं-अकृत्य स्थान--पाप स्थान, पच्छावि-वाद में, चरिमकालसमयंसि-अंतिम काल के समय, आलोएस्सामि--आलोचना करूंगा, आराहणा--आराधना, उववत्तारो-उत्पन्न होने वाले । भावार्थ-५-जिस अनगार ने मासिक भिक्षु-प्रतिमा अंगीकार की है, तथा जिसने शरीर के ममत्व का और शरीर-संस्कार का त्याग कर दिया है, इत्यादि मासिक भिक्षु-प्रतिमा सम्बन्धी सभी वर्णन यहाँ दशाश्रुतस्कन्ध में बताये अनुसार यावत् बारहवीं भिक्षु-प्रतिमा तक सभी वर्णन-यावत् उसके आराधना होती हैतक कहना चाहिये। ६-यदि किसी भिक्षु के द्वारा किसी अकृत्य-स्थान का सेवन हो गया हो और यदि वह उस अकृत्य-स्थान की आलोचना तथा प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाय, तो उसके आराधना नहीं होती। यदि अकृत्य-स्थान की वह आलोचना For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १० उ. २ भिक्षु प्रतिमा और आराधना १७९९ और प्रतिक्रमग करके काल करे, तो उसके आराधना होती है। कदाचित् किसी भिक्षु के द्वारा अकृत्यस्थान का सेवन होगया हो और बाद में उसके मन में यह विचार उत्पन्न हो कि 'मैं अपने अन्तिम समय में इस अकृत्य स्थान को आलोचना करूंगा यावत् तप रूप प्रायश्चित्त स्वीकार करूंगा, परन्तु वह उस अकृत्यस्थान को आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाय, तो उसके आराधना नहीं होती। यदि वह आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करे, तो आराधना होती है । कदाचित् किसी भिक्षु के द्वारा अकृत्यस्थान का सेवन हो गया हो और उसके बाद वह यह सोचे कि 'जब कि श्रमणोपासक भी काल के समय काल करके किसी एक देवलोक में उत्पन्न हो जाते हैं, तो क्या मैं अगपनिक देवभी नहीं हो सकूँगा'-यह सोचकर यदि वह उस अकृत्य-स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाय, तो उसके आराधना नहीं होती। यदि अकृत्यस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-साधु के अभिग्रह विशेष को 'भिक्षु-प्रतिमा' कहते हैं । वे बारह हैं-एक मास से लेकर सात मास तक सात प्रतिमाएँ हैं । आठवी, नौवीं और दसवीं प्रतिमाएँ प्रत्येक सात दिन-रात्रि की होती हैं, ग्यारहवीं एक अहोरात्र की होती है और बारहवीं केवल एक रात्रि की होती है । इनका विस्तृत विवेचन दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं दशा में है। ॥ दसवें शतक का द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १० उद्देशक ३ देव की उल्लंघन शक्ति १ प्रश्न - रायगिहे जाव एवं वयासी- आइटीए णं भंते ! देवे जात्र चतारि, पंच देवावासंतराई वीइक्कंते, तेण परं परिड्ढीए ? १ उत्तर - हंता, गोयमा ! आयटीए णं तं चेव, एवं असुरकुमारेवि । वरं असुरकुमारावासंतराई, सेसं तं चैव । एवं एएणं कमेणं जाव थणियकुमारे, एवं वाणमंतरे, जोइसिए, वेमाणिए, जाव तेण परं परिड्ढीए । कठिन शब्दार्थ - आइड्ढीए - आत्मऋद्धि (स्वयं की शक्ति ) से, परिड्ढीए दूसरी ऋद्धि से । भावार्थ - १ प्रश्न - राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा- हे भगवन् ! देव, अपनी शक्ति द्वारा यावत् चार-पांच देवावासों का उल्लंघन करता है और इसके बाद दूसरे की शक्ति द्वारा उल्लंघन करता है ?.. १ उत्तर - हाँ, गौतम ! देव अपनी शक्ति द्वारा चार-पांच देवावासों का उल्लंघन करता है और उसके बाद दूसरी शक्ति ( वैक्रिव की शक्ति ) द्वारा उल्लंघन करता है । इसी प्रकार असुरकुमारों के विषय में भी जानना चाहिये, परंतु वे अपनी शक्ति द्वारा असुरकुमारों के आवासों का उल्लंघन करते हैं। शेष पूर्ववत् जानना चाहिये । इसी प्रकार इसी अनुक्रम से यावत् स्तनित कुमार, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिये, यावत् 'वे अपनी शक्ति से चार पांच आवासों का उल्लंघन करते हैं, इसके बाद दूसरी शक्ति (स्वाभाविक शक्ति के अतिरिक्त वैक्रिय शक्ति) से उल्लंघन करते हैं । For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - शः १० उ. ३ देवों के मध्य में होकर तिलने की क्षमता देवों के मध्य में होकर निकलने की क्षमता २ प्रश्न - अप्पड्ढीए णं भंते ! देवे से महड्डियरस देवस्स मज्झ मज्झेणं वीडवपूजा ? २ उत्तर - गो इण समट्टे | ३ प्रश्न - समिड्ढीए णं भंते! देवे समड्ढीयस्स देवरस मज्झंमझेणं वीवजा ? ३ उत्तर - णो इण समट्टे, पमत्तं पुण वीइवएज्जा । ४ प्रश्न - से णं भंते! किं विमोहित्ता प्रभू, अविमोहित्ता पत्र ? ४ उत्तर - गोयमा ! विमोहित्ता पभू, णो अविमोहेत्ता पभू । ५ प्रश्न - से भंते! किं पुचि विमोहित्ता पच्छा वीडवराजा पुचि वीइवइत्ता पच्छा विमोहेज्जा ? ५ उतर- गोयमा ! पुव्विं विमोहिता पच्छा वीइवएज्जा, णो पुवि वीडवइत्ता पच्छा विमोहेज्जा । १८०१ আম कठिन शब्दार्थ - अप्पडीए- अल्प ऋद्धिक, बाइवएज्जा-जाता है-उल्लंघन करता है, विमोहित्ता- विनोहित करके । भावार्थ - २ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या अल्पऋद्धिक (अल्प शक्ति वाला) देव महद्धिक (महा शक्ति वाले ) देव के बीच में से होकर जा सकता है ? २ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, ( वह उनके बीचोबीच होकर नहीं जा सकता ) । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! सर्माद्धक ( समान शक्तिवाला) देव, समद्धिक देव के For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०२ भगवती सूत्र-श. १० उ. ३ देवों के मध्य में होकर निकलने की क्षमता बीच में होकर जा सकता है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं, परन्तु वह प्रमत्त (असावधान) हो तो जा सकता है। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वह देव, उस सामनेवाले देव को विमोहित करके जाता है, या विमोहित किये बिना जाता है ? ___४ उत्तर-हे गौतम ! वह देव, सामने वाले देव को विमोहित करके जा सकता है, विमोहित किये बिना नहीं जा सकता। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वह देव, उसे पहले विमोहित करता है और पीछे जाता है, अथवा पहले जाता है और पीछे विमोहित करता है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! वह देव, उसे पहले विमोहित करता है और पीछे जाता है, परन्तु पहले जाकर पीछे विमोहित नहीं करता। ६ प्रश्न-महिड्ढीए णं भंते ! देवे अप्पड्ढियस्स देवस्स मज्झं. मज्झेणं वीइवएज्जा ? ६ उत्तर-हंता, वीइवएजा। ७ प्रश्न-से भंते ! किं विमोहित्ता पभू, अविमोहित्ता पभू ? ७ उत्तर-गोयमा ! विमोहित्ता वि पभू, अविमोहेत्ता वि पभू । ८ प्रश्न-से भंते ! किं पुञ् िविमोहित्ता पच्छा वीइवएजा, पुग्विं वीइवइत्ता पच्छा विमोहेजा ? '८ उत्तर-गोयमा ! पुट्विं वा विमोहेत्ता पच्छा वीइवएज्जा, पुलिं पा वीइवइत्ता पच्छा विमोहेजा। . ९ प्रश्न-अप्पड्ढिए णं भंते ! असुरकुमारे महड्ढियस्स असुर For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १० उ. ३ देवों के मध्य में होकर निकलने की क्षमता १८०३ कुमारस्स मझमझेणं वीइवएन्जा ? . ___ ९ उत्तर-णो इणढे समढे । एवं असुरकुमारेण वि तिण्णि आला. वगा भाणियव्वा जहा ओहिएणं देवेणं भणिया ! एवं जाव थणियकुमारेणं, वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएणं एवं चेव । १० प्रश्न-अप्पढिए णं भंते ! देवे महिड्ढियाए देवीए मज्झं. मझेणं वीइवएजा? १० उत्तर-णो इणटे समटे । ११ प्रश्न-समड्ढिए णं भंते ! देवे समड्डियाए देवीए मझंमझेणं०? .. ११ उत्तर-एवं तहेव देवेण य देवीए य दंडओ भाणियव्वो, जाव वेमाणियाए। १२ प्रश्न-अप्पड्ढिया णं भंते ! देवी महड्ढियस्स देवस्स मज्झंमज्झेणं० ? १२ उत्तर-एवं एसो वि तईओ दंडओ भाणियब्वो, जाव (प्र०) 'महिड्ढिया वेमाणिणी अप्पड्ढियस्स वेमाणियस्स मझमझेणं वीइवएज्जा ? (उ०) हंता, वीइवएजा। .... १३ प्रश्न-अप्पड्ढिया णं भंते ! देवी महड्ढियाए देवीए मज्झंमझेणं वीइवएज्जा ? १३ उत्तर-णो इणढे समटे । एवं समड्ढिया देवी समढियाए For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०४ भगवती सूत्र-श. १० उ. ३ देवों के मध्य में होकर निकलने की क्षमता देवीए तहेव, महिड्ढिया वि देवी अप्पड्ढियाए देवीए तहेव, एवं एक्कक्के तिण्णि तीण्ण अलावगा भाणियब्वा, जाव-(प्र०) महड्ढिया णं भंते ! वेमाणिणी अप्पड्ढियाए वेमाणिणीए मझमझेणं वीइवएजा ? (उ०) हंता, वीइवएज्जा । सा भंते ! किं विमोहित्ता पभू० ? तहेव जाव पुट्विं वा वीइवइत्ता पच्छा विमोहेजा । एए चत्तारि दंडगा। भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या महद्धिक देव, अल्प ऋद्धिक देव के ठीक मध्य में होकर जा सकता है ? ६ उत्तर-हाँ, गौतम ! जा सकता है। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! वह महद्धिक देव, उस अल्प ऋद्धिक देव को विमोहित करके जाता है अथवा विमोहित किये बिना जाता है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! विमोहित करके भी जा सकता है और विमोहित किये बिना भी जा सकता है। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! वह महद्धिक देव, उसे पहले विमोहित करके पीछे जाता है, अथवा पहले जाता है और पीछे विमोहित करता है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! वह महद्धिक देव पहले विमोहित करके पीछे भी जा सकता है और पहले जाकर पीछे भी विमोहित कर सकता है। . ९ प्रश्न-हे भगवन् ! अल्प ऋद्धिक असुरकुमार देव, महद्धिक असुरकुमार देव के बीचोबीच होकर जा सकता है ? ९ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। इस प्रकार सामान्य देव की तरह असुरकुमार के भी तीन आलापक कहने चाहिए । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक कहना चाहिए, तथा वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-दा. १० उ. ३ देवों के मध्य में होकर निकलने की क्षमता १८.५ १० प्रश्न-हे भगवन् ! अल्पऋद्धिक देव, महद्धिक देवी के मध्य में होकर जा सकता है ? १० उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! समऋद्धिक देव, समऋद्धिक देवी के मध्य में होकर जा सकता है ? ११ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से देव के साथ देवी का भी दण्डक कहना चाहिये, यावत् वैमानिक पर्यंत इसी प्रकार कहना चाहिये। १२ प्रल्न-हे भगवन् ! अल्पऋद्धिक देवी, महद्धिक देव के मध्य में कर जा सकती है ? १२ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं, इस प्रकार यहाँ तीसरा दण्डक कहना चाहिये, यावत् (प्रश्न) हे भगवन् ! महद्धिक वैमानिक देवी, अल्पऋद्धिक वैमानिक देव के बीच में से निकलकर जा सकती है ? (उत्तर) हाँ, गौतम ! जा सकती है। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! अल्पऋद्धिक देवी महद्धिक देवी के मध्य में से चलकर जा सकती है ? . १३ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । इस प्रकार समऋद्धिक देवी का, समऋद्धिक देवी के साथ तथा महद्धिक देवी का, अल्पऋद्धिक देवी के साथ,उपर्युक्त रूप से आलापक कहना चाहिये । इस प्रकार एक-एक के भी तीन-तीन आलापक कहना चाहिये, यावत् (प्रश्न) हे भगवन् ! महद्धिक वनानिक देवी, अल्पऋद्धिक वैमानिक देवी के मध्य में होकर जा सकती है ? (उत्तर) हाँ गौतम ! जा सकती है, यावत् (प्रश्न) हे भगवन् ! क्या वह महद्धिक देवी, उसे विमोहित करके जो सकती है, अथवा विमोहित किये बिना जा सकती है, तथा पहले विमोहित करके पीछे जाती है, अथवा पहले जाकर पीछे विमोहित करती है ? (उत्तर) हे गौतम ! पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिये, यावत् 'पहले जाती है और पीछे भी विमोहित करती है,' तक कहना चाहिये । इस प्रकार For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०६ भगवती सूत्र - श. १० उ. ३ अश्व की खु-खु ध्वनि और भाषा के भेद चार दण्डक कहने चाहिये । विवेचन- १ अल्प ऋद्धिक महद्धिक के साथ, २ समऋद्धिक समऋद्धिक के साथ और ३ महद्धिक अल्प ऋद्धिक के साथ-ये तीन आलापक होते हैं । ये तीन आलापक असुरकुमार से वैमानिक तक कहने चाहिये । १ इन तीन आलापकों से युक्त सामान्य देव का सामान्य देव के साथ एक दण्डक होता है, इसी प्रकार २ इन तीन आलापकों से युक्त वैमानिक पर्यंत देव का देवी के साथ दूसरा दण्डक होता है, ३ इसी तरह वैमानिक पर्यंत देवी का देव के साथ तीसरा दण्डक होता है और ४ इसी तरह वैमानिक पर्यंत देवी का देवी के साथ चौथा दण्डक होता है । विमोहित करने का अर्थ है - 'विस्मित करना' अर्थात् महिका ( धूअर ) आदि के द्वारा अन्धकार कर देना । उस अन्धकार को देखकर सामने वाला देव, विस्मय में पड़ जाता है कि यह क्या है ? उसी समय उसके न देखते हुए ही बीच में से निकल जाना 'विमोहित कर निकल जाना' - कहलाता है । * अश्व की खु-खु ध्वनि और भाषा के भेद १४ प्रश्न - आसस्स णं भंते! धावमाणस्स किं 'खु खु' त्ति करेइ ? १४ उत्तर - गोयमा ! आसस्स णं धावमाणस्स हिययरस य जगयरस य अंतरा एत्थ णं कक्कडए + णामं वाए संमुच्छह, जेणं आसस्स धावमाणस्स 'खु खु' त्ति करेइ | कठिन शब्दार्थ- आसस्स - अश्व (घोड़े ) के, धावमाणस्स-दौड़ते हुए के, हिययस्सहृदय के, जगयस्स - यकृत (लीवर) का, कक्कडए - कर्कट, समुच्छइ - उत्पन्न होता है । भावार्थ - १४ प्रश्न - हे भगवन् ! जब घोड़ा दौड़ता है, तब 'खु-खु' शब्द क्यों करता है ?.. १४ उत्तर - हे गौतम! जब घोड़ा दौड़ता है, तब उसके हृदय और + पाठ भेद- 'कब्बडए ।' For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूद्ध-१० उ. ? अश्व की खु-वु ध्वनि और भाषा के भेद १८०७ यकृत् के बीच में कर्कट नामक वायु उत्पन्न होती है, इससे दौड़ता हुआ घोड़ा 'खु-खु' शब्द करता है। १५ प्रश्न-अह भंते ! आसइम्सामो, सइस्समो, चिट्ठिस्सामो, णिसिइस्सामो, तुयट्टिस्सामो "आमंतणी आणवणी जायणी तह पुच्छणी य पण्णवणी । पञ्चखाणी भासा, भासा इच्छाणुलोमा य॥ अणभिग्गहिया भासा भासा य, अभिग्गहम्मि बोद्धव्वा । संसयकरणी भासा, वोयडमव्वोयडा चेव” ॥ पण्णवणी णं एसा भामा, ण एसा भासा मोसा ? हंता, गोयमा ! आसइस्सामो, तं चेव · जाव ण एसा भासा मोसा। * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॐ ॥ दसमे सए तईओ उद्देसो सभत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-आसइस्सामो-आश्रय करेंगे, सइस्सामो-शयन करेंगे, चिट्ठिस्सामोखड़े रहेंगे, णिसिइस्सामो-वैठेंगे, तुयट्टिस्सामो-लेटेंगे, आमंतणी-आमन्त्रणदेनेवाली, आणवणी-आज्ञापनी, जायणी- याचना करने वाली, इच्छाणुलोमा-इच्छानुलोमा, वोयडमब्योयडाव्याकृता अव्याकृता। ___ भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! १ आमन्त्रणी, २ आज्ञापनी, ३ याचनी, ४ पृच्छनी, ५ प्रज्ञापनी, ६ प्रत्याख्यानी, ७ इच्छानुलोमा, ८ अनभिगृहीता, ९ अभिगृहीता, १० संशयकरणी, ११ व्याकृता और १२ अव्याकृता, इन बारह For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०८ - भगवती सूत्र-श. १० उ. ३ अश्व की खु खु ध्वनि और भाषा के भेद प्रकार की भाषाओं में-'हम आश्रय करेंगे, शयन करेंगे, खड़े रहेंगे, बैठेंगे और लेटेंगे,' इत्यादि भाषा, क्या प्रज्ञापनी भाषा कहलाती है और ऐसी भाषा मृषा (असत्य) नहीं कहलाती? १५ उत्तर-हाँ, गौतम ! उपरोक्त प्रकार की भाषा प्रज्ञापनी भाषा है और वह भाषा मृषा नहीं कहलाती। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-सत्या, असत्या, सत्यामृषा और असत्यामृषा, इस प्रकार भाषा के मूल चार भेद हैं । लौकिक व्यवहार की प्रवृति का कारण होने से असत्यामृषा भाषा को 'व्यवहार भाषा' कहते हैं । इसके बारह भेद हैं । यथा १ आमन्त्रणी-आमन्त्रण करना अर्थात् किसी को सम्बोधित करना । जैसे-हे भगवन् ! हे देवदत्त ! इत्यादि । २ आज्ञापनी - दूसरे को किसी कार्य में प्रेरित करने वाली भाषा 'आज्ञापनी' कह लाती है । जैसे-जाओ, लाओ, अमुक कार्य करो, इत्यादि । . ३ याचनी-याचना करने के लिये कही जाने वाली भाषा। ४ पृच्छनी-अज्ञात तथा संदिग्ध पदार्थों को जानने के लिय प्रयुक्त भाषा। - ५ प्रजापनी-उपदेश देने रूप भाषा 'प्रज्ञापनी' है । यथा-प्राणियों की हिंसा से निवृत्त पुरुष भवान्तर में दीर्घायु और नीरोग शरीरी होते हैं। ६ प्रत्याख्यानी-निषेधात्मक भाषा 'प्रत्याख्यानी' कहलाती है। ७ इच्छानुलोमा-दूसरे की इच्छा का अनुसरण करना । जैसे-किसी के द्वारा पूछा जाने पर उत्तर देना कि जो तुम करते हो, वह मुझे भी अभीप्ट है। ८ अनभिगृहीता-प्रतिनियत (निश्चित) अर्थ का ज्ञान न कराने वाली भाषा 'अनभिगृहीता' है। ९ अभिगृहीता-प्रतिनियत अर्थ का बोध कराने वाली भाषा 'अभिगृहीता' है। १० संशयकरणी-अनेक अर्थों के वाचक शब्दों का जहाँ प्रयोग किया गया हो और जिसे सुनकर श्रोता संशय में पड़ जाय, वह भाषा 'संशयकरणी' है । जैसे-'सैन्धव' शब्द सुनकर श्रोता संगय में पड़ जाता कि नमक लाया जाय या घोड़ा (क्योंकि सैन्धव शब्द के For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १० उ. ८ चमरेन्द्र के प्राय स्त्रियक देव दो अर्थ हैं - घोड़ा और नमक ) । ११ व्याकृता - स्पष्ट अर्थ वाली भाषा 'व्याकृना' कहलाती है । १२ अव्याकृता - अस्पष्ट उच्चारण वाली अथवा अति गंभीर अर्थ वाली भाषा । 'हम आश्रय करेगें' इत्यादि भाषा यद्यपि भविष्यत्कालीन है, तथापि वर्तमान सामीप्य होने से प्रज्ञापनी भाषा है और वह असत्य नहीं है । इसी प्रकार आमन्त्रणी आदि के विषय में जानना चाहिये । ॥ दसवें शतक का तृतीय उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १० उद्देशक ४ १८०९ चमरेन्द्र के प्रायस्त्रिंशक देव १ - तेणं कालेनं तेणं समएणं वाणियग्गामे णयरे होत्था, वष्णओ। दूइपलासए चेहए । सामी समोसढे । जाव परिसा पडि गया । तेणं कालेणं तेणं समरणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे, जाव उड्दजाणू जाव विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी सामहत्थी णामं अणगारे पगइभद्दए, जहा रोहे, जाव उजाणू जाव विहरइ । तरणं से सामहत्थी अणगारे जायसड्ढे जाव उट्ठाए उट्ठेइ उट्ठित्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छछ उवागच्छित्ता भगवं गोयमं तिक्खुत्तो जाव पज्जुवासमाणे एवं For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१० भगवती सूत्र - श १० उ. ४ चमरेन्द्र के त्रायस्त्रिशक देव वयासी । २ प्रश्न - अस्थि णं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमार रण्णो तायत्तीसगा देवा ? २ उत्तर - हंता, अस्थि । प्रश्न-से केणट्टेणं भंते ! एवं gas - ' चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो ताथत्तीसगा देवा' ? उत्तर - एवं खलु सामहत्थी । तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेब जंबुद्दीवे दीवे भार वासे कायंदी णामं णयरी होत्था । वण्णओ । तत्थ णं कायंदीए णयरीए तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासया परिवसंति, अड्ढा जाव अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा, उवलद्धपुण्णपावा, वण्णओ जाव विहरंति । तपणं ते वायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासया पुव्विं उग्गा उग्गविहारी, संविग्गा, संविग्गविहारी भवित्ता, तओ पच्छा पासस्था, पासत्थविहारी, ओसण्णा, ओसण्णविहारी, कुमीला, कुसीलविहारी, अहाच्छंदा, अहाच्छंदविहारी, बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणंति पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूमेंति, अत्ताणं झुसित्ता तीसं भत्ता असणाए छेदेंति, छेदित्ता, तस्स ठाणस्स अणालोइयअप डिकंता कालमासे कालं किच्चा चमरस्स असुरिं दस्स असुरकुमाररण्णो तायत्तीसग देवत्ताए उववण्णा । For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १० उ. ४ चमरेन्द्र के त्रायस्त्रियक देव कठिन शब्दार्थ - जायसड्ढे - श्रद्धावाले, सहाया - सहायता करनेवाले, उज्मा - उग्र ( उदार भाववाले), उग्गविहारी- उग्र विहारी ( उदार आचारवाले) । १८११ भावार्थ - १ उस काल उस समय वाणिज्यग्राम नामक नगर था । उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी (शिष्य) इंद्रभूति नामक अनगार थे । वे ऊर्ध्वजानु यावत् विचरते थे । उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के शिष्य 'श्यामहस्ती' अनगार थे । वे गौतम स्वामी पास आकर, उन्हें तीन बार प्रदक्षिणा एवं वन्दना नमस्कार करके पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले २ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या असुरकुमारों के राजा, असुरकुमारों के इन्द्र चमर के त्रास्त्रिशक देव हैं ? २ उत्तर- हाँ, श्यामहस्ती ! चमरेन्द्र के त्रायस्त्रशक देव हैं । प्र० - हे भगवन् ! क्या कारण है इसका कि असुरेन्द्र असुरकुमारेन्द्र के त्रास्त्रशक देव हैं ? उ०- हे श्यामहस्ती ! उन त्रायस्त्रशक देवों का वर्णन इस प्रकार है । उस काल उस समय इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में काकन्दी नाम की नगरी थी ( वर्णन ) । उस काकन्दी नगरी में एक दूसरे की परस्पर सहायता करने वाले तेतीस श्रमणोपासक गृहपति रहते थे । वे धनिक यावत् अपरिभूत थे । वे जीवाजीव के ज्ञाता और पुण्य-पाप के जानने वाले थे । वे परस्पर सहायक तेतीस श्रमणोपासक गृहपति, पहले उग्र, उग्रविहारी, संविग्न, संविग्नविहारी थे, परन्तु पीछे पासत्य (पार्श्वस्थ ), पासत्थविहारी, अवसन्न, अवसन्नविहारी, कुशील कुशीलविहारी, यथाछन्द और यथाछन्दविहारी हो गये । बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन कर, अर्धमासिक संलेखना द्वारा शरीर को कृश कर, तीस भक्तों का अनशन द्वारा छेदन कर के और उस प्रमाद स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल के समय काल कर वे असुरकुमारराज असुरकुमारेन्द्र चमर के त्रास्त्रशक देवपने उत्पन्न हुए हैं । For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १० उ. ४ चमरेन्द्र के त्रायस्त्रिशक देव ३ - जप्पभिरं च णं भंते ! ते काकंदगा तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोघासगा चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तायत्तीसगदेवत्ताए उववण्णा तप्पभिडं च णं भंते! एवं बुच्चड़ - 'चमरस्स असुरिंदरस असुरकुमाररण्णो तायत्तीसगा देवा ? तरणं भगवं गोयमे सामहत्थिणा अणगारेणं वृत्ते समाणे संकिए, कंखिए, विति गिच्छिए उडाए उट्ठेइ, उडाए उडित्ता सामहत्थिणा अणगारेणं सधि जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ । तेणेव उवागच्छता समणं भगवं महावीरं बंदह णमंसह । वंदित्ता, णमं सित्ता एवं वयासी १८१२ ४ प्रश्न - अस्थि णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तायत्तीसगा देवा तायत्तीसगा देवा ? ४. उत्तर - हंता, अस्थि । प्रश्न-से केणणं भंते! एवं बुच्चड़ एवं तं चैव सव्वं भाणि - - 1 यव्वं, जाव 'तप्पभिई च णं बुचड़ - चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तायत्तीसगा देवा तायत्तीसगा देवा ? एवं उत्तर - णो इणट्टे समट्टे, गोयमा ! चमरस्त णं असुरिंदस्स अमुरकुमाररण्णो तायत्तीसगाणं देवाणं सासए णामधेज्जे पण्णत्ते; जंक पाइ, णासी, ण कयाइ ण भवइ, ण कयाइ ण भविस्सह जाव णिच्चे अव्वोच्छित्तिणयट्टयाए, अण्णे चयंति, अण्णे उववर्जति । For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. १० उ. ४ चमरेन्द्र के त्रास्त्रिशक देव १८१३ ____ कठिन शब्दार्थ-संकिए -शंकित हा, कंखिए-कांक्षित, वितिगिच्छिए-अत्यंत सन्देहयुक्त, अवोच्छित्तिणयहाए-अधुच्छित्ति नय (द्रव्याथिक नय) के अर्थ से, तप्पभिई-तव से। भावार्थ-३-(श्यामहस्ती, गौतम स्वामी से पूछते हैं) हे भगवन् ! क्या जब से वे काकन्दी निवासी, परस्पर सहायता करने वाले तेतीस श्रमणोपासक, असुरकुमारराज असुरेन्द्र चप्पर के त्रास्त्रिशक देवपने उत्पन्न हुए हैं, तब से ऐसा कहा जाता है कि असुरेन्द्र असुरकुमारराज चप्पर के त्रास्त्रिशक देव हैं ? (अर्थात् क्या इस से पहले त्रास्त्रिशक देव नहीं थे ?) श्यामहस्ती अनगार के इस प्रश्न को सुनकर गौतमस्वामी शंकित, कांक्षित और अत्यन्त संदिग्ध हुए। वे वहाँ से उठे और श्यामहस्ती अनगार के साथ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आये । भगवान् को वन्दना नमस्कार करके गौतमस्वामी ने इस प्रकार पूछा ४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या असुरेन्द्र, असुरकुमारराज चमर के त्रास्त्रिशक देव हैं ? ४ उत्तर-हाँ, गौतम हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा किप्त कारण से कहते हैं कि चमर के त्रास्त्रिशक देव हैं, इत्यादि पूर्व कथित त्रास्त्रिशक देवों का सब सम्बन्ध कहना चाहिये, यावत् काकन्दी निवासी श्रमणोपासक त्रास्त्रिशक देवपने उत्पन्न हुए। तब से लेकर ऐसा कहा जाता है कि चमरेन्द्र के त्रास्त्रिशक देव हैं ? क्या इसके पहले वे नहीं थे ? उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के त्रास्त्रिशक देवों के नाम शाश्वत कहे गये हैं। इसलिये वे कभी नहीं थे-ऐसा नहीं और नहीं रहेंगे-ऐसा भी नहीं। वे नित्य हैं, अव्युच्छित्तिनय (द्रव्याथिक नय) की अपेक्षा पहले वाले चवते हैं और दूसरे उत्पन्न होते हैं । उनका विच्छेद कभी नहीं होता। विवेचन-जो देव, मन्त्री और पुरोहित का कार्य करते हैं, वे 'त्रायस्त्रिशक' कहलाते हैं । काकन्दी नगरी में तेतीस श्रमणोपासक रहते थे। वे परस्पर एक दूसरे की सहायता करते थे। वे गृहपति अर्थात् कुटुम्ब के नायक थे । वे उग्र (उदार भाव वाले) For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१४ भगवती सूत्र-श. १० उ. ४ बलीन्द्र के त्रास्त्रिशक देव और उग्रविहारी (उदार आचार वाले) थे । वे पहले तो संविग्न (मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक एवं संसार से भयभीत) और संविग्न विहारी (मोक्ष के अनुकूल आचरण करने वाले) थे किन्तु पीछे वे पासत्थ (पार्श्वस्थ-ज्ञानादि से बहिर्भूत) और पासत्थविहारी (जीवन पर्यन्त ज्ञान आदि से बहिर्भूत प्रवृत्ति करने वाले) अवसन्न (उत्तम आचार का पालन करने में थके हुए-आलसी) और अवसन्न विहारी (जीवन पर्यन्त शिथिलाचारी), कुशील (ज्ञानादि आचार की विराधना करने वाले) और कुशील विहारी (जीवन पर्यन्त ज्ञानादि आचार की विराधना करने वाले), यथाछन्द (आगम से विपरीत अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करने वाले स्वच्छन्दी) और यथाछन्दविहारी (जीवन पर्यन्त स्वच्छन्दी) हो गये थे । इससे काल के समय काल करके वे चमरेन्द्र के वायस्त्रिशक देवपने उत्पन्न हुए । यह कथानक वर्तमान के त्रायस्त्रिशक देवों • का है। इसी प्रकार अनादिकाल से त्रायस्त्रिशक देवों के स्थान में नवीन जीव उत्पन्न होते रहते हैं और पुराने चवते जाते हैं । बलीन्द्र के प्रायस्त्रिंशक देव ५ प्रश्न-अत्थि णं भंते ! वलिस्स वइरोयणिंदस्स वइरोयणरण्णो तायत्तीसगा देवा तायत्तीसगा देवा ? ५ उत्तर-हंता, अस्थि । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-बलिस्स बहरोयणिंदस्स जाव तायत्तीसगा देवा तायत्तीसगा देवा ? उत्तर-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे बिभेले णाम सण्णिवेसे होत्था वण्णओ। तत्थ णं विभेले सण्णिवेसे जहा चमरस्स जाव उववण्णा । प्रश्न-जप्पभिई च णं भंते ! विभेलगा तायत्तीसं सहाया गाहावई For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १० उ. ४ बलिन्द्र के त्रायस्त्रिशक देव १८:५ समणोवासगा पलिस्स वइरोयणिंदस्स सेसं तं चेव जाव णिच्चे अवोच्छित्तिणयट्ठयाए, अण्णे चयंति, अण्णे उववजंति । __६ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! धरणस्म णागकुमारिंदस्म णागकुमाररण्णो तायत्तीसगा देवा ? ६ उत्तर-हंता अस्थि । प्रश्न-से केणटेणं जाव तायत्तीसगा देवा तायत्तीसगा देवा ? उत्तर-गोयमा ! धरणस्स णागकुमारिंदस्स णागकुमाररण्णो तायत्तीसगाणं देवाणं सासए णामधेजे पण्णत्ते, ज ण कयाई णासी, जाव अण्णे चयंति अण्णे उववति । एवं भूयाणंदस्स वि एवं जाव महाघोसस्स । कठिन शब्दार्थ-सण्णिवेसे -सन्निवेश, जप्पभिई-जब से । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि के त्रास्त्रिशक देव हैं ? ' ५ उत्तर-हाँ, गौतम ! हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि के त्रास्त्रिशक देव हैं ? उत्तर-हे गौतम ! बलि के त्रास्त्रिशक देवों का वर्णन इस प्रकार हैंउस काल उस समय इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में बिभेल नाम का सन्निवेश (कस्बा) था (वर्णन)। उस बिभेल सनिवेश में परस्पर सहायता करने वाले तेतीस श्रमणोपासक थे, इत्यादि जैसा वर्णन चमरेन्द्र के लिये कहा है, वैसा यहाँ भी जानना चाहिये । यावत् वे त्रास्त्रिशक देवपने उत्पन्न हुए । जब से वे बिभेल सन्निवेश निवासी परस्पर सहायक तेतीस गृहपति श्रमणोपासक, बलि के For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१६ भगवती सूत्र - श. १० उ. ४ शक्रेन्द्र के त्रायस्त्रक देव त्रास्त्र देवपने उत्पन्न हुए, तब से क्या ऐसा कहा जाता है कि बलि के त्रास्त्रशक देव हैं, इत्यादि पूर्वोक्त सभी वर्णन कहना चाहिये । यावत् 'वे नित्य हैं, अव्युच्छिति नय की अपेक्षा पुराने चते हैं और नये उत्पन्न होते हैं' - तक कहना चाहिये । ६ प्रश्न - हे भगवन् ! नागकुमारेन्द्र नागकुमार राज धरण के त्रायस्त्रिशक देव हैं ? ६ उत्तर - हाँ, गौतम ! हैं । प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से कहते हैं कि नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण के त्रास्त्रिशक देव हैं ? उत्तर - हे गौतम! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण के त्रायस्त्रशक देवों के नाम शाश्वत कहे गये हैं । 'वे कभी नहीं थे' - ऐसा नहीं, 'नहीं रहेंगे'ऐसा भी नहीं, यावत् पुराने चवते हैं और नये उत्पन्न होते है । इसी प्रकार भूतानन्द यावत् महाघोष इन्द्र के त्रास्त्रिशक देवों के विषय में जानना चाहिये । शक्रेन्द्र के त्रयस्त्रिंशक देव ७ प्रश्न - अत्थि णं भंते ! सक्करस देविंदस्स, देवरण्णो पुच्छा ? ७ उत्तर - हंता अस्थि । (प्र०) से केद्रेणं जाव तायत्तीसगा देवा, तायत्तीसगा देवा ? ( उ० ) एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समरणं इव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पलासए णामं सष्णिवेसे होत्था । वण्णओ । तत्थ णं पलासए सण्णिवेसे तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासया जहा चमरस्स जाव विहरति । For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - य. १० उ. ४ केन्द्र के वायस्थिशक देव तणं ते तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासया पुवि पि पच्छा वि उग्गा, उग्गविहारी, संविग्गा, संविग्गविहारी बहु वासाई समणोवासगपरियागं पाउणति पाउणित्ता मामियाए संलेहणाए अत्ताणं झूमेंति, सित्ता स िभत्ताई अणसणाए छेदेति, छेदित्ता आलोइयपडिस्कंता समाहिपत्ता कालमामे कालं किवा जाव उववण्णा । जपहिं च णं भंते! पालासिंगा तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासगा, सेसं जहा चमरस्स जाव अण्णे उववजंति । ८ प्रश्न - अस्थि णं भंते ! ईसाणस्स० ? ८ उत्तर - एवं जहा सक्कस्स, णवरं चंपाए णयरीए जाव उववण्णा । जप्पभिदं च णं भंते ! चंपिज्जा तायत्तीसं सहाया, सेसं तं चैव जाव अण्णे उववजंति । ९ प्रश्न - अत्थि णं भंते ! सणकुमारस्स देविंदस्स देवरण्णो पुच्छा ? ९ उत्तर - हंता अत्थि । (प्र०) से केणटुणं ? ( 30 ) जहा धरणस्स तहेव, एवं जाव पाणयस्त, एवं अच्चुयस्स जाव अण्णे उववज्जंति । * सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति || दसमे स चत्थो उद्देसो समत्तो ॥ १८१७ For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१८ भगवती सूत्र-ग. १० उ. ४ शकेन्द्र के प्रायस्त्रिशेक देव ७ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवनाज शक्र के त्रास्त्रिशक देव हैं ? ७ उत्तर-हाँ, गौतम ! हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि देवेन्द्र देवराज शक के त्रास्त्रिशक देव हैं ? उत्तर-हे गौतम ! शक्र के त्रास्त्रिशक देवों का सम्बन्ध इस प्रकार है उस काल उस समय में इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में पलाशक नाम का सनिवेश था (वर्णन)। वहां परस्पर सहायता करने वाले तेतीस श्रमणोपासक रहते थे। इत्यादि पूर्वोक्त वर्णन कहना चाहिये । वे तेतीस श्रमणोपासक पहले भी और पीछे भी उग्र, उग्रविहारी, संविग्न और संविग्न विहारी होकर बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन कर, मासिक संलेखना द्वारा शरीर को कृश कर, साठ भक्त अनशन का छेदन कर, आलोचना और प्रतिक्रमण कर और काल के अवसर समाधिपूर्वक काल करके, शक के त्रास्त्रिशक देवपने उत्पन्न हुए हैं, इत्यादि सारा वर्णन चमरेन्द्र के समान कहना चाहिये । यावत् 'पुराने चवते हैं, और नये उत्पन्न होते हैं -तक कहना चाहिये। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान के त्रास्त्रिशक देव हैं ? ८ उत्तर-हे गौतम ! शक्रेन्द्र के समान ईशानेन्द्र का भी वर्णन जानना चाहिये । इसमें इतनी विशेषता है कि ये श्रमणोपासक चम्पा नगरी में रहते थे। शेष सारा वर्णन शक्रेन्द्र के समान जानना चाहिये। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार के त्रास्त्रिशक देव हैं ? ९ उत्तर-हां गौतम ! हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है कि देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार के त्रायस्त्रिशक देव है ? उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार धरणेन्द्र के विषय में कहा है, उसी प्रकार सनत्कुमार के विषय में भी जानना चाहिए। इसी प्रकार यावत् प्राणत तक जानना चाहिए और इसी प्रकार अच्युत तक जानना चाहिए, यावत् 'पुराने चवते हैं और For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १० उ. ५ चमरेन्द्र का परिवार १८११ नए उत्पन्न होते हैं'-तक जानना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक-ये चार प्रकार के देव हैं। इनमें से भवनपति और वैमानिक देवों में तो त्रायस्त्रिशक देव होते हैं, किंतु वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देवों में प्रायस्त्रिशक देव नहीं होते, इसलिए. भवनपति और वैमानिक देवों के ही वायस्त्रिशक देवों का वर्णन आया है। ॥ इति दशवें शतक का चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥ शतक १० उद्देशक ५ चमरेन्द्र का परिवार १-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे । गुणसिलए चेइए, जाव परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स वहवे अंतेवासी थेरा भगवंतो जाइ. संपण्णा कुलसंपण्णा जहा अट्ठमे सए सत्तमुद्देसए जाव विहरति । तएणं ते थेरा भगवंतो जायसड्ढा जायसंसया जहा गोयमसामी, जाव पज्जुवासमाणा एवं वयासी.२. प्रश्न-चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो कइ For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२० भगवती सूत्र-श. १० उ. ५ चमरेन्द्र का परिवार अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? __२ उत्तर-अजो ! पंच अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा१ काली, २ रायी, ३ रयणी, ४ विज्जु, ५ मेहा । तत्थ णं एगमेगाए देवीए अट्ठट्ट देवीसहस्सा परिवारो पण्णत्तो। ३ प्रश्न-पभू णं भंते ! ताओ एगमेगा देवी अण्णाई अट्ठ-ट्ठ देवीसहस्साइं परिवार विउवित्तए ? ३ उत्तर-एवामेव सपुव्वावरेणं चत्तालीसं देवीसहस्सा, सेत्तं तुडिए। __४ प्रश्न-पभू णं भंते ! चमरे अमुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए, चमरंसि सीहासणंसि तुडिएणं सद्धि दिव्वाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ? ४ उत्तर-णो इणटे समटे । प्रश्न-मे केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'णो पभू चमरे अमरिंदे चमरचंचाए रायहाणीए जाव विहरित्तए' ? उत्तर-अजो ! चमरस्म णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए, माणवए चेइयखंभे वइ. रामएसु गोल-बट्ट-समुग्गएसु बहूओ जिणसकहाओ सण्णिक्खित्ताओ चिटुंति; जाओ णं चमरस्म असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो अण्णेसिं च वहूणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य अच्चणिजाओ, वंद For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रा १० उ ५ चमरेन्द्र का परिवार णिज्जाओ णर्ममणिज्जाओ पूयणिजाओ सक्कारणिजाओ सम्माणणिजाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेहयं पज्जुवासणिजाओ भवंति, तेसिं पणिहाए णो पभू, से तेणट्टेणं अजो ! एवं वुच्चइ - ' णो पभू चमरे असुरिंदे जाव चमरचंचाए जाव विहरित । (प्र० ) प णं अजो ! चमरे अमुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि चउसडीए सामाणीयसाहस्सी हिं तायत्तीसाए जाव अण्णेहिं च बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहि य देवीहि यसद्धि संपरिबुडे महयाहय - जाव भुंजमाणे विहरित्तए ? ( उ० ) केवलं परियारिड्ढीए, णो चेव णं मेहुणवत्तियं । कठिन शब्दार्थ - अग्गमहिसी - अग्रमहिषी-पटरानी, एबामेव- इसी प्रकार, तुडिएत्रुटिक-वर्ग, वइरामएसु - वज्रमय, गोल बट्टस मुग्गएसु- वृत्ताकार गोल डिब्बों में, जिणसकहाओजिनसक्थि - जिनेन्द्र भगवान् की अस्थियाँ, अच्चणिज्जा-अर्चनीय, पणिहाए- प्रणिधान में । १८२१ भावार्थ - १ - उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था । वहाँ गुणशीलक नामक उद्यान था । ( वहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी समवसरे) यावत् परिषद् धर्मोपदेश सुनकर लौट गई। उस काल उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के बहुत-से अन्तेवासी (शिष्य) स्थविर भगवान् जाति सम्पन्न face सातवें उद्देशक में कहे अनुसार विशेषण विशिष्ट यावत् विचरते थे । वे स्थविर भगवान् जानते की श्रद्धावाले यावत् संशय वाले होकर गौतम स्वामी के समान पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले २ प्रश्न - हे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के कितनी अग्रमहिषियाँ ( पटरानियाँ) कही गई हैं ? २ उत्तर - हे आर्यों ! चमरेन्द्र के पांच अग्रमहिषियों कही गई है । यथा For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२२ भगवती सूत्र - श. १० उ. ५ चमरेन्द्र का परिवार १ काली २ राजी ३ रजनी ४ विद्युत् और ५ मेघा । इनमें से एक-एक अग्रमहिषी के आठ-आठ हजार देवियों का परिवार कहा गया है । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या एक-एक देवी आठ-आठ हजार देवियों के परिवार की विकुर्वणा कर सकती है ? ३ उत्तर - हे आर्यो ! हाँ, कर सकती है। इस प्रकार पूर्वापर सब मिल कर पांच अग्रमहिषियों का परिवार चालीस हजार देवियाँ हैं। यह एक त्रुटिक (वर्ग) कहलाता है । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर अपनी चमरचञ्चा राजधानी की सुधर्मासभा में, चमर नामक सिंहासन पर बैठकर, उस त्रुटिक ( देवियों के परिवार ) के साथ भोगने योग्य दिव्य-भोगों को भोगने में समर्थ है ? ४ उत्तर - हे आर्यो ! यह अर्थ समर्थ नहीं । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कारण है कि 'चमरचञ्चा राजधानी में वह असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर दिव्य-भोग भोगने में समर्थ नहीं है ।' उत्तर - हे आर्यों ! असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर की चमरचञ्चा राजधानी की सुधर्मा नामक सभा में, माणवक चैत्यस्तम्भ में, वज्रमय गोल डिब्बों में जिन भगवान् की बहुत-सी अस्थियाँ हैं, जो कि असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के लिए तथा बहुत से असुरकुमार देव और देवियों के लिए अर्चनीय, वन्दनीय, नमस्करणीय, पूजनीय तथा सत्कार व सम्मान करने योग्य हैं। वे कल्याणकारी, मंगलकारी, देवस्वरूप, चैत्यरूप पर्युपासना करने के योग्य हैं । इसलिए उन जिन भगवान् की अस्थियों के प्रणिधान ( सन्निधान - समीप ) में वह असुरेन्द्र, अपनी राजधानी की सुधर्मासभा में यावत् भोग भोगने में समर्थ नहीं है । इसलिए हे आर्यो ! ऐसा कहा गया है कि 'असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर चमरचञ्चा राजधानी में यावत् भोग भोगने में समर्थ नहीं है । परन्तु हे आर्यो । वह असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर, चमरचञ्चा राजधानी की सुधर्मा सभा में चमर नामक For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १० उ. ५. चमरेन्द्र का परिवार सिंहासन पर बैठकर चौसठ हजार सामानिक देव, त्रायस्त्रिशक देव और दूसरे बहुत से असुरकुमार देव और देवियों के साथ प्रवृत्त होकर निरन्तर होने वाले नाटय गीत और वादिन्त्रों के शब्दों द्वारा, केवल परिवार की ऋद्धि से भोग भोगने में समर्थ है, परन्तु मैथुन-निमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं है। ५ प्रश्न-चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो सोमस्स महारण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? - ५ उत्तर-अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-१ कणगा २ कणमलया ३ चित्तगुत्ता ४ वसुंधरा । तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे पण्णत्ते । (प्र०) पभू णं ताओ एगमेगाए देवीए अण्णं एगमेगं देवीसहस्सं परिवार विउवित्तए ? (उ०) एवामेव सपुत्वावरेणं चत्तारि देवीसहस्सा । सेत्तं तुडिए । ६ प्रश्न-पभू णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो सोमे महाराया सोमाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए मोमंसि सीहा. सणंसि तुडिएणं ? ६ उत्तर-अवसेसं जहा चमरस्स, णवरं परिवारो जहा सूरियाभस्स, सेसं तं चेव, जाव णो चेव णं मेहुणवत्तियं । ७ प्रश्न-चमरस्स णं भंते ! जाव रण्णो जमस्स महारण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२४ भगवती सूत्र-श: १० उ. ५ चमरेन्द्र का परिवार ७ उत्तर-एवं चेव, णवरं जमाए रायहाणीए, सेसं जहा सोमस्स, एवं वरुणस्स वि, णवरं वरुणाए रायहाणीए; एवं वेसमणस्स वि, णवरं वेसमणाए रायहाणीए; सेसं तं चेव, जाव मेहुणवत्तियं । ५ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के लोकपाल सोममहाराजा के कितनी अग्रमहिषियाँ कही गई हैं ? ५ उत्तर-हे आर्यो ! उनके चार अग्रमहिषियाँ कही गई हैं। यथाकनका, कनकलता, चित्रगुप्ता और वसुन्धरा । इनमें से प्रत्येक देवी का एकएक हजार देवियों का परिवार है । इनमें से प्रत्येक देवी, एक-एक हजार देवियों के परिवार को विकुर्वणा कर सकती है । इस प्रकार पूर्वापर सब मिल कर चार हजार देवियाँ होती हैं । यह त्रुटिक (देवियों का वर्ग) कहलाता है। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर का लोकपाल सोम नामक महाराजा, अपनी सोमा राजधानी की सुधर्मासभा में, सोम नामक सिंहासन पर बैठकर उस त्रुटिक के साथ भोग भोगने में समर्थ है ? ६ उत्तर-हे आर्यो ! जिस प्रकार चमर के सम्बन्ध में कहा गया, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये, परन्तु इसका परिवार राजप्रश्नीय सूत्र में वणित सूर्याम देव समान जानना चाहिये। शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिये, यावत् वह सोमा राजधानी में मैथुन-निमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं है। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! उस चमर के लोकपाल यम महाराजा के कितनी अंग्रमहिषियों कही गई हैं ? ७ उत्तर-हे आर्यो ! जिस प्रकार सोम महाराजा का कहा, उसी प्रकार यम महाराजा का कहना चाहिये, किन्तु इतनी विशेषता है कि यम लोकपाल के यमा नामक राजधानी है । इसी प्रकार वरुण और वैश्रमण का भी कहना चाहिये, किन्तु वरुण के वरुणा राजधानी है और वैश्रमण के वैश्रमणा राजधानी है । शेष For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १० उ. ५ वलिन्द्र का परिवार - १८२५ -- सब पूर्ववत् जानना चाहिए, यावत् 'वे वहाँ मैथुननिमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं है।' बलीन्द्र का परिवार ८ प्रश्न-बलिस्स णं भंते ! वइरोयणिंदस्स पुच्छा ? ८ उत्तर-अजो ! पंच अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा१. सुभा २ णिसुभा ३ रंभा ४. णिरंभा ५ मयणा । तत्थ णं एगमेगाए देवीए अट्ठ-४०, सेसं जहा चमरस्स, णवरं बलिचंचाए रायहाणीए, परिवारो जहा मोउद्देसए सेसं तं चेव, जाव मेहुणवत्तियं । ९ प्रश्न-बलिस्स णं भंते ! वइरोयणिंदस्स, बहरोयणरण्णो सोमस्स महारण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? ९ उत्तर-अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। तं जहा-१ मीणगा २ सुभद्दा ३ विजया ४ असणी। तत्थ णं एगमेगाए देवीए, सेसं जहा चमरसोमस्स एवं जाव वेसमणस्स । कठिन शब्दार्थ-मोउद्देसए-मोका नगरी के उद्देशक के अनुसार । भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि के कितनी अग्रमहिषियों कही गई हैं ? ८ उत्तर-हे आर्यो ! पांच अग्रमहिषियां कही गई हैं। यथा-सुभा, निसुम्भा, रम्भा, निरम्भा और मदना । इनमें प्रत्येक देवी के आठ-आठ हजार For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२६ भगवती सूत्र-ग. १० उ. ५ धरणेन्द्र का परिवार देवियों का परिवार है, इत्यादि सारा वर्णन चमरेन्द्र के समान जानना चाहिए, परन्तु बलीन्द्र के बलिचञ्चा राजधानी है । इसका परिवार तृतीय शतक के प्रथम उद्देशक में कहे अनुसार तथा शेष सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए, यावत् 'वह मैथुन निमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं है।' ९ प्रश्न-हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि के लोकपाल सोममहाराजा के कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? . ९ उत्तर-हे आर्यो ! चार अग्रमहिषियों हैं । यथा-मेनका, सुभद्रा, विजया और अशनी। इनको एक-एक देवी का परिवार आदि सारा वर्णन चमर के सोम नामक लोकपाल के समान जानना चाहिए। इसी प्रकार यावत् वैश्रमण तक जानना चाहिए। १० प्रश्न-धरणस्स णं भंते ! णागकुमारिंदस्स णागकुमार. रण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? १० उत्तर-अजो ! छ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा१ इला २ सुक्का ३ सतारा ४ स्रोदामिणी ५ इंदा ६ घणविज्जुया । तत्थ णं एगमेगाए देवीए छ छ देवीसहस्सा परिवारो पण्णत्तो। ११ प्रश्न-पभू णं भंते ! ताओ एगमेगा देवी अण्णाई छ छ देविसहस्साइं परिवार विउवित्तए ? | ___११ उत्तर-एवामेव सपुव्वावरेणं छत्तीसाइं देविसहस्साई, सेत्तं तुडिए । (प्र०) पभू णं भंते ! धरणे० ? (उ०) सेसं तं चेव, णवरं For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. १० उ. ५ भृतानेन्द्र का परिवार १८२७ धरणाए रायहाणीए, धरणंसि सीहासणंसि, सओ परिवारो, सेमं तं चेव। १२ प्रश्न-धरणस्स णं भंते ! णागकुमारिंदस्म लोगपालस्म कालवालस्स महारण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? ___१२ उत्तर-अजो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-१ असोगा २ विमला ३ सुप्पभा ४ सुदंसणा। तत्थ णं एगमेगाए० अवमेमं जहा चमरलोगपालाणं । एवं सेसाणं तिण्ह वि। १३ प्रश्न-भूयाणंदस्स भंते ! पुच्छा। - १३ उत्तर-अजो ! छ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा१ रूया २ . रूयंसा ३ मुरूया ४ रूयगावई ५ रूयकता ६ रूयप्पभा । तत्थ णं एगगाए देवीए० अवसेसं जहा धरणस्स । १४ प्रश्न-भूयाणंदस्म णं भंते ! णागवित्तस्स पुच्छा ? १४ उत्तर-अजो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-१ सुणंदा, २ सुभदा, ३ सुजाया, ४ सुमणा । तत्थ णं एगमेगाए० अवसेमं जहा चमरलोगपालाणं । एवं सेसाणं तिण्ह वि लोगपालाणं । जे दाहिणिल्ला इंदा तेसिं जहा धरणिंदस्स, लोगपालाण वि तेसिं जहा धरणस्स लोगपालाणं उत्तरिल्लाणं इंदाणं जहा भयाणंदस्स, लोगपालाण वि तेसिं जहा भूयाणंदस्स लोग For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२८ भगवती सूत्र-श. १० उ. ५ भूतानेन्द्र का परिवार पालाणं, णवरं इंदाणं सव्वेसिं रायहाणीओ सीहासणाणि य सरिसणामगाणि; परिवारो जहा तइए सए पढमे उद्देसए । लोगपालाणं सव्वेसिं रायहाणीओ सीहासणाणि य सरिसणामगाणि, परिवारो जहा चमरस्स लोगपालाणं । कठिन शब्दार्थ-रायहाणीओ-राजधानियां, सपुवावरेणं-पहले और पीछे का सव मिलाकर, सरिसणामगाणि-समान नाम, परिवारो-परिवार । भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज, धरण के कितनी अग्रमहिषियाँ कही गई हैं ? १० उत्तर-हे आर्यो ! उसके छह अग्रमहिषियों कही गई हैं। यथाइला, शुक्रा, सतारा, सौदामिनी, इन्द्रा, घनविद्युत् । इन प्रत्येक देवियों के छह-छह हजार देवियों का परिवार कहा गया है । ११ प्रश्न-हे भगवन् ! इनमें से प्रत्येक देवी, अन्य छह-छह हजार देवियों के परिवार की विकुर्वणा कर सकती है ? ११ उत्तर-हाँ, आर्यो ! कर सकती है। ये पूर्वापर सब मिलाकर छत्तीस हजार देवियों की विकुर्वणा कर सकती हैं। इस प्रकार यह इन देवियों का त्रुटिक कहा गया है। प्रश्न-हे भगवन् ! धरणेन्द्र यावत् भोग भोगने में समर्थ है, इत्यादि प्रश्न ? उत्तर-पूर्ववत् जानना चाहिए, यावत् वह वहाँ मैथुन-निमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं है, इसमें इतनी विशेषता है कि राजधानी का नाम धरणा, धरण सिंहासन के विषय में स्व परिवार, शेष सब पूर्ववत् कहना चाहिये। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! नागकुमारेन्द्र, नागकुमारराज, धरण के लोकपाल कालवाल नामक महाराजा के कितनी अग्रमहिषियों कही गई हैं ? For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १० उ. ५ 'भूतानेन्द्र का परिवार १८२९ १२ उत्तर-हे आर्यो ! उसके चार अग्रमहिषियाँ कही गई हैं । यथाअशोक, विमला, सुप्रभा और सुदर्शना । इनमें से एक-एक देवी का परिवार आदि वर्णन चमर के लोकपाल के समान कहना चाहिए । इसी प्रकार शेष तीन लोकपालों के विषय में भी कहना चाहिए । १३ प्रश्न-हे भगवन् ! भूतानन्द के कितनी अग्रमहिषियाँ कही गई हैं ? १३ उत्तर-हे आर्यो ! उसके छह अग्रमहिषियां कही गई हैं। यथारूपा, रूपांशा, सुरूपा, रूपकावती, रूपकान्ता, रूपप्रभा । इनमें प्रत्येक देवी के परिवार आदि का वर्णन धरणेन्द्र के समान जानना चाहिए। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! भूतानन्द के लोकपाल नागवित्त के कितनी अग्रमहिषियां कही गई हैं ? १४ उत्तर-हे आर्यो ! उसके चार अग्रमहिषियां कही गई हैं । यथा- , सुनन्दा, सुभद्रा, सुजाता, सुमना । इनमें प्रत्येक देवी के परिवार आदि का वर्णन चमरेन्द्र के लोकपाल के समान और इसी प्रकार शेष तीन लोकपालों के विषय में भी जानना चाहिये । दक्षिण दिशा के इन्द्रों का कथन धरणेन्द्र के समान और उनके लोकपालों का कथन धरणेन्द्र के लोकपालों की तरह जानना चाहिये। - उत्तर दिशा के इन्द्रों का कथन भूतानन्द के समान और उनके लोकपालों का कथन भतानन्द के लोकपालों के समान जानना चाहिये। परन्तु इतनी विशेषता है कि सब इन्द्रों की राजधानियों का और सिंहासनों का नाम इन्द्र के नाम के समान जानना चाहिये । उनके परिवार का वर्णन तीसरे शतक के पहले उद्देशक में कहे अनुसार जानना चाहिये । सभी लोकपालों की राजधानियों और सिंहासनों का नाम लोकपाल के नाम के अनुसार जानना चाहिये और उनके परिवार का वर्णन चमरेन्द्र के लोकपालों के परिवार के वर्णन के समान जानना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३० भगवती सूत्र-श. १० उ. ५ व्यन्तरेन्द्रों का परिवार व्यन्तरेन्द्रों का परिवार १५ प्रश्न-कालस्स णं भंते ! पिसायिंदस्स पिसायरण्णो कई : अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? १५ उत्तर-अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-१ कमला २ कमलप्पभा ३ उप्पला ४ सुदंसणा । तत्थ ·णं एगमगाए देवीए एगमेगं देविसहस्सं, सेसं जहा चमरलोगपालाणं । परिवारो तहेव, णवरं कालाए रायहाणीए, कालंसि सीहासणंसि, सेसं तं चेव, एवं महाकालस्स वि । १६ प्रश्न-सुरुवस्स णं भंते ! भूतिंदस्त भूतरण्णो पुच्छा। १६ उत्तर-अजो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं . जहा-१ रूववई २ बहुरूवा ३ सुरूवा ४ सुभगा । तत्थ णं एगमेगाए, सेसं जहा कालस्स । एवं पडिरूवस्स वि । ...१७ प्रश्न-पुण्णभद्दस्स णं भंते ! जक्खिदस्स पुच्छ । १७ उत्तर-अजो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-१ पुण्णा २ बहुपुत्तिया ३ उत्तमा ४ तारया । तत्थ णं एग. मेगाए, सेसं जहा कालस्स । एवं माणिभहस्स वि । १८ प्रश्न-भीमस्स णं भंते ! रक्खसिंदस्स पुच्छा ? १८ उत्तर-अजो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १० उ. ५ व्यन्तरेन्द्रों का परिवार १ पउमा २ परमावती ३ कणगा ४ रयणप्पभा । तत्थ णं एगमेगाए, सेसं जहा कालस्स । एवं महाभीमस्स वि । कठिन शब्दार्थ - पिसाइंदस्स - पिशाचेन्द्र का, भूइंदस्स - भूतेन्द्र का । भावार्थ - १५ प्रश्न - हे भगवन् ! पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल के कितनी • अग्रमहिषियाँ कही गई हैं ? १८३१ १५ उत्तर - हे आर्यो ! उसके चार अग्रमहिषियां कही गई हैं, यथाकमला, कमलप्रभा, उत्पला और सुदर्शना । इनमें से प्रत्येक देवी के एक एक हजार देवियों का परिवार है । शेष सब वर्णन चनरेन्द्र के लोकपालों के समान जानना चाहिए और परिवार भी उसी के समान जानना चाहिये । परन्तु विशेषता यह है कि इसके काला नाम की राजधानी और काल नाम का सिंहासन है । शेष सब वर्णन पहले के समान जानना चाहिये । इसी प्रकार महाकाल के विषय में भी जानना चाहिये । १६ प्रश्न - हे भगवन् ! भूतेन्द्र भूतराज सुरूप के कितनी अग्रमहिषियाँ कही गई है ? १६ उत्तर - हे आर्यो ! चार अग्रमहिषियाँ कही गई हैं। यथा-रूपवती, बहुरूपा, सुरूपा और सुभगा । इन में प्रत्येक देवी के परिवार आदि का वर्णन कालेन्द्र के समान जानना चाहिये । इसी प्रकार प्रतिरूपेन्द्र के जानना चाहिये । विषय में भी १७ प्रश्न - हे भगवन् ! यक्षेन्द्र यक्षराज पूर्णभद्र के कितनी अग्रमहिषियों कही गई हैं ? १७ उत्तर - हे आर्यो ! चार अग्रमहिषियां कही हैं। यथा-पूर्णा, बहुपुत्रिका, उत्तमा और तारका । प्रत्येक देवी के परिवार आदि का वर्णन कालेन्द्र के समान जानना चाहिये । इसी प्रकार माणिभद्र के विषय में भी जानना चाहिये । १८ प्रश्न - हे भगवन् ! राक्षसेन्द्र राक्षसराज भीम के कितनी अग्र For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३२ भगवती सूत्र - श. १० उ. ५ व्यन्तरेन्द्रों का परिवार महिषियों कही गई है ? १८ उत्तर - हे आर्यो ! चार अग्रमहिषियाँ कही गई है। यथा- पद्मा, पद्मावती, कनका और रत्नप्रभा । प्रत्येक देवी के परिवार आदि का वर्णन कालेन्द्र के समान है और इसी प्रकार महाभीम के विषय में भी जानना चाहिये । विवेचन - उपरोक्त सूत्र में व्यन्तर देवों के इन्द्र काल, महाकाल, गुरूप, प्रतिरूप पूर्णभद्र, माणिभद्र, भीम और महाभीम की अग्रमहिषियां तथा उनके परिवार आदि का वर्णन किया गया है । १९ प्रश्न - किण्णरस्स णं भंते ! पुच्छा । १९ उत्तर - अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १ वडेंसा २ केतुमती ३ रतिसेणा ४ रइप्रिया । तत्थ णं सेसं तं चैव, एवं किंपुरिसस्स वि । २० प्रश्न - सप्पुरिसस्स णं पुच्छा । २० उत्तर- अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १ रोहिणी २ नवमिया ३ हिरी ४ पुप्फवती । तत्थ णं एगमेगाए, सेसं तं चेव, एवं महापुरिसस्स वि । २१ प्रश्न - अतिकायंस्स णं पुच्छा । २१ उत्तर - अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १ भुगंगा २ भुयगवई ३ महाकच्छा ४ फुडा । तत्थ णं सेसं तं चैव, एवं महाकायस्स वि । For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गूत्र-श. १० उ. ५ व्यन्तरेन्द्रों का परिवार १८३२ २२ प्रश्न-गीयरइम्म णं पुन्छ । २२ उत्तर-अजो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा--१ सुघोसा २ विमला ३ सुस्सरा ४ सरस्सई । तत्थ णं सेमं तं चेव । एवं गीयजमस्स वि । सव्वेसिं एएसि जहा कालस्म णवरं मरिसणामियाओ रायहाणीओ सीहासणाणि य, सेसं तं चेव । कठिन-शब्दार्थ-वसा-अवतंसा, फुडा--म्फटा । भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! किन्नरेन्द्र के कितनी अग्रमहिषियाँ .. कही गई हैं ? १९ उत्तर-हे आर्को ! चार अग्रमहिषियाँ कही गई हैं । यथा-अवतंसा, केतुमती, रतिसेना और रतिप्रिया । प्रत्येक देवी के परिवार के विषय में पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिये । इसी प्रकार किम्पुरुषेन्द्र के विषय में भी जानना चाहिये। . २० प्रश्न-हे भगवन् ! सत्पुरुषेन्द्र के कितनी अग्रमहिषियाँ कही गई हैं ? . २० उत्तर-हे आर्यो ! चार अग्रमहिषियाँ कही गई हैं। यथा-रोहिणी, नवमिका, ह्री और पुष्पवती । प्रत्येक देवी के परिवार का वर्णन पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिये । इसी प्रकार महापुरुषेन्द्र के विषय में भी जानना चाहिये। २१ प्रश्न-हे भगवन् ! अतिकायेन्द्र के कितनी अग्रमहिषियाँ कही गई हैं ? २१ उत्तर-हे आर्यो ! चार अग्रमहिषियाँ कही गई हैं । यथा-भुजंगा, भुजंगवती, महाकच्छा और स्फुटा । प्रत्येक देवी के परिवार का वर्णन पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिये । इसी प्रकार महाकायेन्द्र के विषय में भी जानना चाहिये। २२ प्रश्न-हे भगवन् ! गीतरतीन्द्र के कितनी अग्रमहिषियाँ कही गई हैं ? २२ उत्तर-हे आर्यो ! चार अग्रमहिषियाँ कही गई हैं। यथा-सुघोषा, For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३४ भगवती सूत्र - श. १० उ. ५ ज्योतिषेन्द्र का परिवार विमला, सुस्वरा और सरस्वती । जानना चाहिए । इसी प्रकार गीतयश इन्द्र के इन सभी इन्द्रों का शेष सब वर्णन कालेन्द्र के धानियों और सिंहासनों का नाम इन्द्रों के पूर्ववत् जानना चहिये । प्रत्येक देवी के परिवार का वर्णन पूर्ववत् विषय में भी जानना चाहिये । समान जानना चाहिये । राजनाम के समान तथा शेष वर्णन विवेचन - इस सूत्र में वाणव्यन्तर देवों के इन्द्र- किन्नर, किम्पुरुष, सत्पुरुष, महापुरुष, 'अतिकाय, महाकाय, गीतरति और गीतयशः - इन आठइन्द्रों की अग्रमहिषियाँ और उन के परिवार का वर्णन किया गया है। वाणव्यन्तर इन्द्रों के लोकपाल नहीं होते । इसलिए उनका वर्णन नहीं आया है । ज्योतिषेन्द्र का परिवार २३ प्रश्न - चंदस्स णं भंते ! जोइसिंदस्स जोइसरण्णो पुच्छा | १२३ उत्तर - अजो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १ चंद्रप्पभा २ दोसिणाभा ३ अच्चिमाली ४ पभंकरा | एवं जहा जीवाभिगमे जोइसियउद्देसए तहेव सूररस वि १ सूरप्पभा २ आयवाभा ३ अच्चिमाली ४ पभंकरा । सेसं तं चेव, जाव णो चेवणं मेहुणवत्तियं । २४ प्रश्न - इंगालस्स णं भंते! महग्गहस्स कइ अग्गमहिसीओ पुच्छा । २४ उत्तर - अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १ विजया २ वेजयंती ३ जयंती ४ अपराजिया । तत्थ णं For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १० उ. ५ ज्योतिषेन्द्र का परिवार एगमेगाए देवीए सेसं तं चैव चंदरस णवरं इंगालवर्डेसए विमाणे, इंगालगंसि सीहासणंसि, सेसं तं चैव, एवं वियालगस्स वि । एवं अट्टासीतीए वि महागहाणं भाणियव्वं जाव भावकेउस्स, णवरं वडेंसगा सीहासणाणि य सरिसणामगाणि, सेसं तं चेव । कठिन शब्दार्थ- मेहुणवत्तियं मैथुन निमित्तक । भावार्थ - २३ प्रश्न - हे भगवन् ! ज्योतिषीन्द्र ज्योतिषीराज चन्द्र के कितनी अग्रमहिषियां कही गई हैं ? २३ उत्तर - हे आर्यो ! चार अग्रमहिषियां कही गई हैं। यथा-चन्द्रप्रभा, ज्योत्स्नाभा, अचिमाली और प्रभंकरा, इत्यादि जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के 'ज्योतिषी' नामक दूसरे उद्देशक में कहे अनुसार जानना चाहिये । इसी प्रकार सूर्य के विषय में भी जानना चाहिये । सूर्य के चार अग्रमहिषियों के नाम ये हैं - सूर्यप्रमा, आतपाभा अचिमाली, और प्रभंकरा, इत्यादि पूर्वोक्त सब कहना चाहिये, यावत् वे अपनी राजधानी में सिहासन पर मैथुननिमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं हैं । १८३५ २४ प्रश्न - हे भगवन् ! अंगार नामक महाग्रह के कितनी अग्रमहिषियों कही गई हैं ? २४ उत्तर - हे आर्यो ! चार अग्रमहिषियों कही गई हैं। यथा-विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता । इनकी प्रत्येक देवी के परिवार का वर्णन चन्द्रमा के समान जानना चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि इसके विमान का नाम अंगारावतंसक और सिंहासन का नाम अंगारक है । इसी प्रकार व्याल नाक ग्रह के विषय में भी जानना चाहिये। इसी प्रकार ८८ महाग्रहों के विषय में यावत् भावकेतु ग्रह तक जानना चाहिये । परन्तु अवतंसक और सिहासन का नाज इन्द्र के समान है, शेष वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिये । : विवेचन- यहाँ ज्योतिषी देवों के इन्द्र, चन्द्र और सूर्य तथा ८८ महाग्रहों की अग्र For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १० उ. ५ शन्द्र का परिवार महिषियां आदि का वर्णन दिया गया है। ज्योतिषी इन्द्रों के भी लोकपाल नहीं होते, इसलिए उनका वर्णन नहीं आया है । १८३६ २५ प्रश्न - सकस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो पुच्छा ? २५ उत्तर - अज्जो ! अड्ड अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १ पउमा २ सिवा ३ सेया ४ अंजू ५ अमला ६ अच्छरा ७- नवमिया ८ रोहिणी । तत्थ णं एगमेगाए देवीए सोलस सोलस देवी सहस्सा परिवारो पण्णत्तो । (प्र०) पभू णं ताओ एगमेगा देवी अण्णाई सोलस सोलस देविसहस्साई परिवार विउव्वित्तए ? ( उ० ) एवामेव सपुव्वावरेणं अट्ठावीसुत्तरं देविसयसहस्सं परिवार, सेत्तं तुडिए । २६ प्रश्न - पभू णं भंते! सबके देविंदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेंसर विमाणे सभाए सुहम्माए सबकंसि सीहासांसि तुडिएणं सघि, सेसं जहा चमरस्स, णवरं परिवारो जहा मोउद्देसए । २७ प्रश्न - संक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारष्णो कड़ अग्गमहिसीओ पुच्छा । २७ उत्तर - अजो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ तं जहा - १ रोहिणी २ मदणा ३ चित्ता ४ सोमा । तत्थ णं एगमेगा० सेसं जहा चमरलोगपालाणं, णवरं सयंपभे विमाणे, सभाए सुहम्माए, For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १० उ. ५ ईशानेन्द्र का परिवार सोमंसि मीहासणंसि, सेसं तं चेव, एवं जाव - बेसमणस्स, णवरं विमाणाई जहा तइयसए । २८ प्रश्न - ईसाणस्स णं भंते ! पुच्छा । २८ उत्तर- अजो ! अटु अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १ कण्हा २ कण्हराई ३ रामा ४ रामरक्खिया ५ वसू ६ वसुगुप्ता ७ वसुमित्ता ८ वसुंधरा । तत्थ णं एगमेगाए सेसं जहा सकस्स । २९ प्रश्न - ईसाणस्स णं भंते ! देविंदरस सोमस्स महारष्णो कइ अग्गमहिसीओ पुच्छा | २९ उत्तर- अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १ पुढवी २ राई ३ रयणी ४ विज्जू । तत्थ गं० सेसं जहा सकस लोगपालाणं, एवं जाव वरुणस्स, णवरं विमाणा जहा चउत्थसए, सेसं तं चेव, जाव णो चेवणं मेहुणवत्तियं । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति दसमसए पंचमो उद्देसो समत्तो ॥ 11 कठिन शब्दार्थ - विउव्वित्तए — वैक्रिय करने के लिये । १८३७ भावार्थ - २५ प्रश्न - हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शत्र के कितनी अग्रमहिषियाँ कही गई हैं ? २५ उत्तर - हे आर्यो ! आठ अग्रमहिषियाँ कही गई हैं। यथा- पद्मा, शिवा, श्रेया, अजू, अमला, अप्सरा, नवमिका और रोहिणी । इनमें से For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३८ भगवती सूत्र-श. १० उ. ५ ईशानेन्द्र का परिवार प्रत्येक देवी का सोलह हजार देवियों का परिवार है। इनमें से प्रत्येक देवी, ' दूसरी सोलह हजार देवियों के परिवार की विकुर्वणा कर सकती है । इसी प्रकार पूर्वापर मिलाकर एकलाख अट्ठाईस हजार देवियों के परिवार की विकुर्व गा कर सकती हैं। यह एक त्रुटिक कहा गया है । ____ २६ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र, सौधर्म देवलोक के सौधर्मावतंसक विमान में, सुधर्मा सभा में, शक्र नामक सिंहासन पर बैठकर उस त्रुटिक के साथ भोग भोगने में समर्थ है ? २६ उत्तर-हे आर्यो ! इसका सभी वर्णन चमरेन्द्र के समान जानना चाहिये, परन्तु इसके परिवार का वर्णन तीसरे शतक के प्रथम उद्देशक में कहे अनुसार जानना चाहिये। २७ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक के लोकपाल सोन महाराजा के कितनी अग्रमहिषियाँ कही गई हैं। २७ उत्तर-हे आर्यों ! चार अग्रमहिषियों कही गई हैं । यथा-रोहिणी, मदना, चित्रा और सोमा। इनमें से प्रत्येक देवी के परिवार का वर्णन चनरेन्द्र के लोकपालों के समान जानना चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि स्वयंप्रभ नामक विमान में, सुधर्मासभा में सोम नामक सिंहासन पर बैठकर यावत् भोग भोगने में समर्थ नहीं, इत्यादि पूर्ववत् जानना चाहिये। इसी प्रकार यावत् वैश्रमण तक जानना चाहिये, परन्तु उसके विमान आदि का वर्णन तृतीय शतक के सातवें उद्देशक में कहे अनुसार जानना चाहिये । २८ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान के कितनी अग्रमहिषियां कही गई हैं ? २८ उत्त, दे आर्यो ! आठ अग्रमहिषियां कही गई हैं। यथा-कृष्णा, कृष्णराजि, राना, रामरक्षिता, वसु, वसुगुप्ता, वसुमित्रा और वसुन्धरा । इन देवियों के परिवार आदि का वर्णन शक्रेन्द्र के समान जानना चाहिये । २९ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान के सोम नामक लोकपाल For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १० उ. ६ शक्रेन्द्र की सभा एवं ऋद्धि के कितनी अग्रमहिषियां कही गई हैं ? २९ उत्तर- हे आर्यो ! चार अग्रमहिषियां कही हैं। यथा- पृथ्वी, रात्रि, रजनी और विद्युत् । शेष वर्णन शक्र के लोकपालों के समान है । इसी प्रकार यावत् वरुग तक जानना चाहिये परन्तु विमानों का वर्णन चौथे शतक के पहले दूसरे तीसरे और चौथे उद्देशक के उल्लेखानुसार जानना चाहिये शेष पूर्ववत् यावत् वह मैथुन-निमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं हैं । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । १८३९ विवेचन - वैमानिक देवों में केवल पहले और दूसरे देवलोक तक ही देवियाँ उत्पन्न होती हैं । इसलिये यहाँ पहले और दूसरे देवलोक के इन्द्र तथा उनके लोकपाल आदि की अग्रमहिषियों का वर्णन किया गया है । ॥ दश शतक का पाँचवाँ उद्देशक सम्पूर्ण || शतक १० उद्देशक शक्रेन्द्र की सभा एवं ऋद्धि १ प्रश्न - कहि णं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सभा सुहम्मा पण्णत्ता ? १ उत्तर - गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमी. रयणप्पभाए एवं जहा रायप्पसेणइज्जे, जाव पंच वडेंसगा For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १० उ. ५ शक्रेन्द्र की सभा एवं ऋद्धि पण्णत्ता, तं जहा - १ असोगवडेंसए, जाव मज्झे ५ सोहम्म वडेंस । से णं सोहम्मवडेंसए महाविमाणे अद्भुतेरसजोयणसय सहरसाईं आयाम विक्खंभेणं । " एवं जह सूरियां तहेव माणं तहेव उववाओ । सक्स य अभिसेओ तहेव जह सूरियाभस्स ॥१॥ अलंकार अच्चणिया तव जाव आयखख त्ति ।”. दो सागमाई ठिई | २ प्रश्न - सक्के केमहासोक्खे | २ उत्तर - गोयमा ! महिड्दिए जाव महासोवखे । से णं तत्थ वतीसाए विमाणावाससयसहरसाणं जाव विहरह, एवं महिटिए जाव महासोक्खे सक्के देविंदे देवराया । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति १८४० भंते! देविंदे देवराया केमहिड्दिए, जाव || दसमस छडओ उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-डेंगा - अवतंसक - महल, महासोक्खे - महान् सुखवाला । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक की सुधर्मा सभा कहाँ है ? १ उत्तर - हे गौतम! इस जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा में, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूमि-माग से बहुत कोटाकोटि योजन दूर ऊंचाई में, सौधर्म नामक देवलोक में सुधर्मा सभा है । इत्यादि 'राजप्रश्नीय' For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १० उ. ७-३४ एकोरुक आदि अन्तर द्वीप सूत्र के अनुसार यावत् पाँच अवतंसक विमान कहे गये हैं। यथा- अशोकावतंसक, यावत् मध्य में सौधर्मावतंसक विमान है । उसकी लम्बाई और चौड़ाई साढ़े बारह लाख योजन है । शक्र का उपपात, अभिषेक, अलङ्कार और अर्चनिका यावत् आत्मरक्षक इत्यादि सारा वर्णन सूर्याभ देव के समान जानना चाहिये, किन्तु प्रमाण जो शकेन्द्र का है वही कहना चाहिये । शक्रेन्द्र की स्थिति दो सागरोपम की है । २ प्रश्न - हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शत्र कितना महाऋद्धिशाली और कितना महासुखी है ? २ उत्तर - हे गौतम ! वह महाऋद्धिशाली यावत् महासुखी है । वह बत्तीस लाख विमानों का स्वामी है, यावत् विचरता है । देवेन्द्र देवराज शक्र इस प्रकार की महाऋद्धि और महासुखवाला है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - सूर्याभ देव का वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र में बहुत विस्तार के साथ किया गया है | यहाँ शकेन्द्र के उपपात आदि के वर्णन के लिये उसी का अतिदेश किया गया है । अतः इसका वर्णन सूर्याभ देव के समान जानना चाहिये । ।। दसवें शतक का छठा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १० उद्देशक ७-३४ एकोरुक आदि अन्तर द्वीप baata मं दीवे पण्णत्ते ? १८४१ १ प्रश्न - कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगो For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४२ : भगवती सूत्र - श.. १० उ. ७-३४ एकोरुक आदि अन्तर द्वीप १ उत्तर - एवं जहा जीवाभिगमे तहेव णिरवसेसं जाव सुद्ध दंतदीवो ति । एए अट्ठावीस उद्देगा भाणियव्वा । सेवं भंते! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरह | || दसमस सत्तमादि चोत्तीसइमपज्जेता अट्ठावीसं उद्देसा समत्ता ॥ ॥ कठिन शब्दार्थ - कहिणं कहाँ । - भावर्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! उत्तर दिशा में रहने वाले एकोरुक मनुष्यों का एकोरुरु नामक द्वीप कहाँ है ? १ उत्तर- हे गौतम! एकोरुक द्वीप से लगाकर यावत् शुद्धदन्त द्वीप तक समस्त अधिकार जीवाभिगम सूत्र में कहे अनुसार कहना चाहिये । प्रत्येक atibfवषय में एक-एक उद्देशक है। इस प्रकार अट्ठाईस द्वीपों के अट्ठाईस उद्देशक होते हैं । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं । ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । . विवेचन - दक्षिण दिशा में अट्ठाईस अन्तरद्वीप हैं और इसी प्रकार उत्तर दिशा में भी अट्ठाईस अन्तरद्वीप हैं। दक्षिण दिशा के अन्तरद्वीपों का वर्णन पहले नौवें शतक में हो गया है । उसी के अनुसार उत्तर दिशा के अन्तरद्वीपों का वर्णन भी जानना चाहिये । इन सब के विस्तृत वर्णन के लिये जीवाभिगम सूत्र को तीसरी प्रतिपत्ति के पहले उद्देशक का अतिदेश किया गया है । दसमं सयं समत्तं ॥ ।। दसवें शतक के ७ से ३४ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ॥ दसवां शतक सम्पूर्ण ॥ • For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११ १-उप्पल सालु पलासे कुंभी नाली य परम कण्णिय । णलिण सिव लोग काला-लभिय दस दो य एकारे ॥ भावार्थ-१ ग्यारहवें शतक में बारह उद्देशक हैं। यथा-१ उत्पल, २ शालूक, ३ पलाश, ४ कुम्भी, ५ नाडीक, ६ पद्म, ७ कणिका, ८ नलिन, ९ शिवराजर्षि, १० लोक, ११ काल और १२ आलभिका। उद्देशक १ उत्पल के जीव २-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी प्रश्न-उप्पले णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे अणेगजीवे ? २ उत्तर-गोयमा ! एगजीवे, णो अणेगजीवे । तेण परं जे अण्णे जीवा उववज्जति तेणं णो एगजीवा अणेगजीवे । - ३ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा कओहिंतो उववजति ? किं रहए. हिंतो उववजंति, तिरि० मणु० देवेहितो उववनंति ? For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४४ भगवती सूत्र-श. ११ उ. १ उत्पल के जीव ३ उत्तर-गोयमा ! णो णेरइएहिंतो उववजंति, तिरिवखजोणिएहितो वि उववजति मणुस्सेहिंतो० देवेहितो वि उववजंति । एवं उववाओ भाणियबो जहा वकंतीए वणस्सइकाइयाणं जाव ईसाणेति । ४ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा एगसमए णं केवइआ उववजंति ? ४ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उस्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा उववजंति । ५ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा समए समए अवहीरमाणा अव. हीरमाणा केवइकालेणं अवहीरंति ? . ५ उत्तर-गोयमा ! ते णं असंखेजा समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा असंखेजाहिं उस्सप्पिणिओस्सप्पिणिहिं अवहीरंति, णो चेव णं अवहिया सिया । ६ प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं केमहालिआ सरीरोगाहणा पण्णता ? ६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलरस असंखेजइभार्ग, उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्सं । ___ कठिन शब्दार्थ-कओहितो-कहाँ से, वे वहा-कितने, 'अवहीरमाणा-अपहृत किये जाते हुए, के महालिआ-कितनी बड़ी। भावार्थ-२ उस काल उस समय में, राजगृह नगर में पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी यावत् इस प्रकार बोले For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममवती -सूत्र-जः ११ उ. १ उत्पल के जीव : १८४५ प्रश्न-हे भगवन् ! एक पत्ते वाला उत्पल (कमल) एक जीव वाला है, या अनेक जीवों वाला ? २ उत्तर-हे गौतम ! एक पत्र वाला उत्पल एक जीव वाला है, अनेक जीवों वाला नहीं । जब उस उत्पल में दूसरे जीव (जीवाश्रित पत्ते आदि अवयव) उत्पन्न होते हैं, तब वह एक जीव वाला नहीं रह कर अनेक जीव वाला होता है । ___३ प्रश्न-हे भगवन् ! उत्पल में वे जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? नैरयिक से, तिर्यञ्च से, मनुष्य से या देव से आकर उत्पन्न होते हैं ? . - ३ उत्तर-हे गौतम ! वे जीव नरक से आकर उत्पन्न नहीं होते, वे तिर्यञ्च से, मनुष्य से या देव से आकर उत्पन्न होते हैं। यहां प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के 'वनस्पतिकायिक जीवों में यावत् ईशान देवलोक तक के जीवों का उपपात होता है'--तक कहना चाहिये। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! उत्पल में वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! वे जीव, एक समय में जघन्य एक दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! उन उत्पल के जीवों को प्रतिसमय निकाला जाय तो कितने काल में वे पूरे निकाले जा सकते हैं ? .. ५ उत्तर-हे गौतम ! उत्पल के उन असंख्यात जीवों में से प्रतिसमय एक-एक जीव निकाला जाय, तो असंख्यात. उत्सपिणी और अवसपिणी काल बीत जाय तो भी वे सम्पूर्ण रूप से नहीं निकाले जा सकते । इस प्रकार किसी ने किया नहीं और कर भी नहीं सकता। ६ उत्तर-हे भगवन् ! उन उत्पल के जीवों के शरीर को अवगाहना कितनी बड़ी होती है ? .. ६ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट कुछ अधिक एक हजार योजन होती है। . विवेचन-जब उत्पल एक पत्र वाला होता है, तब उसकी वह अवस्था किशलय For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४६ भगवती सूत्र - श. ११ उ. १ उत्पल के जीव अवस्था से ऊपर की होती है। जब उसके अधिक पत्ते उत्पन्न होते हैं, तब वह अनेक जीव वाला हो जाता है । उसमें वे जीव नरक गति से आकर उत्पन्न नहीं होते, शेष तीन गतियों से आकर उत्पन्न होते हैं। वे एक समय में जघन्य एक दो या तीन, उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं । उन असंख्यातों का परिमाण बताने के लिये कहा गया है कि यदि उनमें से प्रति समय एक-एक जीव निकाला जाय तो असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी पूरी हो जाने पर भी वे निर्लेप नहीं हो सकते, अर्थात् सम्पूर्ण रूप से नहीं निकाले जा सकते । किसी ने ऐसा कभी किया नहीं और कर भी नहीं सकता, क्योंकि इतने समय तक न तो वे वनस्पति के जीव रहते हैं और न गणना करने वाला ही रहता है । इन जीवों के शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्य भाग जितनी और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार योजन की होती है। यहां टीका में प्रथम उद्देशक के अर्थ संग्रह की गाथाएँ दी गई हैं। वे इस प्रकार हैं उववाओ परिमाणं, अवहारुच्चत्त बंध वेदे य । उदए उदीरणाए, लेस्सा दिट्ठी य णाणे य ॥ १ ॥ जोगवओगे वण्ण रसमाई, ऊसासगे य आहारे । विरई किरिया बंधे, सण्ण कसायित्थि बंधे य ॥ २ ॥ सदिय अणुइंधे, संवेहाहार ठिइ समुग्धाए । मूलादी य, उववाओ सव्व जीवाणं ॥ ३ ॥ अर्थ - १ उपपात, २ परिमाण, ३ अपहार, ४ ऊँचाई - अवगाहना ५ बंध ६ वेद ७ उदय ८ उदीरणा ९ लेश्या १० दृष्टि ११ ज्ञान १२ योग १३ उपयोग १४ वर्ण रसादि १५ उच्छ्वास १६ आहार १७ विरति १८ क्रिया १९ बंधक २० संज्ञा २१ कषाय २२ स्त्री वेदादि बंध २३ संज्ञी २४ इन्द्रिय २५ अनुबंध २६ संवेध २७ आहार २८ स्थिति २९ समुद्घात ३० च्यवन और ३१ सभी जीवों का मूलादि में उपपात । इन द्वारों में से उपपात, परिमाण, अपहार और ऊँचाई अर्थात् शरीर की अवगाहनाइन चार द्वारों का वर्णन ऊपर किया गया है, शेष द्वारों का वर्णन आगे किया जायगा । ७ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्त किं बंधगा अबंधगा ? For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४७ भगवती सूत्र-श. ११ उ. १ उत्पल के जीव ......१८४० ७ उत्तर-गोयमा ! णो अबंधगा, बंधए वा, बंधगा वा । एवं जाव अंतराइयस्स। ८ प्रश्न-णवरं आउयस्स पुच्छा । ८ उत्तर-गोयमा ! १ बंधए वा, २ अबंधए वा, ३ बंधगा वा, ४ अबंधगा वा; ५ अहवा बंधए य अबंधए य ६ अहवा बंधए य अवंधगा य, ७ अहवा बंधगा य अबंधए य, ८ अहवा बंधगा य अबंधगा य एते अट्ठ भंगा । ९ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा णाणावरणिजस्स कम्मस्स किं वेयगा अवेयगा ? __९ उत्तर-गोयमा ! णो अवेयगा, वेयए वा वेयगा वा । एवं जाव अंतराइयस्स। .१० प्रश्न ते णं भंते ! जीषा किं सायावेयगा असायावेयगा ? - १० उत्तर-गोयमा ! सायावेयए वा, असायावेयए वा अट्ठ भंगा। ___ ११ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं उदई अणुदई ? ११ उत्तर-गोयमा ! णो अणुदई, उदई वा उदइणो वा । एवं जाव अंतराइयस्स । For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ११ उ, १ उत्पल के जीव १२ प्रश्न - - ते णं भंते! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं दरगा अणुदीरगा ? १२ उत्तर - गोयमा ! णो अणुदीरगा, उदीरए वा उदीरगा वा । एवं जाव अंतराइयस्स | णवरं वेयणिज्जा उएसु अट्ठ भंगा । कठिन शब्दार्थ - साथ|वेयगा सातावेदक - सुख का अनुभव करने वाले । भावार्थ - ७ प्रश्न - हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव, ज्ञानावरणीय कर्म के बंधक हैं या अबन्धक ? ७ उत्तर - हे गौतम! वे ज्ञानावरणीय कर्म के अबन्धक नहीं, बंधक हैं । एक जीव हो, तो एक बंधक है और अनेक जीव हों, तो अनेक बंधक हैं । इस प्रकार आयुष्य को छोड़कर अन्तराय कर्म तक समझना चाहिये । ८ प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव, आयुष्यकर्म के बन्धक हैं या अबन्धक ? ८ उत्तर - हे गौतम ! उत्पल का एक जीव बंधक है, . २ एक जीव्र अबंधक है, ३ अनेक जीव बंधक हैं, ४ अनेक जीव अबन्धक हैं । ५ अथवा एक जीव बन्धक और एक जीव अबन्धक है, ६ अथवा एक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं, ७ अथवा अनेक बन्धक और एक अबन्धक हैं, ८ अथवा अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं, - इस प्रकार ये आठ भंग होते हैं । १८४८ ९ प्रश्न - हे भगवन् !. वे उत्पल के जीव ज्ञानावरणीय कर्म के वेदक हैं, या अवेदक हैं ? ९ उत्तर - हे गौतम! वे अवेदक नहीं, वेदक हैं। एक जीव हो तो एक जीव वेदक है और अनेक जीव हो, तो अनेक जीव वेदक हैं । इसी प्रकार यावत् अन्तराय कर्म तक जानना चाहिये । १० प्रश्न - हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव सातावेदक हैं या असाता बेवक हैं ? १० उत्तर - हे गौतम ! एक जीव साता-वेदक है या एक जीव असाता For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ११ उ. १ उत्पल के जीव वेदक है । इत्यादि पूर्वोक्त आठ भंग जानने चाहिये । ११ प्रश्न - हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव ज्ञानावरणीय कर्म के उदय वाले हैं या अनुदय वाले ? ११ उत्तर - हे गौतम! वे जीव, ज्ञानावरणीय कर्म के अनुदय वाले नहीं, परन्तु एक जीव हो तो एक और अनेक जीव हों तो अनेक ( - सभी जीव ) उदय वाले हैं । इसी प्रकार यावत् अन्तराध कर्म तक जानना चाहिये । १२ प्रश्न - हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव, ज्ञानावर गीय-कर्म के उदीरक हैं या अनुदीरक ? उत्तर - हे गौतम! वे अनुदीरक नहीं, परन्तु एक जीव हो तो एक और अनेक जीव हों तो अनेक जीव उदीरक हैं । इसी प्रकार यावत् अन्तराय-कर्म तक जानना चाहिये । परन्तु इतनी विशेषता है कि वेदनीय कर्म और आयुष्यकर्म में पूर्वोक्त आठ भंग कहने चाहिये । ૮૪ विवेचन- उत्पल के प्रारम्भ में जब वह एक ही पत्ते वाला होता है, तब एक ही जीव होने से एक जीव ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बन्धक होता है, परन्तु जब वह अनेक पत्तों वाला हो जाता हैं तब उसमें अनेक जीव होने से अनेक जीव बन्धक होते हैं । आयुष्यकर्म तो सम्पूर्ण जीवन में एक ही बार बन्धता है, उस बन्धकाल के अतिरिक्त जीव आयुष्यकर्म का अबन्धक होता है । इसलिये आयुष्य-कर्म के बन्धक और अबन्धक की अपेक्षा आठ भंग होते. हैं अर्थात् असंयोगी चार और द्विक संयोगी चार भंग होते हैं । वेदक द्वार में भी एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा दो भंग होते हैं । परन्तु सातावेदनीय और असातावेदनीय की अपेक्षा पूर्वोक्त आठ भंग होते हैं। उदीरणा द्वार में छह कर्मों में दो भंग होते हैं और वेदनीय तथा आयुष्य-कर्म के पूर्वोक्त आठ भंग होते हैं । १३ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा किं कण्हलेसा णीललेसा काउलेसा तेउलेसा ? ११३ उत्तर - गोयमा ! कण्हलेसे वा जाव तेउलेसे वा कण्हलेस्सा For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • भगवती सूत्र - श. ११ उ. १ उत्पल के जीव वाणीललेस्मा वा काउलेस्सा वा तेउलेस्सा वा | अहवा कण्हलेसे यणीललेस्से य, एवं एए दुयासंजोग - तिया संजोग चउव कसंजोगेणं असीती भंगा भवंति । १४ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा किं सम्मद्दिट्टी मिच्छादिट्टी सम्मामिच्छादिट्टी ? १८५० १४ उत्तर-गोयमा ! णो सम्मद्दिट्टी णो सम्मामिच्छादिट्ठी, मिच्छादिट्ठी वा मिच्छादिट्टीणो वा । १५ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा किं णाणी अण्णाणी ? १५ उत्तर - गोयमा ! णो णाणी, अण्णाणी वा अण्णाणिणो वा। १६ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा किं मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी ? १६ उत्तर - गोयमा ! णो मणजोगी, णो वयजोगी, कायजोगी वा, कायजोगिणो वा । कठिन शब्दार्थ - असीती-अस्सी । भावार्थ - १३ प्रश्न - हे भगवन् ! वे उत्पल जीव, कृष्ण-लेश्या वाले, नील-लेश्या वाले, कापोत-लेश्या वाले या तेजोलेश्या वाले होते हैं ? १३ उत्तर - हे गौतम ! एक जीव कृष्ण-लेश्या वाला यावत् एक जीव तेजोलेश्या वाला होता है । अथवा अनेक जीव कृष्ण-लेश्या वाले या अनेक जीव नील-लेश्या वाले, या अनेक जीव कापोत-लेश्या वाले अनेक जीव तेजोलेश्या For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. ११ उ. १ उत्पल के जीव वाले होते हैं । अथवा एक जीव कृष्णलेश्या वाला और एक जीव नीललेश्या वाला होता है । इस प्रकार द्विक संयोगी, त्रिकसंयोगी और चतुःसंयोगी सब मिलकर अस्सी भंग होते हैं । १४ प्रश्न - हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं ? १४ उत्तर - हे गौतम! वे सम्यग्दृष्टि नहीं, सम्मग्मिथ्यादृष्टि भी नहीं, वे एक हों या अनेक, सभी जीव मिथ्यादृष्टि ही हैं । १५ प्रश्न - हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव ज्ञानी हैं, अथवा अज्ञानी ? १५ उत्तर - हे गौतम! वे ज्ञानी नहीं, परन्तु एक हो या अनेक, सभी जीव अज्ञानी हैं । १६ प्रश्न - हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव मनयोगी, वचन-योगी और काय-योगी हैं ? १६ उत्तर - हे गौतम! वे मन योगी नहीं, वचन योगी भी नहीं, वे एक हो या अनेक सभी जीव काययोगी हैं। 1 विवेचन - उत्पल वनस्पतिकायिक है, इसलिये उसमें पहले की चार लेश्याएँ पाई जाती हैं। एक संयोगी एक जीव के चार और अनेक जीवों के चार, ये एक संयोगी (असंयोगी) आठ भंग होते हैं । द्विक-संयोगी में एक और अनेक की चतुभंगी होती है । कृष्णादि चार लेश्याओं के छह द्विक-संयोग होते है । इन छह को पूर्वोक्त चतुभंगी से गुणा करने पर चौवीस भंग होते हैं । चार लेश्या के त्रिकसंयोगी आठ विकल्प होते हैं । इनको पूर्वोक्त चतुभंगी के साथ गुणा करने से त्रिक-संयोगी बत्तीस भंग होते हैं । चतुःसंयोगी सोलह भंग होते हैं । ये सब मिलकर अस्सी भंग होते हैं । वे इस प्रकार है १ कृष्ण का एक, ५ कृष्ण के बहुत, १८५१ असंयोगी आठ भंग -- ४ तेजो का एक, २ नील का एक, ६ कापोत का एक; ६ नील के बहुत, ७ कापोत के बहुत और ८ तेजो के बहुत, द्विक संयोगी २४ भंग १ कृष्ण का एक, नील का एक । २ कृष्ण का एक, नील के बहुत । ३ कृष्ण के बहुत, नीले का एक । ४ कृष्ण के बहुत, नील के बहुत । For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५२ भगवती सूत्र - श. ११ उ. १ उत्पल के जीव ५ कृष्ण का एक, कापोत का एक । ६ कृष्ण का एक, कापोत के बहुत । ७ कृण के बहुत, कापोत का एक । ८ कृष्ण के बहुत, कापोत के बहुत । ९ कृष्ण का एक, तेजो का एक । १० कृष्ण का एक, तेजो के बहुत । ११ कृष्ण के बहुत, तेजो का एक । १२ कृष्ण के बहुत, तेजो के बहुत । १३ नील का एक, कापोत का एक । १४ नील का एक, कापोत के बहुत । बहुत, १५ नील के १६ नील के बहुत, कारोत के बहुत । १७ नील का एक, तेजो का एक १८ नील का एक, तेजो के बहुत । १६ नील के बहुत, तेजो का एक । २० नील के बहुत, तेजो के बहुत । २१ कापोत का एक, तेजो का एक । २२ कापोत का एक तेजो के बहुत । २३ क. पोत के बहुत, तेजो का एक । २४ कापोत के बहुत, तेजो के बहुत । त्रिक- संयोगी ३२ भंग १ कृष्ण का एक, नील का एक, कापोत का एक । २ कृष्ण का एक, नील का एक, कापोत के बहुत । ३ कृष्ण का एक, नील के बहुत, कापोत का एक । ४ कृष्ण का एक, नील के बहुत, कापोत के बहुत । ५ कृष्ण के बहुत, नील का एक, कापोत का एक । ६ कृष्ण के बहुत, नील का एक, कापोत के बहुत । ७ कृष्ण के बहुत, नील के बहुत, कापोत का एक ८ कृष्ण के बहुत, नील के बहुत, कापात के बहुत । ९ कृष्ण का एक, नील का एक, तेजो का एक । १० कृष्ण का एक, नील का एक, तेजो के बहुत । ११ कृष्ण का एक, नील के बहुत, तेजो का एक । १२ कृष्ण का एक, नील के बहुत, तेजो का बहुत । १३ कृष्ण के बहुत, नील का एक, तेजो का एक । १४ कृष्ण के बहुत, नील का एक, तेजो के बहुत । १५ कृष्ण के बहुत, नील के बहुत, तेजो का एक । १६ कृष्ण के बहुत, नील के तेजो के बहुत । बहुत, १७ कृष्ण का एक, कापोत का एक, तेजो का एक . कापीत का एक For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--. ११६.१ उत्पल के जीव १८५३ १८ कृष्ण का एक, कापोत का एक, तेजो के बहुत । १६ कृष्ण का एक, कापोत के बहुत, तेजो का एक । २० कृष्ण का एक, कापोत के बहुत, तेजो के बहुत । २१ कृष्ण के बहुत, कापोत का एक, तेजो का एक । २२ कृष्ण के बहुत, कापोत का एक, तेजो के बहुत । २३ कृष्ण के बहुत, कापोत के बहुत, तेजो का एक । २४ कृष्ण के बहुत, कापोत के बहुत, तेजो के बहुत । २५ नील का एक, कापोत का एक, तेजो का एक । २६ नील का एक, कापोत का एक, तेजो के बहुत । २७ नील का एक, कापोत के बहुत, तेजो का एक । २८ नील का एक, कापोत के बहुत, तेजो के बहुत। २९ नील के बहुत, कापोत का एक, तेजो का एक । ३० नील के बहुत, कापोत का एक, तेजो के बहुत । ३१ नील के बहुत, कापोत के बहुत, तेजो का एक । ३२ नील के बहुत, कापोत के बहुत, तेजो के बहुत । चतुःसंयोगी १६ भंग, कृष्ण का एक, नील का एक, कापोत का एक, तेजो का एक । २ कृष्ण का एक, नील का एक, कापोत का एक, तेजो के बहत । ३ कृष्ण का एक, नील का एक, कापोत के बहुत, तेजो का एक । ४ कृष्ण का एक, नील का एक, कापोत के बहुत, तेजो के बहुत । ५ कृष्ण का एक, नील के बहुत, कापोत का एक, तेजो का एक । ६ कृष्ण का एक, नील के बहुत, कापोत का एक, तेजो के बहुत । ७ कृष्ण का एक, नील के बहुत, कापोत के बहुत, तेजो का एक । ८ कृष्ण का एक, नील के बहुत, कापोत के बहुत, तेजो के बहुत । ९ कृष्ण के बहुत, नील का एक, कापीत का एक, तेजो का एक । १० कृष्ण के बहुत, नील का एक, कापोत का एक, तेजो के बहुत । ११ कृष्ण के बहुत, नील का एक, कापोत के बहुत, तेजो का एक । १२ कृष्ण के बहुत, नील का एक, कापोत के बहुत, तेजो के बहुत । For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५४ भगवती सूत्र-श. ११ उ. १ उत्पल के जीव १३ कृष्ण के बहुत, नील के बहुत, कापोत का एक, तेजो का एक । १४ कृष्ण के बहुत, नील के बहुत, कापोत का एक, तेजो के बहुत । १५ कृष्ण के बहुत, नील के बहुत, कापोत के बहुत, तेजो का एक । १६ कृष्ण के बहुत, नील के बहुत, कापोत के बहुत, तेजो के बहुत । दृष्टिद्वार, ज्ञान द्वार और योग द्वार का विषय स्पष्ट है । उत्पल के जीव एकान्त मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी हैं। वे एकेन्द्रिय हैं, इसलिये उनके केवल एक काययोग ही है, मन योग और वचन योग नहीं हैं। १७ प्रश्न ते णं भंते ! जीवा किं सागारोवउत्ता, अणागारोवउत्ता? १७ उत्तर-गोयमा ! सागारोवउत्ते वा, अणागारोवउत्ते वा अट्ठ भंगा। १८ प्रश्न तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा कइवण्णा, कह. गंधा, कहरसा, कइफासा पण्णत्ता ? १८ उत्तर-गोयमा ! पंचवण्णा पंचरसा दुगंधा अट्ठफासा पण्णत्ता । ते पुण अप्पणा अवण्णा अगंधा अरसा अफासा पण्णत्ता। १९ प्रश्न ते णं भंते ! जीवा किं उस्सासगा णिस्सासगा णोउस्सासंणिस्सासगा ? १९ उत्तर-गोयमा ! उस्सासए वा णिस्सासए वा णोउस्सासणिस्सासए वा; उस्सांसगां वा णिस्सासगा . वा णोउस्सासणिस्सा. For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ११ उ. ! उपन्य के जीव १८५', मगा वा, अहया उस्सासए य णिस्सासए य, अहवा उस्सासए य णोउस्सासणिस्मासए य, अहवा णिस्सासए य णोउस्सासणिरसासए य; अहवा उस्सासए य णिस्सासए य गोउस्मासणिस्सासए य । अट्ठ भंगा । एए छवोसं भंगा भवंति। २० प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा किं आहारगा अणाहारगा ? २० उत्तर-गोयमा ! णो अणाहारगा, आहारए वा, ,अणाहारए वा एवं अट्ट भंगा । कठिन शब्दार्य-सागारोवउत्ता-साकागेपयुक्न-ज्ञानोपयोग महित. अणागारोवउत्ता-अनाकारोपयुक्त-दर्शनोपयोग सहित ।। भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव साकारोपयोग (ज्ञानोपयोग) वाले हैं या अनाकारोपयोग (दर्शनोपयोग) वाले है ? : १७ उत्तर-हे गौतम ! एक जीव साकारोपयोग वाला है अथवा एक जीव अनाकारोपयोग वाला है । इत्यादि पूर्वोक्त आठ भंग कहना चाहिये। १८ प्रश्न-हे भगवन् ! उन उत्पल के जीवों का शरीर कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श वाला है ? १८ उत्तर-हे गौतम ! पाँच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श वाला है । जीव स्वयं वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श रहित है। १९ प्रश्न-हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव उच्छ्वासक हैं, निःश्वासक है, या अनुच्छ्वासकनिश्वासक हैं ? १९ उत्तर-हे गौतम ! १ एक जीव उच्छ्वासक है, या २ एक जीव निश्वासक है, ३ या एक जीव अनुच्छ्वासकनिश्वासक है, ४ या अनेक जीव उच्छ्वासक हैं, ५ या अनेक जीव निःश्वासक हैं, ६ या अनेक जीव अनुच्छ्वासकनिश्वासक हैं, (७-१०) अथवा एक उच्छ्वासक और एक For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५६ . भगवती सूत्र-स. १५ उ. १. उत्पल के जीव ... निश्वासक है, इत्यादि (११-१४). अथवा एक उच्छ्वासक और एक अनुच्छ्वासकनिश्वासक है इत्यादि (१५-१८) अथवा एक निःश्वासक और एक अनुच्छ्वासकनिश्वासक है, इत्यादि ।(१९-२६)अथवा एक उच्छ्वासक, एक निश्वासक और एक अनुच्छ्वासकनिश्वासक है, इत्यादि आठ भंग होते हैं। ये सब मिलकर छब्बीस भंग हो जाते हैं। २० प्रश्न-हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव आहारक है या अनाहारक ? २० उत्तर-हे गौतम ! वे सब अनाहारक नहीं, किन्तु कोई एक जीव आहारक है अथवा कोई एक जीव अनाहारक है, इत्यादि आठ भंग कहने चाहिये। . विवेचन-पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान को 'साकारोपयोग' कहते हैं और चार दर्शन को 'अनाकारोपयोग' कहते हैं। उत्पल के शरीर वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले हैं, किंतु वे जीव वर्णादि से रहित हैं, क्योंकि जीव तो अमूर्त हैं। अपर्याप्त अवस्था में जीव अनुच्छ्वासकनिश्वासक होता है । उच्छ्वासकनिश्वासक द्वार के छब्बीस भंग बनते हैं । अयोगी एक और अनेक के योग से छह भंग बनते हैं । द्विकसंयोगी बारह और त्रिक-संयोगी आठ भंग बनते हैं । वे इस प्रकार हैं असंयोगी ६ भंग५ उच्छ्वासक एक । २ निःश्वासक एक। ३ नोउच्छ्वासकनिःश्वासक एक । ४ उच्छ्वासक बहुत। ५ निःश्वासक बहुत। ६ नोउच्छ्वासकनिःश्वासक बहुत । ____द्विक संयोगी १२ भंग-- १ उच्छ्वासक एक, निःश्वासक एक । ७ उच्छ्वासक बहुत, नोउच्छ्वासकनिःश्वासक एक। २ उच्छ्वासक एक, निःश्वासक बहुत । ८ उच्छ्वासक बहुत, नोउच्छ्वासकनिःश्वासक बहुत। ३ उच्छ्वासक बहुत, निःश्वासक एक । ६ निःश्वासक एक, नोउच्छ्वासकनिःश्वासक एक । ४ उच्छ्वासक बहुत, निःश्वासक बहुत। १० निःश्वासक एक, नोउच्छ्वासकनिःश्वासक बहुत। ५ " एक, नोउच्छ्वासकनिःश्वासक एक । ११" बहुत, नोउच्छ्वासकनिःश्वासक एक । ६ " एक, नोउच्छ्वासकनिःश्वासक बहुत । १२" बहुत, नोउच्छ्वासकनिःश्वासक बहुत । For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवती मूत्र-स.११ उ. १ उत्पल के जीव १८५७ त्रिकर्मयोगी ८ भंग, उच्छ्वासक एक, निःश्वासक एक, नोउच्छ्वासनिःश्वासक एक । २ उच्छ्वामक एक, निःश्वासक एक, नोउच्छ्वासकनिःश्वासक बहुत । ३ उच्छ्वासक एक, निःश्वासक बहुत, नोउच्छ्वासकनिःश्वासक एक । ४ उच्छ्वासक एक, निःश्वासक बहुत, नोउच्छ्वासकनिःश्वासक बहुत । ५ उच्छ्वासक वत, निःश्वासक एक, नोउच्छ्वासकनिःश्वासक एक । ६ उच्छ्वासक बहुत, निःश्वामक एक, नोउच्छ्वासकनिःश्वासक बहुत । ७ उच्छ्वासक बहुत, निःश्वासक वहृत, नोउच्छ्वासकनिःश्वासक एक । ८. उच्छ्वासक बहुत, नि:श्वामक बहुत, नोउच्छ्वासकनिःश्वासक बहुत । आहारक द्वार के विषय में यह समझना चाहिये कि विग्रह गति में जीव अनाहारक होता है और शेष समय में आहारक होता है, इसलिये आहारक अनाहारक के आठ भंग कहे गये हैं। २१ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा किं विरया अविरया विरयाविरया ? .२१ उत्तर-गोयमा ! णो विरया, णो विरयाविरया, अविरिए वा अविरया वा। २२ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा किं सकिरिया अकिरिया ? २२ उत्तर-गोयमा ! णो अकिरिया, सकिरिए वा सकिरिया वा। २३ प्रश्न ते णं भंते ! जीवा किं सत्तविहबंधगा अट्टविहबंधगा ? २३ उत्तर-गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्टविहबंधए वा । For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५८ भगवती सूत्र-श. ११ उ. १ उत्पल के जीव अट्ठ भंगा। __२४ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा किं आहारसण्णोवउत्ता भयसण्णो. वउत्ता मेहुणसण्णोवउत्ता, परिग्गहसण्णोवउत्ता? २४ उत्तर-गोयमा ! आहारसण्णोवउत्ता वा असीती भंगा। २५ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा किं कोहकसायी माणकसायी मायाकसायी लोभकसायी ? २५ उत्तर-असीती भंगा। २६ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा किं इत्थिवेयगा पुरिसवेयगा णपुंसगवेयगा ? २६ उत्तर-गोयमा ! णो इत्थिवेयगा णो पुरिसवेयगा, गपुंसगवेयए वा णपुंसगवेयगा वा। ___२७ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा किं इत्थिवेयबंधगा पुरिसवेयबंधगा णपुंसगवेयबंधगा ? २७ उत्तर-गोयमा ! इथिवेयबंधए वा पुरिसवेयबंधए वा णपुं. सगवेयबंधए वा छवीसं भंगा। २८ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा किं सण्णी असण्णी ? २८ उत्तर-गोयमा ! णो सण्णी, असण्णी वा असण्णीणो वा । २९ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा किं सइंदिया अणिदिया ? २९ उत्तर-गोयमा ! णो अणिदिया, सइंदिए वा सइंदिया वा। For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ११ उ. १ उत्पल के जीव १८५९ कठिन शब्दार्थ-विरया-विरत । भावार्थ-२१ प्रश्न-हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव सर्वविरत हैं, अविरत हैं, या विरताविरत हैं ? २१ उत्तर-हे गौतम ! वे सर्वविरत नहीं और विरताविरत भी नहीं, किन्तु एक जीव अथवा अनेक जीव अविरत ही हैं। २२ प्रश्न-हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव सक्रिय हैं, या अक्रिय ? २२ उत्तर-हे गौतम ! वे एक हो या अनेक, अक्रिय नहीं, सक्रिय हैं। २३ प्रश्न-हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव सप्तविध बन्धक हैं, या अष्टविध बन्धक ? २३ उत्तर-हे गौतम ! वे जीव सप्तविध बन्धक हैं अथवा अष्टविध बन्धक हैं । यहाँ पूर्वोक्त आठ भंग कहना चाहिये। २४ प्रश्न-हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव, आहार संज्ञा के उपयोग वाले, भयसंज्ञा के उपयोग वाले, मैथुन संज्ञा के उपयोग वाले और परिग्रह संज्ञा के उपयोग वाले हैं ? २४ उत्तर-हे गौतम ! वे आहारसंज्ञा के उपयोग वाले हैं, इत्यादि लेश्याद्वार के समान अस्सी भंग कहना चाहिये। २५ प्रश्न-हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव, क्रोध कषायो, मान कषायी, माया. कषायी और लोभ कषायी हैं ? ___२५ उत्तर-हे गौतम ! यहाँ भी पूर्वोक्त अस्सी भंग कहना चाहिये । २६ प्रश्न-हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव स्त्रीवेद वाले, पुरुषवेद वाले और नपुंसक वेद वाले हैं। . २६ उत्तर-हे गौतम ! वे स्त्री वेद वाले नहीं, पुरुष वेद वाले भी नहीं, परन्तु एक जीव हो या अनेक, सभी नपुंसक वेद वाले हैं। २७ प्रश्न-हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव स्त्री-वेद के बन्धक, पुरुषवेद बन्धक और नपुंसक-वेद के बन्धक हैं ? - २७ उत्तर-हे गौतम ! वे स्त्री-वेद बन्धक, पुरुष वेद-बन्धक और नपुं For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६. भगवती सूत्र-श. ११ उ. १ उत्पल के जीव सक-वेद बन्धक हैं । यहाँ उच्छ्वास द्वार के अनुसार छब्बीस भंग कहना चाहिये । २८ प्रश्न-हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव संजी हैं या असंज्ञी ? २८ उत्तर-हे गौतम ! वे संज्ञी नहीं, किन्तु एक हों या अनेक जीव, वे असंज्ञी ही हैं। २९ प्रश्न-हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव सेन्द्रिय हैं या अनिन्द्रिय ? २९ उत्तर-हे गौतम ! वे अनिन्द्रिय नहीं, किन्तु एक जीव सेन्द्रिय है अथवा अनेक जीव सेन्द्रिय हैं। विवेचन-यहाँ विरति द्वार, क्रिया द्वार, बन्धक द्वार, सज्ञा द्वार, कपाय द्वार, वेद द्वार वेदवन्ध द्वार, संजी द्वार और इन्द्रिय द्वार, का कथन किया गया है । ३० प्रश्न-से णं भंते ! उप्पलजीवेत्ति कालओ केवचिरं होइ ? ३० उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असं. खेज कालं। ____३१ प्रश्न-से णं भंते ! उप्पलजीवे पुढविजीवे, पुणरवि उप्पलजीवेत्ति केवइयं कालं सेवेजा ? केवइयं कालं गइरागई करेजा ? ___३१ उत्तर-गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं असंखेजाइं भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं असंखेनं कालं, एवइयं कालं सेवेजा एवइयं कालं गइरागई करेज्जा। ३२ प्रश्न-से णं भंते ! उप्पलजीवे, आउजीवे०? ३२ उत्तर-एवं चेव, एवं जहा पुढविजीवे भणिए तहा जाव For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ११ उ. १ उत्पल के जीव वाउजीवे भाणियब्वे । ३३ प्रश्न-से णं भंते ! उप्पलजीवे मे वणस्सइजीवे, से पुणरवि उप्पलजीवेत्ति केवइयं कालं सेवेजा-केवड्यं कालं गहरागई करेजा ? ३३ उत्तर-गोयमा ! भवादेसेणं जहणेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अणंताई भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतो. मुहुत्ता, उक्कोसेणं अणंतं कालं तरूकालं, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवड़यं कालं गइरागई करेजा। ____३४ प्रश्न-मे णं भंते ! उप्पलजीवे बेइंदियजीवे पुणरवि उप्पलजीवे त्ति केवइयं काल सेवेज्जा केवइयं कालं गइरागई करेजा ? ... ३४ उत्तर-गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं संखेजाइं भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतो. मुहुत्ता, उक्कोसेणं संखेनं कालं, एवइयं कालं सेवेज्जा एवइयं कालं गइरागई करेज्जा । एवं तेइंदियजीवे, एवं चउरिंदियजीवे वि । ३५ प्रश्न-से णं भंते ! उप्पलजीवे पंचेंदियतिरिक्वजोणिय. जीवे पुणरवि उप्पलजीवेत्ति पुच्छा। ३५ उत्तर-गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुताई, उक्कोलेणं पुवकोडिपुहुत्तं, एवइयं कालं सेवेज्जा-एवइयं कालं गइरागई करेज्जा । एवं मणुस्सेण वि समं जाव एवइयं कालं For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६२ भगवती सूत्र-श. ११ उ. १ उत्पल के जीव गइरागई करेजा। कठिन शब्दार्थ-भवादेसेणं-भवादेश से अर्थात् भव की अपेक्षा, गइरागई-गति आगति-गमनागमन । भावार्थ-३० प्रश्न-हे भगवन् ! वह उत्पल का जीव, उत्पलपने कितने काल तक रहता है ? ३० उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्य काल तक रहता है। • ३१ प्रश्न-हे भगवन् ! वह उत्पल का जीव, पृथ्वीकाय में जावे और पुनः उत्पल में आवे, इस प्रकार कितने काल तक गमनागमन करता है ? ३१ उत्तर-हे गौतम ! भवादेश (भव की अपेक्षा) से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट असंख्यात भव तक गमनागमन करता है । कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक गमनागमन करता है। ३२ प्रश्न-हे भगवन् ! वह उत्पल का जीव, अप्कायपने उत्पन्न हो कर पुनः उत्पल में आवे, तो इस प्रकार कितने काल तक गमनागमन करता है ? ___ ३२ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार पृथ्वीकाय के विषय में कहा है, उसी प्रकार अप्काय के विषय में यावत् वायुकाय तक कहना चाहिए। ३३ प्रश्न-हे भगवन् ! वह उत्पल का जीव वनस्पति में आवे और पुनः उसी में उत्पन्न हो, इस प्रकार कितने काल तक गमनागमन करता है ? ३३ उत्तर-हे गौतम ! भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट अनन्त भव तक गमनागमन करता है, कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल (वनस्पति काल) तक गमनागमन करता है। ३४ प्रश्न-हे भगवन् ! वह उत्पल का जीव बेइंद्रिय में जाकर पुनः उत्पल में ही आवे, तो इस प्रकार कितने काल तक गमनागमन करता है ? ३४ उत्तर-हे गौतम ! भवादेश से जघन्य दो भव, उत्कृष्ट संख्यात भव और कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात काल तक गमना For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ११ उ. १ उत्पल के जीव गमन करता है । इसी प्रकार तेइंद्रिय और चौइंद्रिय के विषय में भी जानना चाहिये । ३५ प्रश्न - हे भगवन् ! वह उत्पल का जीव, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनि में जाकर पुनः उत्पलपने उत्पन्न हो, तो इस प्रकार कितने काल तक गमनागभन करता है ? १८६३ ३५ उत्तर - हे गौतम! भवादेश से जवन्य दो भव, उत्कृष्ट आठ भव और कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्वकाल तक गमनागमन करता है । इसी प्रकार मनुष्य योनि का भी जानना चाहिये । विवेचन - उत्पल का जीव उत्पलपने उत्पन्न होता रहे, इसे 'अनुवन्ध' कहते हैं । उत्पल का जीव पृथ्वीकायादि दूसरी कायों में उत्पन्न होकर पुनः उत्पलपने उत्पन्न हो, इसे 'काय संवेध' कहते हैं । यह भवादेश और कालादेश की अपेक्षा से दो प्रकार का है । उत्पल का जीव भवादेश की अपेक्षा कितने भव करता है और कालादेश की अपेक्षा कितने काल तक गमनागमन करता है, इत्यादि बातों का वर्णन इस सूत्र में किया गया है । ३६ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेति ? ३६ उत्तर - गोयमा ! दव्वओ अनंतपएसियाई दव्वाई, एवं जहा आहारुस वणस्सइकाइयाणं आहारो तहेव जाव सव्वप्पणयाए आहारमाहारेंति । णवरं गियमा छद्दिसिं सेसं तं चैव । ३७ प्रश्न - तेसि णं भंते! जीवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता । ३७ उत्तर - गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दस वाससहस्साई । ३८ प्रश्न - तेसि णं भंते ! जीवाणं कइ समुग्धाया पण्णत्ता ? ३८ उत्तर - गोयमा ! तओ समुग्धाया पण्णत्ता । तं जहा For Personal & Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६४ भगवती सूत्र-श. ११ उ. १ उत्पल के जीव mommmmmmmmmmminimmmmmmmmmm वेयणासमुग्याए, कसायसमुग्घाए, मारणंतियसमुग्घाए। ३९ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा मारणंतियसमुग्घाएणं किं समोहया मरंति, असमोहया मरंति ? ३९ उत्तर-गोयमा ! समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति। ४० प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति कहिं उववज्जति ? किं गैरइएसु उववज्जति, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति० ? एवं जहा वक्कंतीए उव्वट्टणाए वणस्सइकाइयाणं तहा भाणियव्वं । • ४१ प्रश्न-अह भंते ! सब्वे पाणा सव्वे भूया - सव्वे जीवा सव्वे सत्ता उप्पलमूलत्ताए उप्पलकंदत्ताए उप्पलणालत्ताए उप्पलपत्तत्ताए उप्पलकेसरत्ताए उप्पलकण्णियत्ताए उप्पलथिभुगत्ताए उववण्णपुवा ? ४१ उत्तर-हंता, गोयमा ! असइं अदुवा अणंतखुत्तो। * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति* ॥ पढमो उप्पलउद्देसओ समत्तो । कठिन शम्दार्थ-उववण्णपुण्या-उत्पन्नपूर्व-पहले उत्पन्न हुए, सम्वप्पणयाए-सभी नात्मप्रदेशों से, उम्पट्टित्ता-उद्वर्तन कर-निकल कर । भावार्थ-३६ प्रश्न-हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव किस पदार्थ का आहार For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ११ उ. १ उत्पल के जीव १८९५ करते हैं ? ३६ उत्तर-हे गौतम ! वे जीव, द्रव्य से अनन्त प्रदेशी द्रव्यों का आहार करते हैं, इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र के अट्ठाइसवें पद के पहले आहारक उद्देशक में वणित वर्णन के अनुसार वनस्पतिकायिकों का आहार यावत 'वे सर्वात्मना (सर्वप्रदेशों से) आहार करते हैं'-तक कहना चाहिए, किंतु वे नियमा छह दिशा का आहार करते है । शेष सभी वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। ३७ प्रश्न-हे भगवन् ! उन उत्पल के जीवों की स्थिति कितने काल की है ? ३७ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की है। ३८ प्रश्न-हे भगवन् ! उत्पल के जीवों में कितने समुद्घात कहे गये हैं ? ३८ उत्तर-हे गौतम ! उनमें तीन समुद्घात कहे गये हैं, यथा-वेदना । समुद्घात, कषाय समुद्यात और मारणान्तिक समुद्घात ।। . ३९ प्रश्न-हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव मारणान्तिक समुद्घात द्वारा समवहत होकर मरते हैं या असमवहत होकर ? ३९ उत्तर-हे गौतम ! वे समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी। ४० प्रश्न-हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव मर कर तुरन्त कहाँ जाते हैं और कहाँ उत्पन्न होते हैं? क्या नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, तिर्यञ्चयोनिकों में, मनुष्यों में या देवों में उत्पन्न होते हैं। _____४० उत्तर-हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद के उद्वर्तना प्रकरण में वनस्पतिकायिक जीवों के वणित वर्णन के अनुसार यहाँ भी कहना चाहिये। ४१ प्रश्न-हे भगवन् ! सभी प्राण, सभी भूत, सभी जीव और सभी सत्त्व, उत्पल के मूलपने, कन्दपने, नालपने, पत्रपने, केसरपने, कणिकापने और थिभुगपने (पत्र के उत्पत्ति स्थानपने) पहले उत्पन्न हुए ? .. For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६६ भगवती सूत्र-श. ११ उ. २ शालूक के जीव ४१ उत्तर-हाँ गौतम ! सभी प्राण, भूत, जीव, और सत्त्व अनेक बार अथवा अनन्त बार पूर्वोक्त रूप से उत्पन्न हुए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । _ विवेचन-आहार द्वार-पृथ्वीकायिकादि जीव सूक्ष्म होने से निष्कुटों (लोक के अन्तिम कोण) में उत्पन्न हो सकते हैं, इसलिये वे कदाचित् तीन दिशा से, कदाचित् चार दिशा से और कदाचित् पाँच दिशा से आहार लेते हैं तथा निर्व्याघात आश्रयी छहों दिशा का आहार लेते हैं, किंतु उत्पल के जीव बादर होने से वे निष्कुटों में उत्पन्न नहीं होते । अतः वे नियम से छह दिशा का आहार लेते हैं। उत्पल के जीव, वहाँ से मरकर तुरन्त तिर्यञ्च गति में या मनुप्य गति में जन्म लेते हैं, किन्तु देवगति और नरक गति में उत्पन्न नहीं होते । समस्त जीव उत्पल के मूल, नाल, कन्दादिपने अनेक बार अथवा अनन्त वार उत्पन्न . हो चुके हैं। इस प्रकार उत्पल के सम्बन्ध में यहाँ तेतीस द्वार कहे गये हैं । ॥ ग्यारहवां शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक ११ उद्देशक २ शालूक के जीव १ प्रश्न-सालुए णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे अणेगजीवे ? १ उत्तर-गोयमा ! एगजीवे । एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया अपरिसेसा भाणियव्वा जाव 'अणंतखुत्तो'; णवरं सरीरोगाहणा For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ३ पलास के जीव १८६७ जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उपकोसेणं धणुपुहुत्तं । सेसं तं चेव । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति के ॥ वीओ उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-अपरिसेसा-समस्त । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! एक पत्ते वाला शालूक (वनस्पति विशेष उत्पल कन्द) एक जीव वाला है या अनेक जीव वाला ? १ उत्तर-हे गौतम ! वह एक जीव वाला है। इस प्रकार उत्पलोद्देशक की सभी वक्तव्यता यावत् 'अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं'-तक कहनी चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि शालूक के शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व है । शेष पूर्ववत् जानना चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । ॥ ग्यारहवें शतक का द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण । शतक ११ उद्देशक ३ पलास के जीव १ प्रश्न-पलासे णं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे ? १ उत्तर-एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया अपरिसेसा भाणियव्वा । For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६८ णवरं सरीरोगाहणा जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्को - सेणं गाउयपुत्ता, देवा एएस चेव ण उववजंति । २ प्रश्न - लेस्सासु ते णं भंते! जीवा किं कण्हलेस्सा, णीललेस्सा, काउलेस्सा ? २ उत्तर - गोयमा ! कण्हलेस्से वा णीललेस्से वा काउलेस्से वा छवी भंगा | सेसं तं चेव । * भगवती सूत्र - श. ११ उ. ३ पलास के जीव ॥ सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति तइओ उसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ - पलासे - पलाश - ढाक ( खाखरा ) का वृक्ष । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! पलास वृक्ष प्रारम्भ में जब वह एक पत्ते वाला होता है, तब एक जीव वाला होता है या अनेक जीव वाला ? १ उत्तर - हे गौतम ! उत्पल उद्देशक की सारी वक्तव्यता कहनी चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि पलास के शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट गाऊ पृथक्त्व है । देव चवकर पलास वृक्ष में उत्पन्न नहीं होते । २ प्रश्न - हे भगवन् ! पलास वृक्ष के जीव कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले और कापोत लेश्या वाले होते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! वे कृष्ण लेश्या वाले, नील लेश्या वाले या कापोत लेश्या वाले होते हैं । इस प्रकार यहाँ उच्छ्वासक द्वार के समान छब्बीस भंग कहने चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कहकर गौतम स्वामी प्रावत् विचरते हैं । For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ४ कुंभिक के जीव १८६६ विवेचन-देवों से चवकर जीव वनस्पतिकाय में उत्पन्न होते हैं और वनस्पति में भी जो प्रशस्त वनस्पति है, उसी में उत्पन्न होते हैं, अप्रशस्त में उत्पन्न नहीं होते । उत्पल प्रशस्त वनस्पति मानी गई है, इसलिये देव-गति मे चवा हुआ जीव उसमें उत्पन्न होता है। जब तेजो लेश्या युक्त देव, देवभव मे चवकर वनस्पति में उत्पन्न होता है, तब उसमें तेजोलेश्या पाई जाती है । प्रगस्त वनस्पति में पलास नहीं गिना गया है, इसलिये उसमें देव भव से चवा हुआ जीव उत्पन्न नहीं होता। इसलिये उममें तेजो-लेण्या भी नहीं पाई जाती, पहले की तीन अप्रगत लेश्याएँ ही पाई जाती हैं, इसलिथे उसके छब्बीस भंग होते हैं । ॥ ग्यारहवें शतक का तृतीय उद्देशक सम्पूर्ण ।। शतक ११ उद्देशक ४ कंभिक के जीव १ प्रश्न-कुंभिए णं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे ? १ उत्तर-एवं जहा पलासुद्देसए तहा भाणियब्वे । णवरं ठिइ जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वासपुहत्तं । सेसं तं चेव । . सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! एक पत्ते वाला कुंभिक (वनस्पति विशेष) एक जीव वाला होता है या अनेक जीव वाला ? १ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार पलास के विषय में तीसरे उद्देशक में कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिये, इसमें इतनी विशेषता है कि For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ५ नालिक के जीव कुंभिक की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वर्ष पृथक्त्व (दो वर्ष से नौ वर्ष तक) है। शेष सभी पूर्ववत् जानना चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ ग्यारहवें शतक का चतुर्थ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक ११ उद्देशक ५ नालिक के जीव १ प्रश्न-णालिए णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे अणेगजीवे ? १ उत्तर-एवं कुंभिउद्देसगवत्तव्वया गिरवसेसं भाणियव्वा । ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॐ ॥ पंचमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! एक पत्ते वाला नालिक (नाडिक) एक जीव वाला है या अनेक जीव वाला ? १ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार चौथे कुंभिक उद्देशक में कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी सभी वक्तव्यता कहनी चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ ग्यारहवें शतक का पंचम उद्देशक सम्पूर्ण ॥ .. For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १९ उद्देशक पद्म के जीव १ प्रश्न - परमे णं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे, अणेगजीवे ? १ उत्तर - एवं उप्पलुद्दे सगवत्तत्व्वया णिरवसेसा भाणियव्वा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ छट्टो उस समत्तो ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! एक पत्ते वाला पद्म, एक जीवं वाला होता है या अनेक जीव वाला ? १ उत्तर - हे गौतम ! उत्पल उद्देशकानुसार सभी वर्णन करना चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है - ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । ॥ ग्यारहवें शतक का छठा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १२ उद्देशक ७ कर्णिका के जीव १ प्रश्न - कण्णिए णं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे, अणेगजीवे ? For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७२ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ८ नलिन के जीव १ उत्तर-एवं चेव गिरवसेसं भाणियव्वं । ॐ से भंते ! सेवं भंते ! त्ति ® ॥ सत्तमो उद्देसो समत्तो ॥ ___ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! एक पत्ते वाली कणिका (वनस्पति विशेष) एक जीव वाली है या अनेक जीव वाली ? १ उत्तर-हे गौतम ! उत्पल उद्देशक के समान सभी वर्णन करना चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ ग्यारहवें शतक का सप्तम उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक ११ उद्देशक ८ . नलिन के जीव १ प्रश्न-णलिणे णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे, अणेगजीवे ? १ उत्तर-एवं चेव णिरवसेसं जाव 'अणंतखुत्तो' । * सेवं ! भंते ! सेवं भंते ! ति* ॥ अट्ठमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! एक पत्ते वाला नलिन (कमल विशेष) For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - दा ११ उ. ८ नलिन के जीव एक जीव वाला होता है या अनेक जीव वाला ? १ उत्तर - हे गौतम! उत्पल उद्देशक के अनुसार सभी वर्णन करना चाहिये, यावत् 'सभी जीव अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं - - तक कहना चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - पहले उद्देशक से लेकर आठवें उद्देशक तक उत्पलादि आठ वनस्पतिकायिक जीवों का वर्णन किया गया है। उनके पारस्परिक अन्तर को बतलाने वाली ये तीन गाथाएँ हैं । यथा सालम्मि धणुपुहत्तं होइ, पलासे य गाउ य पुहतं । जोयणसहस्समहियं, अवसेसाणं तु छण्हं पि ॥ १ ॥ कुंभिए नालियाए, वासपुहत्तं ठिई उ बोद्धव्वा । दस-वास सहस्साइं अवसेसाणं तु छण्हं पि ॥ २॥ कुंभिए नालियाए होंति, पलासे य तिष्णि लेसाओ । चत्तारि उ लेसाओ, अवसेसाणं तु पंचन्हं ||३|| १८७३ अर्थ - शालूक की उत्कृष्ट अवगाहना धनुषपृथक्त्व और पलास की उत्कृष्ट अवगाहमा गाऊ पृथक्व होती हैं । शेष उत्पल, कुम्भिक, नालिक, पद्म, कर्णिका और नलिन इन छह की उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन से कुछ अधिक होती है ॥ १ ॥ कुम्भिक और नालिक की उत्कृष्ट स्थिति वर्ष - पृथक्त्व होती है और शेष छह की उत्कृष्ट स्थिति दस हजार वर्ष की होती है || २ || कुम्भिक, नालिक और पलास में पहले की तीन लेश्याएँ होती हैं, शेष पांच में पहले की चार लेश्याएँ होती हैं ।। ३ ।। यद्यपि गाथा में तो शालूक और पलास योजन की अवगाहना बताई है किन्तु मूल पाठ उद्देशक और कुंभिक उद्देशक की भलामण होने ही स्पष्ट होती है । इस प्रकार चार वनस्पतियों (उत्पल, पद्म, कणिका और नलिन) की ही साधिक हजार योजन की अवगाहना होती है । के सिवाय छहों वनस्पतियों की हजार में कुंभिक और नालिक उद्देशक में पलास उनकी अवगाहना भी गव्यूति पृथक्त्व ॥ ग्यारहवें शतक का अष्टम उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११ उद्देशक राजर्षि शिव का वृत्तांत १ तेणं कालेणं तेणं समएणं हथिणापुरे णामं णयरे होत्था, वणओ । तस्स णं हथिणापुरस्स णयरस्त बहिया उत्तरपुरथिमे दिसिभागे एत्थ णं सहसंबवणे णाम उजाणे होत्था । सव्वोउयपुप्फफलसमिधे रम्मे गंदणवणसण्णिभप्पगासे सुहसीतलच्छाए मणोरमे साउप्फले अकंटए पासाईए, जाव-पडिरूवे । तत्थ णं हत्थिणापुरे णयरे सिवे णामं राया होत्था । महयाहिमवंत० वण्णओ। तस्स णं सिवस्स रण्णो धारिणी णामं देवी होत्था । सुकुमाल० वण्णओ । तस्स णं सिवस्स रण्णो पुत्ते धारिणीए. अत्तए सिवभद्दे णामं कुमारे होत्था । सुकुमाल० जहा सूरियकते, जाव-पच्चुवेक्खमाणे पच्चुवेक्खमाणे विहरइ। कठिन शब्दार्थ-सव्वोउयपुप्फ-सभी ऋतुओं के पुष्प, रम्मे-रम्य, सण्णिभप्पगासे--समान, शोभित, साउप्फले--स्वादिष्ट फल वाला। . भावार्थ--१--उस काल उस समय में हस्तिनापुर नामक था, वर्णन । उस हस्तिनापुर नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशा (ईशानकोण) में सहस्रान नामक उद्यान था । वह उद्यान सभी ऋतुओं के पुष्प और फलों से समृद्ध था। वह नन्दन वन के समान सुरम्य था। उसकी छाया सुख कारक और शीतल थी। वह मनोहर, स्वादिष्ट फल युक्त, कण्टक रहित और प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला यावत् प्रतिरूप (सुन्दर) था। उस हस्तिनापुर नगर में 'शिव' नाम का राजा था। वह हिमवान् पर्वत के समान श्रेष्ठ राजा था, इत्यादि राजा का सब वर्णन For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ा. ११ उ. ( गजपि गिय का वनांत कहना । उस शिव राजा के 'धारिणी' नाम की पटरानी थी। उसके हाथ, पैर अति सुकुमाल थे, इत्यादि स्त्री का वर्णन कहता। उस शिव राजा का पुत्र धारिणी रानी का अंगजात शिवभद्र नाम का कुमार था । उसके हाथ पैर अतिसुकुमाल थे । कुमार का वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र में कथित सूर्यकान्त राजकुमार के समान कहना चाहिये । यावत् वह कुमार राज्य, राष्ट्र और सैन्यादिक का अवलोकन करता हुआ विचरता था। २-तएणं तम्म मिवस्म रण्णो अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि रजधुरं चिंतेमाणस्त अयमेयारूवे अझथिए जाव समुप्पजित्था-'अस्थि ता मे पुरा पोराणाणं० जहा तामलि. स्म, जाव-पुत्तेहिं वड्ढामि पसूहि वड्ढामि रज्जेणं वड्ढामि, एवं रटेणं बलेणं वाहणेणं कोसेणं कोट्ठागारेणं पुरेणं अंतेउरेणं वइटामि; विपुलधण-कणग-रयण० जाव संतसारसावएजेणं अईव अईव अभिवड्ढामि, तं किं णं अहं पुरा पोराणाणं० जाव एगंतसोक्खयं उब्वेहमाणे विहरामि ? तं जाव ताव अहं हिरण्णेणं वड्ढामि, तं चेव जाव अभिवइढामि, जाव मे सामंतरायाणो वि वसे वटुंति, ' तावता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए जाव जलंते सुवहुं लोही-लोहकडाह कडुन्छुयं तंवियं तावसभंडगं घडावेत्ता सिवभई कुमार रज्जे ठवित्ता तं सुबहुं लोही-लोहकडाह-कडुच्छुयं तंबियं तावसभंडगं गहाय जे इमे गंगाकूले वाणपत्था तावसा भवंति, तं जहा-होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जण्णई सइई थालई हुंबउट्ठा दंतुक्खलिया उम्मजगा For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७६ भगवती सूत्र-- श. ११ उ. ९ राजपि शिव का वृत्तांत संमजगा णिमजगा संपक्खाला उद्धकंड्रयगा अहोकंड्रयगा दाहिणकूलगा उत्तरकूलगा संखधमगा कूलधमगा मियलुद्धया हस्थितावसा जलाभिसेयकिढिणगाया अंबुवासिणो वाउवासिणो वक्कलवासिणो जलवासिणो चेलवासिणो अंबुभक्खिणो वाउभक्विणो सेवाल. भक्खिणो मूलाहारा कंदाहारा पत्ताहारा तयाहारा पुप्पाहारा फला. हारा बीयाहारा परिसडियकंदमूलपंडुपत्तपुप्फफलाहारा उदंडा रुखमूलिया मंडलिया वणवासिणो बिलवासिणो दिसापोक्खिया आया. वणाहिं पंचग्गितावेहिं इंगालसोल्लियपिव कंडुसोल्लियंपिव कट्ठसोल्लियंपिव अप्पाणं जाव करेमाणा विहरंति (जहा उववाइए जावकट्टसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा विहरंति)तत्थ णं जे ते दिसा. पोक्खी तावसा तेसिं अंतियं मुंडे भवित्ता दिसापोक्खियतावसत्ताए पवइत्तए । पव्वइए वि य णं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभि. गिहिस्सामि-कप्पड़ मे जावजीवाए छठं-छटेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचकवालेणं तवोकम्मेणं उड्ढं वाहाओ पगिझिय पगिझिय जाव विहरित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ । कठिन शब्दार्थ-रज्जधुरं-राज्य-धुरा (राज्य का भार), बड्डामि-मेरे बढ़ रहे हैं, उटवेहमाणे-भोगता हुआ, कडुच्छ्यं-कुड़छी, वाणपत्या-वानप्रस्थ, होतिया-अग्नि होत्री, पोतियापौत्रिक (वस्त्रधारी), कोत्तिया-कौत्रिक (भूगायी), जण्णई-याज्ञिक, सट्टई-श्रद्धालु, थालईस्वप्परधारी, हुंबउट्ठा-कुण्डिधारी, दंतुक्खलिया-फल भोगी, उम्मज्जगा-एक वार पानी में डुबकी लगा कर स्नान करने वाले, संमजगा-बारबार डुबकी लगा कर स्नान करने वाले, For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ११ उ. ९ राजपि शिव का वृतांत १८७७ णिमज्जगा-पानी में कुछ देर इव कर स्नान करने वाले, संपक्खाना-सम्प्रक्षालक (मिट्टी रगड़कर नहाने वाले), उद्धकंडूयगा-ऊपर की ओर ग्बुजालने वाले, दाहिणकूलगा-गंगा के दक्षिण किनारे रहने वाले, संखधमगा-शंब फूंक कर भोजन करने वाले, कूलधमगा-किनारे रह कर शब्द करने वाले. मियलद्धया-मृगलुब्धक, हस्थितावसा-हस्ति तापस (हाथी को मारकर बहुत दिनों तक खाने वाले), जलाभिसेकि ढिणगाया-म्नान किये बिना नहीं खाने वाले, अबुवासियो-बिल में रहने वाले, वाउवासिणो -वायु में रहने वाले, वक्कलवासिणोवल्कलधारी, अंबुभविखणो-जलपान पर ही जीवन बिताने वाले, परिसडिय-गिरे हुए. उदंडाऊंचा दंड रख कर फिरने वाले, पंचगितावेहि-पंचाग्नि तापस, इंगालसोल्लियंपिव-अंगारों से अपने को भुनाने वाले, कंडुसोल्लियं पिव-भइ जे की भाड़ में पकाये हुए के समान, कटुसोल्लियंपिव-काष्ठ के समान शरीर को बनाने वाले, दिसापोक्खी-दिशा-प्रोक्षक, संपेहेइविचार करता है। ___ भावार्थ-२-किसी सजय राजा शिव को रात्रि के पिछले प्रहर में राज्य कार्यभार का विचार करते हुए ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न हुआ कि यह मेरे पूर्व के पुण्य-कर्मों का प्रभाव है, इत्यादि तीसरे शतक के प्रथम उद्देशक में कथित तामली तापस के अनुसार विचार हुआ, यावत् में पुत्र, पशु, राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोष, कोष्ठागार, पुर और अन्तःपुर इत्यादि द्वारा वृद्धि को प्राप्त हो रहा हूँ। पुष्कल धन, कनक, रत्न यावत् सारभूत द्रव्य द्वारा अतिशय वृद्धि को प्राप्त हो रहा हूँ और में पूर्व-पुण्यों के फल स्वरूप एकान्त सुख भोग रहा हूँ, तो अब मेरे लिये यह श्रेष्ठ है कि जब तक मैं हिरण्यादि से वृद्धि को प्राप्त हो रहा हूँ यावत् जब तक सामन्त राजा आदि मेरे आधीन हैं, तब तक कल प्रातःकाल देदीप्यमान सूर्य के उदय होने पर बहुत-सी लोढ़ी, लोह को कड़ाही, कुड़छी और ताम्बे के दूसरे तापसोचित उपकरण बनवाऊँ और शिवभद्र कुमार को राज्य पर स्थापित कर के और पूर्वोक्त तापस के उपकरण लेकर, उन तापसों के पास जाऊँ-जो गंगा नदी के किनारे वानप्रस्थ तापस हैं, यथा-अग्निहोत्री, पोतिक-वस्त्र धारण करने वाले, कौत्रिक, याज्ञिक, श्रद्धालु, खप्परधारी, कुंडिका धारण करनेवाले, फल भोजी उम्मज्जक, समज्जक, निमज्जक, सम्प्रक्षालक, ऊर्ध्वकंडुक, अधोकंडुक, दक्षिग कूलक, उत्तर कूलक, शंखधपक, कूलधमक, मृगलुब्धक, हस्ती-तापत, जलाभिषेक For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७८ भगवती सूत्र-स. ११ उ. ९ राजपि शिव का वृत्तांत किये बिना भोजन नहीं करने वाले, बिलवासी, वायु में रहने वाले, वल्कलधारी, पानी में रहने वाले, वस्त्रधारी, जलभक्षक, वायुभक्षक, शेवालभक्षक, मूलाहारक कन्दाहारक, पत्राहारक, छाल खाने वाले, पुष्पाहारक, फलाहारी, बीजाहारी, वृक्ष से सड़ कर टूटे या गिरे हुए कन्द, मूल, छाल, पत्र, पुष्प और फल खाने वाले, ऊँचा दंड रख कर चलने वाले, वृक्ष के मूलों में रहने वाले, मांडलिक, वनवासी, बिलवासी, दिशाप्रोक्षी, आतापना से पंचाग्नि तापने वाले और अपने शरीर को अंगारों से तपा कर लकड़े-सा करने वाले इत्यादि औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार यावत् जो अपने शरीर को काष्ठ तुल्य बना देते हैं, उनमें से जो तापस 'दिशाप्रोक्षक' (जल द्वारा दिशा का पूजन करने के पश्चात् फल-पुष्पादि ग्रहण करने वाले) हैं, उनके पास मुण्डित होकर दिक्प्रोक्षक तापस रूप प्रव्रज्या अंगीकार करू। प्रवज्या अंगीकार कर के इस प्रकार का अभिग्रह करूं कि 'यावज्जीवन निरन्तर बेले-बेले की तपस्या द्वारा दिक्चक्रवाल तप-कर्म से दोनों हाथ ऊँचे रख कर रहना मुझं कल्पता है।' इस प्रकार शिवराजा को विचार हुआ। ३-संपेहेत्ता कल्लं जाव जलंते सुवहुं लोही-लोह० जाव घडावेत्ता कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हथिणापुरं णयरं सम्भितरं बाहिरियं आसिय० जाव तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति, तए णं से सिवे राया दोच्चं पि कोडं वियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सिवभइस्म कुमारस्म महत्थं ३ विउलं रायाभिसेयं उबटुवेह ।' तएणं ते कोडुवियपुरिसा तहेव उवट्ठति । तएणं से सिवे राया अणेगगणणायग-दंडणायग० जाव-संधिपालसद्धि संपरिबुडे सिवभई कुमारं सीहामणवरंसि पुरत्थाभिमुहं णिसि. For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ११ उ. ९ राजर्षिनिव का वृत्तांत यावेs, णिसियावेत्ता अनुसरणं सोवण्णियाणं कलसाणं जावअट्टमरणं भोज्जाणं कलसाणं सव्विड्डीए जाव - खेणं महया महया रायाभिसेगेणं अभिसिंचति, म० म० पम्हलसुकुमालाए सुरभीए गंधकासाईए गाया लहेड, पम्हल० सरसेणं गोसीसेणं एवं जहेब जमालिस अलंकारो तहेव जाव - कप्परुस्वगं विव अलंकियविभूतियं करेs, करिता करयल० जाव - कट्टु सिवभद्दं कुमारं - जणं विजएणं वद्धावेंति, जपणं विजएणं वद्धावित्ता ताहिं इट्टाहिं कंताहिं पियाहिं जहा उववाइए कुणियस्स जाव - परमाउं पालयाहि. इजण संपरिवुडे हत्थणा उरस्स णयरस्स अण्णेसिं च बहूणं गामागरणय रं० जाव विहराहि' ति कट्टु जयजयसहं परंजंति । तएवं से विभद्दे कुमारे राया जाए । महया हिमवंत० वण्णओ जावविहरs | कठिन शब्दार्थ - णिसियावेइ-बिठाया । भावार्थ- ३ - इस प्रकार विचार करके दूसरे दिन प्रातः काल सूर्योदय होने पर अनेक प्रकार की लोढ़ियाँ, लोह कड़ाह आदि तापस के उपकरण तैयार करवा कर, अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रियो ! हस्तिनापुर नगर के बाहर और भीतर जल का छिड़काव करके शीघ्र स्वच्छ कराओ,' इत्यादि यावत् उन्होंने राजा की आज्ञानुसार कार्य करवा कर राजा को निवेदन किया। इसके बाद शिव राजा ने उनसे कहा कि - 'हे देवानुप्रियो ! शिवभद्र कुमार के राज्याभिषेक की शीघ्र तैयारी करो ।' कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा राज्याभिषेक की तैयारी हो जाने पर शिवराजा ने अनेक गण-नायक, दण्ड-नायक यावत् १८७६ For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८० भगवती सूत्र - श. ११. ९ राजपि शिव का वृत्तांत । सन्धि- पालक आदि के परिवार से युक्त होकर शिवभद्र कुमार को उत्तम सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बिठाया । फिर एक सौ आठ सोने के कलशों द्वारा यावत् एक सौ आठ मिट्टी के कलशों द्वारा सर्व ऋद्धि से यावत् वादिन्त्रादिक के शब्दों द्वारा राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया। तत्पश्चात् अत्यन्त सुकु'माल और सुगन्धित गन्ध-वस्त्र द्वारा उसके शरीर को पोंछा । गोशीर्ष चन्दन का लेप किया, यावत् जमाली वर्णन के अनुसार कल्पवृक्ष के समान उसको अलंकृत एवं विभूषित किया | इसके बाद हाथ जोड़ कर शिवभद्र कुमार को जय विजय शब्दों से बधाया और औपपातिक सूत्र में वर्णित कोणिक राजा के प्रकरणानुसार इष्ट, कान्त एवं प्रिय शब्दों द्वारा आशीर्वाद दिया, यावत् कहा कि तुम दीर्घायु हो और इष्टजनों से युक्त होकर हस्तिनापुर नगर और दूसरे बहुत-से ग्रामादि का तथा परिवार, राज्य और राष्ट्र आदि का स्वामीपन भोगते हुए विचरो, इत्यादि कह कर जय जय शब्द उच्चारण किये । शिवभद्रकुमार राजा बना । वह महाहिमवान् पर्वत की तरह राजाओं में मुख्य होकर विचरने लगा । यहाँ शिवभद्र राजा का वर्णन कहना चाहिए । ४- तणं से सिवे राया अण्णया कयाई सोभणंसि तिहि करणदिवस - मुहुत्त - णक्खत्तंसि विलं असण- पाणखाइम साइमं वक्खडाas, उवखडावेत्ता मित्त-गाइ-णियग० जाव-परिजणं रायाणो यखत्तिया आमंते, आमंतेत्ता तओ पच्छा पहाए जाव - सरीरे भोयणवेला भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए तेणं मित्त-णाइ-णियगसयण० जाव - परिजणेणं राएहि य खत्तिएहि य सधि विउलं असण- पाणखाइम - साइमं एवं जहा तामली जाव - सक्कारेइ, संमाणे, सक्कारिता संमाणित्ता तं मित्त-णाड़० जाव - परिजणं For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-म. ११ उ. ९ राजपि शिव का वृत्तान १८८१ रायाणो य खत्तिए य सिवभई च रायाणं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता सुबहुं लोही-लोहकडाह-कडुन्छुयं जाव-भंडगं गहाय जे इमे गंगाकूलगा वाणपत्था तावमा भवंति, तं चेव जाव तेसिं अंतियं मुंडे भवित्ता दिसापोक्खियतावसत्ताए पव्वइए, पब्वइए वि य णं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ-'कप्पड़ मे जावजीवाए छटुं०' तं चेव जाव अभिग्गहं अभिगिण्हइ, अभिगिण्हित्ता पढमं छटुक्खमेणं उवसंपजित्ता णं विहरइ। कठिन शब्दार्थ-वाणपत्था-वानप्रस्थ (तीसरा आश्रम)। भावार्थ-४-इसके पश्चात् किसी समय शिव राजा ने प्रशस्त तिथि, करण, दिवस और नक्षत्र के योग में विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवाया और मित्र, ज्ञाति, स्वजन, परिजन, राजा, क्षत्रिय आदि को आमंत्रित किया । स्वयं स्नानादि करके भोजन के समय भोजन मण्डप में उत्तम सुखासन पर बैठा और उन मित्र, ज्ञाति, स्वजन, परिजन, राजा, क्षत्रिय आदि के साथ विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का भोजन कर के तामली तापस के समान उनका सत्कार सम्मान किया। तत्पश्चात् उन सभी की तथा शिवभद्र राजा को आज्ञा लेकर तापसोचित उपकरण ग्रहण किये और गंगा नदी के किनारे दिशाप्रोक्षक तापसों के पास दिशाप्रोक्षक तापसी प्रव्रज्या ग्रहण की और इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया कि 'मुझे बेले-बेले तपस्या करते हुए विचरना कल्पता है, इत्यादि पूर्ववत् अभिग्रह धारण कर, प्रथम छ? तप अंगीकार कर विचरने लगा। विवेचन-जल से दिशाओं की पूजा करके फिर फल-फूल को ग्रहण करना-दिशाप्रोक्षक प्रव्रज्या' कहलाती है। बले के पारणे के दिन पूर्व, पश्चिम आदि किसी एक दिशां से फलादि लाकर खाना For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८२ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ९ राजर्षि शिव का वृत्तांत और दूसरे पारणे में दूसरी किसी एक दिशा से फलादि लाकर खाना-दिशाचक्रवाल तप' कहलाता है। शिव राजा, दिक्रप्रोक्षक तापस प्रव्रज्या अंगीकार करके बेले-बेले की तपस्या करते हुए दिक्वक्रवाल तप का पारणा करने लगे। ५-तएणं से सिवे रायरिसी पढमछ?क्खमणपारणगंसि आया. : वणभूमीओ पचोरुहइ, पचोरुहित्ता वागलवत्थणियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयगं गिण्हइ, गिण्हित्ता पुरत्थिमं दिसं पोक्खेइ, 'पुरत्थिमाए दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं रायरिसीं अभिरक्खिता जाणि य तत्थ कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुप्फाणि य फलाणि य बीयाणि य हरियाणि य ताणि अणुजाण' तिकट्ठ पुरथिमं दिसं पसरइ, पुरस्थिमं दिसं पसरइत्ता जाणिय तत्थ कंदाणि य जाव-हरियाणि य ताइं गेण्हइ, गिण्हित्ता किढिणसंकाइयगं भरेइ, किढि० दव्भे य कुसे य समिहाओ य पत्तामोडं च गिण्हइ, गिण्हित्ता जेणेव सए उडए तेणेवं उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयगं ठवेइ, किढि० वेदि वड्ढेइ, वे० उव. लेवण-संमजणं करेइ, उ० दव्भ-कलसाहत्थगए जेणेव गंगा महागई तेणेव उवागच्छइ, तेणेव० गंगामहाणई ओगाहेइ, गंगा० जलमजणं करेइ, जल० जलकीडं करेइ, जल० जलाभिसेयं करेइ, For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ११ उ. ९ राजर्षि शिव का वृत्तांत जला • आयंते चोक्खे परमसुइभूए देवय-पिडकयकज्जे दव्भ-कलसाहत्थगए गंगाओ महाणईओ पच्चुत्तरड़, गंगाओ० जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छह, तेणेव० दव्भेहि य कुसेहि य वालुयाएहि य देई रहए, वे रएत्ता सरएणं अरणिं महेड, सर० अभिंग पाडेड, अरिंग पाडेत्ता, अरिंग संधुक्के, अरिंग० ममिहाकाई पक्खिवर, समिहा० अरिंग उजाले, अरिंग० " अग्गिस्स दाहिणे पासे, सत्तंगाई समा दहे । तं जहा -सहं वक्कलं ठाणं, सिज्जा भंडं कमंडलुं । isar तहअप्पा अहे ताई समादहं ।” महुणा य घएण य तंदुलेहि य अरिंग हुणइ, अगिंग हुणित्ता चरुं साहेइ, चरुं साहेत्ता बलिं वस्सदेव करेs, वलिं० अतिहिपूयं करेइ, अतिहि० तओ पच्छा अपणा आहारमाहारेs | कठिन शब्दार्थ - वागलवत्थणियत्थे - वल्कल वस्त्र पहिने, उडए - उटज - झोंपड़ी, किठिणसंकाइयगं-वांस का पात्र और कावड़, पत्थाणे - प्रवृत्त हुए, अणुजाणओ - अनुजा देवें, प्रसरइजाते हैं, उबवण संमज्जइ - लीपकर शुद्ध करते हैं, आयंते चोक्खे-आचमन करके पवित्र हुए. पिइककज्जे- पितृकार्य किया, पच्चुत्तरइ निकले, सरएणं अणि महेइ-सर- काष्ठ से अरणि घिसते हैं, सत्तंगाई समादहे - सात वस्तुएँ रवीं । १८८३ भावार्थ - ५ - इसके बाद प्रथम बेले की तपस्या के पारणे के दिन वे शिव राज आतापना भूमि से नीचे उतरे, बल्कल के वस्त्र पहिने, फिर अपनी झोंपड़ी में आये और कीढीग (बाँस का पात्र - छबड़ी) और कावड़ को लेकर पूर्व दिशा को प्रोक्षित (पूजित ) किया और बोले - 'हे पूर्व दिशा के सोम महाराजा ! धर्म साधन प्रवृत्त मुझ राजष शिव का आप रक्षण करें और पूर्व दिशा में रहे हुए कन्द भूल, छाल, पत्र, पुष्प, फल, बीज और हरी वनस्पति लेने की आज्ञा दीजिए ।' में For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८४ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ९ राजर्षि शिव का वृत्तांत इस प्रकार कह कर वे शिव राजर्षि पूर्व दिशा की ओर गये । उन्होंने कन्द मूल आदि ग्रहण कर अपनी छबड़ी भरी। दर्भ, कुश, समिध और वृक्ष की शाखाओं को झुका कर पते ग्रहण किये और अपनी झोंपड़ी में आए। फिर कावड़ नीचे रख कर वेदिका का प्रमार्जन किया और लीप कर उसे शुद्ध किया। फिर डाभ और कलश हाथ में लेकर गंगा नदी पर आए, उसमें डुबकी लगाई । जल-क्रीड़ा स्नान, आचमन आदि करके गंगा नदी से बाहर निकले और अपनी झोंपड़ी में आकर डाभ, कुश और वालुका से वेदिका बनाई । मथन-काष्ठ से अरणी की लकडी को घिस कर अग्नि सुलगाई और उसमें काष्ठ डाल कर प्रज्वलित की। फिर अग्नि की दाहिनी ओर इन सात वस्तुओं को रखा, यथा-सकथा (उपकरण विशेष) वल्कल, दीप, शय्या के उपकरण, कमण्डल, दण्ड और अपना शरीर । मध, घी और चावल द्वारा अग्नि में होम करके बलि द्वारा वैश्व देव की पूजा की, फिर अतिथि की पूजा करके शिव राजर्षि ने आहार किया। ६-तएणं से सिवे रायरिसी दोच्चं छटुक्खमणं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ । तएणं से सिवे रायरिसी दोच्चे छटुक्खमणपारणगंसि आयांवणभूमीओ पच्चोरुहइ, आयावण० एवं जहा पढमपारणगं, णवरं दाहिणगं दिसं पोरखेड, दाहिण० दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं सेसं तं चेव आहारमाहारेइ । तएणं से सिवे रायरिसी तच्चं टुक्खमणं उपसंपज्जित्ता णं विहरइ । तएणं से सिवे रायरिसी सेसं तं चेव णवरं पच्चंत्थिमाए दिसाए वरुणे महाराया पत्थाणे पत्थियं सेसं तं चेव जाव आहारमाहारेइ । तएणं से सिवे रायरिसी चउत्थं छट्टक्खमणं उपसंपज्जित्ताणं विहरइ । For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ११ उ. ९ गजणि शिव का वनांन १८८५ तएणं से सिवे रायरिसी चउत्थछटक्वमण० एवं तं चेव, णवरं उत्तरदिसं पोक्खेड, उत्तराए दिसाए वेममणे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्वउ सिवं रायरिसिं, सेमं तं चेव जाव-तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारइ । भावार्थ-६-इसके बाद शिव राजर्षि ने दूसरी बार बेले की तपस्या की। पारणे के दिन वे आतापना भूमि से नीचे उतरे, वल्कल के वस्त्र पहने, यावत् प्रथम पारणे का सारा वर्णन जानना चाहिए, परंतु इतनी विशेषता है कि दूसरे पारणे के दिन दक्षिण दिशा की पूजा की और इस प्रकार कहा-“हे दक्षिण दिशा के लोकपाल यम महाराज ! परलोक साधना में प्रवृत्त मुझ शिव राजर्षि की रक्षा करो," इत्यादि, सब पूर्ववत् जानना चाहिए। इसके बाद यावत् उसने आहार किया। इसी प्रकार शिवराजर्षि ने तीसरी बार बेले की तपस्या की। उसके पारणे के दिन पूर्वोक्त सारी विधि की। इसमें इतनी विशेषता है कि पश्चिम दिशा का प्रोक्षण किया और कहा-“हे पश्चिम दिशा के लोकपाल वरुण महाराज ! परलोक साधना में प्रवृत्त मुझ शिव राजर्षि की रक्षा करें," इत्यादि यावत् आहार किया। चौथी बार बेले की तपस्या के पारणे के दिन उत्तर दिशा का प्रोक्षण किया और कहा-'हे उत्तर दिशा के लोकपाल वैश्रमण महाराज ! धर्म साधना में प्रवृत्त मुझ शिवराजर्षि की आप रक्षा करें,' इत्यादि, यावत् आहार किया। . ७-तएणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्म छटुंछटेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचक्यालेणं जाव-आयावेमाणस्स पगइभदयाए जाव-विणीययाए अण्णया कयाइ तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोह-मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स विभंगे णामं अण्णाणे समुप्पण्णे । For Personal & Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८६ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ९ राजर्षि शिव का वृत्तांत से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पण्णेणं पासइ अस्सि लोए सत्त दीवे सत्त समुद्दे, तेण परं ण जाणइ ण पासइ । कठिन शब्दार्थ – अणिक्खित्तेणं-अनिक्षिप्त-निरन्तर, दिसाचक्कवालेणं--दिशा चक्रवाल, आयावेमाणस्स--आतापना लेते हुए। ___ भावार्थ-७-निरन्तर बेले-बेले की तपस्यापूर्वक दिकचक्रवाल तप करने यावत् आतापना लेने और प्रकृति की भद्रता यावत् विनीतता से शिवराजर्षि को किसी दिन तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम होने से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए विभंग नामक अज्ञान उत्पन्न हुआ। उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान से वे इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र देखने लगे। इससे आगे वे जानते-देखते नहीं थे। ८-तएणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अझथिए जाव समुप्पजित्था-'अस्थि णं ममं अइसेसे णाण-दंसणे समुप्पण्णे, एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं वोच्छिण्णा दीवा य समुद्दा य, एवं संपेहेइ, एवं० आयावणभूमीओ पच्चोरहइ, आ० वागलपत्थणियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव० सुबहुं लोही-लोहकडाह-कडुच्छुयं जाव-भंडगं किठिणसंकाइयगं च गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव हथिणापुरे णयरे जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव० भंडणिक्खेवं करेइ, भंड० हत्थिणापुरे णयरे सिंघाडग-तिग० जाव-पहेसु बहु जणस्स एवमाइक्खइ, जाव-एवं परूवेह-अस्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अइसेसे गाण-दंसणे समुप्पण्णे, For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १. उ. .. गजषि शिव का वनात १८८७.. एवं खलु अस्सि लोए जाव दीवा य समुद्दा य' । तएणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं एयमटुं सोचा णिसम्म हथिणापुरे णयरे सिंघाडग-तिग० जाव-पहेसु बहु जणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ, जाव परूवेड़-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवं आइक्खइ, जाव परूवेइ- 'अस्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अइसेसे णाणदंसणे, जाव तेण परं वोच्छिण्णा दोवा य समुद्दा य' । से कहमेयं मण्णे एवं ? . कठिन शब्दार्थ-अज्मथिए-अध्यवसाय-विचार, अइसेसे-अतिशेष अर्थात् अतिशय वाला, वोच्छिण्णा-विच्छेद (नहीं है,) तावसावसहे-तापसों के आश्रम में । भावार्थ-८-इससे शिवराजर्षि को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ"मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है। इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं, उसके बाद द्वीप और समुद्र नहीं हैं।" ऐसा विचार कर वे आतापना-भूमि से नीचे उतरे और वल्कल वस्त्र पहन कर अपनी झोंपड़ी में आये । अपने लोढ़ी, लोह कड़ाह आदि तापस के उपकरण और कावड़ को लेकर हस्तिनापुर नगर में, तापसों के आश्रम में आये और तापसों के उपकरण रख कर हस्तिनापुर नगर के श्रृंगाटक, त्रिक यावत् राजमार्गों में बहुत-से मनुष्यों को इस प्रकार कहने और प्ररूपणा करने लगे-" हे देवानुप्रियो ! मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं यह जानता देखता हूँ कि इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं" शिवराजर्षि को उपरोक्त बात सुन कर बहुत-से मनुष्य इस प्रकार कहने लगे"हे देवानुप्रियो ! शिवराजर्षि जो यह बात कहते हैं कि 'मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, यावत् इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र ही हैं। इसके आगे द्वीप-समुद्र नही हैं'-उनको यह बात इस प्रकार कैसे मानी जाय ?" For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८८ भगवती सूत्र -श. ११ उ. ९ राजर्षि शिव का वृत्तांत ९ तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे, परिसा जाव पडिगया । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे अंतेवासी जहा बिझ्यसए णियंठुद्देसए जाव अडमाणे बहुजणसदं णिसामेइ, बहुजणो अण्णमण्णस्स एवं आइक्खइ, एवं जाव परवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवं आइक्खड़, जाव परूवेइ अस्थि णं देवाणुप्पिया ! तं चेव जाव वोच्छिण्णा दीवा य समुद्दा य ।' से कहमेयं मण्णे एवं ? १०-तएणं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एयमटुं सोचा णिसम्म जायसड्ढे जहा णियंठुद्देसए जाव तेण परं वोच्छिण्णा दीवा य समुद्दा य, से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी-जण्णं गोयमा ! से बहुजणे अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ, तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव-भंडणिक्खेवं करेइ, हत्थिणापुरे णयरे सिंघाडग० तं चेव जाव वोच्छिण्णा दीवा य समुद्दा य । तएणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव तेणं परं वोच्छिण्णा दीवा य समुद्दा य, तण्णं मिच्छ । अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि, जाव परूवेमि-‘एवं खलु जंबुद्दीवाइया दीवा लवणाईया समुद्दा संठाणओ एगविहिविहाणा, वित्थारओ अणेगविहिविहाणा एवं जहा जीवाभिगमे जाव-सयंभूरमणपज्जवसाणा अस्सिं तिरियलोए For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ११ उ. ९ राजपि शिव का वृतांत असंखेज्जे दीवसमुद्दे पण्णत्ते समणाउसो ! कठिन शब्दार्थ - - पज्जवसाणा - पर्यवसान - अन्त । भावार्थ - ९ - उस काल उस समय श्रमण भगवन् महावीर स्वामी वहाँ पधारे । जनता धर्मोपदेश सुनकर यावत् चली गई । उसे काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति अनगार, दूसरे शतक के निर्ग्रन्थोद्देशक में वर्णित विधि के अनुसार भिक्षार्थ जाते हुए, बहुत-से मनुष्यों के शब्द सुने । वे परस्पर कह रहे थे कि 'हे देवानुप्रियों ! शिवराजर्षि कहते हैं कि मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, यावत् इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र ही हैं, इसके आगे द्वीप और समुद्र नहीं हैं । यह बात कैसे जानी जाय ?' १८८९ १० - बहुत-से मनुष्यों से यह बात सुनकर गौतम स्वामी को सन्देह कुतूहल एवं श्रद्धा हुई, उन्होंने भगवान् की सेवा में आकर इस प्रकार पूछा - 'हे भगवन् ! शिवराज कहते हैं कि सात द्वीप और सात समुद्र हैं, इसके बाद द्वीप समुद्र नहीं हैं, उनका ऐसा कहना सत्य है क्या ? भगवान् ने कहा- 'हे गौतम ! शिवराजर्षि से सुनकर बहुत-से मनुष्य जो कहते हैं कि 'सात द्वीप और सात समुद्र ही हैं, इसके बाद कुछ भी नहीं है, इत्यादि' - यह कथन मिथ्या है । हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि जम्बूद्वीपादि द्वीप और लवण समुद्रादि समुद्र, ये सब वृत्ताकार (गोल) होने से आकार में एक सरीखे हैं । परन्तु विस्तार में एक दूसरे से दुगुने - दुगुने होने के कारण अनेक प्रकार के हैं, इत्यादि सभी वर्णन जीवाभिगम सूत्र में कहे अनुसार जानना चाहिए । यावत् हे आयुष्यमन् श्रमणों ! इस तिच्र्च्छा लोक में स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त असंख्यात द्वीप और समुद्र कहे गये हैं । ११ प्रश्न - अत्थि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे दव्वाई सवण्णाई पि अवगाई पिसगंधाई पि अंगंधाई पि सरसाई पि अरसाई पि For Personal & Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९० भगवती सूत्र-श. ११ उ. ९ राजपि शिव का वृत्तांत सफासाइं पि अफासाई पि अण्णमण्णबद्धाई अण्णमण्णपुट्ठाइं जावघडताए चिटुंति । ११ उत्तर-हंता अस्थि । १२ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे दवाई सवण्णाइं पि अवण्णाई पि सगंधाई पि अगंधाई पि सरसाइं पि अरसाई पि सफासाइं पि अफासाइं पि अण्णमण्णबद्धाइं अण्णमण्णपुट्ठाई जावघडनाए चिट्ठति । १२ उत्तर-हंता अस्थि । १३ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! धायइसंडे दीवे दवाई सवण्णाई पि एवं चेव, एवं जाव-सयंभूरमणसमुद्दे ? १३ उत्तर-जाव हंता अस्थि । १४-तएणं सा महतिमहालिया महम्मपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमढे सोचा णिसम्म हट्ट-तुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया। १५-तए णं हथिणापुरे णयरे सिंघाडग० जाव--पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ-'जण्णं देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ जाव परूवेह-अस्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अइसेसे गाणे जाव-समुद्दा य,' तं णो इणटे समढे, समणे For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १. उ. ९ राजपि शिव का वृत्तांत १८९१ भगवं महावीरे एवमाइक्खइ, जाव परूवेइ-एवं खलु एयस्स सिवस्स रायरिसिस्स छटुंछटेणं तं चेव जाव-भंडणिक्वेवं करेइ, भंडणिक्खेवं करेत्ता हत्थिणापुरे णयरे सिंघाडग० जाव-समुदा य । तएणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्म अंतियं एयमढे सोचा णिसम्म जाव-समुद्दा य तण्णं मिच्छा, समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ-एवं खलु जंबुद्दीवाईया दीवा लवणाईया समुद्दा तं चेव जाव असंखेजा दीवसमुद्दा पण्णत्ता समणाउसो ! कठिन शब्दार्थ-अण्णमण्णघडत्ताए -अन्योन्य संबद्ध। भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में वर्ण सहित और वर्ण रहित, गन्ध सहित और गन्ध रहित, रस सहित और रस रहित, स्पर्श सहित और स्पर्श रहित द्रव्य, अन्योन्य बद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट यावत् अन्योन्य सम्बद्ध हैं ? .११ उत्तर-हाँ, गौतम ! हैं। .. १२ प्रश्न-हे भगवन् ! लवण समुद्र में वर्ण सहिता और वर्ण रहित गन्ध सहित और गन्ध रहित, रस सहित और रस रहित, स्पर्श सहित और स्पर्श रहित द्रव्य अन्योन्य बद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट यावत् अन्योन्य सम्बद्ध है ? १२ उत्तर-हाँ, गौतम ! हैं। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या धातकोखण्ड में यावत् स्वयम्भूरमण समुद्र में वर्णादि सहित और वर्णादि रहित द्रव्य यावत् अन्योन्य सम्बद्ध हैं ? १३ उत्तर-हां, गौतम ! हैं। १४ इसके पश्चात् वह महती परिषद् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से उपर्युक्त अर्थ सुनकर और हृदय में धारण कर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई और भगवान् को वन्दना नमस्कार कर चली गई। For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९२ भगवती सूत्र-श. ११. उ. ९ राजर्षि शिव का वृत्तांत १५ हस्तिनापुर नगर में शृंगाटक यावत् अन्य राज-मार्गों पर बहुत-से लोग इस प्रकार कहने एवं प्ररूपणा करने लगे कि-'हे देवानुप्रियो ! शिव राजषि जो कहते एवं प्ररूपणा करते हैं कि 'मुझे अतिशेष ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं जानता-देखता हूँ कि इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र ही है। - इन के आगे द्वीप और समुद्र नहीं हैं,'-उनका यह कथन मिथ्या है । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी इस प्रकार कहते और प्ररूपणा करते हैं कि 'निरन्तर बेलेबेले की तपस्या करते हुए शिवराजर्षि को विभंगज्ञान उत्पन्न हुआ है। जिससे वे सात द्वीप समुद्र तक जानते-देखते हैं और इसके आगे द्वीप समुद्र नहीं है, यह उनका कथन मिथ्या है । क्योंकि जम्बूद्वीप आदि द्वीप और लवगादि समुद्र असंख्यात हैं।' - विवेचन-मिथ्यात्व युक्त अवधि को 'विभंगज्ञान' कहते हैं। किसी वाल-तपस्वी को अज्ञान तप के द्वारा जब दूर के पदार्थ दिखाई देते हैं, तो वह अपने को विशिष्ट ज्ञानवाला ‘समझ कर सर्वज्ञ के वचनों में विश्वास नहीं करता हुआ मिथ्या प्ररूपणा करने लगता है। शिवराजर्षि को भी इसी प्रकार का विभंगज्ञान उत्पन्न हुआ था। वे उस विभंग को ही विशिष्ट एवं पूर्ण ज्ञान समझकर मिथ्या प्ररूपणा करने लगे। श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने शिवराजर्षि का कथन मिथ्या बताया और कहा कि द्वीप और समुद्र असंख्यात हैं । . १६-तए णं से सिवे. रायरिसी बहुजणस्स अंतियं एयमढें सोचा णिसम्म संकिए कंखिए वितिगिच्छिए भेदसमावण्णे कलुस: समावण्णे जाए यावि होत्था । तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स संकियस्स कंखियस्स जाव-कलुससमावण्णस्स से विभंगे अण्णाणे खिष्णामेव परिवडिए। १७-तएणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अज्झथिए For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 । भगवती सूत्र-श. ११ उ. ९ राजर्षि शिव का वृत्तांत __ १४१३ जाव समुप्पजित्था-'एवं खलु समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थारे जाव-मव्यण्णू सव्वदरिसी आगासगएणं चक्केणं जाव सहसंववणे उज्जाणे अहापडिरूवं जाव विहरइ, तं महाफलं ख्लु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं णामगोयरस जहा उववाइए जावगहणयाए, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वंदामि जाव पज्जुवामामि, एयं णे इहभवे य परभवे य जाव भविस्सई त्ति कट्ट एवं संपेहेइ । १८-एवं मंहिता जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागन्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता ताबसावसहं अणुप्पविसइ, तावसावसहं अणुप्पविसित्ता सुबहुं लोही-लोहकडाह० जाव किढिणसंकाइयगं च गेण्हइ, गेण्हित्ता तावमावसहाओ पडिणिक्खमड़, ताव० परिवडियविभंगे हस्थिणाउरं णयर मझमझेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे, जेणेव समणे भगवं महावीरे. तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता णचासण्णे णाड्दूरे जाव-पंजलिउडे पज्जुवासइ । तएणं समणे भगवं महावीरे सिवस्म रायरिसिस्त ती य महतिमहालियाए० जाव-आणाए आराहए भवइ । १९-तएणं से सिवे रायरिसी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा णिसम्म जहा खंदओ, जाव उत्तरपुरस्थिमं For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१४ भगवती सूत्र श. ११ उ. ९ राजर्षि शिव का वृत्तात दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता सुबहुं लोही लोहकडाह० जावकिढिणसंकाइयगं एगंते एडेइ, ए० सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, सयमे० समणं भगवं महावीरं एवं जहेव उसभदत्ते तहेव पव्वइओ, तहेव इक्कारस अंगाई अहिजड़, तहेव सव्वं जाव-सव्वदुवखप्पहीणे। ___ २० प्रश्न-'भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरंमि संघयणे सिझंति ? ___ २० उत्तर-गोयमा ! वइरोसभणारायसंघयणे सिझंति । एवं जहेव उववाइए तहेव “संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउयं च परिवसणा” । एवं सिद्धिगंडिया णिरवसेसा भाणियव्वा, जाव-"अव्वाबाहं सोक्खं अणुहोति सासयं सिद्धा” । ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति के ॥ एक्कारससए णवमो उद्देसो समत्तो ॥ ___ कठिन शब्दार्थ-परिवडिए-नप्ट हो गया, तावसावसहे-तापसावसथ-तापसों का मठ। भावार्थ-१६-शिवराजर्षि, बहुत-से मनुष्यों से यह बात सुन कर और अवधारण कर के शंकित, कांक्षित, संदिग्ध, अनिश्चित और कलुषित भाव को प्राप्त हुए । शंकित, कांक्षित आदि बने हुए शिवराजर्षि का वह विभंग नामक अज्ञान तुरन्त नष्ट हो गया । For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ९ राजर्षि शिव का वृत्तांत १८६५ १७-इसके पश्चात् शिवराजर्षि को इस प्रकार विचार उत्पन्न हुआ कि 'श्रमण.भगवान् महावीर स्वामी, धर्म की आदि करने वाले, तीर्थकर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हैं, जिनके आगे आकाश में धर्मचक्र चलता है, वे यहां सहस्राम्रवन उद्यान में यथा-योग्य अवग्रह ग्रहण करके यावत् विचरते हैं। इस प्रकार के अरिहंत भगवन्तों का नाम-गोत्र सुनना भी महाफल वाला है, तो उनके सम्मुख जाना, वन्दन करना, इत्यादि का तो कहना ही क्या, इत्यादि औपपातिक सूत्र के उल्लेखानुसार विचार किया, यावत् एक भी आर्य धार्मिक सुवचन का सुनना भी महाफल दायक है, तो विपुल अर्थ के अवधारण का तो कहना ही क्या । अतः मैं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास जाऊं, वन्दन-नमस्कार यावत् पर्युपासना करूं। यह मेरे लिये इस भव और पर भव में यावत् श्रेयकारी होगा।' १८-ऐसा विचार कर तापसों के मठ में आये और उसमें प्रवेश किया। मठ में से लोढ़ी, लोह-कड़ाह यावत् कावड़ आदि उपकरण लेकर पुनः निकले। विभंगज्ञान रहित वे शिवराजर्षि हस्तिनापुर नगर के मध्य होते हुए सहस्राम्रवन उद्यान में, श्रमण भगवान महावीर स्वामी के निकट आये । भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दन नमस्कार किया और न अति दूर न अति निकट यावत् हाथ जोड़ कर भगवान् की उपासना करने लगे। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने शिवराजर्षि और महा-परिषद् को धर्मोपदेश दिया यावत्-" इस प्रकार पालन करने से जीव आज्ञा के आराधक होते हैं।" १९-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से धर्मोपदेश सुनकर और अवधारण कर शिवराजर्षि, स्कन्दक की तरह ईशानकोण में गये और लोढ़ी, लोह-कड़ाह यावत् कावड़ आदि तापसोचित उपकरणों को एकान्त स्थान में डाल दिया। फिर स्वयमेव पञ्चमुष्टि लोच किया और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप (नौवें शतक के तेतीसवें उद्देशक में कथित) ऋषभदत्त की तरह प्रव्रज्या अंगीकार की । ग्यारह अंगों का ज्ञान पढ़ा, यावत् वे शिवराजर्षि समस्त दुःखों से For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९६ - भगवती सूत्र-श ११ उ १० लोक के अध्यादि भेद मुक्त हुए। २० प्रश्न-श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार कर, गौतमस्वामी ने इस प्रकार पूछा-'हे भगवन् ! सिद्ध होने वाले जीव किस संहनन में सिद्ध होते हैं ?' २० उत्तर-हे गौतम ! वज्रऋषभनाराच संहनन में सिद्ध होते हैं, इत्यादि औपपातिक सूत्र के अनुसार 'संहनन, संस्थान, उच्चत्व, आयुष्य, परिवसन (निवास), इस प्रकार सम्पूर्ण सिद्धिगण्डिका तक यावत् सिद्ध जीव अव्याबाध शाश्वत सुखों का अनुभव करते हैं-कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ ग्यारहवें शतक का नौवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक ११ उद्देशक १० लोक के द्रव्यादि भेद १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-कइविहे गं भंते ! लोए पण्णत्ते? १ उत्तर-गोयमा ! चउविहे लोए पण्णत्ते, तंजहा-दव्वलोए. खेचलोए काललोए भावलोए। For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शं. ११ उ. १० लोकं के द्रव्यादि भेद १८६० २ प्रश्न-खेत्तलोए णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? २ उत्तर-गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-१ अहोलोयखेत्तलोए २ तिरियलोयखेत्तलोए ३ उड्ढलोयखेत्तलोए । ३ प्रश्न-अहोलोयखेत्तलोए णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ३ उत्तर-गोयमो ! सत्तविहे पण्णत्ते, तंजहा-रयणप्पभापुढवि. अहोलोयखेत्तलोए, जाव-अहेसत्तमापुढविअहोलोयखेत्तलोए । ४ प्रश्न-तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ४ उत्तर-गोयमा ! असंखेज्जविहे पण्णत्ते, तंजहा-जंबुद्दीवे दीवे तिरियलोयखेत्तलोए, जाव-सयंभूरमणसमुद्दे तिरियलोयखेत्तलोए। ५ प्रश्न-उड्ढलोयखेत्तलोए णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ५ उत्तर-गोयमा ! पण्णरसविहे पण्णत्ते, तंजहा-सोहम्मकप्पउड्ढलोयखेत्तलोए, जाव-अच्चुयउड्ढलोए, गेवेज्जविमाणउलोए, अणुत्तरविमाण० ईसिपव्भारपुढविउड्ढलोयखेत्तलोए । कठिन शब्दार्थ-ईसिपन्भारपुढवी-ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी-सिद्ध-शिला। भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा--'हे भगवन् ! लोक कितने प्रकार का कहा गया है ?' १ उत्तर-हे गौतम ! लोक चार प्रकार का कहा गया है । यथा-- १ द्रव्य लोक, २ क्षेत्र लोक, ३ काल लोक और ४ भाव लोक । २ प्रश्न-हे भगवन् ! क्षेत्र-लोक कितने प्रकार का कहा गया है ? For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९८ भगवती सूत्र-श. ११ उ. १० लोक के द्रव्यादि भेद - २ उत्तर-हे गौतम ! तीन प्रकार का कहा गया है। यथा-१ अधोलोक क्षेत्रलोक २ तिर्यग्लोक क्षेत्रलोक, ३ ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक । ३ प्रश्न-हे भगवन् ! अधोलोक क्षेत्रलोक कितने प्रकार का कहा गया ३ उत्तर-हे गौतम ! सात प्रकार का कहा गया है । यथा-रत्नप्रभापृथ्वी अधोलोक क्षेत्रलोक, यावत् अधःसप्तमपृथ्वी अधोलोक क्षेत्रलोक । ४ प्रश्न-हे भगवन् ! तिर्यग्लोक क्षेत्रलोक कितने प्रकार का कहा गया है ? ४ उत्तर-हे गौतम ! असंख्य प्रकार का कहा गया है । यथा-जम्बूद्वीपतिर्यग्लोक क्षेत्रलोक यावत् स्वयंभूरमणसमुद्र तिर्यग्लोक क्षेत्रलोक । ५ प्रश्न-हे भगवन् ! ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक कितने प्रकार का कहा गया है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! पन्द्रह प्रकार का कहा गया है। यथा-(१-१२) सौधर्मकल्प ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक यावत् अच्युत्कल्प ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक । १३ ग्रेवे. यक विमान ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक । १४ अनुत्तरविमान ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक । १५ ईषत्प्राग्भार पृथ्वी ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक। विवेचन-धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय से व्याप्त सम्पूर्ण द्रव्यों के आधाररूप चौदह राजु परिमाण आकाशखण्ड को 'लोक' कहते हैं । वह लोक चार प्रकार का है। उनमें से द्रव्य लोक के दो भेद हैं-आगमतः और नोआगमतः । जो 'लोक' शब्द के अर्थ को जानता हैं, किंतु उसमें उपयोग नहीं है, उसे 'आगमतः द्रव्यलोक' कहते हैं। नोआगमतः द्रव्यलोक के तीन भेद किये गये हैं । यथा-१ जशरीर, २ भव्यशरीर, ३ तद्व्यतिरिक्त । जिस प्रकार जिस घड़े में घी भरा था, वह घी निकाल लेने पर भी 'घी का घड़ा' कहा जाता है, इसी प्रकार जिस व्यक्ति ने पहले 'लोक' शब्द का अर्थ जाना था उसके मत शरीर को 'ज्ञशरीर द्रव्यलोक' कहते हैं । जिस प्रकार भविष्य में राजा की पर्याय प्राप्त करने के योग्य राजकुमार को 'भावी राजा' कहा जाता है, तथा भविष्य में जिस घट में मधु रखा जायगा, उस घट को अभी से 'मधुघट' कहा जाता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति भविष्य में लोक शब्द के अर्थ को जानेगा, उसके सचेतन शरीर को 'भव्यशरीर द्रव्यलोक' कहते हैं। धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों को 'ज्ञशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्य लोक' कहते हैं । क्षेत्र रूप लोक को 'क्षेत्र-लोक' कहते हैं । उसके भेद ऊपर बतलाये गये हैं। For Personal & Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ११ उ. १० लोक के द्रव्यादि भेद ६ प्रश्न - अहोलोयखेत्तलोए णं भंते! किंसंठिए पण्णत्ते ? ६ उत्तर - गोयमा ! तप्पागारसंठिए पण्णत्ते । ७ प्रश्न- तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! किंसंटिए पण्णत्ते ? ७ उत्तर - गोयमा ! झल्लरिसंठिए पण्णत्ते । ८ प्रश्न - उड्ढलोयखेत्तलोए - पुच्छा ? ८ उत्तर - उड्ढमुइंगाकार संठिए पण्णत्ते । ९ प्रश्न - लोए णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते ? ९ उत्तर - गोयमा ! सुपरट्टगसंठिए लोए पण्णत्ते, तंजहाहेडा विच्छिणे, मज्झे संखित्ते, जहा सत्तमसए पढमुद्देसए जाव अंत करेइ | १८९९ १० प्रश्न - अलोए णं भंते ! किंसटिए पण्णत्ते ? १० उत्तर - गोयमा ! सिरगोलसंठिए पण्णत्ते । ११ प्रश्न - अहोलोयखेत्तलोए णं भंते! किं जीवा, जीवदेसा, जाव पएसा ? ११ उत्तर - एवं जहा इंदा दिसा तहेव णिरवसेसं भाणियव्वं, जाव अद्धासमए । १२ प्रश्न - तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते! किं जीवा ० १ १२ उत्तर - एवं चेव, एवं उड्ढलोयखेत्तलोए वि णवरं अरूवी छवि, अद्धासमओ णत्थि । For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०० भगवती सूत्र-श. ११ उः १० लोक के द्रव्यादि भेद १३ प्रश्न-लोए णं भंते ! किं जीवा ? . १३ उत्तर-जहा बिईयसए अथिउद्देसए लोयागासे, णवरं अरूवी सत्तविहा, जाव-अहम्मत्थिकायस्स पएसा, णोआगासस्थिकाए, आगासस्थिकायस्स देसे, आगासस्थिकायपएसा, अद्धासमए, सेसं तं चेव । १४ प्रश्न-अलोए णं भंते ! किं जीवा० ? १४ उत्तर-एवं जहा अत्थिकायउद्देसए अलोयागासे, तहेव गिरवसेसं जाव अणंताभागूणे। कठिन शब्दार्थ-तप्पागारसंठिए-त्रापा (तिपाई) के आकार, मल्लरिसंठिए-झालर के आकार, उड्डमुइंग--ऊर्ध्व मृदंग, सुपइट्ठ--सुप्रतिप्टक (शराव) विच्छिण्णे-विस्तीर्ण, संविखते-संक्षिप्त, झूसिर-पोला । भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन ! अधोलोक क्षेत्रलोक का कैसा संस्थान है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! त्रपा (तिपाई) के आकार है। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! तिर्यग्लोक क्षेत्रलोक का संस्थान कैसा है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! झालर के आकार का है। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! ऊर्ध्वलोक क्षेत्र लोक का कैसा संस्थान है ? . . ८ उत्तर-हे गौतम ! ऊर्ध्व मृदंग के आकार है। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! लोक का कैसा संस्थान है ? ९ उलर-हे गौतम ! लोक सुप्रतिष्ठक (शराव) के आकार है । यथावह नीचे चौड़ा है। मध्य में संक्षिप्त (संकीर्ण) है, इत्यादि सातवें शतक के प्रथम उद्देशक में कहे अनुसार जानना चाहिये । उस लोक को उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक केवलज्ञानी जानते हैं। इसके पश्चात् वे सिद्ध होते हैं यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श-११ उ. १० लोव के द्रव्यादि भेद . १० प्रश्न-हे भगवन् ! अलोक का कैसा संस्थान कहा है ? १० उत्तर-हे गौतम ! अलोक का संस्थान पोले गोले के समान कहा ११ प्रश्न-हे भगवन् ! अधोलोक क्षेत्रलोक में क्या जीव हैं, जीव के देश हैं, जीव के प्रदेश है, अजीव हैं, अजीव के देश हैं और अजीव के प्रदेश ' ११ उत्तर-हे गौतन ! जिस प्रकार दसवें शतक के प्रथम उद्देशक में ऐन्द्री दिशा के विषय में कहा, उसी प्रकार यहां भी सभी वर्णन कहना चाहिये, यावत् ‘अद्धासमय' (काल) रूप है। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! तिर्यग्लोक जीव रूप है, इत्यादि प्रश्न । १२ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् जानना चाहिये । इसी प्रकार ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक के विषय में भी जानना चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि ऊर्बलोक में अरूपी के छह भेद ही हैं, क्योंकि वहां अद्धासमय नहीं है । १३ प्रश्न-हे भगवन् ! लोक में जीव है, इत्यादि प्रश्न । १३ उत्तर-हे गौतम ! दूसरे शतक के दसवें अस्ति उद्देशक में लोकाकाश के विषय-वर्णन के अनुसार जानना चाहिये, विशेष में यहाँ अरूपी के सात भेद कहने चाहिये, यावत् अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, आकाशास्तिकाय का देश, आकाशास्तिकाय के प्रदेश और अद्धासमय । शेष पूर्ववत् जानना चाहिये। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! अलोक में जीव हैं, इत्यादि प्रश्न । १४ उत्तर-हे गौतम ! दूसरे शतक के दसवें अस्तिकाय उद्देशक में जिस प्रकार अलोकाकाश के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये, यावत् वह सर्वाकाश के अनन्तवें भाग न्यून है। विवेचन-अधोलोक क्षेत्रलोक तिपाई के आकार का है, तिर्यग्लोक क्षेत्रलोक झालर के आकार का है, ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक खड़ीमृदंग के आकार का है और लोक का आकार सुप्रतिष्ठक (शराव) जैसा है, अर्थात् नीचे एक उल्टा शराव रखा जाय, उसके ऊपर एक शराव सीधा रखा जाय और उसके ऊपर एक शराव उल्टा रखा जाय, इसका जो आकार बनता For Personal & Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१२ भगवती सूत्र-श. ११ उ. १० लोक के द्रव्यादि भेद है, वह लोक का आकार है । लोक का विस्तार मूल में सातरज्जु है। ऊपर क्रम से घटते हुए सातरज्जु की ऊंचाई पर विस्तार एक रज्जु है । फिर कम से वढ़ कर साढ़े नव से साढ़े दस रज्जु की ऊँचाई पर विस्तार पांच रज्जु है । फिर क्रम से घटकर मूल से चौदह रज्जु की ऊँचाई पर विस्तार एक रज्जु का है । ऊर्ध्व और अधो दिशा में ऊँचाई चौदह रज्जु है। अलोक का संस्थान पोले गोले के आकार है। अधोलोक में जीव भी हैं, जीव के देश भी हैं, जीव के प्रदेश भी हैं, अजीव भी हैं, अजीव के देश भी हैं और अजीव के प्रदेश भी हैं। इसी प्रकार तिर्यग-लोक में भी कहना चाहिए । ऊर्ध्वलोक में काल को छोड़कर अरूपी अजीव के छह बोल कहना चाहिए । क्योंकि ऊर्ध्व-लोक में सूर्य के प्रकाश से प्रकटित काल नहीं है। लोक में धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, आकाशास्किाय का देश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश और काल, ये अरूपी के सात भेद हैं । इनमें पहला धर्मास्तिकाय है, क्योंकि वह सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है । लोक में धर्मास्तिकाय का देश नहीं है, क्योंकि लोक में अखण्ड धर्मास्तिकाय है। धर्मास्तिकाय, के ' प्रदेश हैं, क्योंकि धर्मास्तिकाय उन प्रदेशों का समुदाय रूप है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय . के भी दो भेद लोक में है । लोक में सम्पूर्ण आकाशास्तिकाय नहीं, किंतु उसका एक भाग है । इसीलिए कहा गया है कि आकाशास्तिकाय का देश है तथा आकाशास्तिकाय के प्रदेश हैं । लोक में काल द्रव्य भी हैं। ___ अलोक में जीव, जीव के देश और जीव के प्रदेश नहीं है और अजीव, अजीव के देश, और अजीव के प्रदेश भी नहीं हैं। एक अजीव द्रव्य का देश रूप अलोकाकाश है । वह भी अगुरु लघु है । अनन्त अगुरुलघु गुणों से संयुक्त आकाश के अनन्तवें भाग न्यून है । १५ प्रश्न-अहेलोयखेत्तलोयस्स णं भंते ! एगंमि आगासपएसे किं जीवा जीवदेसा जीवप्पएसा अजीवा अजीवदेसा अजीवपएसा ? १५ उत्तर-गोयमा ! णो जीवा, जीवदेसा वि जीवपएसा वि अजीवा वि अजीवदेसा वि अजीवपएसा वि । जे जीवदेसा ते For Personal & Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-अ. ११ उ. १० लोक के द्रव्यादि भेद -१९०३ णियमा १ एगिदिय देसा, २ अहवा एगिदियदेसा य वेइंदियस्स देसे, ३ अहवा एगिदियदेसा य वेइंदियाण य देसा । एवं मझिल्ल. विरहिओ जाव-अणिदिएसु, जाव-अहवा एगिदियदेसा य अणिंदियदेसा य। जे जीवपएसा ते णियमा १ एगिंदियपएसा, २ अहवा एगिदियपएसा य वेइंदियस्स पएसा, ३ अहवा एगिदियपएसा य बेइंदियाण य पएसा, एवं आइल्लविरहिओ जाव पंचिंदिएसु, आणि. दिएमु तियभंगो । जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-रूवी अजीवा य अरूवी अजीवा य । रूवी तहेव, जे अरूवी अजीवा ते पंचविहा पण्णता, तंजहा-१ णोधम्मत्थिकाए धम्मस्थिकायस्स देसे, २ धम्मत्थिकायस्स पएसे, एवं ४ अहम्मत्थिकायस्स वि, ५ अद्धासमए। भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! अधोलोक क्षेत्रलोक के एक आकाशप्रदेश में जीव हैं, जीवों के देश हैं, जीवों के प्रदेश हैं, अजीव हैं, अजीवों के देश हैं, अजीवों के प्रदेश हैं ? १५ उत्तर-हे गौतम ! जीव नहीं, किंतु जीवों के देश हैं, जीवों के प्रदेश हैं, अजीव हैं, अजीवों के देश हैं और अजीवों के प्रदेश हैं । इनमें जो जीवों के देश हैं, वे नियम से १ एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं । अथवा २ एकेन्द्रिय जीवों के देश और बेइन्द्रिय जीव का एक देश है। ३ अथवा एकेन्द्रिय जीवों के देश और बेइंद्रिय जीवों के देश हैं। इस प्रकार मध्यम भंग रहित (एकेन्द्रिय जीवों के देश और बेइंद्रिय जीव के देश, इस मध्यम भंग से रहित)शेष भंग यावत् अनिन्द्रिय तक जानना चाहिये यावत् एकेन्द्रिय जीवों के देश और अनिन्द्रिय जीवों For Personal & Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९०४ भगवती सूत्र - श. ११७. १० लोक के द्रव्यादि भेद के देश हैं । इनमें जो जीव के प्रदेश हैं, वे नियम से एकेन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं, अथवा एकेन्द्रिय जीवों के प्रदेश और एक बेइन्द्रिय जीव के प्रदेश हैं, अथवा एकेन्द्रिय जीवों के प्रदेश और बेइन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं । इस प्रकार यावत् पञ्चेन्द्रिय तक प्रथम भंग के सिवाय दो दो भंग कहना चाहिये । अनिन्द्रिय में तीनों भंग कहना चाहिये। उनमें जो अजीव हैं, वे दो प्रकार के कहे हैं । यथारूपी अजीव और अरूपी अजीव । रूपी अजीवों का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिये । अरूपी अजीव पांच प्रकार के कहे गये हैं । यथा - १ धर्मास्तिकाय का देश, २ धर्मास्तिकाय का प्रदेश, ३ अधर्मास्तिकाय का देश ४ अधर्मास्तिकाय का प्रदेश और ५ अद्धा समय । १६ प्रश्न - तिरियलोयखेत्तलोयस्स णं भंते ! एगंमि आगासपरसे किं जीवा० ? १६ उत्तर - एवं जहा अहोलोयखेत्तलोयस्स तहेव, एवं उड्ढलोयखेलोस्स वि, णवरं अद्धासमओ णत्थि, अरूवी चउव्विहा । लोयस्स जहा अहोलोयखेत्तलोयस्स एगंमि आगासपएसे । भावार्थ - १६ प्रश्न - हे भगवन् ! तिर्यग्लोक क्षेत्रलोक के एक आकाशप्रदेश में जीव हैं, इत्यादि प्रश्न । १६ उत्तर - हे गौतम ! जिस प्रकार अधोलोक क्षेत्रलोक के विषय में कहा हैं, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये और इसी प्रकार ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक के एक आकाश प्रदेश के विषय में भी जानना चाहिये, किन्तु वहाँ अद्धा समय नहीं है, इसलिये वहाँ चार प्रकार के अरूपी अजीव हैं । लोक के एक आकाशप्रदेश का कथन अधोलोक क्षेत्रलोक के एक आकाश प्रदेश के कथन के समान जानना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श.. ११ उ. १० लोक द्रव्यादि के भेद : १९०५ १७ प्रश्न-अलोयस्स णं भंते ! एमंमि आगासपएसे पुच्छा । १७ उत्तर-गोयमा ! णो जीवा, णो जीवदेसा, तं चेव जाव अणंतेहिं अगरुयलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासस्म अणंतभागूणे । १८-दव्वओ णं अहेलोयखेत्तलोए अणंताई जीवदव्वाई, 'अणंताई अजीवदवाई. अणंता जीवाजीवदव्वा । एवं तिरिय लोयखेतलोए वि एवं उइटलोयखेत्तलोए वि । दव्वओ णं अलोए णेवत्थि जीवदव्वा, णेवत्थि अजीवदव्वा, णेवस्थि जीवाजीवदव्वा, एगे अजीवदव्वदेसे जाव सव्वागासअणंतभागृणे । कालओ पं अहेलोयखेतलोए ण कयाइ णासि, जाव णिच्चे, एवं जाव अलोए । भावओ णं अहेलोयखेतलोए अणंता वण्णपजवा, जहा खंदए, जाव अणंता अगरुयलहुयपजवा, एवं जाव लोए । भावओ णं अलोए णेवत्थि वण्णपजवा, जाव णेवस्थि अगस्यलहुयपज्जवा, एगे अजीवदव्वदेसे, जाव अणंतभागूणे । कठिन शब्दार्थ-णेवत्थि-नहीं। भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! अलोक के एक आकाशप्रदेश में जीव हैं, इत्यादि प्रश्न । १७ उत्तर-हे गौतन ! वहाँ 'जीव नहीं, जीवों के देश नहीं,' इत्यादि पूर्ववत् जानना चाहिये, यावत् अलोक अनन्त अगुरुलयु गुणों से संयुक्त है और सर्वाकाश के अनन्तवें भाग न्यून है । १८-द्रव्य से अधोलोक क्षेत्रलोक में अनन्त जीव द्रव्य हैं, अनन्त अजीव द्रव्य है और अनन्त जीवाजीव द्रव्य हैं। इसी प्रकार तिर्यग्लोक क्षेत्रलोक में और For Personal & Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवंती सूत्र-श. ११ उ. १० लोक की विशालता ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक में भी जानना चाहिये । द्रव्य से अलोक में जीव द्रव्य नहीं, अजीव द्रव्य नहीं और जीवाजीव द्रव्य भी नहीं, किन्तु अजीव द्रव्य का एक देश है यावत् सर्वाकाश के अनन्तवें भाग न्यून है। काल से अधोलोक क्षेत्रलोक किसी समय नहीं था-ऐसा नहीं, यावत् वह नित्य है । इस प्रकार यावत् अलोक के विषय में भी कहना चाहिये । भाव से अधोलोक क्षेत्रलोक में 'अनन्त वर्ण पर्याय हैं,' इत्यादि दूसरे शतक के प्रथम उद्देशक में स्कन्दक वणित प्रकरण के अनुसार जानना चाहिये, यावत् अनन्त अगुरुलघु पर्याय हैं । इस प्रकार यावत् लोक तक जानना चाहिये । भाव से अलोक में वर्ण पर्याय नहीं, यावत् अगुरुलघु पर्याय नहीं है, परन्तु एक अजीव द्रव्य का देश अनन्त अगुरुलघुगुणों से संयुक्त है और वह सर्वाकाश के अनन्तवें भाग न्यून है । विवेचन-यहाँ पर अलोक में जो अगुरुलघु पर्यायों का निषेध किया गया है. वह अन्य दव्यों की पर्यायों की अपेक्षा समझना चाहिये । क्योंकि अलोक में अन्य द्रव्य है ही नहीं। आगमकारों की वर्णन शैली ही इस प्रकार की है कि पहले आधेय द्रव्यों का वर्णन करके वाद में आधार द्रव्य का वर्णन करते हैं। जैसा कि द्रव्य आदि के वर्णन में भी जीव अजीव आदि आधेय द्रव्यों का निषेध करके फिर एक अजीव द्रव्य देश के रूप में अलोक को बताया है। इसी प्रकार यहाँ पर भी आधेय द्रव्यों के अगुरुलघु पर्यन्त पर्यायों का निषेध करके अलोक को एक अजीव द्रव्य के देश रूप और अनन्त अगुरुलघु गणों से संयुक्त बताया है। लोक की विशालता १९ प्रश्न-लोए णं भंते ! के महालए पण्णत्ते ? १९ उत्तर-गोयमा ! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव० जावपरिक्वेवणं । तेणं कालेणं तेणं समएणं छ देवा महिड्ढीया जावमहेसक्खा जंबुद्दीवे दीवे मंदरे पव्वए मंदरचूलियं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठेजा, अहे णं चत्तारि दिसाकुमारीओ महत्तरि For Personal & Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · भगवती सूत्र-अ. ११ उ. १० लोक की विशालता १९०७ याओ चत्तारि वलिपिंडे गहाय जंबुद्दीवस्स दीवस्स चउसु वि दिसासु चहिया अभिमुहीओ ठिचा ते चत्तारि वलिपिंडे जमगममगं वहियाभिमुहे पक्खियेजा, पभू णं गोयमा ! तओ एगमेगे देवे ते चत्तारि बलिपिंडे धरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरित्तए, ते णं गोयमा ! देवा ताए उक्किट्ठाए जात्र देवगईए एगे देवे पुरच्छाभिमुहे पयाए, एवं दाहिणाभिमुहे, एवं पच्चस्थाभिमुहे, एवं उत्तराभिमुहे, एवं उड्ढाभि० एगे देवे अहोभिमुहे पयाए, तेणं कालेणं तेणं समएणं वाससहस्साउए दारए पयाए, तएणं तरस दारगस्स अम्मापियरो पहीणा भवंति, णो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति । तएणं तस्स दारगस्म आउए पहीणे भवइ. णो चेव णं जाव संपाउणंति. तएणं तस्स दास्गस्स अट्ठिमिजा पहीणा भवंति, णो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति । तएणं तस्स दारगस्स आसत्तमे वि कुलवंसे पहीणे भवइ, णो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति । तएणं तस्स दारगग्स णामगोए वि पहीणे भवइ, णो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति, तेसि णं भंते ! देवाणं किं गए वहुए अगए बहुए ? गोयमा ! गए वहुए णो अगए बहुए, गयाउ से अगए असंखेजहभागे, अगयाउ से गए असंखेनगुणे, लोए णं गोयमा ! एमहालए पण्णत्ते । __कठिन शब्दार्थ-महालए-वड़ा, चिट्ठज्जा-खड़े रहे, जमगसमग-एक साथ, पडिसाहरित्तए-ग्रहण कर सके, पयाए-गया, उत्पन्न हुआ, दारए-बालक, पहीणा-नष्ट हुए, मर गए। For Personal & Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९०८ भगवती सूत्र-श. ११ उ. १० लोफ की विशालता भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! लोक कितना बड़ा कहा है ? १९ उत्तर-हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक यह द्वीप, समस्त द्वीप और समुद्रों के मध्य में है । इसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस (३१६२२७) योजन, तीन कोस एक सौ अट्ठाईस धनुष और साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है । यदि महद्धिक यावत् महासुख सम्पन्न छह देव, मेरु पर्वत पर उसकी चूलिका के चारों तरफ खड़े रहें और नीचे चार दिशाकुमारी देवियां चार बलिपिण्ड लेकर जम्बूद्वीप की जगती पर चारों दिशाओं में बाहर की ओर मुंह करके खड़ी होवें, फिर वे देवियां एक साथ चारों बलिपिण्डों को बाहर फेंके। उसी समय उन देवों में से प्रत्येक देव चारों बलिपिण्डों को पृथ्वी पर गिरने के पहले ही ग्रहण करने में समर्थ हैं-ऐसी तीव्र गति वाले उन देवों में से एक देव उत्कृष्ट यावत् तीव्र गति से पूर्व में, एक देव पश्चिम में, एक देव उत्तर में, एक देव दक्षिण में, एक देव ऊर्ध्वदिशा में और एक देव अधोदिशा में जावे, उपी दिन, उसी समय एक गाथापति के, एक हजार वर्ष की आयुष्य वाला एक बालक हआ। बाद में उस बालक के माता-पिता कालधर्म को प्राप्त हो गये, उतने समय में भी वे देव, लोक का अन्त प्राप्त नहीं कर सकते । वह बालक स्वयं आयुष्य पूर्ण होने पर काल-धर्म को प्राप्त हो गया, उतने समय में भी वे देव, लोक का अन्त प्राप्त नहीं कर सकते । उस बालक के हाड़ और हाड़ को मज्जा विनष्ट हो गई, तो भी वे देव, लोक का अन्त प्राप्त नहीं कर सकते। उस बालक की सात पीढ़ी तक कुलवंश नष्ट हो गया, तो उतने समय में भी वे देव, लोक का अन्त प्राप्त नहीं कर सकते । पश्चात् उस बालक के नाम-गोत्र भी नष्ट हो गये, उतने समय तक चलते रहने पर भी वे देव, लोक के अन्त को प्राप्त नहीं कर सकते। (प्रश्न) हे भगवन् ! उन देवों का गत (गया हुआ-उल्लंघन किया हआ) क्षेत्र अधिक है, या अगत (नहीं गया हुआ) क्षेत्र अधिक है ? (उत्तर) हे गौतम ! गत-क्षेत्र अधिक है। अगत-क्षेत्र थोड़ा है । अगतक्षेत्र, गत-क्षेत्र के असंख्यातवें भाग है । अगत-क्षेत्र से गत-क्षेत्र असंख्यात गुणा है। हे गौतम ! लोक इतना बड़ा है। For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ११ उ. १० अलोक की विशालता विवेचन-लोक की विशालता को बतलाने के लिये असत् कल्पना मे यह रूपक परिकल्पित किया गया है। शंका - मेरुपर्वत की चूलिका से पूर्वादि चारों दिशाओं में लोक का विस्तार अर्द्ध रज्जु प्रमाण हैं अधोलोक में सात रज्जु में कुछ अधिक है और ऊर्ध्वलोक में किचिन्न्यून सात रज्जु है । वे सभी देव छहों दिशाओं में समान गति में जाते हैं, फिर छहों दिशाओं में गत क्षेत्र से - अगत क्षेत्र असंख्यातवें भाग एवं अगत क्षेत्र से गत क्षेत्र असंख्यात गुणा कैसे बतलाया गया है ? क्योंकि चारों दिशाओं की अपेक्षा ऊर्ध्व और अधो दिशा में क्षेत्र परिमाण की विषमता I समाधान - शंका उचित है, किन्तु यहाँ घन-कृत ( वर्गीकृत) लोक की विवक्षा करके यह रूपक कल्पित किया गया है, इसलिये कोई दोष नहीं। ऐसा करके मेरु पर्वत को मध्य में रखने पर सभी ओर साढ़े तीन माढ़े तीन रज्जु रह जाता है । शंका-यदि उक्त स्वरूप वाली गति से गमन करते हुए वे देव, इतने लम्बे समय में भी जब लोक के अन्त को प्राप्त नहीं कर सकते, तो तीर्थंकर भगवान् के जन्म-कल्याणादिक मे ठ अच्युत देवलोक तक से देव यहाँ कैसे शीघ्र आ जाते हैं ? क्योंकि क्षेत्र बहुत लम्बा है और अवतरण काल ( उन देवों के आने का समय ) अत्यल्प है ? समाधान- शंका उचित हैं, किन्तु तीर्थंकर भगवान् के जन्म कल्याणादि में आने की गनि शीघ्रतम है । उस गति की अपेक्षा इस प्रकरण में बतलाई हुई देवों की गति अतिमन्द है । १९०९ अलोक की विशालता २० प्रश्न - अलोए णं भंते ! के महालए पण्णत्ते ? २० उत्तर - गोयमा ! अयण्णं समयखेत्ते पणयालीसं जोयणसयसहस्साइं आयामविक्खंभेणं, जहा खंदए, जाव परिक्खेवेणं । तेणं काणं तेणं समरणं दस देवा महिडिढया तहेव जाव संपरिविखत्ता • वे देव भी कदाचित् तिलोक के होगे ? — डोशी ! For Personal & Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१० भगवती सूत्र-श. ११ उ. १० अलोक की विशालता णं संचिटेजा, अहे णं अट्ठ दिमाकुमारीओ महत्तरियाओ अट्ठ बलिपिंडे गहाय माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स चउसु वि दिसासु चउसु वि विदिसासु बहियाभिमुहीओ ठिचा ते अट्ठ वलिपिंडे जमगसमगं बहियाभिमुहे पक्खिवेजा, पभू णं गोयमा ! तओ एगमेगे देवे ते अट्ट बलिपिंडे धरणितलमसंपते खिप्पामेव पडिसाहरित्तए, ते णं गोयमा ! देवा ताए उक्किटाए जाव देवगईए लोगते ठिचा असल्भावपट्टवणाए एगे देवे पुरच्छाभिमुहे पयाए, एगे देवे दाहिणपुरच्छाभिमुहे पयाए, एवं जाव उत्तरपुरच्चाभिमुहे, एगे देवे उड्ढाभिमुहे, एगे देवे अहोभिमुहे पयाए । तेणं कालेणं तेणं समरणं वाससयसहस्साउए दारए पयाए । तएणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पहीणा भवंति, णो चेव णं ते देवा अलोयतं संपाउणंति, तं चेव जाव तेसिं णं भंते ! देवाणं किं गए वहुए अगए बहुए ? गोयमा ! णो गए वहुए अगए बहुए, गयाउ से अगए अणंतगुणे, अगयाउ से गए अणंतभागे, अलोए णं गोयमा ! एमहालए पण्णत्ते । कठिन शब्दार्थ-समयखेते-समय क्षेत्र-मनुष्य लोक । भावार्थ-२० प्रश्न-हे भगवन् ! अलोक कितना बड़ा है ? २० उत्तर-हे गौतम ! इस मनुष्य क्षेत्र की लम्बाई और चौड़ाई पैंतालीस लाख (४५०००००) योजन है, इत्यादि स्कन्दक प्रकरण के अनुसार जानना चाहिये, यात्रन वह परिधि युक्त है । उस समय में दस महद्धिक देव इस मनुष्य लोक को चारों ओर घेर कर खड़े हों, उनके नीवे आठ दिशा कुमारियां आठ बलिपिण्डों को ग्रहण कर मानुषोतर पर्वत की चारों दिशाओं और चारों विदि For Personal & Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘भगवती सूत्र-दश. ११ उ. १० आकाश के एक प्रदेश पर जीव-प्रदेश १९११ . शाओं में बाह्याभिमुख खड़ी रहें, पश्चात् वे उन आठों बलिपिण्डों को एक साथ ही मानुषोत्तर पर्वत को बाहर की दिशाओं में फेंके, तो उन खड़े हुए देवों में से प्रत्येक देव उन बलिपिण्डों को पृथ्वी पर गिरने के पूर्व ही ग्रहण करने में समर्थ हैं,-ऐसी शीघ्र गति वाले वे दसों देव, लोक के अन्त से, यावत् (यह असत् कल्पना है जो संभव नहीं है)पूर्वादि चार दिशाओं में और चारों विदिशाओं में तथा एक ऊर्ध्व-दिशा में और एक अधो-दिशा में जावे। उसी समय एक गाथापति के घर एक लाख वर्ष की आयुष्य वाला एक बालक उत्पन्न हुआ। क्रमशः उस बालक के माता-पिता दिवंगत हुए, उसका भी आयुष्य क्षीण हो गया, उसकी अस्थि और मज्जा नष्ट हो गई और उसकी सात पीढ़ियों के पश्चात् वह कुलवंश भी नष्ट हो गया और उसके नाम-गोत्र भी नष्ट हो गये, इतने समय तक चलते रहने पर भी वे देव अलोक के अन्त को प्राप्त नहीं कर सकते। (प्रश्न) हे भगवन् ! उन देवों द्वारा गत-क्षेत्र अधिक है, या अगत-क्षेत्र. अधिक है ? . (उत्तर) हे गौतम ! गत-क्षेत्र थोड़ा है और अगत-क्षेत्र अधिक है । गत क्षेत्र से अगत-क्षेत्र अनन्त गुण है। अगत-क्षेत्र से गत-क्षेत्र अनन्तवें भाग है। हे गौतम ! अलोक इतना बड़ा कहा गया है। आकाश के एक प्रदेश पर जीव-प्रदेश नर्तकी का दृष्टांत २१ प्रश्न-लोगस्त णं भंते ! एगंमि आगासपएसे जे एगिदियपएसा जाव पंचिंदियपएसा अणिदियपएसा अण्णमण्णबद्धा, अण्ण. मण्णपुट्ठा, जाव अण्णमण्गसमभरघडत्ताए चिटुंति ? अस्थि णं भंते ! For Personal & Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१२ भगवती सूत्र-श. ११ ऊ १० आकाश के एक प्रदेश पर जीव प्रदेश अण्णमण्णस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पायंति, छविच्छेदं वा कति ? २१ उत्तर-णो इणटे समढे । (प्रश्न) से केपट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ-लोयस्स णं एगमि आगा. सपएसे जे एगिदियपएसा जाव चिटुंति, णस्थि णं भंते ! अण्णमपणस्स किंचि आबाहं वा जाव कति ? (उत्तर) गोयमा ! से जहाणामए गट्टिया सिया सिंगारा. गारचाख्वेसा, जाव कलिया रंगट्ठाणंसि जणसयाउलंसि जणसयसहस्साउलंसि बत्तीसइविहस्स णट्टरस अण्णयरं णट्टविहिं उवदंसेज्जा, से णूणं गोयमा ! ते पेच्छगा तं णट्टियं अणिमिसाए दिट्टीए सव्वओ समंता समभिलोएंति ? हंता समभिलोएंति, ताओ णं गोयमा ! दिडिओ तंसि पट्टियंसि सबओ समंता संणिपडियाओ ? हंता सणिपडियाओ, अस्थि णं गोयमा ! ताओ दिट्टीओ तीसे णट्टि. याए किंचि वि आवाहं वा वाबाहं वा उप्पाएंति, छविच्छेदं वा करेंति ? णो इण? समझे । अहवा सा णट्टिया तासिं दिट्टिणं किंचि आवाहं वा वावाहं वा उप्पाएइ, छविच्छेदं वा करेइ ? णो इणढे समटे । ताओ वा दिट्ठीओ अण्णमण्णाए दिट्टीए किंचि आवाहं वा वावाहं का उप्पाएंति, छविच्छेदं वा करेंति ? णो इणटे समढे । से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ-तं चेव जाव छविच्छेदं वा. करति । For Personal & Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवती सूत्र-शः ११ उ.१० आकाश के प्रदेश पर जीव-प्रदेश ..१९१३ कठिन शब्दार्थ-आबाह-आवाधा-पीड़ा, वाबाह-त्यावाधा-विशेष पोड़ा, छविच्छेदंछविच्छेद-अवयव का छेद, पट्टिया-नर्तकी-नृत्य करने वाली, अण्णमण्णसमभरघडताएपरस्पर सम्बद्ध, सिंगारागार चारुवेसा-शृंगार मुन्दर आकार और सुन्दर वेश युक्त, जगसयाउलंसि-सैकड़ों मनुष्यों से, पेच्छगा-प्रेक्षक । .. भावार्थ--२१ प्रश्न-हे भगवन् ! लोक के एक आकाशप्रदेश पर एफेन्द्रिय जीवों के जो प्रदेश हैं, यावत् पंचेंद्रिय जीवों के और अनिन्द्रिय जीवों के जो प्रदेश हैं, क्या वे सभी अन्योन्य बद्ध हैं, अन्योन्य स्पष्ट हैं, यावत् अन्योन्य संबद्ध हैं ? हे भगवन् ! वे परस्पर एक दूसरे को आबाधा (पीड़ा) और व्याबाधा (विशेष पीड़ा) उत्पन्न करते हैं, तथा उनके अवयवों का छेद करते हैं ? २१ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। (प्र०) हे भगवन् ! इसका क्या कारण है, यावत् वे पीड़ा नहीं पहुंचाते और अवयवों का छेद नहीं करते ? (उ०) हे गौतम ! जिस प्रकार कोई शृंगारित और उत्तम वेषवाली यावत् मधुर कण्ठवाली नर्तकी सैकड़ों और लाखों व्यक्तियों से परिपूर्ण रंगस्थली में बत्तीस प्रकार के नाटयों में से कोई एक नाट्य दिखाती है, तो हे गौतम ! क्या दर्शक लोग, उस नर्तकी को अनिमेष दृष्टि से चारों ओर से देखते हैं और उनकी दृष्टियां उस नर्तकी के चारों ओर गिरती हैं ? हाँ, भगवन् ! वे दर्शक लोग उसे अनिमेष दृष्टि से देखते हैं और उनकी दृष्टियाँ उसके चारों ओर गिरती हैं। हे गौतन ! क्या उन दर्शकों की वे दृष्टियाँ उस नर्तकी को किसी प्रकार की पीड़ा पहुँचाती है, या उसके अवयव का छेद करती है ? हे भगवन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं । हे गौतम ! वे दृष्टियाँ परस्पर एक दूसरे को किसी प्रकार की पीड़ा उत्पन्न करती है, या उनके अवयव का छेद करती है ? हे भगवन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं । हे गौतम ! इसी प्रकार जीवों के आत्मप्रदेश परस्पर बद्ध, स्पृष्ट और संबद्ध होने पर भी आबाधा, व्याबाधा उत्पन्न नहीं करते और न अवयव का छेद करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१४ भगवती सूत्र-श. ११ उ. १० आकाश के प्रदेश पर जीव-प्रदेश २२ प्रश्न-लोयस्स णं भंते ! एगमि आगासपएसे जहण्णपए जीवपएसाण उबकोसपए जीवपएसाणं, सव्वजीवाणं य कयरे कयरे० जाव विसेसाहिया वा ? २२ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा लोयस्स एगंमि आगासपएसे जहण्णपए जीवपएसा, सव्वजीवा असंखेज्जगुणा, उपकोसपए जीव. पएसा विसेसाहिया। ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ एक्कारससए दसमोइसो समत्तो॥ भावार्थ-२२ प्रश्न-हे भगवन् ! लोक के एक आकाश प्रदेश पर जघन्य पद में रहे हुए जीव-प्रदेश, उत्कृष्ट पद में रहे हुए जीव-प्रदेश और सभी जीव, इनमें कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? - २२ उत्तर-हे गौतम ! लोक के एक आकाश-प्रदेश पर जघन्य पद में रहे हुए जीव-प्रदेश सब से थोड़े हैं। उससे सभी जीव असंख्यात गुण हैं, उससे एक आकाशप्रदेश पर उत्कृष्ट पद से रहे हुए जीव-प्रदेश विशेषाधिक है। .. हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ग्यारहवें शतक का दसवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९९ उद्देशक ९१ सुदर्शन सेठ के काल विषयक प्रश्नोत्तर १-तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे णाम णयरे होत्था, वण्णओ । दूइपलासए चेहए, वण्णओ, जाव पुढविसिलापट्टओ। तत्थ णं वाणियग्गामे णयरे सुदंसणे गामं सेट्ठी परिवसइ, अढे, जाव अपरिभूए समगोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ । सामी समोसढे, जाव परिसा पज्जुवासइ । तएणं से सुदसणे सेट्टी इमीसे कहाए लढे समाणे हद्व-तुढे व्हाए कय-जाव पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए साओ गिहाओ परिणिक्समइ, साओ० सको. रेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं पायविहारचारेणं महयापुरिसवग्गुरापरिक्खित्ते वाणियग्गामं णयरं मझं मज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव दूइपलासे चेहए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव० समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, तंजहा-सचित्ताणं दव्वाणं० जहा उसभदत्तो, जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ । तएणं समणे भगवं महावीरे सुदंसणस्स सेट्ठिस्स तीसे य महतिमहालयाए जाव आरा. हए भवइ । तएणं से सुदंसणे सेट्ठी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा, णिसम्म हट्ठ-तुट्टे उट्ठाए उठेइ, उठाए० समणं For Personal & Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१६ भगवती सूत्र-श. ११ उ.. ११ सुदर्शन सेठ के काल विषयक प्रश्नोत्तर भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव णमंसित्ता एवं वयासी कठिन शब्दार्थ-परिवसइ-रहता था, अड्ढे-आढ्य-धनाढ्य, अपरिभूएकिसी से नहीं दबने वाला (दृढ़) । भावार्थ-१-उस काल उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था (वर्णन)। द्युतिपलाश नामक उद्यान था (वर्णन)। उसमें एक पृथ्वी-शिलापट्ट था। उस वाणिज्यग्राम नगर में सुदर्शन नामक सेठ रहता था। वह आढय यावत् अपरिभूत था। वह जीवाजीवादि तत्त्वों का जाननेवाला श्रमणोपासक था । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहाँ पधारे, यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। भगवान् का आगमन सुनकर सुदर्शन सेठ बहुत हर्षित एवं संतुष्ट हुआ। वह स्नानादि कर एवं वस्त्रालंकारों से विभूषित होकर, कोरण्ट पुष्प की मालायुक्त छत्र धारण कर, अनेक व्यक्तियों के साथ पैदल चल कर भगवान के दर्शनार्थ गया । नौवें शतक के तेतीसवें उद्देशक में ऋषभदत्त के प्रकरण में कथित पांच अभिगम करके वह सुदर्शन सेठ, भगवान् की तीन प्रकार की पर्युपासना करने लगा। भगवान् ने उस महापरिषद् को और सुदर्शन सेठ को 'आराधक बनने' जैसी धर्म-कथा कही । धर्म-कथा सुनकर सुदर्शन सेठ अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए। उन्होंने खड़े होकर भगवान को तीन बार प्रदक्षिणा की और वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार पूछा। २ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! काले पण्णत्ते ? २ उत्तर-सुदंसणा ! चउविहे काले पण्णत्ते, तंजहा-१ पमाणकाले २ अहाउणिव्वत्तिकाले ३ मरणकाले ४ अद्धाकाले । ३ प्रश्न-से किं तं पमाणकाले ? ३ उत्तर-पमाणकाले दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-दिवसप्पमाणकाले For Personal & Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शः ११ उ. ११गुरशर सेट के काल. विषयक प्रश्नोत्तर . १९१७ राइप्पमाणकाले य । चउपोरिसिए दिवसे चउपोरिसिया राई भवइ । उक्कोसिआ अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, जहणिया तिमुहुत्ता दिवसस्त वा राईए वा पोरिसी भवड् । भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! काल कितने प्रकार का कहा है ? २ उत्तर-हे सुदर्शन ! काल चार प्रकार का कहा है । यथा-१ प्रमाण काल, २ यथायुनिर्वृत्ति काल, ३ मरण काल और ४ अद्धा काल । ३ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रमाण काल कितने प्रकार का कहा है ? ३ उत्तर-हे सुदर्शन ! प्रमाण काल दो प्रकार का कहा है । यथा-दिवसप्रमाण काल और रात्रि प्रमाणकाल । चार पौरुषी (प्रहर) का दिवस होता है और चार पौरुषी की रात्रि होती है । दिवस और रात्रि की पौरुषी उत्कृष्ट साढ़े चार मुहूर्त की और जघन्य तीन मुहूर्त की होती है। ४ प्रश्न-जया णं भंते ! उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसरस वा राईए वा पोरिसी भवइ, तया णं कहभागमुहत्तभागेणं परिहाय. माणी परिहायमाणी जहणिया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ ? जया णं जहणिया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, तया गं कहभागमुहत्तभागेणं परिवड्ढमाणी परिवड्ढमाणी उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ ? . ४ उत्तर-सुदंसणा ! जया णं उक्कोसिया अद्धपंचममुहत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ तया णं वावीससयभागमुहत्त For Personal & Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१८ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ११ सुदर्शन सेठ के काल विषयक प्रश्नोत्तर भागेणं परिहायमाणी परिहायमाणी जहणिया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ । जया णं. जहणिया तिमुहुत्ता दिव. सस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, तया णं बावीससयभागमहत्तभागेणं परिवड्ढमाणी परिवड्ढमाणी उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ । ५ प्रश्न-कया णं भंते ! उनकोसिया अद्धपंचममुहत्ता दिवसरस वारा ईए वा पोरिसी भवइ, कया वा जहणिया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ ? ५ उत्तर-सुदंसणा ! जया णं उनकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहत्ता राई भवइ तया णं उनकोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स पोरिसी भवइ, जहणिया तिमुहुत्ता राईए पोरिसी भवइ । जया णं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्तिया राई भवइ, जहण्णिए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता राईए पोरिसी भवइ, जहणिया तिमुहुत्ता दिवसरस पोरिसी भवइ । कठिन शब्दार्थ-जया णं-जब, कया णे-कव । भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! जब दिवस की अथवा रात्रि की पौरुषी उत्कृष्ट साढ़े चार मुहूर्त को होती है, तब उस मुहूर्त का कितना भाग घटते-घटते (कम होते हुए) दिवस और रात्रि की जघन्य तीन मुहूर्त की पौरुषी होती है, और जब दिवस अथवा रात्रि की पौरुषी जघन्य तीन मुहर्त की होती है, तब For Personal & Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ११ उ. ११ सुदर्शन सेठ के काल विषयक प्रश्नोत्तर १९१९ मुहूर्त का कितने भाग बढ़ते-बढ़ते उत्कृष्ट साढ़े चार मुहूर्त की पौरुषी होती है ? ४ उत्तर - हे सुदर्शन ! जब दिवस और रात्रि की पौरुषो उत्कृष्ट साढ़े चार मुहूर्त की होती है, तब मुहूर्त का एक सौ बाईसवां भाग घटते घटते जघन्य पौरुषी तीन मुहूर्त की होती है और जब जघन्य पौरुषी तीन मुहूर्त की होती है, तब मुहूर्त का एक सौ बाईसवां भाग बढ़ते-बढ़ते उत्कृष्ट पौरुषी साढ़े चार मुहूर्त की होती है । ५ प्रश्न - हे भगवन् ! दिवस की अथवा रात्रि की उत्कृष्ट साढ़े चार मुहूर्त की पौरुषी कब होती है और जघन्य तीन मुहूर्त की पौरुषी कब होती है ? ५ उत्तर - हे सुदर्शन ! जब अठारह मुहूर्त का बड़ा दिन होता है और बारह मुहूर्त की छोटी रात्रि होती है तब साढ़े चार मुहूर्त की दिवस को उत्कृष्ट पौरुषी होती है और रात्रि की तीन मुहूर्त की सबसे छोटी पौरुषी होती है। जब अठारह मुहूर्त की बड़ी रात्रि होती है और बारह मुहूर्त का छोटा दिन होता है, तब साढ़े चार मुहूर्त की उत्कृष्ट रात्रि-पौरुषी होती है और तीन मुहूर्त की जघन्य दिवस- पौरुषी होती है । ६ प्रश्न – कया र्णं भंते ! उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, हणिया दुवालसमुत्ता राई भवइ, कया वा उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवर, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ ? ६ उत्तर - सुदंसणा ! आसाढपुण्णिमाए उक्कोसए अट्टारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । पोसस्स पुण्णमाणं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । ७ प्रश्न - अस्थि णं भंते! दिवसा य राइओ य समा चेव For Personal & Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२० भगवती सूत्र-श. ११ उ. ११ सुदर्शन सेठ के काल विषयक प्रश्नोत्तर भवंति ? ७ उत्तर-हंता, अस्थि । ८ प्रश्न-कया णं भंते ! दिवसा य राईओ य समा चेव भवंति ? ८ उत्तर-सुदंसणा ! चित्ता-सोयपुण्णिमासु णं एत्थ णं दिवसा य राईओ य समा चेव भवंति, पण्णरसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमहत्ता राई भवइ । चउभागमुहुत्तभागूणा चउमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ । सेत्तं पमाणकाले। ___भावार्थ-६ प्रश्न-अठारह मुहूर्त का उत्कृष्ट दिवस और बारह महतं की जघन्य रात्रि कब होती है ? तथा अठारह मुहूर्त की उत्कृष्ट रात्रि और बारह मुहूर्त का जघन्य दिवस कब होता है ?, ६ उत्तर-हे सुदर्शन ! आषाढ़ की पूर्णिमा को अठारह मुहूर्त का उत्कृष्ट दिवस तथा बारह मुहुर्त की जघन्य रात्रि होती है । पौष मास की पूर्णिमा को अठारह मुहूर्त की उत्कृष्ट रात्रि तथा बारह मुहूर्त का जघन्य दिन होता है। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! दिवस और रात्रि ये दोनों समान भी होते हैं ? ७ उत्तर-हाँ, सुदर्शन ! होते हैं। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! दिवस और रात्रि-ये दोनों समान कब होते हैं ? ८ उत्तर-हे सुदर्शन ! चैत्र की पूर्णिमा और आश्विन की पूर्णिमा को दिवस और रात्रि दोनों बराबर होते हैं। उस दिन पन्द्रह मुहुर्त का दिवस तथा पन्द्रह मुहूर्त की रात्रि होती है और दिवस एवं रात्रि की पौने चार मुहूर्त की पौरुषी होती है । इस प्रकार प्रमाण काल कहा गया है। . विवेचन-जिससे दिवस, वर्ष आदि का प्रमाण जाना जाय, उसे 'प्रमाण काल' कहते हैं। यहां अषाढ़ी पूर्णिमा को अठारह मुहूर्त का दिवस और पाप पूर्णिमा को अठारह महतं की रात्रि बतलाई गई है । यह पांच संवत्सरं परिमाण युग के अन्तिम वर्ष की अपेक्षा For Personal & Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ११ सुदर्शन सेठ के काल यिषयक प्रश्नोत्तर १९२? समझना चाहिये । दुसरे वर्षों में तो जब कर्क सक्रान्ति होती है, तब ही अठारह मुहूर्त का दिवस और जब मकर संक्रान्ति होती है तब अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है । जितने मुहूर्त का दिन या रात्रि होती है उसका चतुर्थ भाग पीरुपी कहलाता है। चैत्र और आश्विन पूर्णिमा को दिन और रात्रि पन्द्रह पन्द्रह महत की समान होती है। यह कथन भी व्यवहार नय की अपेक्षा है । निश्चय में तो कर्क संझान्ति और मकर संक्रान्ति से जो ९२ वां दिवस होता है, उस समय दिवस और रात्रि समान होती है । ९ प्रश्न-से किं तं अहाउणिव्वत्तिकाले ? ९ उत्तर-अहाउणिव्वत्तिकाले जणं जेणं ओरइएण वा तिरिक्ख. जोणिएण वा मणुस्सेण वा देवेण वा अहाउयं णिव्वत्तियं सेत्तं पाले. माणे अहाउणिवत्तिकाले। ___१० प्रश्न-से किं तं मरणकाले ? ____ १० उत्तर-मरणकाले जीवो वा सरीराओ सरीरं वा जीवाओ सेत्तं मरणकाले। . ११ प्रश्न-से किं तं अद्धाकाले ? ११ उत्तर-अद्धाकाले अणेगविहे पण्णत्ते । से णं समयट्टयाए आवलियट्ठयाए जाव उस्सप्पिणीट्टयाए । एस णं सुदंसणा ! अद्धा. दोहारच्छेएणं छिज्जमाणी जाहे विभागं णो हव्वमागच्छइ सेतं समए । समयट्टयाए असंखेजाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा 'आवलिय' ति पवुच्चइ । संखेजाओ आवलियाओ जही सालिउद्देसए जाव सागरोवमस्स उ एगस्स भवे परिमाणं । For Personal & Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२२ भगवती सूत्र - श. ११ उ. ११ सुदर्शन सेठ के काल विषयक प्रश्नोत्तर १२ प्रश्न - एएहि णं भंते ! पलिओवम-सागरोवमेहिं किं पओयणं ? १२ उत्तर - सुदंसणा ! एएहिं पलिओवम-सागरोवमेहिं णेरहयतिरिक्खजोणिय मणुस्स देवाणं आउयाइं मविज्जति । १३ प्रश्न - रइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? १३ उत्तर - एवं ठिइपयं णिरवसेसं भाणियव्वं जाव अजहण्णमणुकोसे तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । कठिन शब्दार्थ - अहा उणिव्वत्तिकाले - यथायुनिवृत्ति काल, मविज्जंति- माप किया जाता है, अद्धादोहारच्छेएणं- जिस समय के दो विभाग करने पर, समुदयस मिइसमागमेणंसमुदाय - समूह के मिलने से । भावार्थ - ९ प्रश्न - हे भगवन् ! यथायुनिर्वृत्ति काल कितने प्रकार का कहा है ? ९ उत्तर - हे सुदर्शन ! जिस किसी नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य या देव ने स्वयं जैसा आयुष्य बांधा है, उसी प्रकार उसका पालन करना - भोगना, 6. 'यथायुनिर्वृत्ति काल' कहलाता है । १० प्रश्न - हे भगवन् ! मरण काल किसे कहते हैं ? १० उत्तर - हे सुदर्शन ! शरीर से जीव का अथवा जीव से शरीर का वियोग होता है, उसे 'मरण काल' कहा जाता है । ११ प्रश्न - हे भगवन् ! अद्धाकाल कितने प्रकार का कहा है ? ११ उत्तर - हे सुदर्शन ! अद्धाकाल अनेक प्रकार का कहा है । यथासमय रूप, आवलिका रूप यावत् उत्सर्पिणी रूप । हे सुदर्शन ! काल के सब से छोटे भाग को 'समय' कहते हैं, जिसके फिर दो विभाग न हो सकें । असंख्य समयों के समुदाय से एक आवलिका होती है। संख्यात आवलिका का एक उच्छ For Personal & Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - य. ११ उ. ११ महाबल चरित्र वास होता है, इत्यादि छठे शतक के सातवें शालि उद्देशक में कहे अनुसार यावत् सागरोपम तक जानना चाहिये । १२ प्रश्न - हे भगवन् ! पत्योपम और सागरोपम का क्या प्रयोजन है ? १२ उत्तर - हे सुदर्शन ! पत्योपम और सागरोपम के द्वारा नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य तथा देवों का आयुष्य मापा जाता है । १३ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही है ? १३ उत्तर - हे सुदर्शन ! यहाँ प्रज्ञापना सूत्र का चौथा स्थिति पद सम्पूर्ण कहना चाहिये यावत् सर्वार्थसिद्ध देवों की अजघन्य अनुत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति कही है । विवेचन - जिस जीव ने जितना आयुष्य बांधा है, उतना आयुष्य भोगना 'यथाय्निर्वृत्तिकाल' कहलाता है । शरीर से जीव कर पृथक् हो जाना अथवा जीव से शरीर का पृथक् हो जाना 'मरण काल' कहलाता है । समय, आवलिका आदि 'अद्वाकाल' कहलाता है । पत्योपम, सागरोपम से चार गति ' के जीवों की आयु मापी जाती है । यह उपमा काल है । १९२३ महाबल चरित्र १४ प्रश्न - अस्थि णं भंते ! एएसिं पलिओमसागरोवमाणं खएइ वा अवचएइ वा ? १४ उत्तर - हंता, अस्थि । १५ प्रश्न - से केणट्टेणं भंते ! एवं वुबह - 'अस्थि णं एएसि णं पलिओम सागरोवमाणं जाव अवचएइ वा' ? १५ उत्तर - एवं खलु सुदंसणा ! तेणं कालेणं तेणं समपर्ण For Personal & Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२४ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ११ महाबल चरित्र हत्थिणापुरे णामं जयरे होत्था, वण्णओ । सहसंबवणे उज्जाणे, वण्णओ । तत्थ णं हत्थिणापुरे णयरे वले णामं राया होत्था, वण्णओ । तस्स णं बलस्स रण्णो पभावई णामं देवी होत्था । सुकुमाल० वण्णओ जाव विहरइ । तएणं सा पभावई देवी अण्णया कयाइ तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अभिंतरओ सचित्तकम्मे, बाहिरओ दूमिय-घट्ठ-मटे, विचित्तउल्लोय-चिल्लियतले, मणि-रयणपणासियंधयारे, बहुसम-सुविभत्तदेसभाए, पंचवण्ण-सरस-सुरभिमुक्कपुप्फपुजोवयारकलिए, कालागरुपवर कुंदुरुस्क-तुरुक्कधूघमघमघंतगंधुद्धयाभिरामे, सुगंध-वरगंधिए, गंधवट्टिभूए तंसि तारिसगंसि सयणिजंसि सालिंगणवट्टिए, उभओविब्बोयणे, दुहओ उण्णए, मज्झे णय-गंभीरे, गंगा-पुलिण-वालुय-उद्दालसालिसए, उवचियखोमिय-दुगुल्लपट्टपडिच्छायणे, सुविरइयरयत्ताणे, रत्त-सुय-संवुए, सुरम्मे, आइणग-रूय बुर-णवणीय तूलफासे, सुगंध-वरकुसुम-चुण्णसयणोवयारकलिए, अद्धरत्तकालसमयंसि सुत्त जागरा ओहोरमाणी ओहीरमाणी अयमेयारूवं ओरालं, कल्लाणं, सिवं, धण्णं, मंगल्लं सस्सिरियं महासुविणं पासित्ता णं पडिबुद्धा । कठिन शब्दार्थ-उल्लोग-उल्लोक-उपरिभाग, चिल्लियतले-प्रकाशित अधोभागवाला, खएइ-क्षप होता है, अवचएइ-अपचय होता है, सचित्तकम्मे-चित्र कर्म वाले, दूमिय-धवल, घटुमठे-घिसकर मुलायम किये, मणिरयणपणासियंधयारे-मणि और रत्नों के प्रकाश से अन्धकार रहित, सालिंगणवट्टिए-तकिये सहित, उमओविब्बोयणे-दोनों ओर तकिये रखे हुए, For Personal & Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. ११ उ. ११ महावल चरित्र मस्रणयगंभीरे-मध्य में नमी हुई एवं गम्भीर, गंगापुलिणवालयउद्दालसालिए-गंगा के किनारे की रेती के अवदाल (धंसती हुई) के समान, उवचिय-खोमियदुगुल्लपट्ट-पडिच्छायणे-भरे हुए रेशमी दुकूल पट से आच्छादित, सुविरइयरयत्ताणे -रजस्त्राण से ढकी हुई, रत्तंसुयसंवएरक्तांशुक की मच्छरदानी युक्त, आइणग-आजिनक (चर्म का कोमल वस्त्र), सयणोवयारकलिए-गयनोपचार युवन । भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! इन पल्योपम और सागरोपम का क्षय या अपचय होता है ? . १४ उत्तर-हाँ, सुदर्शन ! होता है । १५ प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि पल्योपम और सागरोपम का क्षय और अपचय होता है ? __ १५ उत्तर-हे सुदर्शन ! (इस बात को एक उदाहरण द्वारा समझाया जाता है) उस काल उस समय हस्तिनापुर नामक एक नगर था। (वर्णन)। वहाँ सहस्राम्रवन नामक उद्यान था। (वर्णन) । उस हस्तिनापुर नगर में बल नामक राजा था (वर्णन) । उस बल राजा के प्रभावती नाम की रानी थी। उसके हाथ पैर सुकुमाल थे, इत्यादि वर्णन जानना चाहिये । किसी दिन उस प्रकार के भवन में जो भीतर से चित्रित, बाहर से सफेदी किया हुआ और घिसकर कोमल बनाया हुआ था। जिसका उपरिभाग विविध चित्र युक्त था और नीचे का भाग सुशोभित था। वह मणि और रत्नों के प्रकाश से अन्धकार रहित, बहसमान, सुविभक्त भागवाला, पांच वर्ण के सरस और सुगन्धित पुष्प-पुञ्जों के उपचार से युक्त, उत्तम कालागुरु, कुन्दरुक और तुरुष्क (शिलारस) के धूप से चारों ओर सुगन्धित, सुगन्धी पदार्थों से सुवासित एवं सुगन्धी द्रव्य की गुटिका के समान था। ऐसे वासगृह (भवन) में शय्या थी, जो तकिया सहित, सिरहाने और पगोतिये के दोनों ओर तकिया युक्त, दोनों ओर से उन्नत, मध्य में कुछ नमी हुई (झुकी हुई) विशाल, गंगा के किनारे की रेती के अवदाल (पैर रखने से फिसलजाने) के समान कोमल, क्षोमिक-रेशमी दुकूलपट से आच्छादित, रजस्त्राण (उड़ती हुई धूल को रोकने वाले वस्त्र) से ढकी हुई, रक्तांशुक (मच्छर For Personal & Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२६ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ११ महाबल चरित्र दानी) सहित, सुरम्य आजिनक (एक प्रकार का चमड़े का कोमल वस्त्र) रुई, बूर, नवनीत (मक्खन) अर्कतूल (आक की रुई) के समान कोमल स्पर्श वाली, सुगन्धित उत्तम पुष्प, चूर्ण और अन्य शयनोपचार से युक्त थी। ऐसी शय्या में सोती हुई प्रभावती रानी ने अर्द्ध निद्रित अवस्था में अर्द्ध रात्रि के समय इस प्रकार का उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलकारक और शोभायुक्त महास्वप्न देखा और जागृत हुई। १६-हार-रयय-खीरसागर-ससंककिरण-दगरय-रययमहासेलपंडुरतरोरुरमणिज-पेच्छणिजं, थिर-लट्ठ-पउट्ठ-बट्ट-पीवर-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठः तिखदाढाविडंबियमुहं, परिकम्मियजचकमलकोमल-माइअसोभंतलठ्ठः उठें, रतुप्पलपत्तमउअसुकुमालतालुजीहं, मूसागयपवरकणगतावियआवत्तायंत-वट्ट-तडिविमलसरिसणयणं, विसालपीवरोरु, पडिपुण्णविपुलखधं, मिउविसयसुहमलक्खण-पसत्थ-विच्छिण्णकेसरसडोवसोभियं, असिय-सुणिम्मिय-सुजाय-अप्फोडियलंगूलं, सोमं, सोमाकार, लीलायंत, जंभायंतं, णहयलाओ ओवयमाणं णिययवयणमइवयंतं, सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा । ___ कठिन शब्दार्थ--ओवयमाणं-नीचे उतरते हुए, ससंककिरण-चन्द्रमा की किरण, दगरय-जल बिन्दु, रययमहासेल-रजत के बड़े पर्वत जैसा, पंडुरतरोरुरमणिज्ज-अत्यंत श्वेत एवं रमणीय, पेच्छणिज्ज-देखने योग्य, पउट्ठ-प्रकोष्ठ (हाथ की कोहनी से लगाकर पहुँचे तक का भाग) णहयलाओ-नभ-आकाश से, णिययवयणमइवयंत-अपने मुंह में प्रवेश करते, पडिबुद्धा-जाग्रत हुई। भावार्थ-१६-प्रभावती रानी ने स्वप्न में एक सिंह देखा, जो मोतियों के हार, रजत (चाँदी), क्षीर समुद्र, चन्द्र-किरण पानी की बिन्दु और रजत-महाशैल For Personal & Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ११ उ. ११ महाबल चरित्र १९२७ वताढय) पर्वत के समान श्वेत वर्ण वाला था। वह विशाल, रमणीय और दर्शनीय था। उसके प्रकोष्ठ स्थिर और सुन्दर थे। वह अपने गोल, पुष्ट, सुश्लिष्ट विशिष्ट और तीक्ष्ण दाढ़ाओं से युक्त्र मुंह को फाड़े हुए था। उसके ओष्ठ संस्कारित उत्तम कमल के समान कोमल, प्रमाणोपेत, अत्यन्त सुशोभित था । उसका तालु और जीभ रक्त-कमल के पत्र के समान, अत्यंत कोमल थी। उसकी आँखें मूस में रहे हुए एवं अग्नि से तपाये हुए तथा आवर्त करते हुए उत्तम स्वर्ण के समान वर्ण वाली, गोल और बिजली के सनान निर्मल थी। उसकी जंघा विशाल और पुष्ट थी। वह सम्पूर्ण और विपुल स्कन्ध वाला था। उसकी केशरा कोमल विशद, सूक्ष्म एवं प्रशस्त लक्षण वाली थी। वह सिंह अपनी सुन्दर तथा उन्नत पूंछ को पृथ्वी पर फटकारता हुआ सौम्य, सौम्य आकार वाला, लीला करता हुआ, उबासी लेता हुआ और आकाश से नीचे उतर कर अपने मुख में प्रवेश । करता हुआ दिखाई दिया। यह स्वप्न देखकर प्रभावती रानी जाग्रत हुई। १७-तएणं सा पभावई देवी अयमेयारूवं ओरालं जाव-सस्सिरियं महासुविणं पासित्ता णं पडिबुद्धा समाणी हट्ट तुट्ठ जाव हियया धाराहयकलंबपुष्फगं पिव समूसियरोमकूवा तं सुविणं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता सयणिजाओ अब्भुटेइ, सय० अतुरियमचवलमसंभताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव बलस्स रण्णो सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव० बलं रायं ताहिं इट्टाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं ओरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धण्णाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीयाहिं मिय-महुर-मंजुलाहिं गिराहिं संलवमाणी संलवमाणी पडिबोहेइ, पडि० बलेणं रण्णा For Personal & Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२८ भगवती मूत्र-श. ११ ३. ११ महाबल चरित्र अब्भणुण्णाया समाणी णाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि भद्दासणंसि णिसीयइ, णिसीयित्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया बलं रायं ताहिं इटाहिं कंताहिं जाव-संलवमाणी संलवमाणी एवं वयासी कठिन शब्दार्थ-सस्सिरियं-श्री (शोभा) युक्त, महासुविणं-महास्वप्न , अब्भणुण्णाया-आज्ञा होने पर, धाराहयकलंबपुप्फगंपिव-मेघ की धारा से विकसित कदम्ब-पुष्प के समान, समूसियरोमकूवा-रोम कूप विकसित (रोमांचित) हुए, गिराहि-वाणी मे, संलवमाणी-बोलती हुई, आसत्या वीसत्या-आश्वस्त एवं विश्वस्त होकर ! भावार्थ-१७-प्रभावती रानी इस प्रकार के उदार यावत् शोभा वाले महा स्वप्न को देखकर जाग्रत हुई। वह हर्षित, सन्तुष्ट हृदय यावत् मेघ की धारा से विकसित कदम्ब-पुष्प के समान रोमाञ्चित होती हुई स्वप्न का स्मरण करने लगी। फिर रानी अपनी शय्या से उठी और शीघ्रता रहित, चपलता, संभ्रम एवं विलम्ब रहित, राजहंस के समान उत्तम गति से चलकर, बलराजा के शयनगृह में आई और इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम, उदार, कल्याण शिव, धन्य, मंगल, सुन्दर, मित, मधुर और मजुल (कोमल) वाणी से बोलती हुई बलराजा को जगाने लगी। राजा जाग्रत हुआ। राजा की आज्ञा होने पर, रानी विचित्र मणि और रत्नों की रचना से चित्रित भद्रासन पर बैठी । सुखासन पर बैठने के बाद स्वस्थ और शान्त बनी हुई प्रभावती रानी इष्ट, प्रिय यावत् मधुर वाणी से इस प्रकार बोली। १८-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! अन्ज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जसि सालिंगण तं चेव जाव-णियगवयणमइवयं सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, तणं देवाणुप्पिया ! एयस्स ओरालस्स जाव महासुविणस्स के मण्णे कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भवि For Personal & Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. ११ उ. ११ महापल चरित्र १९२९ स्सइ ? तएणं से वले राया पभावईए देवीए अंतियं एयमढें सोचा णिसम्म हट्ट-तुटु० जाव हयहियए · धाराहयणीवसुरभिकुसुमचंचु. मालइयतणुयऊसवियरोमकूवे तं सुविणं ओगिण्हइ, ओगिहित्ता ईहं पविस्सइ, ईहं पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धिविण्णाणेणं तस्स मुविणस्स अत्थोग्गहणं करेइ, तस्स० पभावइं देविं ताहिं इटाहिं कंताहिं जाव मंगल्लाहिं मिय-महुर-सस्सिरि० संलवमाणे संलवमाणे एवं वयासी भावार्थ-१८-'हे देवानुप्रिय ! आज तथाप्रकार की (उपरोक्त वर्णन वाली) सुखशय्या में सोती हुई मैंने, अपने मुख में प्रवेश करते हुए सिंह के स्वप्न को देखा है । हे देवानुप्रिय ! इस उदार महास्वप्न का क्या फल होगा ? प्रभावती रानी को यह बात सुनकर और हृदय में धारण कर राजा हर्षित तुष्ट और संतुष्ट हृदयवाला हुआ । मेघ को धारा से विकसित कदम्ब के सुगंधित पुष्प के समान रोमञ्चित बना हुआ बल राजा, उस स्वप्न का अवग्रह (सामान्य विचार) तथा ईहा (विशेष विचार) करने लगा। ऐसा करके अपने स्वाभाविक बुद्धि-विज्ञान से उस स्वप्न के फल का निश्चय किया। तत्पश्चात् राजा इष्ट, कान्त, मंगल, मित यावत् मधुर वाणी से बोलता हुआ इस प्रकार कहने लगा। १९-ओराले णं तुमे देवी ! सुविणे दिटे, कल्लाणे णं तुमे जाव सस्सिरीए णं तुमे देवी ! सुविणे दिढे, आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउ. कल्लाण-मंगलकारए णं तुमे देवी ! सुविणे दिटे, अत्थलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलाभो देवाणुप्पिए ! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए ! For Personal & Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती नव-श. ११ उ. ११ महावल चरित्र रजलाभो देवाणुप्पिए ! एवं खलु तुम देवाणुप्पिए ! णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणराइंदियाणं वीइवकंताणं अम्हं कुलकेडे, कुलदीवं, कुलपव्वयं, कुलवडेंसयं, कुलतिलगं, कुलकित्तिकर, कुल. णंदिकर, कुलजसकर, कुलाधार, कुलपायवं, कुलविवद्धणकर, सुकु. मालपाणि-पायं, अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरं, जाव ससिसोमाकार, कंतं, पियदंसणं, सुरूवं, देवकुमारसमप्पभं दारगं पयाहिसि । कठिन शब्दार्थ-कुलवडेंसयं-कुल में शिखर के समान, कुलपायवं-कुल में पादप (वृक्ष) के समान, दारगं-बालक, ससिसोमाकारं-चन्द्र के समान सौम्य आकार बाला । भावार्थ-१९-'हे देवी ! तुमने उदार स्वप्न देखा है । हे देवी ! तुमने कल्याण कारक स्वप्न देखा है। यावत् हे देवी ! तुमने शोभायुक्त स्वप्न देखा है । हे देवी ! तुमने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायुष्य, कल्याण और मंगलकारक स्वप्न देखा है । हे देवानुप्रिये ! तुम्हें अर्थलाभ, भोगलाभ, पुत्रलाभ और राज्य-लाभ होगा। हे देवानुप्रिये ! नव मास और साढ़े सात दिन बीतने के बाद तुम अपने कुल में ध्वज समान, दीपक समान, पर्वत समान, शिखर समान, तिलक समान तथा कुल की कीर्ति करनेवाले, कुल को आनन्द देने वाले, कुल का यश करने वाले, कुल के लिये आधारभूत, कुल में वृक्ष समान, कुल की वृद्धि करने वाले, सुकुमाल हाथ-पाँववाले, अंग हीनता रहित, सम्पूर्ण पञ्चेन्द्रिय युक्त शरीर वाले यावत् चन्द्र के समान सौम्य आकृति वाले, कान्त, प्रियदर्शन, सुरूप एवं देवकुमार के समान कान्तिवाले पुत्र को तुम जन्म दोगी। . २०-से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णायपरिणय. मेत्ते जोवणगमणुप्पत्ते सूरे वीरे विक्कंते वित्थिण्ण-विउलबल-वाहणे For Personal & Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ११ उ. ११ महावन चरित्र रज्जबई राया भविस्मइ । तं उराले णं तुमे देवी ! मुमिणे दिट्टे जाव आरोग्ग-तुट्टि० जाव मंगल्लकारए णं तुमे देवी ! मुविणे दिट्टे त्ति कटु पभावई देविं ताहिं इटाहिं जाव वग्गूहिं दोच्चं पि तच्चं पि अणुबहइ । तएणं सा पभावई देवी बलस्म रण्णो अतियं एयमटुं सोच्चा णिसम्म हट-तुट० करयल० जाव एवं वयासी-‘एवमेयं देवाणुप्पिया ! तहमेयं देवाणुप्पिया ! अवितहमेयं देवाणुप्पिया ! असंदिवमेयं देवाणुप्पिया ! इच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! पडिच्छियमेय देवाणुप्पिया ! इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! से जहेयं तुझे वयह ति कट्ट तं सुविणं समं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता बलेणं रण्णा अन्भणुण्णाया समाणी णाणामणि-रयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अब्भुट्टेइ, अब्भुटेता अतुरियमचघल० जाव गईए जेणेव सए सय णिजे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता सयणिजंसि णिसीयइ, णिसीइत्ता एवं वयामी-'मा मे मे उत्तमे पहाणे मंगल्ले सुविणे अण्णेहिं पावसुभिणेहिं पडिहम्मिस्सइत्ति कटु देव गुरुजणसंवद्धाहिं पसत्थाहिं मंगल्लाहिं धम्मियाहिं कहाहिं मुविणजागरियं पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ । - कठिन शब्दार्थ-विक्कते-पराक्रमी, पडिहम्मिस्सइ-प्रतिहत होजाय, असंविद्धमेयंसंदेह रहित, पहाणे-प्रधान । भावार्थ २०-वह बालक वालभाव से मुक्त होकर विज्ञ और परिणत For Personal & Private Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ११ उ. ११ महाबल चरित्र होकर युवावस्था को प्राप्त करके शूरवीर, पराक्रमी, विस्तीर्ण और विपुल बल (सेना) तथा वाहनवाला, राज्य का स्वामी होगा। हे देवी! तुमने उदार (प्रधान) स्वप्न देखा है । हे देवी! तुमने आरोग्य, तुष्टि यावत् मंगलकारक स्वप्न देखा है । इस प्रकार बल राजा ने इष्ट यावत् मधुर वचनों से प्रभावती देवी को यही बात दो बार और तीन बार कही । बलराजा की पूर्वोक्त बात सुनकर और अवधारण कर प्रभावती देवी हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई और हाथ जोड़ कर इस प्रकार बोली- 'हे देवानुप्रिय ! आपने जो कहा वह यथार्थ है, सत्य है, सन्देह रहित है । मुझे इच्छित और स्वीकृत है, पुनः पुनः इच्छित और स्वीकृत है ।' इस प्रकार स्वप्न के अर्थ को स्वीकार कर बलराजा की अनुमति से भद्रासन से उठी और शीघ्रता एवं चपलता रहित गति से अपने शयनागार में आकर शय्या पर बैठी । रानी विचार करने लगी- 'यह मेरा उत्तम, प्रधान और मंगलरूप स्वप्न, दूसरे पाप-स्वप्नों से विनष्ट न हो जाय, अतः वह देव- गुरु सम्बन्धी प्रशस्त और मंगल रूप धार्मिक कथाओं और विचारणाओं से स्वप्न जागरण करती हुई बैठी रही । 1 १९३२ २१ - तएणं से बले राया कोटुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अज्ज सविसेसं बाहिरियं उवाणसालं गंधोदय- सित्त- सुइअ - संमज्जि ओवलितं सुगंधवरपंचवण्णपुष्फोवयारकलियं कालागरुपवर कुंदुरूक्क० जाव गंधवट्टिभूयं करेह य करावेह य, करिता करावित्ता सीहासणं रएह, सीहासणं रयाविता ममेयं जाव पञ्चष्पिणह । तएणं ते कोटुंबिय० जाव पडिणित्ता खिप्पामेव सविसेसं बाहिरियं उबट्टाणसालं जाव पच्चपिणंति । For Personal & Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ११ उ. ११ महाबल चरित्रं भावार्थ - २१ इसके बाद बलराजा ने कौटुम्बिक (सेवक) पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र ही बाहर की उपस्थानशाला में, विशेष रूप से गन्धोदक का छिड़काव कर के स्वच्छ करो और लींप कर शुद्ध करो । सुगन्धित और उत्तम पांच वर्ण के पुष्पों से अलंकृत करों । उत्तम कालागुरु और कुन्दरुक के धूप से यावत् सुगन्धित गुटिका के समान करो - कराओ, फिर सिंहासन रखो और मुझे निवेदन करो। कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा की आज्ञानुसार कार्य करके निवेदन किया । १९३३ २२ - तणं से बले राया पच्चसकालसमयंसि सयणिजाओ अन्द्रेह, सय० पायपीटाओ पच्चोरुहड़, पाय० जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छड, अट्टणसालं अणुपविसर, जहा उववाइए तहेव अट्टणमाला तहेव मज्जणघरे जाव ससिव्व पियदंसणे णरवई मज्जणघराओ पडिणिक्खमs, पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्याभिमु णिसीय णिसीता अप्पणो उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अट्ठ भासणाई सेयवत्थपच्चुत्थुयाई सिद्धत्थगकय मंगलोवयाराई यावे, रयावेत्ता अप्पणो अदूरसामंते णाणामणिरयणमंडियं, अहियपेच्छणिज्जं, महग्घ-वरपट्टणुग्गयं, सण्हपट्टबहुभत्तिसयचित्तताणं, ईहामिय-उसभ० जाव भत्तिचितं, अभितरियं जवणियं अंावेद, अंछावेत्ता णाणामणि- रयणभत्तिचित्तं अत्थरय-मउयमसूरगोत्थयं, सेय वत्थपच्चुत्थुयं, अंगसुहफासुयं सुमउयं पभावईए देवीए भद्दासणं For Personal & Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३४ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ११ महाबल चरित्र रयावेइ, रयावित्ता कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी कठिन शब्दार्थ-पच्चूसकालसमयंसि-प्रातः काल के समय, जवणियं-यवनिका-पर्दा, अट्टणसाला-व्यायामशाला, सेयवत्थपच्चुत्थुयाई-श्वेत वस्त्र से आच्छादित, सिद्धत्थगकयमंगलोवयाराई-सरसों से मंगल उपचार किया है जिसका, अहियपेच्छणिज्ज-अत्यधिक देखने योग्य, महग्ध-मूल्यवान, वरपट्टणुग्गयं-महा नगर में निर्मित, सहपट्टबहुमत्तिसयचित्तताणंबारिक सूत के और सैकड़ों प्रकार की कला से विचित्र तानेवाली, अंछावेइ-लगवाते हैं, भत्थरयम उयमसूरगोत्थयं-गादी तथा कोमल तकियों से युक्त, सुमउयं-सुकोमल । . भावार्थ-२२ प्रातः काल के समय बलराजा अपनी शय्या से उठे और पादपीठ से नीचे उतरे । फिर वे व्यायामशाला में गये। वहां के कार्य का तथा स्नान घर के कार्य का वर्णन औपपातिकसूत्र से जानना चाहिये, यावत् चन्द्र के समान प्रियदर्शनी बनकर वह राजा स्नान घर से निकलकर बाहरी उप- , स्थानशाला में आया और पूर्व दिशा को ओर मुंह करके सिंहासन पर बैठा। फिर अपनी बांयी ओर ईशान-कोण में, श्वेत वस्त्र से आच्छादित तथा सरसों आदि मांगलिक पदार्थों से उपचरित आठ भद्रासन रखवाये । तत् पश्चात् प्रभावती देवी के लिए अनेक प्रकार के मणि-रत्नों से सुशोभित, बहुमूल्य, विचित्र कलाकौशल युक्त दर्शनीय, ऐसी सूक्ष्म वस्त्र की एक यवनिका (पर्दा) लगवाई। उसके भीतर अनेक प्रकार के मणि रत्नों से रचित, विचित्र, गद्दीयुक्त, श्वेत वस्त्र से आच्छादित तथा सुकोमल एक भद्रासन रखवाया। फिर बलराजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा २३-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अटुंगमहाणिमित्तसुत्तत्थधारए, विविहसत्थकुसले, सुविणलक्खणपाढए सद्दावेह' तएणं ते कोडुवियपुरिसा जाव पडिसुणित्ता बलस्स रण्णो अंतियाओ पडि. For Personal & Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -दा. १५ उ. १५ महाबल चरित्र १०:५ णिक्खमंति, पडिणिकग्वमित्ता सिग्धं तुरियं चवलं चंडं वेड्यं हथिणाउरं णयरं मज्झमझेणं जेणेव तेसि मुविणलपखणपाढगाणं गिहाई तेणेव उपागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता ते मुविणलक्खणपाढए सहावेंति । तएणं ते सुविणलपवणपाढगा वलस्म रण्णो कोडुवियपुरिमेहिं सदाविया समाणा हटु-तुटु० ण्हाया कय० जाव सरीरा सिद्धत्थगहरियालियाकयमंगलमुद्धाणा सरहिं माहिं गेहेहिंतो णिग्गच्छंति, सएहिं मएहिं० हत्थिणाउरं णयरं मझमझेणं जेणेव वलस्म रण्णो भवणवरवडेंसए तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता भवणवरवडे. सगपडिदुवारंसि एगओ मिलंति, एगओ मिलित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणमाला जेणेव वले राया तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता करयल वलं रायं जएणं विजएणं वद्वाति । तएणं ते सुविणलक्खणपाढगा बलेणं रण्णा वंदिय-पूइअ-सक्कारिअसंमाणिआ समाणा पत्तयं पत्तेयं पुवण्णत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति । तएणं से बले राया पभावई देवी जवणियंतरिय ठावेइ, ठावेत्ता पुष्फ-फल पडिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुविणलक्खणपाढए एवं वयासी‘एवं खलु देवाणुप्पिया ! पभावई देवी अज्ज तंसि तारिसगंसि वासघरंसि जाव सोहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, तणं देवा. णुप्पिया ! एयस्स ओरालस्स जाव के मण्णे कल्लाणे फलवित्तिविनेसे भविस्सइ ? For Personal & Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ११ . ११ महाबल चरित्र कठिन शब्दार्थ - हरियालिया कय मंगलमुद्धाणा - हरी दूब का मंगल करके । भावार्थ - २३ - 'हे देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र जाओ और ऐसे स्वप्नपाठकों को बुलाओ - जो अष्टांग महानिमित्त के सूत्र एवं अर्थ के ज्ञाता हो और विविध शास्त्रों में कुशल हों ।' राजाज्ञा को स्वीकार कर कौटुम्बिक पुरुष शीघ्र, चपलता युक्त, वेगपूर्वक एवं तीव्र गति से हस्तिनापुर नगर के मध्य होकर स्वप्न- पाठकों के घर पहुँचे और उन्हें राजाज्ञा सुनाई। स्वप्न- पाठक प्रसन्न हुए । उन्होंने स्नान करके शरीर को अलंकृत किया । वे मस्तक पर सर्वप और हरी ब से मंगल करके अपने-अपने घर से निकले और राज्य प्रसाद के द्वार पर पहुँचे । वे सभी स्वप्न- पाठक एकत्रित होकर बाहर की उपस्थान शाला में बलराजा के पास आये । उन्होंने हाथ जोड़कर जय-विजय शब्दों से बलराजा को बधाया । बल राजा वन्दित, पूजित, सत्कृत और सम्मानित किये हुए वे स्वप्न पाठक, पहले से रखे हुए उन भद्रासनों पर बैठे । बल राजा ने प्रभावती देवी को बुलाकर यवनिका के भीतर बिठाया। तत्पश्चात् हाथों में पुष्प और फल लेकर बलराजा ने अतिशय विनयपूर्वक उन स्वप्न - पाठकों से इस प्रकार कहा - " हे देवानुप्रियो ! आज प्रभावती देवी ने तथारूप के वासगृह में शयन करते हुए सिंह का स्वप्न देखा । हे देवानुप्रियो ! इस उदार स्वप्न का क्या फल होगा ?" १९३६ तणं ते सुविणलक्खणपाढगा बलरस रण्णो अंतियं एयमहं सोच्चा णिसम्म हट्ट तु तं सुविणं ओगिव्हंति, ओगिण्हित्ता ईहं अणुष्पविसंति, अणुष्पविसित्ता तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेंति, तस्स अण्णमण्णेणं सधि संचालेंति, संचालित्ता तस्स सुविणस्स लट्टा गहिया पुच्छियट्टा विणिच्छियट्टा अभिगयट्टा बलस्स रण्णो पुरओ सुविणसत्थाई उच्चारेमाणा उच्चारेमाणा एवं वयासी - ' एवं For Personal & Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ११ महापार चरित्र १९३७ खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं सुविणमत्थंसि बायालीस मुविणा, तीमं महासुविणा, वावत्तरि सव्वसुविणा दिट्ठा । तत्थणं देवाणुप्पिया ! तित्थयरमायरो वा चक्वट्टिमायरो वा तित्थयरंसि वा चकवहिसि वा गम्भं वकममाणंसि एएसिं तीसाए महासुविणाणं इमे चोदस महासुविणे पासित्ता णं पडिबुझंति । तं जहा "गय-वसह-सीह-अभिसेय-दाम-ससि-दिणयरं झयं कुंभं । । । पउमसर-सागर-विमाण-भवण-रयणुच्चय-सिहिं च” ॥ वासुदेवमायरो वा वासुदेवंसि गभं वकममाणंसि एएसिं चोदसण्हं महासुविणाणं अण्णयरे सत्त महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झति । बलदेवमायरो वा बलदेवंसि गम्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोइसहं महासुविणाणं अण्णयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झति । मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गम्भं वक्कममाणंसि एएसिं णं चउदसण्हं महासुविणाणं अण्णयरं एगं महासुविणं पासित्ता णं पडिबुज्झति । इमे य णं देवाणुप्पिया ! पभावईए देवीए एगे महासुविणे दिटे, तं ओराले णं देवाणुप्पिया ! पभावईए देवीए सुविणे दिटे, जाव आरोग्ग-तुट्ठि० जाव मंगल्लकारए णं देवाणुप्पिया ! पभावईए देवीए सुविणे दिटे, अत्थलाभो देवाणुप्पिया ! भोगलाभो देवाणुप्पिया ! पुत्तलाभो देवाणुप्पिया ! रजलाभो देवाणु For Personal & Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती नूत्र -ग. ११ उ. ११ महावल चरित्र प्पिया ! एवं खलु देवाणुप्पिया ! पभावई देवी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जावं वीइक्कंताणं तुम्हं कुलकेउं जाव पयाहिइ । से वि य णं दारए उम्मुक्कवालभावे जाव रज्जवई राया भविस्सइ, अणगारे वा भावियप्पा । तं ओराले णं देवाणुप्पिया ! पभावईए देवीए सुविणे दिटे, जाव आरोग्ग-तुहि-दीहाउअकल्लाण जाव दिटे। ___ कठिन शब्दार्थ-कुलकेउं--कुल-केतु (कुल में ध्वजा के समान) । भावार्थ-बलराजा से प्रश्न सुनकर, अवधारण कर, वे स्वप्न-पाठक प्रसन्न हुए। उन्होंने उस स्वप्न के विषय में सामान्य विचार किया, विशेष विचार किया, स्वप्न के अर्थ का निश्चय किया, परस्पर एक दूसरे के साथ विचारविमर्श किया और स्वप्न का अर्थ स्वयं जानकर, दूसरे से ग्रहण कर तथा शंका समाधान करके अर्थ का निश्चय किया और बलराजा को सम्बोधित करते हुए इस प्रकार बोले-“हे देवानुप्रिय ! स्वप्न-शास्त्र में बयालीस सामान्य स्वप्न और तीस महा स्वप्न-इस प्रकार कुल बहत्तर प्रकार के स्वप्न कहे हैं। इनमें से तीर्थंकर तथा चक्रवर्ती की माताएँ, जब तीर्थंकर या चक्रवर्ती गर्भ में आते हैं, तब ये चौदह महास्वप्न देखती हैं। यथा-१ हाथी, २ बैल,.३ सिंह, ४ अभिषेक की हुई लक्ष्मी ५ पुष्पलाला, ६ चन्द्र, ७ सूर्य, ८ ध्वजा, ९ कुम्भ (कलश), १० पद्मसरोवर, ११ समुद्र, १२ विमान अथवा भवन, १३ रत्नराशि और १४ निर्धूम अग्नि । इन • चौदह महास्वप्नों में से वासुदेव की माता, जव वासुदेव गर्भ में आते हैं, तब सात स्वप्न देखती हैं, बलदेव की माता, जब बलदेव गर्भ में आते हैं, तब इन.चौदह महास्वप्नों में से चार महास्वप्न देखती हैं और माण्डलिक राजा की माता, इन चौदह महास्वप्नों में से कोई एक महा स्वप्न देखती है । हे देवानुप्रिय !प्रभावती ने एक महास्वप्न देखा है। यह स्वप्न उदार, कल्याणकारी, आरोग्य, For Personal & Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगवती सूत्र-श. ११ उ. ११ महावल चरित्र १९३९ तुष्टि एवं मंगलकारी है, सुख समृद्धि का सूचक है । इससे आपको अर्थ लाभ, भोग लाभ, पुत्र लाभ और राज्य लाभ होगा। नव मास और साढ़े सात दिन व्यतीत होने पर प्रभावती देवी, आपके कुल में ध्वज समान पुत्र को जन्म देगी। वह बालक बाल्यावस्था को पारकर युवक होने पर राज्य का अधिपति होगा, अथवा भावितात्मा अनगार होगा । अतः हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने यह स्वप्न उदार यावत् महाकल्याणकारी देखा है।" विवेचन-तीर्थकर या चक्रवर्ती के गर्भ में आने पर उनकी माताएँ चौदह महास्वप्न देखती हैं। उनमें से वारहवें स्वप्न में 'विमान और भवन' ये दो शब्द दिये हैं। जिसका आशय यह है कि जो जीव, देवलोक मे आकर तीर्थंकर रूप से जन्म लेता है, उसकी माता, स्वप्न में विमान देखती है और जो जीव नरक से आकर तीर्थंकर रूप में जन्म लेता है, उसकी माता स्वप्न में भवन देखती है । २४-तएणं से वले राया सुविणलक्खणपाढगाणं अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म हट्ट-तु४० करयल० जाव कटु ते सुविणलक्षणपाढगे एवं वयासी-'एवमेयं देवाणुप्पिया ! जाव से जहेयं तुम्भे वयह त्ति कटु तं सुविणं सम्मं पडिच्छइ, तं० सुविणलक्खणपाढए विउलेणं असण-पाण-खाइम-साइम- पुष्फ- वत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारित्ता, सम्माणित्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयइ, विउलं० जीवियारिहं पीइदाणं दलयित्ता पडिविसज्जेह, पडिविसज्जेत्ता सीहासणाओ अब्भुढेइ, सी० जेणेव पभावई देवी तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता पभावई देविं ताहिं इटाहि कंताहिं जाव संलबमाणे संलबमाणे एवं वयासी-एवं For Personal & Private Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ११ उ. ११ महाबल चरित्र खलु देवाणुप्पिए ! सुविणसत्यंसि बायालीसं सुविणा तीसं महासुविणा बावतारं सव्वंसुविणा दिट्टा । तत्थ णं देवाणुप्पिए ! तित्थयरमायरो वा चक्कवट्टिमायरो वा तं चैव जाव अण्णयरं एगं महासुविणं पासित्ताणं पडिवुज्झति । इमे य णं तुमे देवाणुप्पिए ! एगे महासुविणे दिट्ठे, तं ओराले णं तुमे देवी! सुविणे दिडे, जाव रज्जवई राया भविस्सर, अणगारे वा भावियप्या, तं ओराले णं तुमे देवी! सुविणे दिट्ठे, जाव दिट्ठे त्ति कट्टु पभावई देवि ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं जाव दोच्चं पि तच्च पि अणुबूहइ । कठिन शब्दार्थ - जीवियारिहं-- जीविका के योग्य, पीइवार्ण-- प्रीतिदान । भावार्थ - २४ - स्वप्नपाठकों से उपरोक्त स्वप्न फल सुनकर एवं अवधारण करके बलराजा हर्षित हुआ, संतुष्ट हुआ और हाथ जोड़ कर यावत् स्वप्नपाठकों से इस प्रकार बोला - "हे देवांनुप्रियों ! जैसा आपने स्वप्नफल बताया वह उसी प्रकार है- "इस प्रकार कह कर स्वप्न का अर्थ भली प्रकार से स्वीकार किया । इसके बाद स्वप्नपाठकों को विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम, पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकारों से सत्कृत किया, सम्मानित किया और जीविका के योग्य बहुत प्रीतिदान दिया और उन्हें जाने की आज्ञा दी। इसके बाद अपने सिंहासन से उठकर बलराजा प्रभावती रानी के पास आया और स्वप्नपाठकों से सुना हुआ स्वप्न का अर्थ कह सुनाया । यावत् "हे देवानुप्रिये ! तुमने एक उदार महास्वप्न देखा है, जिससे तुम्हारे एक पुत्र उत्पन्न होगा । वह राज्याधिपति होगा अथवा भावितात्मा अनगार होगा। हे देवानुप्रिये ! तुमने एक उदार यावत् मांगलिक स्वप्न देखा है ।" इस प्रकार इष्ट, कान्त, प्रिय यावत् मधुरवाणी से दो तीन बार कहकर प्रभावती देवी की प्रशंसा की । १९४० For Personal & Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ११ महाबल चरित्र २५-तएणं सा पभावई देवी बलस्म राणो अंतियं एयमहें सोचा णिसम्म हटु-तुट्ट० करयल० जार एवं वयासी—'एयमेयं देवाणुप्पिया ! जाव तं सुविणं सम्म पडिच्छड्, तं० बलेणं रण्णा अब्भणुण्णाया समाणी णाणामणि-रयणभत्तिचित्त० जाव अब्भुटेइ । अतुरियमचवल० जाव गईए जेणेव सए भवणे तेणेव उवागच्छइ. ते० मयं भवणमणुपविट्ठा । २६-तपणं सा पभावई देवी ण्हाया कयवलिकम्मा जाव सव्वा. लंकारविभूसिया तं गम्भ गाइसीएहिं णाइउण्हेहिं णाइतित्तेहि णाड. कडुएहिं णाइकसाएहिं णाइअंबिलहिं णाइमहुरेहिं उउभयमाणसुहेहि भोयण-च्छायण-गंध-मल्लेहिं जं तस्स गभस्स हियं मियं पत्थं गम्भ पोसणं तं देमे य काले य आहारमाहारेमाणी विवित्तमउएहिं सयणासणेहिं परिक्कसुहाए मणाणुकूलाए विहारभूमीए पसत्थदोहला संपुण्णदोहला सम्माणियदोहला अविमाणियदोहला वोच्छिण्णदोहला विणीयदोहला ववगयरोगसोग-मोह-भय-परित्तासा तं गम्भं सुहं-सुहेणं परिवहइ । तएणं सा पभावई देवी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणराइंदियाणं वीइक्कंताणं सुकुमालपाणि-पायं अहीणपडि. पुण्णपंचिंदियसरीरं लक्खण-चंजणगुणोववेयं जाव ससिसोमाकारं कंतं पियदंसणं सुरूवं दारयं पयाया। कठिन शब्दार्थ-उउभयमाणसुहेहि-प्रत्येक ऋतु में सुखकारक, दोहला-दोहद (गर्भ For Personal & Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४२ भगवती सूत्र - श. ११ उ. ११ महावल चरित्र के प्रभाव से गर्भवती की इच्छा ) । भावार्थ-२५- बलराजा से उपर्युक्त अर्थ सुनकर, अवधारण कर प्रभावती देवी हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई, यावत् हाथ जोड़ कर इस प्रकार बोली- " हे देवानुप्रिय ! जैसा आप कहते हैं वैसा ही है ।" इस प्रकार कहकर स्वप्न के अर्थ को भली प्रकार ग्रहण किया और बलराजा की अनुमति से अनेक प्रकार के मणिरत्नों की कारीगरी से युक्त उस भद्रासन से उठी और शीघ्रता तथा चपलता रहित यावत् हंसगति से चलकर अपने भवन में आई । २६ - स्नान आदि कर के प्रभावती देवी अलंकृत एवं विभूषित हुई । वह गर्भ का पालन करने लगी । वह अत्यन्त शीतल, अत्यन्त उष्ण, अत्यन्ततिक्ख ( तीखा ), अत्यन्त कटु, अत्यन्त कषैला, अत्यन्त खट्टा और अत्यन्त मधुर पदार्थ नहीं खाती, परन्तु ऋतु योग्य सुखकारक भोजन करती। वह गर्भ के लिये हितकारी, पथ्यकारी, मित और पोषण करने वाले पदार्थ यथा-समय ग्रहण करने लगी तथा वैसे ही वस्त्र और माला, पुष्प, आभरण आदि धारण करने लगी । यथा समय उसे जो जो दोहद उत्पन्न हुए, वे सभी सम्मान के साथ पूर्ण किये गये । वह रोग, शोक, मोह, भय और परित्रास रहित होकर गर्भ का सुख - पूर्वक पोषण करने लगी । इस प्रकार नवसास और साढ़े सात दिन पूर्ण होने पर प्रभावती देवी ने सुकुमाल हाथ पैर वाले दोष रहित, प्रतिपूर्ण पञ्चेन्द्रिय युक्त शरीर वाले तथा लक्षण, व्यञ्जन और गुणों से युक्त यावत् चन्द्र समान सौम्य आकृति वाले, कान्त, प्रिय दर्शन और सुन्दर रूप वाले पुत्र को जन्म दिया । २७ - तरणं तीसे पभावईए देवीए अंगपडियारियाओ पभावहं देविं पसूयं जाणेत्ता जेणेव वले राया तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छत्ता करयल० जाव वलं रायं जपणं विजएणं वद्धावेंति, जपणं विजएणं वद्धावेत्ता एवं वयासी - ' एवं खलु देवाणुप्पिया ! पभावई ० For Personal & Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवती सूत्र-श. ११ उ. ११ महाबल चरित्र १९४३ पियट्टयाए पियं णिवेदेमो, पियं मे भवउ ।' तएणं से बले राया अंगपडियारियाणं अंतियं एयमढें सोचा णिसम्म हट्ट-तुट्ट. जाव धाराहयणीव० जाव रोमकूवे तासिं अंगपडियारियाणं मउडवज्ज जहामालियं ओमोयं दलयइ, दलयित्ता सेयं रययामयं विमलसलिल. पुण्णं भिंगारं च गिण्हइ, गिण्हित्ता मत्थए धोवइ, मत्थए धोवित्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयइ, पीडदाणं दलयित्ता सकारेइ सम्माणेइ, सकारत्ता सम्माणेत्ता पउिविसज्जइ । . . कठिन शब्दार्थ-अंगपडियारियाओ-अंगप्रतिचारिका (सेवा करने वाली दासियाँ) पसूर्य-प्रसव हुआ, मउडवज्ज-मुकुट छोड़कर, जहामालियं-पहने हुए अलंकार, ओमोयंउतार कर, भिगार-गार (कलश) । भावार्थ-२७-पुत्र जन्म होने पर प्रभावती देवी की सेवा करने वाली दासियां, पुत्र-जन्म जानकर बल राजा के पास आई और हाथ जोड़कर जय विजय शब्दों से बधाया। उन्होंने राजा से निवेदन किया-'हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने यथा समय पुत्र जन्म दिया है। आप की प्रीति के लिये हन आपसे पुत्रजन्मरूप प्रिय समाचार निवेदन करती हैं। यह आपके लिये प्रिय होवें ।" दासियों से प्रिय सम्वाद सुनकर बल राजा हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ, यावत् मेघ की धारा से सिंचित कदम्ब-पुष्प के समान रोमाञ्चित हुआ । नरेश ने अपने मुकुट को छोड़कर धारण किये हुए शेष सभी अलंकार उन दासियों को पारितोषिक स्वरूप दे दिये । फिर श्वेत रजतमय और निर्मल पानी से भरा हुआ कलश लेकर दासियों का मस्तक धोया और जीविका के योग्य बहुत-सा प्रीतिदान देकर उन्हें सत्कृत और सम्मानित कर विजित किया। २८-तएणं से बले राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता For Personal & Private Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ११ उ. ११ महावल चरित्र एवं वयासी - 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हरिथणाउरे णयरे चारग सोहणं करेह, चारग० माणुम्माणवड्ढणं करेह, मा० हत्थिणारं णयरं सभितरवाहिरियं आसिय-संमजिओ-वलितं जाव करेह कारवेह, करेत्ता य कारवेत्ता य जूवसहस्तं वा चक्कसहस्से वा पूया. महामहिमकारं वा उस्सवेह० ममेयमाणत्तियं पचप्पिण' । तणं ते कोडुंबियपुरिसा वलेणं रण्णा एवं वुत्ता० जाव पञ्चप्पिति । तरणं से बले राया जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छछ, तेणेव उवागच्छित्ता तं चैव जाव मजणघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता उस्सुक्कं उक्करं उनिकटुं अदिज्जं अमिज्जं अभडप्पवेसं अदंडकोदंडिमं अधरिमं गणियावरणाडइज्जकलियं अणेगताला चराणुचरियं अणुदधुयमुइंगं अमिलायमल्लदामं पमुइयपक्कीलियं सपुरजण जाणवयं दसदिवसे ठिइवडियं करेइ । तरणं से बले राया दसाहियाए ठिइवडियाए वट्टमाणीए सहए य साहरिसए य सयसाहस्सिए य जाए य दाए य भाए य दलमाणे य दवावेमाणे य, सड़ए य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य लंभे पडिच्छेमाणे य पच्छिवेमाणे य एवं विहरड़ । तरणं तस्स दारगस्त अम्मा-पियरो पढमे दिवसे ठिइवडियं करेइ, तईए दिवसे चंदसूरदंसणियं करेड़, छडे दिवसे जागरियं करेड़, एकारसमे दिवसे विइक्कं ते णिव्वत्ते असु इयजायकम्मकरणे संपत्ते वारसाहदिवसे विउलं असणं पाणं खाइमं १९४४ For Personal & Private Use Only - Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती.सूत्र-श. ११ उ..१.१ महावल चरित्र साइमं उवक्खडाविति, उवक्खडावेत्ता जहा मिवो जाव खत्तिए य आमंतेंति आ० तओ पच्छा व्हाया कय० तं चेव जाव सक्कारेंति सम्माणति, सक्का० तस्सेव मित्त-णाइ जाव राईण य खत्तियाण य पुरओ अज्जय-पज्जय पिउपजयागयं वहुपुरिसपरंपरप्परूढं कुलाणुरूवं कुलसरिसं कुलसंताणतंतुवद्धणकरं अयमेयारूवं गोण्णं गुणणिफणं णामधेनं करेंति-'जम्हा णं अम्हं इमे दारए वलस्स रण्णो पुत्ते पभावईए देवीए अत्तए, तं होउ णं अम्हं एयस्स दारगस्स णामधेन्ज महब्बले,' तएणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेज करेंति 'महब्बले' ति । कठिन शब्दार्थ-चारगसोहणं-कारागार खाली करो (बन्दी छोड़ो), उस्सुक्कं-शुल्क रहित, उक्कर-कर रहित, उक्किळं-उत्कृष्ट, अदिज्ज-नहीं देने योग्य, अमिज्ज-नहीं नापने, योग्य, अभडप्पवेसं-सुभट के प्रवेग रहित, अदंडकोदंडिम-दंड तथा कुदंड रहित, अधरिमंऋण लेने को और लौटाने में होते हुए झगड़े को रोकना, गणियावरणाडइज्जकलियं-उच्च प्रकार की गणिकाओं और नटों से युक्त, अणेगतालचराणुचरियं-अनेक तालानुचरों से युक्त, अणुद्धयमुइंग-निरंतर मृदंग बजते हुए, पमुइयपक्कोलियं-प्रमोद एवं क्रीड़ा युक्त, ठिईवडियं-स्थिति पतित, जाए-व्यय किया, दाए-दान, भाए-भाग, असुइयजायकम्मकरणेअशुचिजात कर्म करने। २८ भावार्थ-इसके बाद बलराजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा-'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही बन्दियों को मुक्त करो, मान (नाप) और उन्मान (तोल) की वृद्धि करो। हस्तिनापुर नगर के बाहर और भीतर छिड़काव करो, स्वच्छ करो, सम्माजित करो, शुद्धि करो, कराओ । तत्पश्चात् यूपसहस्र और चक्रसहस्र को पूजा महिमा और सत्कार के योग्य करो। यह सब कार्य करके मुझे निवेदन करो। इसके बाद बलराजा की आज्ञानुसार कार्य करके उन For Personal & Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४६ - भगवती सूत्र-श. १५ अ. ११ महायल चरित्र सेवक पुरुषों ने आज्ञा पालन का निवेदन किया। राजा ने व्यायामशाला में जाकर व्यायाम किया और स्नान किया। दस दिन के लिए प्रजा से शुल्क (मूल्य या कर विशेष) और कर लेना रोक दिया। क्रय, विक्रय, मान, उन्मान का निषेध किया, और ऋणियों को ऋण-मुक्त किया तथा दण्ड और कुदण्ड का निषेध किया। प्रजा के घर में सुभटों के प्रवेश को बन्द कर दिया और धरणा देने का निषेध कर दिया। इसके अतिरिक्त उत्तम गणिकाओं और नाटिकाओं से युक्त तथा अनेक तालानुचरों से निरन्तर बजाई जाती हुई मृदंगों से युक्त तथा प्रमोद एवं क्रीडापूर्वक सभी लोगों के साथ दस दिन तक पुत्र महोत्सव मनाया जाता रहा । इन दस दिनों में बलराजा सैकड़ों, हजारों, लाखों रुपयों के खर्चवाले कार्य करता हुआ, दान देता हुआ, दिलवाता हुआ एवं इसी प्रकार सैकड़ों, हजारों लाखों रुपयों की भेंट स्वीकार करता हुआ विचरता रहा। फिर बालक के माता-पिता ने पहले दिन कुल मर्यादा के अनुसार किया की। तीसरे दिन बालक को चन्द्र और सूर्य - के दर्शन कराये। छठे दिन जागरणारूप उत्सव विशेष किया । ग्यारह दिन व्यतीत होने पर अशुचिकर्म की निवृत्ति की। बारहवें दिन विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम तैयार कर (ग्यारहवें शतक के नौवें उद्देशक में कथित शिवराजा के समान) सभी क्षत्रिय ज्ञातिजनों को निमंत्रित कर भोजन कराया। फिर उन सब के समक्ष अपने बाप-दादा आदि से चली आती हुई कुल परम्परा के अनुसार कुल के योग्य, कुलोचित, कुलरूप सन्तान को वृद्धि करनेवाला, गुणयुक्त और गुण निष्पन्न नाम देते हुए कहा-'क्योंकि यह बालक, बलराजा का पुत्र और प्रभावती देवी का आत्मज है, इसलिए इसका नाम 'महाबल' रखा जाय । अतएव बालक के माता-पिता न उसका नाम महाबल रखा।' . २९ तएणं से महव्वले दारए पंचधाईपरिग्गहिए, तंजहाखीरधाईए, एवं जहा दढपइण्णे, जाव णिवाय-णिव्वाघायंसि सुहंसुहेणं परिवड्ढइ । तएणं तस्स महब्बलस्स दारगस्स अम्मा-पियरो For Personal & Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ?? उ. ११ महावल चरित्र करणं वा परंगामणं वा पजंपावणं वा कण्णवेहणं उवणयणं च अण्णाणि य या करेंति । अणुपुव्वेणं ठिवडियं वा चंदसूरदंसावणियं वा जागरियं वा णामपयचंक्रमणं वा जेमामणं वा पिंडवद्वणं वा वा संवच्छरपडिलेहणं वा चोलोयणगं च वहूणि गव्भाधाण - जम्मणमाइयाई कोउ - कठिन शब्दार्थ - पिंडवद्धणं- भोजन बढ़ाना, कण्णवेहणं कर्ण वेधन, चोलोयणगंचोटी रखवाना, उवणयणं - संस्कारित करना, कोउयाइं - कौतुक | भावार्थ - २९ - महाबलकुमार का -१ क्षीरधात्री, २ मज्जनधात्री, ३ मण्डनधात्री, ४ क्रीडनधात्री और ५ अंकधात्री - इन पांच धात्रियों द्वारा राजप्रश्नीय सूत्र में वर्णित दृढ़प्रतिज्ञ कुमार के समान पालन किया जाने लगा । वह कुमार, वायु और व्याघात रहित स्थान में रही हुई चम्पक वृक्ष के समान अत्यन्त सुख •पूर्वक बढ़ने लगा | महाबल कुमार के माता-पिता ने अपनी कुल-मर्यादा के अनुसार जन्म-दिन से लेकर क्रमशः सूर्य-चन्द्र दर्शन, जागरण, नामकरण, घुटनों के बल चलाना, पैरों से चलाना, अन्न भोजन प्रारंभ करना, ग्रास बढ़ाना, संभाषण करना, कान बिधाना, वर्षगांठ मनाना, चोटी रखवाना, उपनयन (संस्कृत) करना, इत्यादि बहुत से गर्भधारण जन्म महोत्सव आदि कौतुक किये । १९४७ ३० - तणं तं महब्बलं कुमारं अम्मापियरो साइरेगट्टवासगं जाणित्ता सोभणंसि तिहि करण णक्खत्त मुहुत्तंसि० एवं जहा दढप्पो, जाव अलं भोगसमत्थे जाए यावि होत्था । तपणं तं महब्बलं दुमारं उम्मुकबालभावं जाव अलं भोगसमत्थं वियाणित्ता अम्मापियरो अटु पासायवडेंसए करेंति, अन्भुग्गय- मूसिय-पहसिए " For Personal & Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४८ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ११ महावल चरित्र . इव वण्णओ जहा रायप्पसेणइज्जे, जाव पडिरूवे, तेसि णं पासायवडेंसगाणं बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं महेगं भवणं करेंति अणेगखंभसयसंणिविटुं, वण्णओ जहा रायप्पसेणइजे पेच्छाघरमंडवंसि जाव पडिरूवे । भावार्थ-३०-जब महाबल कुमार आठ वर्ष से कुछ अधिक उम्र का हुआ, तो माता-पिता ने प्रशस्त, तिथि, करण, नक्षत्र और मुहर्त में पढ़ने के लिये कलाचार्य के यहाँ भेजा, इत्यादि सारा वर्णन दृढ़प्रतिज्ञ कुमार के अनुसार कहना चाहिये यावत् महाबल कुमार भोग भोगने में समर्थ हुआ। महाबल कुमार को भोग योग्य जानकर माता-पिता ने उसके लिये उत्तम आठ प्रासाद बनवाये । वे प्रासाद 'राजप्रश्नीय' सूत्र में उल्लिखित वर्णन के अनुसार अतिशय ऊंचे यावत् अत्यन्त सुन्दर थे। उनके ठीक मध्य में एक बड़ा भवन तैयार करवाया। उस भवन के सैकड़ों खम्भे लगे हुए थे, इत्यादि राजप्रश्नीय सूत्र, के प्रेक्षागृह मण्डप वर्णन के समान जान लेना चाहिये यावत् वह अत्यन्त सुन्दर था । ३१-तएणं तं महब्बलं कुमारं अम्मापियरो अण्णया कयाइ सोभणंसि तिहि-करण-दिवस-णक्खत्त-मुहुत्तंसि व्हायं कयवलिकम्म कयकोउय-मंगलपायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं पमक्खणगण्हाण-गीय-वाइय-पसाहणटुंगतिलग-कंकणअविहववहुउवणीयं मंगलमुजंपिएहि य वरकोउयमंगलोवयारकयसंतिकम्मं सरिसयाणं सरित्तयाणं सरिव्वयाणं सरिसलावण्ण-रूव-जोव्वणगुणोववेयाणं विणीयाणं कयकोउय-मंगलपायच्छित्ताणं सरिसरहिं रायकुलेहितो For Personal & Private Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवती मूत्र-श. ११ उ. ११ महाबल चरित्र आणिल्लियाणं अटण्हं रायवरकण्णाणं एगदिवसेणं पाणिं गिण्हा. विसु । कठिन शब्दार्थ -पमक्खणग-अभ्यञ्जन (विलेपन)। भावार्थ-३१-शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र और मुहूर्त में महाबल कुमार को स्नानादि करदा कर अलंकारों से अलंकृत एवं विभूषित किया । फिर सधवा स्त्रियों के द्वारा अभ्यंगन, विलेपन, मण्डन, गीत, तिलक आदि मांगलिक कार्य किये गये । तत्पश्चात् समान त्वचा वाली, समान उम्र वाली, समान रूप, लावण्य, यौवन और गुणों से युक्त एवं समान राजकुल से लाई हुई उत्तम आठ राजकन्याओं के साथ एक ही दिन में पाणिग्रहण करवाया गया। ३२-तएणं तस्स महावलस्स कुमारस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं पीइदाणं दलयंति, तंजहा-अट्ठ हिरण्णकोडीओ, अट्ठ सुवष्णकोडीओ, अट्ठ मउडे मउडप्पवरे, अट्ठ कुंडलजुए कुंडलजुयप्पवरे, अट्ठ हारे हारप्पवरे, अट्ट अद्भहारे अद्धहारप्पवरे, अट्ट एगावलीओ एगा. वलिप्पवराओ, एवं मुत्तावलीओ, एवं कणगावलीओ, एवं रयणा. वलीओ, अट्ट कडगजोए कडगजोयप्पवरे, एवं तुडियजोए, अट्ट खोमजुयलाई खोमजुयलप्पवराई, एवं वडगजुयलाई, एवं पट्टजुयलाई, एवं दुगुल्लजुयलाई अट्ट सिरीओ, अट्ठ हिरीओ, एवं धिईओ, कित्तीओ, बुद्धीओ, लच्छीओ, अट्ठ णंदाई, अट्ट भद्दाई, अट्ठ तले तलप्पवरे, सव्वरयणामए, णियगवरभवणकेऊ अट्ट झए झयप्पवरे, अट्ट वये क्यप्पवरे, दसगोसाहस्सिएणं वएणं, अट्ठ णाडगाई णाड For Personal & Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५० भगवती सूत्र-श. ११ उ. ११ महाबल चरित्र गप्पवराई बत्तीसवघेणं णाडएणं, अट्ट आसे आसप्पवरे, सव्वरयणामए, सिरिघरपडिरूवए, अट्ट हत्थी हथिप्पवरे, सव्वरयणामए सिरिघरपडिरूवए, अट्ठ जाणाई जाणप्पवराई, अट्ठ जुगाई जुगप्पवराई. एवं सिबियाओ, एवं संदमाणीओ, एवं गिल्लीओ थिल्लीओ, अट्ट वियडजाणाई वियडजाणप्पवराई, अट्ट रहे पारिजाणिए, अट्ठः रहे संगामिए, अट्ठ आसे आसप्पवरे, अट्ट हत्थी हत्थिप्पवरे, अट्ठ गामे गामप्पवरे, दसकुलसाहस्सिएणं गामेणं, अट्ठ दासे दासप्पवरे, एवं चेव दासीओ, एवं किंकरे, एवं कंचुइज्जे, एवं वरिसधरे, एवं महत्तरए, अट्ट सोवण्णिए ओलंबणदीवे, अट्ठ रूप्पामए ओलंबणदीवे, अट्ठ सुवण्णरूप्पामए ओलंवणदीवे, अट्ठ सोवण्णिए उपकंचणदीवे, एवं चेव तिण्णि वि अट्ठ सोवण्णिए पंजरदीवे एवं चेव तिण्णि वि । कठिन शब्दार्थ-मउडे-मुकुट, कडगजोए-कड़ों की जोड़ी, किकरे-अनुचर, कंचुहज्जेद्वारपाल (प्रतिहार) महत्तरए-अन्तःपुर के कार्य के विचारक, परिसधरे-अन्तःपुर रक्षक, कृत नपुंसक। भावार्थ-३२-विवाहोपरान्त महाबलकुमार के माता-पिता ने अपनी आठों पुत्रवधुओं के लिए प्रीतिदान दिया। यथा-आठ कोटि हिरण्य (चांदी के सिक्के), आठ कोटि सौनया (सोने के सिक्के), आठ श्रेष्ठ मुकुट, आठ श्रेष्ठ कुण्डलयुगल, . आठ उत्तम हार, आठ उत्तम अर्द्ध हार, आठ उत्तम एकसरा हार, आठ मुक्तावली हार, आठ कनकावली हार, आठ रत्नावली हार, आठ उत्तम कड़ों की जोड़ी, आठ उत्तान त्रुटित (बाजुबन्द) की जोड़ी, उत्तम आठ रेशमी वस्त्र युगल, आठ उत्तम सूती वस्त्रयुगल, आठ टसर वस्त्र युगल, आठ पट्ट युगल, आठ दुकूल युगल, आठ श्री, आठही, आठ घी, आठ कोति, आठ बुद्धि और आठ लक्ष्मी देवियों For Personal & Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ११ महावल चरित्र को प्रतिमा, आठ नन्द, आठ भद्र, आठ ताड़ वृक्ष, ये सब रत्नमय जानने चाहिए। अपने भवन में केतु (चिन्ह रूप) आठ उत्तम ध्वज, दस हजार गायों का एक व्रज (गोकुल) ऐसे आठ उत्तम गोकुल, बत्तीस मनुष्यों द्वारा किया जाने वाला एक नाटक होता है, ऐसे आठ उत्तम नाटक, आठ उत्तन घोड़े, ये सब रत्नमय जानना चाहिए । भाण्डागार समान आठ रत्नमय उत्तमोत्तम हाथी, भाण्डागार -श्रीधर समान सर्व रत्नमय आठ उत्तम यान, आठ उत्तम युग्म (एक प्रकार का " का वाहन), आठ शिविका, आठ स्यन्दमानिका, आठ गिल्ली (हाथी को अम्बाड़ी), आठ थिल्लि (घोड़े का पलाण-काठी), आठ उत्तम विकट (खुले हुए) यान, आठ पारियानिक (क्रीड़ा करने के) रथ, आठ संग्रामिक रथ, आठ उत्तम अश्व, आठ उत्तम हाथी, दस हजार कुल-परिवार जिसमें रहते हों ऐसे आठ गांव, आठ उत्तम दास, आठ उत्तम दासियाँ, आठ उत्तम किंकर, आठ कंचुकी (द्वार रक्षक), आठ वर्षधर (अन्तःपुर के रक्षक खोजा), आठ महत्तरक (अन्तःपुर के कार्य का विचार करनेवाले), आठ सोने के, आठ चांदी के और आठ सोने-चांदी के अवलम्बनदीपक (लटकने वाले दीपक-हण्डियाँ), आठ सोने के, आठ चाँदी के, आठ सोने-चांदी के उत्कञ्चन दीपक (दण्ड युक्त दीपक-मशाल), इसी प्रकार सोना, चाँदी और सोना-चाँदी, इन तीनों प्रकार के आठ पञ्जर दीपक । अट्ठ सोवण्णिए थाले, अट्ट रूप्पमए थाले, अट्ठ सुवण्णरूपमए थाले, अट्ट सोवण्णियाओ पत्तीओ ३ +, अट्ट सोवणियाई थासयाइं ३, अट्ठ सोवण्णियाइं मल्लगाइं ३, अट्ट सोवणियाओ तलियाओ ३, अट्ट सोवणियाओ कविचिआओ ३, ___ + जहां ' ३' का अंक है, वहां पूर्व पाठ के समान स्वर्ण के बाद 'रजत' तथा 'स्वर्ण-रजतमय' ममझना चाहिये । जैसे-'अट्ट सोवणियाओ पत्तीओ के आगे 'अट्ट रूपमइय पतीओ, अट्ट सोवण्ण रूप्पमयाओ पत्तीओ' इस प्रकार जहां-जहाँ '३'का अंक है, वहां-वहां पढ़ना चाहिए-डोशी। For Personal & Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५२ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ११ महावल चरित्र अट्ट सोवण्णिए अवएडए ३, अट्ट सोवणियाओ अवयक्काओ ३, अट्ट सोवण्णिए पायपीढए ३, अट्ट सोवण्णियाओ भिसियाओ ३, अटु मोवण्णियाओ करोडियाओ ३, अट्ट सोवण्णिए पल्लंके ३, अट्ट सोवण्णियाओ पडिसेन्जाओ ३, अट्ट हंसासणाई. अट्ठ कोंचासणाई, एवं गरुलासणाई, उण्णयासणाइं, पणयासणाई, दीहासणाई, भदासणाई, पक्खासणाई, मगरासणाई, अट्ठ पउमासणाई, अट्ट दिसा. सोवत्थियासणाई, अट्ठ तेल्लसमुग्गे, जहा रायप्पमेणइज्जे, जाव अट्ठ सरिसवसमुग्गे, अट्ठ खुजाओ, जहा उववाइए, जाव अट्ठ पारिसीओ, अट्ठ छत्ते, अट्ठ छत्तधारिओ चेडीओ, अट्ट चामराओ, अट्ट चामरधारीओ चेडीओ, अट्ठ तालियंटे, अट्ठ तालियंटधारीओ चेडीओ, अट्ठ करोडियाओ, अट्ठ करोडियाधारीओ चेडीओ, अट्ट खीरधाईओ, जाव अट्ट अंकधाईओ, अट्ट अंगमडियाओ, अट्ठ उम्महि. याओ, अट्ट हावियाओ, अट्ठ पसाहियाओ, अट्ठ वण्णगपेसीओ, अट्ठ चुण्णगपेसीओ, अट्ठ कोट्ठागारीओ, अट्ठ दवकारीओ, अट्ठ उवत्थाणियाओ, अट्ठ णाडइज्जाओ, अट्ट के डुबिणीओ, अट्ट महाणसिणीओ, अट्ठभंडागारिणीओ, अट्ठ अज्झाधारिणीओ, अट्ठ पुष्फधारणीओ, अट्ठ पाणिधारणीओ, अट्ट बलिकारीओ, अट्ट सेज्जाकारीओ, अट्ठ अभितरियाओ पडिहारीओ, अट्ठ वाहिरियाओ For Personal & Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवंती सूत्र - ११ ३ ११ महावल चरित्र " 9 पडिहारीओ अट्ट मालाकारीओ अट्ट पेसणकारीओ, अण्णं वा सुबहुं हिरण्णं वा सुवणं वा कंसं वा दूसं वा विउलधण - कणग० जाव संतसारसावएज्जं, अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं, पकामं भोत्तुं पकामं परिभाएउं । तरणं से महव्बले कुमारे एगमेगाए भजाए एगमेगं हिरण्णकोडिं दलयह, एगमेगं सुवणकोडिंदलयड़, एगमेगं मउडं मउडप्पवरं दलयइ, एवं तं चैव सव्वं जाव एगमेगं पेसणकारिं दलयइ, अण्णं वा सुबहुं हिरण्णं वा जाव परिभाएउं । तरणं से महव्वले कुमारे उपिं पासायवरगए जहा जमाली जाव विहरइ । १९५३ कठिन शब्दार्थ - मीसियाओ - आसन विशेष मज्जाए - भार्या को । भावार्थ- सोना, चाँदी और सोना-चांदी के आठ थाल, आठ थालियाँ, आठ स्थासक ( तसलियाँ), आठ मल्लक ( कटोरे ), आठ तलिका ( रकाबियाँ), आठ कलाचिका ( चम्मच ), आठ तापिकाहस्तक ( संडासियाँ), आठ तवे, आठ पादपीठ (पैर रखने के बाजोठ), आठ भीषिका ( आसन विशेष ), आठ करोटिका ( लोटा), आठ पलंग, आठ प्रतिशय्या ( छोटे पलंग ), आठ हंसासन, आठ चासन, आठ गरुडासन, आठ उन्नतासन, आठ अवनतासन, आठ दीर्घासन, आठ भद्रासन, आठ पक्षासन, आठ मकरासन, आठ पद्मासन, आठ दिवस्वस्तिकासन, आठ तेल के डिब्बे, इत्यादि सभी राजप्रश्नीय सूत्र के अनुसार जानना चाहिये, यावत् आठ सर्षप के डिब्बे, आठ कुब्जा दासियां इत्यादि सभी औपपातिक सूत्र के अनुसार जानना चाहिये, यावत् आठ पारस देश की दासियाँ, आठ छत्र, आठ छत्रधारिणी दासियां आठ चामर, आठ चामरधारिणी दासियाँ, आठ पंखे, आठ पंखाधारिणी दासियाँ, आठ करोटिका (ताम्बूल के करण्डिए) आठ करोटिका For Personal & Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५४ भगवती सूत्र - श. ११ उ. ११ महाबल चरित्र धारिणी दासियाँ, आठ क्षीर धात्रियाँ ( दूध पिलाने वाली धाय), यावत् आठ अधात्रियाँ, आठ अंगमर्दिका ( शरीर का अल्प मर्दन करने वाली दासियाँ), आठ उन्मदिका ( शरीर का अधिक मर्दन करनेवाली दासियाँ), आठ स्नान कराने वाली दासियाँ, आठ अलङ्कार पहनाने वाली दासियाँ, आठ चन्दन घिसने वाली दासियाँ, आठ ताम्बूलचूर्ण पीसने वाली, आठ कोष्ठागार की रक्षा करने वाली, आठ परिहास करने वाली, आठ सभा में पास रहने वाली, आठ नाटक करने वाली, आठ कौटुम्बिक ( साथ जाने वाली ), आठ रसोई बनाने वाली, आठ भण्डार की रक्षा करने वाली, आठ तरुणियाँ, आठ पुष्प धारण करने वाली ( मालिन), आठ पानी भरने वाली, आठ बलि करने वाली, आठ शय्या बिछाने वाली, आठ आभ्यन्तर और आठ बाह्य प्रतिहारियाँ, आठ माला बनाने वाली और आठ पेषण करने वाली दासियाँ दी। इसके अतिरिक्त बहुतसा हिरण्य, सुवर्ण कांस्य, वस्त्र तथा विपुल धन, कनक यावत् सारभूत धन दिया, जो सात पीढ़ी तक इच्छा पूर्वक देने और भोगने के लिये पर्याप्त था । इसी प्रकार महाबल कुमार ने भी प्रत्येक स्त्री को एक-एक हिरण्य कोटि एक-एक स्वर्ण कोटि, इत्यादि पूर्वोक्त सभी वस्तुएँ दी, यावत् एक-एक पेषणकारी दासी, तथा बहुतसा हिरण्य-सुवर्णादि विभक्त कर दिया । वह महाबल कुमार, नौवें शतक के तेतीसवें उद्देशक में कथित जमालि कुमार के वर्णन के अनुसार उस उत्तम प्रासाद में अपूर्व भोग भोगता हुआ रहने लगा । ३३- तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहओ पओप्पए धम्मघोसे णामं अणगारे जासंपण्णे, वण्णओ जहा केसिसामिस्स, जाव पंचहिं अणगारसएहिं सधि संपरिवुडे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे जेणेव हत्थिणाउरे णयरे, जेणेव सहसंबवणे For Personal & Private Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्री . १. द. ११ महायल परित्र उजाणे तेणेव उवागन्छड़, उवागन्छित्ता अहापडिरूवं उरगहं ओगिण्हड़, ओगिरिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहाइ । तएणं हस्थिणाउरे णयरे सिंघाडगतिय० जाव परिसा पज्जुवासइ । . फटिन शब्दार्थ-पओप्पए-प्रपात्र-शिष्य । भावार्थ-३३-उस काल उस समय में तेरहवें तीर्थंकर भगवान् विमलनाथ स्वामी के प्रपौत्र (प्रशिष्य-शिष्यानुशिष्य) धर्मयोप नामक अनगार थे। वे जाति-सम्पन्न इत्यादि केशी स्वामी के समान थे, यावत् पांच सौ साधुओं के परिवार के साथ अनुक्रम से एक गांव से दूसरे गांव विहार करते हुए हस्तिनापुर नगर के सहस्रान वन नामक उद्यान में पधारे और यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके संयम और ता से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। हस्तिनापुर निवासियों को मुनि आगमन ज्ञात हुआ, यावत् पर्युपासना करने लगी। ३४-तएणं तस्स महब्बलस्स कुमारस्स तं महयाजणसदं वा जणबृहं वा एवं जहा जमाली तहेव चिंता, तहेव कंचुइजपुरिसं सद्दावेइ, कंचुइज्जपुरिसो वि तहेव अक्खाइ, णवरं धम्मघोसस्स अणगारस्म आगमणगहियविणिच्छए करयल० जाव णिग्गच्छइ । एवं खलु देवाणुप्पिया ! विमलस्स अरहओ पउप्पए धम्मघोसे णामं अणगारे, असं तं चेव जाव सो वि तहेव रहवरेणं णिग्गच्छइ । धम्मकहा जहा केसिसामिस्स । सो वि तहेव अम्मापियरं आपुच्छइ, णवरं धम्मयोसस्स अणगारस्स अंतियं मुंडे भक्त्तिा अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए, तहेव वुत्तपडिवुत्तया, गवरं इमाओ य ते जाया ! For Personal & Private Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ११ उ. ११ महाबल चरित्र विलरायकुलवा लियाओ कला० सेसं तं चैव जाव ताहे अकामाई चैत्र महव्वलकुमारं एवं वयासी - 'तं इच्छामो ते जाया ! एगदिवसमवि रज्जसिरिं पासित्तए' । तरणं से महव्बले कुमारे अम्मापियराण वयणमणुयत्तमाणे तुसिणीए संचिइ । तरणं से बले राया कोडुंबिय पुरिसे सदावे, एवं जहा सिवभद्दस्स तहेव रायाभिसेओ भाणियव्वो, जाव अभिसिंचड़, करयलपरिग्गहियं महव्वलं कुमारं जपणं विजपणं वद्धावेंति, जपणं विजपणं वद्धावित्ता जाव एवं वयासी भण जाया ! किं देमो, किं पयच्छामो,' सेसं जहा जमालिम्स तहेव, जाव तरणं मे महव्वले अणगारे धम्मघोसरस अणगारस्स अंतियं सामाइयमाइयाई चोइस पुव्वाई अहिजड़, अहिजित्ता वहूहिं चउत्थ० जाव विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहुपरिपुणाई दुवाल सवासाईं सामण्णपरियागं पाउण्ड, बहु० मासि याएं संलेहणाए स िभत्ताइं अणसणाए० आलोइयपडिवकते समाहिपत्ते कालमासे कालं किवा उड्ढं चंदिम- सूरिय० जहा अम्मडो, जाव वंभलोए कप्पे देवत्ताए उबवण्णे । तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाहं ठिई पण्णत्ता, तत्थणं महव्वलरस वि देवस्स दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । से णं तुमं सुदंसणा ! वंभलोए कप्पे दस सागरोवमानं दिव्वाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरिता ताओ चैव देवलोगाओ आउक्खणं ३ अनंतरं चयं चइत्ता इहेव १९५६ For Personal & Private Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ११ उ. ११ महावल परित्र १५५७ वाणियग्गामे णयरे मेट्टिकुलंसि पुत्तत्ताए पञ्चायाए । कठिन शब्दार्थ-वृत्तपडिवृत्तया-उत्तर-प्रत्युत्तर । भावार्थ-३४-दर्शनार्थ जाते हुए बहुत से मनुष्यों का कोलाहल सुनकर जमालिकुमार के समान महाबलकुमार ने अपने कञ्चुकी पुरुषों को बुलाकर इसका कारण पूछा । कञ्चुको पुरुषों ने महाबलकुमार से हाथ जोड़कर विनय पूर्वक निवेदन किया-'हे देवानप्रिय ! तीर्थङ्कर विमलनाथ भगवान के प्रशिष्य धर्मघोष अनगार यहां पधारे हैं।' महाबलकुमार भी वन्दना करने गया और केशी स्वामी के समान धर्मघोष अनगार ने धर्मोपदेश दिया । धर्मोपदेश सुनकर महाबलकुमार को वैराग्य उत्पन्न हुआ। घर आकर माता-पिता से कहा-'हे माता-पिता ! में धर्मघोष अनगार के पास, अनगार-धर्म स्वीकार करना चाहता हूँ। जमालिकुमार के समान महाबल कुमार और उसके माता-पिता में उत्तरप्रत्युत्तर हुए, यावत् उन्होंने कहा-'हे पुत्र ! यह विपुल धन और उत्तम राजकुल में उत्पन्न हुई, कलाओं में कुशल, आठ बालाओं को छोड़कर तुम कैसे दीक्षा. लेते हो, इत्यादि यावत् माता-पिता ने अनिच्छापूर्वक महाबलकुमार से इस प्रकार कहा-" हे पुत्र ! हम एक दिन के लिये भी तुम्हारी राज्य-लक्ष्मी को देखना चाहते हैं।" माता-पिता की बात सुनकर महाबलकुमार चुप रहे । इसके पश्चात् माता-पिता ने ग्यारहवें शतक के नौवें उद्देशक में वणित शिवभद्र के समान, महाबल का राज्याभिषेक किया और महाबल कुमार को जय-विजय शब्दों से वधाया, तथा इस प्रकार कहा-'हे पुत्र ! कहो हम तुम्हें क्या देवें ? तुम्हारे लिये क्या करें,' इत्यादि वर्णन जमालि के समान जानना चाहिये । महाबलकुमार ने धर्मघोष अनगार के पास प्रव्रज्या अंगीकार कर सामायिक आदि चौदह पूर्वी का ज्ञान पढ़ा और उपवास, बेला, तेला आदि विचित्र तप द्वारा आत्मा को भावित करते हुए सम्पूर्ण बारह वर्ष तक श्रमण-पर्याय का पालन किया और मासिक संलेखना से साठ भक्त अनशन का छेदन कर, आलोचना प्रतिक्रमण कर, एवं समाधि युक्त काल के समय काल करके ऊर्ध्वलोक में चन्द्र और सूर्य से भी ऊपर For Personal & Private Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५८ भगवती सूत्र-स. ११ उ. ११ महाबल चरित्र बहुत दूर, अम्बड़ के समान यावत् ब्रह्मदेवलोक में देवपने उत्पन्न हुआ। वहाँ कितने ही देवों की दस सागरोपम की स्थिति कही गई है, तदनुसार महाबल देव की भी दस सागरोपम की स्थिति कही गई है । 'हे सुदर्शन ! पूर्वभव में तेरा जीव महाबल था । वहाँ ब्रह्म देवलोक को दस सागरोपम की स्थिति पूर्ण कर और देवलोक का आयुष्य, भव और स्थिति का क्षय होने पर वहां से चवकर सोधे इस वाणिज्यग्राम नगर के सेठ कुल में तू पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ है।'. ३५-तएणं तुमे सुदंसणा ! उम्मुक्कवालभावेणं विण्णायपरिणयमेत्तेणं जोवणगमणुप्पत्तेणं तहारूवाणं थेराणं अंतियं केवलिपण्णते धम्मे णिसंते, सेवि य धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिराइए; तं सुठ्ठणं तुम मुदसणा ! इयाणि पकरेसि । मे तेणटेणं सुदंसणा ! एवं वुच्चइ-अस्थि णं एएसिं पलिओवम-सागरोवमाणं खण्इ वा अवचएइ वा। तएणं तस्स सुदंसणस्स सेद्विस्स समणस्म भगवओ महावीरस्त अंतियं एयमढे सोचा णिसम्म सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवप्तमेणं ईहा-पोह मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सण्णीपुटवजाई. सरणे समुप्पण्णे, एयमट्ट सम्म अभिसमेइ । तएणं से सुदंसणे सेट्टी समणेणं भगवया महावीरेणं संभारियपुटवभवे दुगुणाणीयसइटसंवेगे आणंदंसुपुण्णणयणे ममणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेड़, आ० वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी For Personal & Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ११ महाबल चरित्र 'एवमेयं भंते ! जाव मे जहेयं तुझे वयह' त्ति कटु उत्तरपुरच्छिम दिसिभागं अवक्कमइ, मेमं जहा उमभदत्तस्म, जाव मव्वदुक्खप्पहोणे, णवरं चोइस पुयाई अहिज्झइ, बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, मेसं तं चेव । ॐ सेवं भंते ! मेवं भंते ! त्ति । महब्बलो समत्तो ॐ ॥ एकारसमे सए एक्कारसमो उद्देसो समत्तो । कठिन शब्दार्थ-दुगुणाणीय सङ्घसंवेगे-श्रद्धा एवं संवेग दुगुना होगया। भावार्थ-३५-'हे सुदर्शन ! बालभाव से मुक्त होकर तू विज्ञ और परिणत वयवाला हुआ, यौवन वय प्राप्त होकर तथा प्रकार के स्थविरों के पास केवलिप्ररूपित धर्म सुना । वह धर्म तूझे इच्छित प्रतीच्छित और रुचिकर हुआ। हे सुदर्शन ! अभी जो तू कर रहा है वह अच्छा कर रहा है। हे सुदर्शन ! इसलिये ऐसा कहा जाता है कि पल्योपम और सागरोपम का क्षय और अपचय होता है। श्रमण भगवान महावीर स्वामी से धर्म सुनकर और हृदय में धारण कर सुदर्शन सेठ को शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम और विशुद्ध लेश्या से तदावरणीय . कर्मो का क्षयोपशम हुआ और ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए संजी पूर्वजातिस्मरण (ऐसा ज्ञान जिससे निरंतर संलग्न अपने संज्ञी रूप से किये हुए पूर्वभव देखे जा सके) ज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे भगवन् द्वारा कहे हुए अपने पूर्वभव को स्पष्ट रूप से जानने लगा। इससे सुदर्शन सेठ को दुगुनी श्रद्धा और संवेग उत्पन्न हुआ। उसके नेत्र आनन्दाश्रुओं से परिपूर्ण हो गये। तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर स्वामी को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा एवं वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोला-“हे भगवन् ! आप जैसा कहते हैं, वैसा ही है, सत्य है, यथार्थ है।" इस प्रकार कहकर सुदर्शन सेठ ने, नौवें शतक के तेतीसवें उद्देशक में वर्णित ऋषभदत्त की तरह प्रवज्या अंगीकार की। चौदह For Personal & Private Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६. भगवती सूत्र-स. ११ उ. १२ श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र की धर्मचर्चा पूर्व का ज्ञान पढ़ा । सम्पूर्ण बारह वर्ष तक श्रमण-पर्याय का पालन किया यावत् समस्त दुःखों से रहित हुए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन-शंका-चौदह पूर्वधारी जीवों का जघन्य उपपात छठे लान्तक देवलोक तक कहा गया है, यहां महावल अनगार ने भी चौदह पूर्व का ज्ञान पढ़ा था, फिर उनका उपपात पांचवें ब्रह्मदेवलोक में ही कैसे हुआ ? समाधान-शंका उचित है, किन्तु उस समय चौदह पूर्व के ज्ञान में से कुछ ज्ञान विस्मृत हो जाना अथवा चौदह पूर्व में कुछ कम ज्ञान होना सम्भव है, उन्हें परिपूर्ण चौदह पूर्व का ज्ञान नहीं हुआ था। ॥ ग्यारहवें शतक का ग्यारहवां उद्देशक सम्पूर्ण ।। शतक ११ उद्देशक १२ श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र की धर्मचर्चा - १ तेणं गणं आलभिया णामं णयरी होत्था । वण्णओ। • गालभियाए णय. रीए वहवे जान अप समणोव For Personal & Private Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ११ उ. १२ श्रमणोपासक ऋषिपुत्र की धर्मचर्चा १९६१ १. मणिविद्वाणं सष्णिमण्णाणं अयमेयारुवे मिहो कहास मुल्लावे समुपज्जित्था देवलोपसु णं अज्जो ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? तरणं मे इसिभहपुत्ते समणोवासए देवटिइग हियडे ते समणोवासए एवं वयासी - देवलोएस णं अजो ! देवाणं जहण्णेणं दस-वाससहरमाई ठिई पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया, दुसमयाहिया, जाव दससमयाहिया संखेज्जसमयाहिया, असंखेज्ज समयाहिया, उको तेत्तीमं मागरोवमाडं टिई पण्णत्ता । तेण परं वोच्छिष्णा देवाय देवलोगा य । तरणं ते ममगोवासया इसिभदपुत्तस्स समणोवा सगस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स एयमहं णो सहहंति णो पत्तियंति, णो रोयंति एयमहं असद्दहमाणा अपत्तियमाणा अरोपमाणा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया । २ - तेणं काले तेणं समरणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे, जाव परिसा पज्जुवासइ । तएणं ते सम गोवासया इमीसे कहाए लड्डा समाणा हट्टा एवं जहा तुंगिउद्देसए जाव पज्जुवासंति । तपणं समणे भगवं महावीरे तेसिं समणोवासगाणं तीसे य महति० धम्मकहा, जाव आणाए आराहए भवइ । कठिन शब्दार्थ - मिहो कहासमुल्लावे परस्पर वार्तालाप में । भावार्थ - १ - उस काल उस समय में आलभिका नाम की नगरी थी - For Personal & Private Use Only " Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६२ भगवती सूत्र-श. ११ उ. १२ श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र की धर्मचर्चा (वर्णन ।। वहां शंखवन नामक उद्यान था (वर्णन)। उस आलभिका नगरी में 'ऋषिभद्रपुत्र' प्रमुख बहुत-से श्रमगोपासक रहते थे। वे आढय यावत् अपरिभूत थे। वे जीवाजीवादि तत्त्वों के ज्ञाता थे। किसी समय एक स्थान पर एकत्रित होकर बैठे हुए उन श्रमणोपासकों में इस प्रकार का वार्तालाप हुआ-“हे आर्यो! देवलोकों में देवों की कितनी स्थिति कही गई है ?" प्रश्न सुनकर देवों की स्थिति के विषय का ज्ञाता 'ऋषिभद्रपुत्र' ने उन श्रमणोपासकों को इस प्रकार कहा"हे आर्यों ! देवों को जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की कही गई है। उसके बाद एक समय अधिक, दो समय अधिक यावत् दस समय अधिक, संख्यात समय अधिक और असंख्यात समय अधिक, इस प्रकार बढ़ते हुए उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। इसके आगे अधिक स्थिति वाले देव और देवलोक नहीं हैं।" ऋषि मद्रपुत्र श्रमगोपासक के उपरोक्त कथन पर उन श्रमणोपासकों ने श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की और अपने-अपने स्थान पर चले गये। . २-उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे यावत् परिषद् उपासना करती है। तुंगिका नगरी के श्रावकों के समान वे श्रमणोपासक भी भगवान् का आगमन सुनकर हर्षित और सन्तुष्ट हुए, यावत् भगवान की पर्युपासना करने लगे। भगवान ने उन श्रमणोपासकों को और आई हुई महापरिषद् को यावत् 'आज्ञा के आराधक होते हैं'-यहां तक धर्मोपदेश दिया। ३-तएणं ते समणोवासया समणस्स भगवओ महावीरस्स अतियं धम्म सोचा णिसम्म हट्ठ-तुट्ठा उठाए उठेइ, उ० समणं भगवं महावीरं वंदति, णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-(प्र०) एवं खलु भंते ! इसिभदपुत्ते समणोवासए अम्हं एवं आइक्खइ, जाव परूवेइ-देवलोएसु णं अजो! देवाणं जहण्णेणं दस वास. For Personal & Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवती मूत्र-श. ११ उ. १२ श्रमणोपासा ऋपिभद्रपुत्र की धर्मच १९६३ सहस्साई ठिई पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया, जाव तेण परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य, से कहमेयं भंते ! एवं ? (उ०) अजों' त्ति समणे भगवं महावीरे ते समणोवासए एवं वयासी-जणं अजो! "इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तुझं एवं आइक्खड़, जाव परूवेइ-देवलोएसु णं अज्जो ! देवाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया जाव तेण परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य,” । सच्चे णं एसमटे, अहं पि णं अजो ! एवमाइक्खामि, जाव परूवेमि'देवलोएसु णं अजो.! देवाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साइं तं चेव जाव तेण परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य,' सच्चे णं एसमटे । तएणं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एय. मटुं सोचा णिसम्म समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति; वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव इसिभदपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता इसिभद्दपुत्तं समणोवासगं वंदंति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एयमटुं सम्मं विणएणं भुज्जो भुज्जो खामेति । तएणं ते समणोवासया पसिणाई पुच्छंति, प० अट्ठाइं परियाइयंति, अ० समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति, वं० जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया। कठिन शब्दार्थ-भुज्जो मुज्जो-बार-बार, अट्ठाई परियाइयंति-अर्थ ग्रहण किया। भावार्थ-३-श्रमण भगवान महावीर स्वामी से धर्मोपदेश सुनकर और For Personal & Private Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ११ उ. १२ श्रमणोपासक ऋपिभद्रपुत्र की धर्म चर्चा हृदय में धारण कर वे श्रमणोपासक हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए । उन्होंने खड़े होकर भगवान् को वन्दना नमस्कार किया और इस प्रकार पूछा - "हे भगवन् ! ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक हमें इस प्रकार कहता है यावत् प्ररूपणा करता है कि 'देव लोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की कही गई है, इसके पश्चात् एक-एक समय अधिक यावत् उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की कही गई है। इसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हो जाते हैं,' तो हे भगवन् ! यह बात. किस प्रकार है ?" १९६४ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उन श्रमणोपासकों से कहा - "हे आर्यो ! ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक तुम्हें कहता है यावत् प्ररूपणा करता है कि 'देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की कही गई है यावत् समयाधिक करते हुए उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की कही गई है । इसके पश्चात् देव और देवलोक व्युच्छिन्न हो जाते हैं - यह बात सत्य है । हे आर्यो ! मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि 'देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है यावत् उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपन की है । इसके पश्चात् देव और देवलोक व्युच्छिन्न हो जाते हैं,' यह बात सत्य है ।" भगवान् से समाधान, सुनकर, अवधारण कर और भगवान् को वन्दन नमस्कार कर वे श्रमणोपासक, ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक के समीप आये । उसे वन्दना नमस्कार किया और उसकी सत्य बात को न मानने रूप अपने अपराध के लिये विनय पूर्वक बारंबार क्षमायाचना करने लगे । फिर उन श्रमणोपासकों ने भगवान् से कई प्रश्न पूछे, उनके अर्थ ग्रहण किये और भगवान् को वन्दना नमस्कार कर अपने-अपने स्थान पर चले गये । ४ प्रश्न - 'भंते!' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदर, णमंसइ, वं० एवं वयासी - पभू णं भंते! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए For Personal & Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-द. ११ . १२ श्रमणोपामन. ऋपिगद्रपुत्र को धर्मचर्चा १९६५ देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइ. त्तए ? ४ उत्तर-णो इणटे समटे, गोयमा ! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए वहूहिं . सीलब्बय-गुणव्वय-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं अहा: परिगहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणिहिइ, व० मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झसेहिह, मा० सहि भत्ताई अणसणाए छेदेहिड, छेदेत्ता आलोइय. पडिकंते समाहिपत्ते कालमाप्ते कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववज्जिहिइ । तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चतारि पलिओवमाई ठिई पण्णता । तत्थ णं इसिभद्दपुत्तस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिई भविस्सइ । ५ प्रश्न से णं भंते ! इसिभद्दपुत्ते देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भव० ठिइक्खएणं जाव कहिं उववजिहिइ ? ५ उत्तर-गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, जाव अंतं काहेइ । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति भगवं गोयमे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ आलभियाओ णयरीओ संखवणाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहार विहरइ । भावार्थ-४ प्रश्न-तदुपरान्त भगवान् गौतम स्वामी ने, श्रमण भगवान् For Personal & Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ११ उ. १२ पुद्गल परिव्राजक महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार पूछा-"हे भगवन् ! क्या श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र अगारवास को त्याग कर आपके समीप अनगार प्रव्रज्या स्वीकार करने में समर्थ है ? ४ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं, किन्तु बहुत से शीलव्रत, गुणवत, विरमगवत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवासों से तथा यथा-योग्य स्वीकृत तपस्या द्वारा अपनी आत्मा को भावित करता हुआ, बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन करेगा । फिर मासिक संलेखना द्वारा साठ भक्त अनशन का छेदन कर, आलोचना और प्रतिक्रमण कर एवं समाधि प्राप्त कर, काल के समय काल करके सौधर्म कल्प में अरुणाभ नामक विमान में देवरूप से उत्पन्न होगा । वहाँ कितने ही देवों को चार पल्योपम की स्थिति कही गई है, उनमें ऋषिभद्रपुत्र देव की भी चार पल्योपम की स्थिति होगी। ____५ प्रश्न-हे भगवन् ! वह ऋषिभद्रपुत्र देव, उस देवलोक का आयुष्य, भव और स्थिति क्षय होने पर कहां जायगा, कहां उत्पन्न होगा? ५ उत्तर-हे मौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा यावत् सभी दुःखों का अन्त करेगा। "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवान् ! यह इसी प्रकार है"ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत आला को भावित करते हुए विचरने लगे। पश्चात् किसी समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी आलभिका नगरी के शंखवन उद्यान से निकलकर बाहर जनपद में विचरण करने लगे। पुद्गल परिव्राजक ६-तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया णामं णयरी होत्था । वण्णओ । तत्थ णं संखवणे णामं चेइए होत्था । वण्णओ । तस्स णं संखवणस्स चेइयस्स अदूरसामंते पोग्गले णामं परिवायए For Personal & Private Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. ११ उ. १२ पुद्गर परित्राजक परिवसइ, रिउब्वेद-जजुबेद० जाव णएमु सुपरिणिट्टिए छद्रं-छटेणं अणिक्खित्तेणं तबोकम्मेणं उड्ढे वाहाओ० जाव आयावेमाणे विहरइ । तएणं तस्स पोग्गलस्स परिव्वायगस्स छटुं-छटेणं जाव आयावेमाणस्म पगढ़भझ्याए जहा सिव्वस्स जाव विभंगे णामं अण्ण्यम समुप्पण्णे । से णं तेणं विभंगेणं अण्माण समुप्पण्णणं बंभलोए कप्पे देवाणं ठिई जाणइ पासइ । तएणं तस्स पोग्गलस्स परिव्वायगस्स अयमेयारूवे अन्झथिए जाव समुप्पजित्था-'अस्थि णं ममं अइसेसे णाणदंसणे समुप्पण्णे, देवलोएसु णं देवाणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई ठिई पण्णता, तेण परं समयाहिया, दुसमयाहिया जाव असंखेजसमयाहिया, उक्कोसेणं दससागरोवमाई ठिई पण्णत्ता, तेण परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य-एवं संपेहेइ, एवं संपेहेत्ता आयावणभूमीओ पचोरुहइ, आ० तिदंडकुंडिया जाव धाउरत्ताओ य गेण्हइ, गेण्हेत्ता जेणेव आलभिया णयरी, जेणेव परिव्वायगावसहे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भंडणिक्खेवं करेइ, भं० आलभियाए णयरीए सिंघाडग० जाव पहेलु अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ, जाव परूवेइ-'अस्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अइसेसे णाण-दंसणे समुप्पण्णे, देवलोएसु णं देवाणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई, तहेव जाव वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य । तएणं आलभियाए णयरीए एएणं अभिलावणं जहा सिवस्स, तं चेव जाव से कहमेयं मण्णे एवं ? सामी समोसढे, जाव For Personal & Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६८ भगवती सूत्र--ग. ११ उ. १२ पुद्गल परिवाजक परिसा पडिगया। भगवं. गोयमे तहेव भिक्खायरियाए तहेव बहु. जणसदं णिसामेइ, तहेव० तहेव सव्वं भाणियब्वं, जाव अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि एवं भासामि जाव परूवेमि-'देवलोएसु णं देवाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साइं. ठिई पण्णता, तेण परं समयाहिया दुसमयाहिया जाव उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता, तेण परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य । कठिन शब्दार्थ-सुपरिणिट्टिए-मुपरिनिष्ठित (कुशल)। ___ भावार्थ-६-उस काल उस समय में आलभिका नगरी थी (वर्णन)। वहाँ शंखवन नाम का उद्यान था। (वर्णन) उस शंखवन उद्यान से थोड़ी दूर 'पुद्गल' नामक परिव्राजक रहता था। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, आदि यावत् बहुत - से ब्राह्मण विषयक नयों में कुशल था। वह निरन्तर बेले-बेले की तपस्या करता हुआ आतापना भूमि में दोनों हाथ ऊँचे कर के आतापना लेता था। इस प्रकार तपस्या करते हुए उस 'पुद्गल' परिव्राजक को प्रकृति की सरलता आदि से शिव परिव्राजक के समान विभंग नामक अज्ञान उत्पन्न हुआ। उस विभंगज्ञान से पांचवें ब्रह्म देवलोक में रहे हुए देवों की स्थिति जानने देखने लगा। फिर उस 'पुद्गल' परिव्राजक को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-"मुझे अतिशेष ज्ञानदर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं जानता हूं कि देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है। फिर एक समय अधिक, दो समय अधिक यावत् असंख्य समय अधिक, इस प्रकार करते हुए उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम की है। उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हो जाते हैं,"-इस प्रकार विचार करके वह आतापना भूमि से नीचे उतरा। त्रिदण्ड, कुण्डिका यावत् भगवां वस्त्रों को ग्रहण कर आलभिका नगरी में तापसों के आश्रम में आया और वहाँ अपने उपकरण रख कर आलभिका नगरी के शृंगाटक, त्रिक, राजमार्ग आदि में इस प्रकार कहने लगा For Personal & Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ११ . १२ पुद्गल परिव्राजक यावत् प्ररूपणा करने लगा - "हे देवानुप्रियो ! मुझे विशिष्ट ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं यह जानता और देखता हूँ कि देवलोकों में जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम की है, इससे आगे देव और देवलोक नहीं हैं ।" इस बात को सुनकर आलभिका नगरी के लोग परस्पर जैसे शिव राजर्षि के संबंध में कहने लगे थे वैसे ही यहाँ पर भी कहने लगे कि - "हे देवानुप्रियो ! यह बात कैसे मानी जाय ?" कुछ काल बाद श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहाँ पधारे, यावत् गौतम स्वामी भिक्षा के लिये नगरी में गये । वहाँ लोगों से उपरोक्त बात सुनकर अपने स्थान पर आये और भगवान् से इस विषय में पूछा । भगवान् ने फरमाया- "हे गौतम! पुद्गल परिव्राजक का कथन असत्य है । में इस प्रकार कहता हूँ और प्ररूपणा करता हूँ कि देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है, इसके बाद एक समयाधिक, द्वि समयाधिक यावत् उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है। इसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हो गये हैं ।" ७ प्रश्न - अत्थि णं भंते! सोहम्मे कप्पे दव्वाई सवण्णाई पि अवण्णाई पि ? ७ उत्तर - तहेव जाव हंता अस्थि, एवं ईसाणे वि एवं जाव अच्चुए, एवं गेवेज्जविमाणेसु, अणुत्तरविमाणेसु वि, ईसिपव्भाराए वि जाव हंता अस्थि । तरणं सा महतिमहालिया जाव पडिगया । ८ - तणं आलभियाए णयरीए सिंघाडग-तिय० अवसेसं जहा सिवस्स, जाव सव्वदुक्खप्पहीणे, णवरं तिदंड-कुंडियं जाव धाउरत्तवत्थपरिहिए परिवडियविन्भंगे आलभियं णयरिं मज्झंmegs, जाव उत्तरपुरत्थिमं दिसिभागं अवकमर, 19 १९६९ For Personal & Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७० भगवती सूत्र-श. ११ उ. १२ पुद्गल परिव्राजक अवक्कमित्ता तिदंडकुंडियं च जहा खंदओ, जाव पव्वइओ सेसं जहा सिवस्स, जाव “अव्वाबाहं सोक्खं अणुभवंति सासयं सिद्धा" । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ दुवालसमो उद्देसो समत्तो॥ ॥ समत्तं एगारसमं सयं ॥ कठिन शब्दार्थ-अव्वाबाह-अव्यावाध (किसी भी प्रकार की बाधा से रहित)। भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! सौधर्म देवलोक में वर्ण सहित और वर्ण रहित द्रव्य है, इत्यादि प्रश्न । ७ उत्तर-हां, गौतम ! हैं। इसी प्रकार ईशान देवलोक में यावत् अच्युत देवलोक में,ग्रेवेयक विमानों में,अनुत्तर विमानों में और ईषत्प्रारभारा पृथ्वी में वर्णादि सहित और वर्णादि रहित द्रव्य हैं। धर्मोपदेश सुनकर वह महापरिषद् चली गई। ८-आलभिका नगरी के मनुष्यों द्वारा पुद्गल परिवाजक को अपनी मान्यता मिथ्या ज्ञात हुई और वे भी शिवराजर्षि के समान शङ्कित, कांक्षित, हए, जिससे उनका विभंगज्ञान नष्ट हो गया। वे अपने उपकरण लेकर भगवान् के पास आये । भगवान के द्वारा अपनी शंका निवारण हो जाने पर स्कन्दक की तरह त्रिदण्ड, कुण्डिका एवं भगवा वस्त्र छोड़कर प्रवजित हुए और शिवराजर्षि के समान आराधक होकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए। वे सिद्ध अव्याबाध, शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ ग्यारहवें शतक का बारहवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ॥ ग्यारहवां शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२ १ संखे २ जयंती ३ पुढवी ४ पोग्गल ५ अइवाय ६ राहु ७ लोगे य। ८ णागे य ९ देव १० आया, वारसमसए दमुद्देसा ॥ १ ॥ भावार्थ-बारहवें शतक में दस उद्देशक हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं,१ शंख, २ जयन्ती, ३ पृथ्वी, ४ पुद्गल, ५ अतिपात, ६ राहु, ७ लोक, ८ नाग, ९ देव और १० आत्मा । उद्देशक १ श्रमणोपासक शंख पुष्कली १-तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी णामं णयरी होत्था, वण्णओ । कोट्ठए चेइए, वण्णओ। तत्थ णं सावत्थीए णयरीए बहवे संखप्पामोक्खा समणोवासगा परिवसंति, अड्ढा जाव अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा जाव विहरति । तस्स णं संखस्स समणोवासगस्स उप्पला णामं भारिया होत्था, सुकुमाल० जाव सुरूवा समणो. वासिया अभिगयजीवाजीवा जाव विहरइ । तत्थ णं सावत्थीए णयरीए पोक्खली णामं समणोवासए परिवसइ, अड्ढे, अभिगय० जाव विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे । परिसा For Personal & Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७२ भगवती सूत्र-श. १२ उ. १ श्रमणोपासक शंख पुष्कली णिग्गया, जाव पज्जुवासइ । तएणं ते समणोवासगा इमीसे कहाए जहा आलभियाए जाव पज्जुवासंति । तएणं समणे भगवं महावीरे तेसिं समणोवासगाणं तीसे य महति० धम्मकहा, जाव परिसा पडिगया। तएणं ते समगोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा णिसम्म हट्टतुटु० समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता पसिणाई पुच्छंति प० अट्ठाइं परियाइयंति, अ० उट्ठाए उतॄति, उ० समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ कोट्टयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सावत्थी णयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। .. भावार्थ-१-उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी, वर्णन। कोष्ठक नामक उद्यान था, वर्णन । उस श्रावस्ती नगरी में शंख प्रमुख बहुत-से श्रमणोपासक रहते थे। वे आढय यावत् अपरिभूत थे। वे जीव-अजीवादि तत्त्वों के जानकार यावत् विचरते थे। शंख श्रमणोपासक की स्त्री का नाम उत्पला था । वह सुकुमाल हाथ-पाँव वाली यावत् सुरूप और जीव-अजीवादि तत्त्वों की जानने वाली श्रमणोपासिका थी। उस श्रावस्ती नगरी में पुष्कली नाम का एक श्रमणोपासक भी रहता था। वह आढय यावत् अपरिभूत था तथा जीवअजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता था। . उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, श्रावस्ती पधारे। परिषद वन्दन के लिये गई यावत् पर्युपासना करने लगी। भगवान के आगमन को जानकर वे श्रावक भी, आलभिका नगरी के श्रावकों के समान वन्दनार्थ गये, यावत् पर्युपासना करने लगे। भगवान् ने उस महा परिषद् को और उन श्रमणोपासकों को धर्मोपदेश दिया यावत् परिषद् वापिस चली गई। वे श्रमणोपासक For Personal & Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १२ उ. १ श्रमणोपासक शंस पुष्कली 'भगवान् के पास धर्मोपदेश सुनकर और अवधारण करके हर्षित और सन्तुष्ट हुए । भगवान् को वन्दना नमस्कार कर प्रश्न पूछे। उनके अर्थ को ग्रहण किया । फिर खड़े होकर भगवान् को वन्दना नमस्कार कर, कोष्ठक उद्यान से निकल कर श्रावस्ती नगरी की ओर जाने का विचार किया । 66 २ - तण से संखे समणोवासए ते समणोवासए एवं वयासीतुझे णं देवाणुप्पिया ! विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं वक्खडावेह, तरणं अम्हे तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभाएमाणा परिभ्रंजेमाणा पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा विहरिस्सामो ।” तरणं ते समणोवासगा संखस्स समणोवासगस्स एयम ं विणएणं पडिसुर्णेति । तरणं तस्स संखस्स समणोवासगस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था - ' णो खलु मे सेयं तं विउलं असणं जाव साइमं आसाएमाणस्स विसाएमाणस्स परिभाएमाणस्स परिभुंजेमाणस्स पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरितए, सेयं खलु मे पोसहसालाए पोसहियस्स बंभयारिस्स उम्मुक्कमणि सुवण्णस्स ववगयमाला-वण्णग- विलेवणस्स णिक्खित्तसत्थ- मुसलस्स एगस्स अविश्यस्स दव्भसंथारोवगयस्स पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए' त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेत्ता जेणेव सावत्थी णयरी, जेणेव सए गिहे, जेणेव उप्पला समणोवासिया, तेणेव उवागच्छड़, ते० उप्पलं समणोवासियं. आपुच्छह, १९७३ For Personal & Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७४ भगवती सूत्र-श. १२ उ. १ श्रमणोपासक गंग पृप्कनी आपुच्छिता जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, ते० पोसहसालं अणुपविस्सइ, अणुपविस्सित्ता पोसहसालं पमन्जइ, पो० उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, उ० दब्भसंथारगं संथरइ, दम्भ० दब्भसंथा. रगं दुरूहइ, द० पोसहसालाए पोसहिए वंभयारी जाव पक्खियं " पोसहं पडिजागरमाणे विहरह। कठिन शब्दार्थ-अम्मस्थिए-अध्यवसाय । भावार्थ-२-इसके पश्चात् शंख श्रमणोपासक ने दूसरे श्रमणापासकों से इस प्रकार कहा-“हे देवानुप्रियो ! तुम पुष्कल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार कराओ। अपन सभी उस पुष्कल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का आस्वादन करते हुए, विशेष आस्वादन करते हुए, परस्पर देते हुए और खाते हए, पाक्षिक पौषध का अनुपालन करते हुए रहेंगे।" उन श्रमणोपासकों ने शंख श्रमणोपासक के बचन को विनय पूर्वक स्वीकार किया। , इसके बाद उस शंख श्रमणोपासक को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ -"अशनादि यावत् खाते हुए, पाक्षिक पौषध करना मेरे लिये श्रेयस्कर नहीं, परन्तु अपनी पौषधशाला में, ब्रह्मचर्य पूर्वक मणि और स्वर्ण का त्याग कर, माला, उद्वर्तना और विलेपन को छोड़कर तथा शस्त्र और मूसलादि का त्याग करना और डाम के संधारा सहित, दूसरे किसी की सहायता बिना, मुम अकेले को पौषध स्वीकार करके विचरना श्रेयस्कर है।" ऐसा विचार कर वह अपने घर आया और अपनी उत्पला श्रमणोपासिका से पूछकर, अपनी पौषधशाला में आया। पौषधशाला का परिमार्जन करके उच्चार (बड़ीनीत) और प्रस्रवण (लघुनीत)की भूमि का प्रतिलेखन करके, डाभ का संथारा बिछाकर, उस पर बैठा और पौषध ग्रहण करके, पाक्षिक पौषध का पालन करने लगा। विवेचन-भगवान् के दर्शन करके वापिस लौटते समय शंख श्रावक ने दूसरे श्रावकों से कहा कि अशनादि आहार तैयार करवाओ। अपन सभी खाते-पीते हुए पाक्षिक पौषध For Personal & Private Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १२ उ. १ श्रमणोपासक गंब पुष्कली १९७५ करेंगे। शंख धावक की बात सुनकर वे सभी थावक अपने-अपने घर गए । पीछे गंग्व धावक के मन में बिना खाये-पोये ही पापध करने का विचार उत्पन्न हआ। घर आकर उसने अपनी पन्नी उ-पला श्राविका से पूछा और अपनी पौषधशाला में जाकर पौषध अंगीकार किया। मूलपाठ में 'आसाएमाणा, विसाएमाणा, परिभाएमाणा, परिभुजमाणा' पद दिए हैं । इन सभी पदों के अन्त में 'शानन्' प्रत्यय लगा है । संस्कृत और प्राकृत में 'शत और शानच्' प्रत्यय वर्तमान में चालू क्रिया के लिये आते हैं । अर्थात् 'जाते हुए, खाते हुए, लाते हुए' इत्यादि वर्तमान में चालू क्रिया को बतलाने के लिये 'शतृ और शानच्' प्रत्यय लगते हैं । 'आसाएमाणा आदि चारों पद 'शान' प्रत्ययान्त हैं । इसलिये इनका अर्थ है कि 'आहारादि खाते-पीते हुए पौषध करना ।' इम पोषध का दूसरा नाम अभी 'दयाव्रत' है । पृष्कली आदि श्रावकों ने यही व्रत किया था। ३-तपणं ते समणोवासगा जेणेव सावत्थी णयरी जेणेव साई साइं गिहाई, तेणेव उवागच्छंति, ते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उबक्खडावेंति, उवक्खडावित्ता अण्णमण्णं सद्दावेंति, अ० एवं वयामी-‘एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहिं से विउले असण-. पाण-खाइम-साइमे उवक्खडाविए, संखे य णं समणोवासए णो हव्वमागच्छइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं संखं समणोवासगं सद्दावेत्तए'। ___४-तएणं से पोक्खली समणोवासए ते समणोवासए एवं वयासी-'अच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सुण्णिव्वुया वीसत्था, अहं णं संखं समणोवासगं सद्दावेमि' त्ति कटु तेसिं समणोवासगाणं अतियाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता सावत्थीए णयरीए For Personal & Private Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७६ भगवती सूत्र-श. १२ उ. १ श्रमणोपामक शंस गुप्तानी मझ-मझेणं जेणेव संखस्स समणोवासगस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, ते० संखस्स समणोवासगस्स गिहं अणुपवितु। ५-तएणं सा उप्पला समणोवासिया पोक्खलिं समणोवासयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हट्ट-तुट्ठ० आसणाओ अब्भुट्टेइ आ० सत्त-टु पयाई अणुगच्छइ अणुगच्छित्ता पोक्खलिं समणोवासगं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता आसणेणं उवणिमंतेइ, आ० एवं वयासी-“संदिसउ णं देवाणुप्पिया ! किमागमणप्पओयणं ?" तएणं से पोक्खली समणोवासए उप्पलं समणोवासियं एवं वयासी-“कहिं णं देवाणुप्पिए ! संखे समणोवासए ?” तएणं सा उप्पला समणो. वासिया पोक्खलिं समणोवासयं एवं वयासी-"एवं खलु देवाणुप्पिया ! संखे समणोवासए पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव विहरइ ।” __. कठिन शब्दार्थ-उवक्खडावेति-तैयार करवाते हैं । भावार्थ-३-इसके बाद वे श्रमणोपासक श्रावस्ती नगरी में अपने-अपने घर गए और पुष्कल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवाया। फिर एक दूसरे को बुलाकर वे इस प्रकार कहने लगे कि-हे देवानुप्रियो ! अपन ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवा लिया है, परन्तु अभी तक शंख श्रमणोपासक नहीं आये हैं। इसलिए उन्हें बुलवाना चाहिए। ४-इसके बाद पुष्कली श्रावक ने उन श्रावकों से कहा कि-'हे देवानुप्रियो ! तुम शांतिपूर्वक विश्रान करो, 'मैं शंख श्रावक को बुला लाता हूँ। "ऐसा कहकर वहां से चले और श्रावस्ती नगरी के मध्य होते हुए शंख श्रावक के घर पहुंचे। For Personal & Private Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १२ उ. १ श्रमणोपासक गं पुष्कली ५- पुष्कली श्रावक को आते हुए देखकर, उत्पला श्राविका हर्षित और सन्तुष्ट हुई । वह अपने आसन से उठ कर सात-आठ चरण सामने गई । उसने पुष्कली श्रावक को वन्दना नमस्कार कर बैठने के लिए आसन दिया और इस प्रकार बोली- "हे देवानुप्रिय ! कहिये, आपके आने का क्या प्रयोजन है ?" पुष्कली श्रावक ने उत्पला से पूछा - "हे देवानुप्रिये ! शंख श्रावक कहाँ है ?" उत्पला श्राविका ने उत्तर दिया- "वे पौषधशाला में, पौषध करके बैठे हुए हैं ।" ६- तरणं से पोक्खली समणोवासए जेणेव पोसहसाला, जेणेव संबे समणोवासए तेणेव उवागच्छड़, ते० गमणागमणाए पडिक्क मह, ग० संखं समणोवासयं वंदइ णमंसड़, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - ' एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहिं से विउले असणे० जाव साइमे उवक्खडाविए, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! तं विउलं असणं जाव साइमं आसाएमाणा जाव पडिजागरमाणा विहरामो । ७ - तरणं से संखे समणोवासए पोक्खालं समणोवासयं एवं वयासी - णो खलु कप्पर देवाणुप्पिया ! तं विउलं असणं पाणं ग्वाइमं साइमं आमाएमाणस्त्र जाव पडिजागरमाणस्स विहरित्तए, कप्पड़ मे पोसहसा लाए पोसहियस्स जाव विहरित्तए, तं छंदेणं देवाणुपिया ! तुभे तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा जाव विहरह | ८ - तपणं से पोक्खली समणोवासए संखस्स समणोवा सगस्स १९७७ For Personal & Private Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १२ उ. १ श्रमणोपासक शंख पुष्कली अंतियाओ पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिवखमित्ता सावस्थि यरिं मज्झ-मज्झेणं जेणेव ते समणोवासगा तेणेव उवागच्छइ, ते० ते समणोवास एवं वयासी - ' एवं खलु देवाणुप्पिया ! संखे समणोवासए पोसहसालाए पोसहिए जाव विहरड़, तं छंदेणं देवाणुप्पिया ! तुभे विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं जाव विहरह, संखे णं समणोवास णो हव्वमागच्छछ । तरणं ते समणोवासगा तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा जाव विहरंति । कठिन शब्दार्थ-छंदेणं - इच्छा मे । भावार्थ - ६ - तब पुष्कली श्रावक, पौषधशाला में शंख श्रावक के समीप आया । गमनागमन का प्रतिक्रमण करके शंख श्रावक को वन्दना नमस्कार किया और इस प्रकार कहा - "हे देवानुप्रिय ! विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम, तैयार करवाया है, अतः अपन चलें और उस आहारादि को खाते-पीते पौषध करें।" १९७८ ७-तब शंख श्रावक ने पुष्कली श्रावक से इस प्रकार कहा - "हे देवानुप्रिय ! आहारादि खाते-पीते हुए पौषध करना योग्य नहीं। ऐसा सोचकर मैंने बिना खाये - पीये पौषध अंगीकार कर लिया है। तुम सब अपनी इच्छानुसार आहारादि खाते-पीते हुए पौषध करो । ८-तब पुष्कली श्रावक वहां से रवाना होकर श्रावस्ती नगरी के मध्य चलकर उन श्रावकों के पास पहुँचा और इस प्रकार बोला- "हे देवानुप्रियो ! शंख श्रावक ने बिना खाये -पीये पौषध अंगीकार कर लिया है। उन्होंने कहा है कि तुम अपनी इच्छानुसार आहारादि करते हुए पौषध करो, शंख श्रावक नहीं आवेगा । यह सुनकर उन श्रावकों ने आहारादि खाते-पीते हुए पौषध किया । विवेचन- अपने-अपने घर जाकर जब उन्होंने अशनादि तैयार करवा लिया, तब For Personal & Private Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १२ ३. : श्रमणोपासक शंख पुष्कली १९७९ उन्होंने एक दूसरे को बुलाया। शंख श्रावक को नहीं आते देख कर पुष्कली श्रावक शंख को बुलाने के लिए गया । शंख की धर्मपत्नी उत्पला, पुष्कली थावक को आते देख कर हर्पित हुई, तथा सात-आठ कदम मामने जाकर पृष्कली को वन्दना नमस्कार किया और आगमन का कारण पूछा। उत्पला न शंम्ब के पोपध करने की सारी बात कही। पुष्कली धावक पौषधशाला में शंख धावक के पास गया। गव ने कहा-'अशनादि को ग्वाते-पीते हुए पीपध । मैने विना खाये-पीये ही पापध कर लिया है।' ९-तएणं तस्स संखस्म समणोवासगस्स पुव्वरत्ता-वरत्तकाल. ममयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-'सेयं खलु मे कल्लं जाव जलंते समणं भगवं महावीर वंदित्ता णमंसित्ता जाव पज्जुवासित्ता तओ पडिणियत्तस्स पक्खियं पोसहं पारित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, एवं संपेहेत्ता कल्लं जाव जलंते पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिए सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, स० पायविहारचारेणं सावत्थिं णयरिं मझमझेणं जाव पज्जुवासइ, अभिगमो णत्थि। . १०-तएणं ते समणोवासगा कल्लं पाउ० जाव जलंते व्हाया कयबलिकम्मा जाव सरीरा सएहिं सएहिं गेहेहितो पडिणिक्खमंति, स० एगयओ मिलायंति, एगयओ मिलायित्ता सेसं जहा पढमं जाव पज्जुवासंति । तएणं समणे भगवं महावीरे तेसिं समणोवासगाणं For Personal & Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १० उ. १ श्रमणोपासव शंव पुष्कली तीसे य धम्मकहा, जाव आणाए आराहए भवइ । तएणं ते समणो. वासगा समणस्स भगवओ महावीरस्म अंतियं धम्मं सोचा णिसम्म हट्ट तुट्टा उडाए उठेति, उ० समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव संखे समणोवामए तेणेव उवागच्छंति ते० संखं समणोवासयं एवं वयासी-'तुमं देवाणुप्पिया ! हिजो अम्हे अप्पणा चेव एवं वयामी, तुम्हे णं देवाणुप्पिया ! विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं जाव विहरिस्सामो, तएणं तुमं पोसहसालाए जाव विहरिए, तं सुटु णं तुमं देवाणुप्पिया ! अम्हे हीलमि । 'अजों त्ति समणे भगवं महावीरे ते समणोवासए एवं वयामी-मा णं अजो ! तुम्भे संखं समणोवासयं हीलह, जिंदह, विमह, गरहह, अवमण्णह, संखे णं ममणोवासए पियधम्मे चेव, दढधम्म चेव, सुदक्खुजागरियं जागरिए।' कठिन शब्दार्थ--हिज्जो-गया कल । भावार्थ-९-रात्रि के पिछले भाग में धर्म जागरणा करते हुए शंख श्रावक को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि कल प्रातःकाल सूर्योदय होने पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार यावत् पर्युपासना करके, वहाँ से लौटने पर पाक्षिक पौषध पालना मेरे लिये श्रेयस्कर है । ऐसा विचार कर वह दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्योदय होने पर, पौषधशाला से बाहर निकला और बाहर जाने योग्य शुद्ध तथा मंगल रूप वस्त्रों को उत्तम रीति से पहन कर, अपने घर से पैदल चलते हुए श्रावस्ती नगरी के मध्य में होकर भगवान की सेवा में पहुँचा, यावत् भगवान् को पर्युपासना करने लगा। यहां अभिगम नहीं कहना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १२ उ. १ श्रमणोपामय गंग्य पुष्कली १०-वे पुष्कली आदि सभी श्रावक, दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्योदय होने पर स्नानादि करके यावत् शरीर को अलंकृत कर अपने-अपने घर से निकले और एक स्थान पर एकत्रित होकर भगवान् की सेवा में पहुंचे यावत् पर्युपासना करने लगे। भगवान् ने महा परिषद् को और उन श्रावकों को “आज्ञा के आराधक हो" वैसा धर्मोपदेश दिया। वे सभी श्रावक धर्मोपदेश सुनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट हुए । तत्पश्चात् खड़े होकर भगवान् को वन्दना नमस्कार किया। इसके पश्चात् वे शंख श्रावक के पास आकर इस प्रकार कहने लगे-“हे देवानुप्रिय ! आपने कल हमें विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करने के लिये कहा था और कहा था कि अपन अशनादि खाते-पीते हुए पौषध करेंगे । तदनुसार हमने अशनादि तैयार करवाया, किन्तु फिर आप नहीं आये और आपने बिना खाये-पीये पौषध कर लिया। हे देवानुप्रिय ! आपने हमारी अच्छी हंसी की ।" उन श्रावकों को इस बात को सुनकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने इस प्रकार कहा-“हे आर्यो ! तुम शंख श्रावक की हेलना, निन्दा, खिसना, गर्हा और अवमानना (अपमान) मत करो । क्योंकि शंख श्रावक प्रियधर्मा और दृढ़धर्मा है। इसने प्रमाद और निद्रा का त्याग करके सुदर्शन ज.गरिका जाग्रत की है।" विवेचन-पापध के चार भेद हैं । यथा:-आहार पौपध, शरीर पापध, ब्रह्मचर्य पौषध और अव्यापार पीपध । आहार का त्याग करके धर्म का पोषण करना 'आहार पौपध' है । स्नान, उबटन, वर्णक, विलपन, पुप्प, गंध, ताम्बूल, वस्त्र और आभरण रूप शरीर सत्कार का त्याग करना 'शरीर पौषध' है । अब्रह्म (मैथुन ) का त्याग कर कुशल अनुष्ठानों के सेवन द्वारा धर्म वृद्धि करना 'ब्रह्मचर्य पोषध' है । कृषि, वाणिज्यादि सावध व्यापारों का तथा शस्त्रादि का त्याग कर धर्म का पोषण करना 'अव्यापार पोषध' है। शंखजी ने इन चारों का त्याग करके पोषध किया था। दूसरे दिन प्रातःकाल वस्त्र बदलने रूप शरीर पोषध को पालकर शेष पॉपधों सहित भगवान् की सेवा में गये थे। इसके लिये मूलपाठ में लिखा है कि 'अभिगमो पत्थि' इसका आशय यह है कि उनके पास सचित्त द्रव्य नहीं थे, इसलिये सचित्त द्रव्य त्याग रूप अभिगम नहीं किया था, शेष चार अभिगम तो किये थे। For Personal & Private Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १२ उ. १ श्रमणोपासक शंख पुष्कली ११ प्रश्न - 'भंते!' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदन णमंस, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी – कइविहा णं भंते ! जागरिया पण्णत्ता ? ११ उत्तर - गोयमा ! तिविहा जागरिया पण्णत्ता, तं जहाबुद्धजागरिया अबुद्धजागरिया सुदक्खुजागरिया | प्रश्न - से केणट्टेणं भंते ! एवं वुह - तिविहा जागरिया पण्णत्ता, तं जहा - बुद्धजागरिया, अबुद्धजागरिया, सुदक्खुजागरिया ? उत्तर - गोयमा ! जे इमे अरिहंता भगवंतो उप्पण्णणाण-दंसणधरा जहा खंदए जाव सव्वष्णू सव्वदरिसी, एए णं बुद्धा बुद्धजागरियं जागरंति । जे इमे अणगारा भगवंतो ईरियासमिया भासासमिया जाव गुत्तबंभचारी एए णं अबुद्धा अबुद्धजागरियं जागरंति । जे इमे समणोवासगा अभिगयजीवाजीवा जाव विहरंति, एए णं सुदक्खुजागरियं जागरंति, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुबह 'तिविहा जागरिया जाव सुदक्खुजागरिया' । १९८२ कठिन शब्दार्थ - जागरिया — जागरणा । भावार्थ - ११ प्रश्न - 'हे भगवन् !' इस प्रकार कह कर भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार पूछा - "हे भगवन् ! जागरिका कितने प्रकार की कही गई है ?" ११ उत्तर - हे गौतम! जागरिका तीन प्रकार की कही गई बुद्धजागरिका, अबुद्धजागरिका और सुदर्शनजागरिका । 1 यथा For Personal & Private Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ उ. १ श्रमणोपासक शंख पुष्कली प्रश्न-हे भगवन् ! तीन प्रकार को जागरिका कहने का क्या कारण है ? उत्तर-हे गौतम ! जो उत्पन्न हुए केवलज्ञान केवलदर्शन के धारक अरिहंत भगवान् हैं, इत्यादि दूसरे शतक के प्रथम उद्देशक के स्कन्दक प्रकरण के अनुसार सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं वे 'बुद्ध' हैं, उनको प्रमाद रहित अवस्था को 'बुद्धजागरिका' कहते हैं। जो अनगार ईर्या आदि पांच समिति, तीन गुप्ति यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हैं, वे सर्वज्ञ न होने के कारण 'अबुद्ध' कहलाते हैं । उनको जागरणा को 'अबुद्ध जागरिका' कहते हैं।श्रावक, जीव अजीव आदि तत्त्वों के जानकार होते हैं, इसलिए इनकी जागरणा 'सुदर्शनजागरिका' कहलाती है। इसलिए हे गौतम ! इस तरह तीन प्रकार को जागरिका कही गई है। १२ प्रश्न-तएणं से संखे समणोवासए समणं भगवं महावीर वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-कोहवसट्टे णं भंते ! जीवे किं बंधइ, किं पगरेइ, किं चिणाइ, किं उवचिणाइ ? १२ उत्तर-संखा ! कोहवसट्टे णं जीवे आउयवजाओ सत्त कम्मपगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ एवं जहा पढमसए असंवुडस्स अणगारस्स जाव अणुपरियट्टइ। . १३-माणवसट्टे णं भंते ! जीवे एवं चेव, एवं मायावसट्टेवि एवं लोभवसट्टेवि जाव अणुपरियट्टइ । - १४-तएणं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमटुं सोचा णिसम्म भीया तत्था तसिया संसारभउन्वि. ग्गा समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव For Personal & Private Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १२ उ. १ श्रमणोपासक शंख पृष्कली संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छंति ते० संखं समणोवासयं वदंति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एयमटुं सम्मं विणएणं भुज्जो भुज्जो खामेति । तएणं ते समणोवासगा सेसं जहा आलभियाए जाव पडिगया। __ १५ प्रश्न-'भंते!' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-पभू गं भंते ! संखे समणो. वासए देवाणुप्पियाणं अंतियं० । १५ उत्तर-सेसं जहा इसिभद्दपुत्तस्स, जाव अंतं काहेइ । ® से भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ * ॥पढमो उद्देसो समत्तो॥ . भावार्थ-१२ प्रश्न-इसके बाद उस शंख श्रमणोपासक ने श्रमण भगवान् पहावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार पूछा-“हे भगवन् ! क्रोध के वश आर्त बना हुआ जीव, क्या बांधता है ? क्या करता है ? किसका चय करता है और किसका उपचय करता है ? १२ उत्तर-हे शंख ! क्रोध के वश आर्त बना हुआ जीव आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कों को शिथिल बंधन से बंधी हई प्रकृतियों को दढ़ बन्धन वाली करता है, इत्यादि सब पहले शतक के पहले उद्देशक में कथित 'संवर रहित अनगार के समान जान लेना चाहिए । यावत् वह संसार में परिभ्रमण करता है। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! मान के वश आतं बना हुआ जीव क्या बांधता है, इत्यादि प्रश्न । १३ उत्तर-हे शंख ! पूर्व कहे अनुसार जानना चाहिए। इसी प्रकार For Personal & Private Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १२ ३. १ श्रमणोपामक शंख पुष्कली माया और लोभ के वश आर्त बने हुए जीव के विषय में भी जानना चाहिए, यावत् वह संसार में परिभ्रमण करता है। १४-श्रमण भगवान महावीर स्वामी से क्रोधादि कषाय का ऐसा तीव्र और कटु फल सुन कर और अवधारण कर के कर्म-बन्ध से भयभीत हुए वे श्रावक त्रास पाये, त्रसित हुए और संसार के भय से उद्विग्न बने हुए वे भगवान् को वन्दना नमस्कार करके शंख श्रावक के समीप आये। उन्हें वन्दना नमस्कार करके अपने अविनयरूप अपराध के लिये विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना करने लगे। इसके पश्चात् वे सभी श्रावक यावत् अपने-अपने घर गये । शेष वर्णन आलभिका के श्रमणोपासकों के समान जानना चाहिये। १५ प्रश्न-'हे भगवन् !' ऐसा कहकर भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार पूछा-'हे भगवन् ! क्या शंख श्रमणोपासक आपके पास प्रव्रज्या लेने में समर्थ है ?' १५ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । शेष वर्णन ऋषिभद्रपुत्र के समान कहना चाहिये, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा। - हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-पुष्कली आदि श्रावकों को जो थोड़ा-सा क्रोध उत्पन्न हो गया था, उसको उपशमाने की दृष्टि से शंख श्रावक ने क्रोधादि कषाय का फल पूछा और भगवान ने क्रोधादि कषाय का कटु-फल बतलाया, जिसे सुनकर वे श्रावक शांत हो गये और अपने अपराध के लिये शंख श्रावक से क्षमा याचना की । शंख श्रावक यहाँ का आयुष्य पूर्ण कर देवलोक में उत्पन्न होगा और वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होगा। ॥ बारहवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२ उद्देशक २ जयंती श्रमणोपासका १ - तेणं कालेणं तेणं समपणं कोसंवी णामं णयरी होत्था । वणओ | चंदोवतरणे चेइए । वण्णओ । तत्थ णं कोसंबीए णयto सहस्साणीयस्स रण्णो पोते सयाणीयस्स रण्णो पुत्ते चेडगस्स रणो णत्तुए मियावईए देवीए अत्तए जयंतीए समणोवासियाए भत्तिजए उदायणे णामं राया होत्या । वण्णओ । तत्थ णं कोसं are rare सहस्साणीयस्स रण्णो सुण्हा सयाणीयस्स रण्णो भज्जा चेडगस्स रण्णो धूया उदायणस्स रण्णो माया जयंतीए समणोवासियाए भाउजा मियावई णामं देवी होत्था । वण्णओ । सुकुमाल० जाव सुरूवा समणोवासिया जाव विहरड़ । तत्थ णं कोसंबीए णयरीए सहस्साणीयस्स रण्णो धूया सयाणीयस्स रण्णो भगिणी उदायणस्स रण्णो पिउच्छा मियावईए देवीए णणंदा वेसालीसावयाणं अरहंताणं पुव्वसिज्जायरी जयंती णामं समणोवासिया होत्था, सुकुमाल० जाव सुरूवा अभिगय० जाव विहरs | कठिन शब्दार्थ - - सुहा— पुत्रवधू, पिउच्छा -- पितृश्वसा - भूआ, णत्तुए - -नप्तृकदोहित्र, भाउज्जा -- भोजाई । भावार्थ - १ उस काल उस समय में कौशाम्बी नामकी नगरी थी ( वर्णन ) । चन्द्रावतरण उद्यान था ( वर्णन ) । उस कौशाम्बी नगरी में सहस्रानीक राजा का पौत्र, शतानीक राजा का पुत्र, चेटक राजा का दोहित्र, मृगावती रानी का For Personal & Private Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ उ. २ जयंती श्रमणोपासिका १९८७ आत्मज, जयन्ती श्रमणोपासिका का भतीज, उदायन नामक राजा था, वर्णन । उसी नगरी में सहस्रानीक राजा की पुत्रवधू, शतानीक राजा की पत्नी, चेटक राजा की पुत्री, उदायन राजा की माता और जयन्ती श्रमणोपासिका की भोजाई मृगावती देवी थी। वह सुकुमाल हाथ-पांव वाली थी, इत्यादि वर्णन जानना चाहिए यावत् सुरूप थी और श्रमणोपासिका थी। उसी नगरी में जयंती नाम की श्रमणोपासिका थी। वह सहस्रानीक राजा की पुत्री, शतानीक राजा की बहिन, उदायन राजा की भूआ, मृगावतीदेवी की ननन्द और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के साधुओं की प्रथम शय्यातर थी। वह सुकुमाल यावत् सुरूप और जीवाजीव आदि तत्त्वों की जानकार, यावत् विचरती थी। २-तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे, जाव परिसा पज्जुवासइ । तएणं से उदायणे राया इमीसे कहाए लद्धटे समाणे ह-तुढे कोडंवियपुरिसे सदावेइ, को० एवं वयासी-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कोसंवि णयरिं सम्भितर-बाहिरियं० एवं जहा कूणिओ तहेव सव्वं जाव पज्जुवासइ । तएणं सा जयंती समणोवासिया इमीसे कहाए लट्ठा समाणी हट्ट-तुट्ठा जेणेव मियावई देवी तेणेव उवागच्छइ, ते० मियावई देविं एवं वयासी-एवं जहा णवमसए उसमदत्तो जाव भविस्सइ । तएणं सा मियावई देवी जयंतीए समणोवासियाए जहा देवाणंदा जाव पडिसुणेइ । तएणं सा मियावई देवी कोडंबियपुरिसे सद्दावेई, को० एवं वयासी-'खिप्पामेव भो. देवाणुप्पिया ! लहुकरण-जुत्तजोइय० जाव धम्मियं जाणप्पवरं For Personal & Private Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८८ भगवनी सूत्र-ग. १२ उ. २ जयंती श्रमणोपामिका जुत्तामेव उवट्ठवेह' जाव उवठ्ठवेंति, जाव पञ्चप्पिणंति । तएणं सा मियाई देवी जयंतीए समणोवासियाए सदिध व्हाया कयबलिकम्मा जाव सरीरा बहूहिं खुज्जाहिं जाव अंतेउराओ णिग्गच्छइ, अं० जेणेव वाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, ते० जाव दुरूढा । तएणं सा मियावई देवी जयंतीए समणोवासियाए सदिध धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा समाणी णियगपरियाल० जहा उसभदत्तो जाव धम्मियाओ जाणप्पवराओ पञ्चो. रुहइ। तएणं सा मियाई देवी जयंतीए ममणोवासियाए सद्धि बहहिं खुज्जाहिं जहा देवाणंदा जाव वंदइ णमंसह वं०२,उदायणं रायं पुरओ कटु ठिझ्या चेव जाव पज्जुवासइ । तएणं समणे भगवं महावीरे उदायणस्स रण्णो मियावईए देवीए जयंतीए समणोवासियाए तीसे य महतिमहा० जाव धम्म परिकहेइ, जाव परिसा पडिगया, उदायणे पडिगए, मियावई देवी वि पडिगया। . भावार्थ-२-उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहां पधारे यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के आगमन की बात सुनकर उदायन राजा हर्षित और सन्तुष्ट हुआ। कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर उसने इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! कौशाम्बी नगरी को अन्दर और बाहर साफ करवाओ, इत्यादि कोणिक राजा के समान जानना चाहिए, यावत् वह पर्युपासना करने लगा। भगवान् के आगमन की बात सुनकर जयन्ती श्रमणोपासिका हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई और मृगावती देवी के पास आकर बोली-“हे देवानुप्रिये ! श्रमण भगवान महावीर यहाँ कौशाम्बी For Personal & Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र---. १२ ७. २ जयन्ती श्रमणोपासका के प्रश्न नगरी के चन्द्रावतरण उद्यान में पधारे हैं । उनका नाम, गौत्र सुनने से भी महाफल होता है, तो दर्शन और वन्दन का तो कहना ही क्या ? उनका एक भी धर्म-वचन सुनने मात्र से महाफल मिलता है, तो तत्त्व-ज्ञान संबंधी विपुल अर्थ सीखने के महाफल का तो कहना ही क्या है ? अतः अपन चले और वन्दननमस्कार करें । यह कार्य हमारे लिए इस भव, परभव और दोनों भवों के लिए कल्याणप्रद और श्रेयस्कर होगा । जिस प्रकार देवानन्दा ने ऋषभदत्त के वचन को स्वीकार किया था, उसी प्रकार मृगावती ने भी जयन्ती श्राविका के वचन स्वीकार किये । फिर सेवक पुरुषों को बुलाकर वेगवान् यावत् धार्मिक श्रेष्ठ रथ जोड़ कर लाने की आज्ञा दी। सेवक पुरुषों ने आज्ञा का पालन किया और रथ लाकर उपस्थित किया । मृगावती देवी और जयन्ती श्राविका ने स्नानादि करके शरीर को अलंकृत किया। फिर बहुत-सी कुब्जा दासियों के साथ अन्तःपुर से बाहर निकली और फिर बाहरी उपस्थानशाला में आई और रथारूढ़ होकर उद्यान में पहुंची। रथ से नीचे उतर कर देवानन्दा के समान वन्दना नमस्कार कर, उदायन राजा को आगे करके चली और उसके पीछे ठहर कर पर्युपासना करने लगी । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उदायन राजा, मृगावती देवी, जयन्ती श्रमणोपासका और उस महा परिषद् को धर्मोपदेश दिया यावत् परिषद् लौट गई । उदायन राजा और मृगावती भी चले गये । विवेचन-जयन्ती श्रमणोपासिका साधुओं को स्थान देने में प्रसिद्ध थी। इसलिए जो साधु प्रथम बार कोशांबी में आते थे, वे उसी से वसति ( ठहरने का स्थान ) की याचना करते थे । इसलिए वह 'पूर्वशय्यातर' के नाम से प्रसिद्ध थी । जयन्ती श्रमणोपासिका के प्रश्न ३- तपणं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोच्चा णिसम्म हट्ट तुट्टा समणं भगवं महा १९८९ For Personal & Private Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ उ. २ जयन्ती श्रमणोपासिका के प्रश्न वोरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी प्रश्न-कहं णं भंते ! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति ? उत्तर-जयंती ! पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं, एवं खलु जीवा गरुयत्तं हवमागच्छंति । एवं जहा पढमसए जाव वीईवयंति । ४ प्रश्न-भवसिद्धियत्तणं भंते ! जीवाणं किं सभावओ, परिणामओ? ४ उत्तर-जयंती ! सभावओ, णो परिणामओ। • ५ प्रश्न-सव्वे वि णं भंते ! भवसिद्धिया जीवा सिज्झिरसंति ? ५ उत्तर-हंता, जयंती ! सव्वे वि णं भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति। ६ प्रश्न-जइ णं भंते ! सव्वे वि भवसिद्धिया जीवा सिज्झि. स्संति, तम्हा णं भवसिद्धियविरहिए लोए भविस्सइ ? . ६ उत्तर-णो इणटे समझे। प्रश्न-से केणं खाइएणं अटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सव्वे वि णं भवसिद्धिया जीवा सिन्झिस्संति, णो चेव णं भवसिद्धियविरहिए लोए भविस्सइ ? ____ उत्तर-जयंती ! से जहाणामए सव्वागाससेढी सिया, अणा. ईया अणवंदग्गा परित्ता परिवुडा, सा णं परमाणुपोग्गलमेत्तेहिं For Personal & Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवता पू भगवती मूत्र-श. १२ उ. २ जयन्ती श्रमणोपासिका के प्रश्न १९९१ खंडेहिं समए समए अवहीरमाणी अवहीरमाणी अणंताहिं ओस. प्पिणी अवसप्पिणीहिं अवहीरंति, णो चेव णं अवहिया सिया, से तेणटेणं. जयंती ! एवं वुच्चइ-'सब्बे वि णं भवसिद्धिया जीवा सिन्झिस्संति, णो चेव णं भवसिद्धियविरहिए लोए भविस्सइ । कठिन शब्दार्थ-अणवदग्गा-अनन्त, परित्ता-परिमित, परिवुडा-परिवृत-घिरी हुई। भावार्थ-३ प्रश्न-जयन्ती श्रमणोपासिका श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से धर्मोपदेश सुनकर एवं अवधारण करके हर्षित और सन्तुष्ट हुई और भगवान् को वन्दना-नमस्कार कर, इस प्रकार पूछा-“हे भगवन् ! जीव किस कारण से गुरुत्व-भारीपन को प्राप्त होते हैं ?" ____३ उत्तर-"हे जयन्ती ! जीव प्रागातिपात आदि अठारह पापस्थानों का सेवन करके गुरुत्व को प्राप्त होते हैं और इनसे निवृत्त होकर जीव हलका होता है। इस प्रकार प्रथम शतक के नौवें उद्देशक में कहे अनुसार जानना चाहिए यावत् वे संसार समुद्र से पार हो जाते हैं।" __ ४ प्रश्न-हे भगवन् ! जीवों का भवसिद्धिकपन स्वाभाविक है या पारि-.. णामिक ? ४ उत्तर-हे जयन्ती ! स्वाभाविक है, पारिणामिक नहीं। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध होंगे? ५ उत्तर-हाँ, जयन्ती ! सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध होंगे। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जायेंगे, तो लोक भवसिद्धिक जीवों से रहित हो जायगा ? ६ उत्तर-हे जयन्ती ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि सभी भवसिद्धिक जीवों के सिद्ध होने पर भी लोक, भवसिद्धिक जीवों से रहित नहीं होगा ? उत्तर-हे जयन्ती ! जिस प्रकार सर्वाकाश की श्रेणी जो अनादि अनन्त For Personal & Private Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९२ भगवती सूत्र - ग. १२ उ. २ जयंती श्रमणोपासका के प्रश्न है और एक प्रदेशी होने से दोनों ओर से परिमित तथा अन्य श्रेणियों द्वारा परिवृत है, उसमें से प्रत्येक समय में एक एक परमाणु पुद्गल जितना खण्ड निकालते हुए, अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी तक निकाला जाय, तो भी वह श्रेणी खाली नहीं होती । इसी प्रकार हे जयन्ती ! ऐसा कहा जाता है कि सब भवसिद्धिक जीव सिद्ध होंगे, परन्तु लोक भवसिद्धिक जीवों से रहित नहीं होगा । ७ प्रश्न - सुत्तत्तं भंते! साहू, जागरियत्तं साहू ? ७ उत्तर - जयंती ! अत्थेगइयाणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू, अत्थे गइयाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू | प्रश्न - से केणटुणं भंते ! एवं बुचड़ - 'अत्थेगइयाणं जाव साहू ?' उत्तर - जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया अहम्माणुया अहम्मिट्ठा अहम्मखाई अहम्मपलोई अहम्मपलज्जणा अहम्मसमुदायारा अहम्मेणं चैव वित्तिं कप्पेमाणा विहरति, एएसिं णं जीवाणं सुत्तत्तं साहू । एए णं जीवा सुत्ता समाणा णो बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जाव परियावणयाए वज्रंति, एए णं जीवा सुत्ता समाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा णो बहूहिं अहम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भ वंति, एएसिं णं जीवाण सुत्तत्तं साहू | जयंती ! जे इमे जीवा धम्मिया धम्माणुया जाव धम्मेण चैव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, एएसिं णं जीवाणं जागरियतं साहू । एए णं जीवा जागरा समाणा बहूणं पाणाणं जाव For Personal & Private Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. १२ उ. २ जयन्ती श्रमणोपासिका के प्रश्न १९९३ सत्ताणं अदुक्खणयाए, जाव अपरियावणयाए वटुंति, तेणं जीवा जागरमाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा बहूहिं धम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवति । एए णं जीवा जागरमाणा धम्मजागरियाए अप्पाणं जागरइत्तारो भवंति, एएसि णं जीवाणं जाग. रियत्तं साहू: से तेणटेणं जयंती ! एवं वुचइ-'अत्थेगइयाणं जीवाणं मुत्तत्तं साहू, अत्थेगइयाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू'। भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! जीवों का सुप्त रहना अच्छा है या जाग्रत रहना ? __७ उत्तर-है जयन्ती ! कुछ जीवों का सुप्त रहना अच्छा है और कुछ जीवों का जाग्रत रहना अच्छा है । प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? ... उत्तर-हे जयन्ती ! जो ये अधामिक, अधर्म का अनुसरण करने वाले, अधर्मप्रिय, अधर्म का कथन करनेवाले, अधर्म का अवलोकन करनेवाले, अधर्म में आसक्त, अधर्माचरण करनेवाले और अधर्म से ही अपनी आजीविका करने वाले हैं, उन जीवों का सुप्त रहना अच्छा है। क्योंकि वे जीव सुप्त हों तो अनेक प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के दुःख, शोक और परिताप आदि के कारण नहीं बनते तथा अपने को, दूसरों को और स्वपर को अनेक अधार्मिक संयो. जनाओं (प्रपञ्चों) में नहीं फंसाते । अतः ऐसे जीवों का सुप्त रहना अच्छा है। . जो जीव धार्मिक, धर्मानुसारी, धर्मप्रिय, धर्म का कथन करनेवाले, धर्म का अवलोकन करनेवाले, धर्मासक्त, धर्माचरण करनेवाले और धर्मपूर्वक आजीविका चलानेवाले हैं, उन जीवों का जाग्रत रहना अच्छा है। क्योंकि वे जाग्रत हों, तो अनेक प्राण, भूत जीव और सत्त्वों के दुःख, शोक और परिताप आदि के कारण नहीं बनते तथा अपने आप को, दूसरों को और स्वपर को For Personal & Private Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९४ भगवती सूत्र-श. १२ उ. २ जयन्ती श्रमणोपासिका के प्रश्न अनेक धार्मिक संयोजनाओं में लगाते रहते हैं, तथा धामिक जागरिका द्वारा जाग्रत रहते हैं, इसलिए इन जीवों का जाग्रत रहना अच्छा है। इसलिए हे जयन्ती ! ऐसा कहा जाता है कि कुछ जीवों का सुप्त रहना अच्छा है और कुछ जीवों का जाग्रत रहना अच्छा है। विवेचन-जयन्ती श्रमणोपासिका ने भगवान् से प्रश्न पूछे हैं । भवसिद्धिक जीवों का भवसिद्धिकपना स्वाभाविक है । जैसे पुद्गल में मूर्त्तत्व धर्म स्वाभाविक है, वैसे ही भवसिद्धिक जीवों का भवसिद्धिकपना स्वाभाविक है । जो मुक्ति के योग्य हैं अर्थात् जिन में मुक्ति जाने की योग्यता है, वे भव सिद्धिक कहलाते हैं । सभी भवसिद्धिक जीव सिद्धि प्राप्त करेंगे, अन्यथा उनका भवसिद्धिकपना ही घटित नहीं हो सकता। १. शंका-यदि सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जावेंगे, तो क्या लोक, भवसिद्धिक जीवों से शून्य नहीं हो जायगा? समाधान-नहीं, ऐसा नहीं होगा । जैसे कि-जितना भी भविष्यत्काल है. वह सब वर्तमान होगा। तो क्या कभी ऐसा समय आयेगा कि संसार, भविष्यत्काल से शून्य हो जायेगा? ऐसा कभी नहीं होगा। इसी दृष्टान्त के अनुसार यह समझना चाहिए कि लोक भवसिद्धिक जीवों से कदापि शून्य नहीं होगा। - इस प्रश्न का दूसरा आशय ऐसा भी निकलता है कि जितने भी जीव सिद्ध होंगे, वे " सभी भवसिद्धिक ही होंगे, एक भी अभवसिद्धिक जीव सिद्ध नहीं होगा-ऐसा मानने पर भी प्रश्न वही उपस्थित रहता है कि क्रमशः सभी भवसिद्धिक जीवों के सिद्ध हो जाने पर, लोक की भव्यों से शून्यता कैसे नहीं होगी ? जयन्ती श्रमणोपासिका की इस शंका का समाधान करने के लिये, आकाश-श्रेणी का दृष्टांत देकर यह बतलाया गया है कि जैसे समस्त आकाश की श्रेणी अनादि-अनन्त है, उसमें से एक-एक परमाणु जितना खण्ड प्रति समय निकाला जाय, तो इस प्रकार निकालते-निकालते अनन्त उत्सपिणियाँ और अनन्त अवमपिणियां वीत जाने पर भी वह आकाश-श्रेणो खाली नहीं होती। इसी प्रकार भवसिद्धिक जीवों के मोक्ष जाते रहने पर भी यह लोक, भवसिद्धिक जीवों से खाली नहीं होगा। इसके लिये दूसरा दृष्टान्त यह भी दिया गया है कि जैसे-दो प्रकार के पत्थर हैं । एक वे जिनमें प्रतिमा बनने की योग्यता है । दूसरे वे टोल पत्थरादि जिनमें प्रतिमा बनने की योग्यता नहीं । जिन पत्थरों में प्रतिमा बनने की योग्यता है, वे सभी पत्थर प्रतिमा नहीं बन जाते, किन्तु जिन पत्थरों को तथाप्रकार के कलाकार आदि का संयोग मिल जाता है, वे प्रतिमापन की For Personal & Private Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ उ. २ जयन्ती श्रमणोपरासिका के प्रश्न १५५५. सम्प्राप्ति कर लेते हैं। जिन पत्थरों को प्रतिमापन को सम्प्राप्ति नहीं होती, इतने मात्र में उनमें प्रतिमापन की अयोग्यता नहीं होती, किन्तु तथाविध मंयोग न मिलने से वे प्रतिमापन की सम्प्राप्ति नहीं कर सकते । यही बात भवसिद्धिक जीवों के लिये भी ममझनी चाहिये। जाग्रत जीव ही सिद्धि को प्राप्त होते हैं. इसलिये इसके आगे मुप्त-जाग्रत विषयक प्रश्न किया गया है । अधर्मी जीव सोते हुए अच्छे हैं और धर्मी पुरुष जागते हुए अच्छे हैं । क्योंकि ये दोनों इन अवस्थाओं में प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःख शोक और परिताप नहीं पहुंचाते । ८ प्रश्न-बलियत्तं भंते ! साह, दुब्बलियत्तं साहू ? ८ उत्तर-जयंती ! अत्थेगइयाणं जीवाणं बलियत्तं साहू , । अत्यंगइयाणं जीवाणं दुबलियत्तं साहू । ... प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जाव साहू ? उत्तर-जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया जाव विहरति एएसि णं जीवाणं दुब्बलियत्तं साहू । एए णं जीवा एवं जहा सुत्तस्स तहा दुबलियत्तस्स वत्तव्वया भाणियव्वा । बलियस्स जहा जाग. रस्स तहा भाणियव्वं, जाव संजोएत्तारो भवंति, एएसि णं जीवाणं बलियत्तं साहू, से तेणटेणं जयंती ! एवं वुच्चइ-तं चेव जाव साहू । ९ प्रश्न-दक्खत्तं भंते ! साहू, आलसियत्तं साहू ? + कुछ पूर्वाचार्य यहां 'जाति-भव्य' की कल्पना करते हैं। वे मानते हैं कि जीवों का एक वर्ग ऐसा है जो जाति से ही भवसिद्धिक हैं, वे कभा सिद्ध नहीं होंगे। किन्तु मूलपाठ में सभी भव्य जीवों के सिद्ध होने का उल्लेख है । अतएव यह जाति भव्य भेद समझ में नहीं आता । दुर्भव्य हो सकते हैं । जातिभव्य-जो कमी सिद्ध नहीं हो-मानने पर तो वे भी अभव्य के समान होंगे और सभी भव्यों के मक्त होने के बाद मक्तिगमन रुकने का प्रश्न उत्पन्न हो जायेगा। अतएव सूत्रोक्त समाधान ही ठीक लगता है-डोशी For Personal & Private Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९६ भगवती स्त्र-श... उ. : जयन्ती श्रमणोपामिका के प्रश्न ९ उत्तर-जयंती ! अत्थेगइयाणं जीवाणं दक्खत्तं साह, अत्थे. गइयाणं जीवाणं आलसियत्तं साहू । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ-तं चेव जाव साह । उत्तर-जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया जाव विहरंति, एएसि णं जीवाणं आलसियत्तं साहू । एए णं जीवा आलसा समाणा णो वहूणं, जहा सुत्ता तहा आलसा भाणियव्वा, जहा जागरा तहा दक्खा भाणियव्वा, जाव संजोएत्तारो भवंति। एए णं जीवा दक्खा समाणा बहूहिं आयरियवेयावच्चेहिं, जाव उवज्झाय०, थेर०, तस्सि०, गिलाण०, सेह०, कुल०, गण०, संघ०, साहम्मियवेयावच्चेहि अत्ताणं संजोएत्तारो भवंति, एएसि णं जीवाणं दक्खत्तं साहू , से तेणटेणं तं चेव जाव साहू। __१० प्रश्न-सोइंदियवसट्टे णं भंते ! जीवे किं बंधइ ? . १० उत्तर-एवं जहा कोहवसट्टे तहेव जाव अणुपरियट्टइ । एवं चक्खिदियवसट्टे वि, एवं जाव फासिंदियवसट्टे वि, जाव अणुपरियट्टइ। - ११-तएणं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमटुं सोचा णिसम्म हट्ट-तुट्ठा सेसं जहा देवाणंदा तहेव पव्वइया, जाव सव्वदुक्खप्पहीणा । ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॐ ॥ वीओ उद्देसो समत्तो ॥ For Personal & Private Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १२ उ. २ जयंती श्रमणोपामिका के प्रश्न १९९७ कठिन शब्दार्थ-दक्खतं-दसता-उद्यमीपन, आलसियत्तं-आलमीपन । भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन ! जीवों को सबलता अच्छी है या दुर्बलता? ८ उत्तर-हे जयन्ती ! कुछ जीवों को सबलता अच्छी है और कुछ जीवों को दुर्बलता। प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि कुछ जीवों को सबलता अच्छी है और कुछ जीवों की दुर्बलता ? उत्तर-हे जयन्ती ! जो जीव अधामिक यावत् अधर्म द्वारा ही आजीविका करते हैं, उनकी दुर्बलता अच्छी है । उन जीवों के दुर्बल होने से वे किसी जीव को दुःख आदि नहीं पहुंचा सकते, इत्यादि ‘सुप्त' के समान दुर्बलता का भी कथन करना चाहिए और जाग्रत के समान सबलता का कथन करना चाहिए । इसलिए धार्मिक जीवों को सबलता अच्छी है। इस कारण हे जयन्ती ! ऐसा कहा जाता है कि कुछ जीवों की सबलता अच्छी है और कुछ जीवों की दुर्बलता। ___९ प्रश्न-हे भगवन् ! जीवों को दक्षता ( उद्यमीपन ) अच्छी है या आलसीपन ? ___९ उत्तर-हे जयन्ती ! कुछ जीवों की दक्षता अच्छी है और कुछ जीवों का आलसीपन । प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? उत्तर-हे जयन्ती ! जो जीव अधार्मिक यावत् अधर्म द्वारा आजीविका करते हैं, उस जीवों का आलसीपन अच्छा है । यदि वे आलसी होंगे, तो प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःख, शोक, परितापादि उत्पन्न नहीं करेंगे, इत्यादि सब सुप्त के समान कहना चाहिए। दक्षता ( उद्यमीपन ) का कथन जाग्रत के समान कहना चाहिए, यावत् वे स्व-पर और उभय को धर्म के साथ जोड़ने वाले होते हैं । वे जीव दक्ष हों, तो आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शेक्ष (नवदीक्षित) कुल, गण, संघ और सार्मिक को वैयावृत्य For Personal & Private Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ग. १२ उ. ३ सात पृथ्वियां (सेवा) करने वाले होते हैं । इसलिए इन जीवों की दक्षता अच्छी है । इस कारण हे जयन्ती ! ऐसा कहा जाता है कि कुछ जीवों की दक्षता और कुछ जीवों का आलसीपन अच्छा है । १९६८ १० प्रश्न - हे भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय के वश आतं (पीड़ित ) बना हुआ जीव, क्या बाँधता है, इत्यादि प्रश्न । १० उत्तर - हे जयन्ती ! जिस प्रकार क्रोध के वश आर्त्त बने हुए जीव के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए, यावत् वह संसार में परिभ्रमण करता है । इसी प्रकार चक्षुइन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय के वश आतं बने हुए जीव के विषय में भी कहना चाहिए, यावत् संसार में परिभ्रमण करता है । ११ - इसके पश्चात् जयन्ती श्रमणोपासका श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से उपरोक्त अर्थों को सुनकर और हृदय में धारण करके हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई, इत्यादि सब वर्णन नौवें शतक के तेतीसवें उद्देशक में कथित देवानन्दा के वर्णन के समान कहना चाहिए, यावत् जयन्ती ने प्रव्रज्या ग्रहण की और सभी दुःखों से मुक्त हुई । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । ॥ बारहवें शतक का द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण || शतक १२ उद्देशक ३ सात पृथ्वियाँ १ प्रश्न - रायगिहे जाव एवं वयासी - क णं भंते ! पुढवीओ For Personal & Private Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--. १२ उ. ३ सात पृथ्वियाँ पण्णत्ताओ ? १ उत्तर - गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- पढमा, १९९९ दोच्चा, जाव सत्तमा |2 २ प्रश्न - पढमा णं भंते! पुढवी किंणामा किंगोत्ता पण्णत्ता ? २ उत्तर - गोयमा ! घम्मा णामेणं, रयणप्पभा गोत्तेणं, एवं जहा जीवाभिगमे पढमो रइय उद्देसओ सो चेव णिरवसेसो भाणि - यव्वो, जाव अप्पावहुगं ति । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ तइओ उद्देस समत्तो ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा - "हे भगवन् ! पृथ्वियाँ कितनी कही गई हैं ? " द्वितीया १ उत्तर - हे गौतम ! पृथ्वियां सात कही गई हैं। यथा- प्रथमा, यावत् सप्तमी । २ प्रश्न - हे भगवन् ! प्रथम पृथ्वी का क्या नाम और गौत्र है ? २ उत्तर - हे गौतम ! प्रथम पृथ्वी का नाम 'धम्मा' है और गोत्र रत्नप्रभा है । इस प्रकार जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के प्रथम नैरयिक उद्देशक में कहे अनुसार यावत् अल्पबहुत्व तक जानना चाहिए । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है - ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन-अपनी इच्छानुसार किसी पदार्थ का जो कुछ नाम रखना 'नाम' कहलाता है और उसके अर्थ के अनुकूल नाम रखना 'गोत्र' कहलाता है । तात्पर्य यह है कि सार्थक और निरर्थक जो कुछ नाम रखा जाता है, उसे 'नाम' कहते हैं । सार्थक एवं तदनु For Personal & Private Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००० भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग कूल गुणों के अनुसार जो नाम रखा जाता है, उसे गोत्र कहते हैं । मात नरकों के नाम क्रमशः इस प्रकार है-धम्मा, वंसा, सीला, अंजना, रिट्टा, मघा और माधवई । इन सातों के गोत्र इस प्रकार हैं-रत्नप्रभा. शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रमा और तमस्तमःप्रभा, (महातमःप्रभा) इनका विस्तृत वर्णन जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति में है। ॥ बारहवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण ।। शतक १२ उद्देशक४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-दो भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, एगयओ साहण्णित्ता किं भवई ? १ उत्तर-गोयमा ! दुप्पएसिए खंधे भवइ, से भिजमाणे दुहा कजइ, एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ परमाणुपोग्गले भवइ । २ प्रश्न-तिण्णि भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति, साहणित्ता किं भवइ ? २ उत्तर-गोयमा ! तिपएसिए खंधे भवइ । से भिजमाणे दुहा वि तिहा वि कजइ, दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे भवइ, तिहा कजमाणे तिण्णि परमाणु. पोग्गला भवंति । For Personal & Private Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ ३. ८ परमाणु और स्वन्ध के विभाग २००१ ३ प्रश्न - चत्तारि ते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, जाव पुच्छो । ३ उत्तर - गोयमा ! चउपसिए बंधे भवड़ से भिमाणे दुहा वितिहावि चहाविकज्जइ, दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिपएसिए खंधे भवड़, अहवा दो दुपए सिया खंधा भवंति । तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुप्पएसिए बंधे भवइ, चउहा कज्ज्रमाणे चत्तारि परमाणुपोग्गला भवति । ४ प्रश्न - पंत्र भंते ! परमाणुपोग्गला पुच्छा । ४ उत्तर - गोयमा ! पंचप एसिए बंधे भवड़ से भिमाणे दुहा वि तिहा वि उहा वि पंचहा विकज्जइ; दुहा कज्जमाणे . एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ चउपरसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ; तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ तिप्पएसिए खंधे भव, अवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति चउहा कज्जमाणे एगयओ तिष्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुप्पएसिए खंधे भवइ, पंचहा कज्जमाणे पंच परमाणुपोग्गला भवंति । कठिन शब्दार्थ साहण्नति - एक रूप में इकट्ठे होते हैं, मिजमाणे-भेदन किया For Personal & Private Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००२ भगवती सूत्र-श १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग जाने पर। भावार्थ-१ प्रश्न-राजगह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा-हे भगवन् ! दो परमाणु संयुक्त रूप में जब इकट्ठे होते हैं, तब उनका क्या होता है ? ... १ उत्तर-हे गौतम ! उनका द्विप्रदेशी स्कन्ध होता है । यदि उसके विभाग किये जाय तो उसके दो विभाग होते हैं-एक ओर एक परमाणु पुद्गल रहता है और दूसरी ओर भी एक परमाणु पुद्गल होता है। ___२ प्रश्न-हे भगवन् ! जब तीन परमाणु पुद्गल संयुक्त रूप में इकट्ठे होते हैं, तब उनका क्या होता है ? . २ उत्तर-हे गौतम ! उनका त्रिप्रदेशी स्कन्ध बनता है । यदि उसके विभाग किये जाय, तो दो या तीन विभाग होते हैं । यदि दो विभाग हों तो एक ओर एक परमाणु पुद्गल और दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कन्ध रहता है । यदि तीन विभाग हों, तो तीन परमाणु पुद्गल पृथक्-पृथक् रहते हैं। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! चार परमाणु पुद्गल जब इकट्ठे होते हैं, तब उनका क्या होता है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है । यदि उसके विभाग किये जाय, तो दो, तीन या चार विभाग होते हैं। यदि दो विभाग हों, तो एक ओर एक परमाणु पुद्गल और दूसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कन्ध रहता है । अथवा एक ओर द्विप्रदेशी स्कन्ध और दूसरी ओर भी द्विप्रदेशी स्कन्ध रहता है । यदि तीन विभाग हों, तो एक ओर भिन्न-भिन्न दो परमाणु पुद्गल और दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कन्ध रहता है। चार विभाग होने पर पृथक्-पृथक् चार परमाणु पुद्गल रहते हैं। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! पांच परमाणु पुद्गल जब संयुक्त रूप में इकट्ठे होते हैं, तब क्या होता है ? | ४ उत्तर-हे गौतम ! पंच प्रदेशी स्कन्ध होता है । यदि उसके विभाग किये जाय, तो दो, तीन, चार और पांच विमाग होते हैं। दो विभाग होने पर For Personal & Private Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग २००३ एक ओर एक परमाणु पुद्गल और दूसरी ओर चतुष्प्रदेशी स्कन्ध रहता है। अथवा एक ओर द्विप्रदेशी स्कन्ध और दूसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कन्ध रहता है । यदि उसके तीन विभाग किये जाय, तो एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु पुद्गल और दूसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कन्ध रहता है-१-१-३ । अथवा एक ओर एक परमाणु पुद्गल और दूसरी ओर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध रहते हैं-१-२-२ । यदि उसके चार विभाग किये जाय तो एक ओर पृथक्-पथक् तीन परमाणु पुद्गल और दूसरी ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध रहता है-१-१-१-२ । यदि उसके पांच विभाग किये जाय तो पृथक्-पृथक् पांच परमाणु होते हैं । यथा-१-१-१-१-१ । विवेचन-द्विप्रदेशी स्कन्ध में एक विकल्प (भंग) है । यथा-१-१ । त्रिप्रदेशी के दो विकल्प हैं, १-२ । १-१-१ । चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के चार विकल्प हैं, यथा-१-३ । २-२ । १-१-२ । १-१-१-१.। पंच प्रदेशी स्कन्ध के छह विकल्प होते हैं, यथा-१-४ । २-३ । १-१-३ । १-२-२ । १-१-१-२ । १-१-१-१-१ । ५ प्रश्न-छभंते ! परमाणुपोग्गला पुच्छा। ५ उत्तर-गोयमा ! छप्पएसिए खंधे भवइ, से भिन्जमाणे दुहा वि. तिहा वि जाव छब्बिहा वि कज्जइ । दुहा कन्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ दुप्पएसिए खंधे, एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ, अहवा दो तिपएसिया बंधा भवति । तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ चउपएसिए ग्वधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खधे, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ, अहवा तिणि दुपएसिया खंधा भवंति । चउहा कज्जमाणे एगयओ तिण्णि For Personal & Private Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००४ भगवती सूत्र-श १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग परमाणुगेग्गला, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, पगयओ दो दुष्पएसिया खंधा भवंति । पंचहा कजमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे भवइ । छहा कन्जमाणे छ परमाणुपोग्गला भवंति । कठिन शब्दार्थ-एगयओ-एक ओर । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! छह परमाणु पुद्गल जब इकट्ठे होते हैं, तो क्या बनता है ? ___५ उत्तर-हे गौतम ! षट् प्रदेशी स्कन्ध बनता है । यदि उसका विभाग किया जाय, तो दो, तीन, चार, पाँच या छह विभाग होते हैं । जब उसके दो विभाग होते हैं, तब एक ओर एक परमाणु पुद्गल और एक ओर एक पञ्च . प्रदेशी स्कन्ध रहता है, अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध रहता है, अथवा दो त्रिप्रदेशी स्कन्ध होते है । जब उसके तीन विभाग होते हैं, तब एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु-पुदगल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा तीन द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। जब चार विभाग होते हैं, तब एक ओर पृथक-पृथक् तीन परमाणु पुद्गल और एक ओर त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक-पृथक् दो परमाणु पुद्गल और एक ओर द्विप्रदेशी दो स्कन्ध होते हैं । जब उसके पांच विभाग होते हैं, तो एक ओर पृथक्-पृथक् चार परमाणुपुद्गल और एक ओर द्विप्रदेशी स्कन्ध होता है । जब उसके छह विभाग होते हैं, तब उसके पृथक्-पृथक् छह परमाणुपुद्गल होते हैं । ६ प्रश्न-सत्त भंते ! परमाणुपोग्गला पुच्छा। ६ उत्तर-गोयमा ! सत्तपएसिए खंधे भवइ; से भिजमाणे दुहा For Personal & Private Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १२ उ. ८ परमाणु और स्कन्ध के विभाग २००५ वि जाव मत्तहा वि कजइ । दुहा कजमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ छप्पएसिए ग्बंधे भवड़; अहवा एगयओ दुप्पएसिए खंधे, एगयओ पंचपएमिए ग्बंधे भवइ; अहवा एगयओ तिप्पएमिए खंधे एगयओ चउपएसिए बंधे भवइ । तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवड़; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ चउपएसिए खंधे भवह, अहवा एगयओं परमाणुपोग्गले. एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ दो दुपएसिया खंधा. एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ । चउहा कजमाणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिप खंधे. एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ तिणि दुपएसिया खंधा भवंति । पंचहा कजमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए खंधे भवड; अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति । छहा कजमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे भवइ । सत्तहा कज्जमाणे सत्त परमाणुपोग्गला भवंति । भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! सात परमाणु-पुद्गल जब इकट्ठे होते है, तब क्या बनता है ? For Personal & Private Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००६ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग ६ उत्तर-हे गौतम ! सप्त प्रदेशी स्कन्ध बनता है । यदि उसके विभाग किये जाये, तो दो तीन यावत् सात विभाग होते हैं । जब दो विभाग किये जायें तो एक ओर एक परमाणु पुद्गल और एक ओर छह प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर दो प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर पञ्चप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है। जब उसके तीन विभाग किये जायें तो एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु पुद्गल और एक ओर पञ्चप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु पुद्गल, एक ओर दो प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु पुद्गल और एक ओर त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है, जब उसके चार विभाग किये जायें, तब एक ओर पृथक्-पृथक् तीन परमाणु पुद्गल और एक ओर चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणुपुद्गल, एक ओर द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु पुद्गल और एक ओर तीन द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। उसके पांच विभाग किये जायें तब एक ओर पृथक्-पृथक् चार परमाणुपुद्मल और एक बोर त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक-पृथक तीन परमाण पुदगल और एक ओर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं । जब उसके छह विभाग किये जाय तो एक ओर पृथक्-पृथक् पांच परमाणु पुद्गल और एक ओर एक हिप्रदेशी स्कन्ध होता है। यदि उसके सात विभाग किये जाय तो पृथकपृथक् सात परमाणु पुद्गल होते हैं। विवेचन-छह प्रदेशी स्कन्ध के दस विकल्प होते हैं । यथा-१-५ । २-४ । ३-३ । १-१-४ । १-२-३ । २-२-२ । १-१-१-३ । १-१-२-२ । १-१-१-१-२ । १-११-१-१-१। सात प्रदेशी स्कन्ध के चौदह विकल्प होते हैं । यथा-१-६ । २-५। ३-४ । ११-५ । १-२-४ । १-३-३। २-२-३। १-१-१-४। १-१-२-३।१-२-२-२।११-१-१-३ । १-१-१-२-२ । १-१-१-१-१-२ । १-१-१-१-१-१-१ । For Personal & Private Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ८ परमाणु और स्कन्ध के विभाग २००७ - - ७ प्रश्न-अट्ट भंते ! परमाणुपोग्गला पुन्छ । ७ उत्तर-गोयमा ! अट्ठपएसिए खंधे भवइ; जाब दुहा कनमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ तिपएमिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ; अहवा दो चउप्पएसिया बंधा भवंति । तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला भवंति, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुप्पएसिए खंधे एगयओ पंचपएसिए बंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिपएसिए बंधे, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओदो तिपएसिया खंधा भवंति । चउहा' कन्जमाणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दोण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ चउप्पएसिए बंधे भवइ, अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ, अहवा चत्तारि दुपएसिया खंधा भवंति । पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ For Personal & Private Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००८ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग चउप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ तिण्णि दुपएसिया खंधा भवंति । छहा कजमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला; एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति । सत्तहा कजमाणे एगयओ छ परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे भवइ । अट्टहा कज्जमाणे अट्ठ परमाणुपोग्गला भवति । भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! आठ परमाणु इकट्ठे होने पर क्या बनता है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! अष्ट प्रदेशी स्कन्ध बनता है । यदि उसके विभाग किये जायें तो दो, तीन, यावत् आठ विभाग होते हैं । जब उसके दो विभाग किये जाये तो एक ओर एक परमाणु पुद्गल और एक ओर सप्त प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक छह प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक पञ्चप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा दो चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होते हैं । जब उसके तीन विभाग किये जायें, तो एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु पुद्गल और एक ओर छह प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक पञ्चप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु पुद्गल, एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध, और एक ओर दो त्रिप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। जब उसके चार विभाग किये जाते हैं, तब एक ओर पृथक्-पृथक् तीन परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक पञ्च For Personal & Private Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक और पृथक-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल और एक ओर दो त्रिप्रदेशी स्कन्ध होते हैं, अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कंध होता है, अथवा चार द्विप्रदेशी स्कंध होते हैं। जब उसके पांच विभाग किये जायें, तो एक ओर पृथक्-पृथक् चार परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कंध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक तोन परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध तथा एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल और एक ओर तीन द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं । यदि उसके छह विभाग किये जाये, तो एक ओर पृथक्-पृथक्. पांच परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् चार परमाणु-पुद्गल और एक ओर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं । यदि उसके सात विभाग किये जायें तो एक ओर पृथक्पृथक् छह परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध होता है। यदि उसके आठ विभाग किये जायें, तो पृथक्-पृथक् आठ परमाणु-पुद्गल होते हैं। विवेचन-अष्ट प्रदेशी स्कन्ध के इक्कीस विकल्प होते हैं । यथा-५-७ । २-६ । ३-५ । ४-४ । १-१-६ । १-२-५ । १-३-४ । २-२-४ । २-३-३ । १-१-१-५ । १-१-२-४ । १-१-३-३ । १-२-२-३ । २-२-२-२ । १-१-१-१-४ । १-१-१२-३ । १-१-२-२-२ । १-१-१-१-१-३।१-१-१-१-२-२।१-१-१-१-१-१२ । १-१-१-१-१-१-१-१ । ८ प्रश्न-णव भंते ! परमाणुपोरगला पुच्छा। ८ उत्तर-गोयमा ! जाव णवविहा कज्जति; दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोरगले एगयओ अट्ठपएसिए खंधे भवइ, एवं For Personal & Private Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१० भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ परमाणु ओर स्कन्ध के विभाग एक्के संचारतेहिं जाव अहवा एगयओ उप्पएसिए बंधे; एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ । तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो चउप्पएसिया खंधा भवंति, अहवा एगयओ दुपएमिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ; अहवा तिणि तिपएसिया खंधा भवंति । ___ भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! नौ परमाणु-पुद्गलों के मिलने पर क्या बनता है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! नौ प्रदेशी स्कन्ध बनता है। यदि उसके विभाग किये जाये, तो दो तीन यावत् नौ विभाग होते हैं । जब दो विभाग किये जायें, तब एक ओर एक परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक अष्टप्रदेशी स्कन्ध होता है । इस प्रकार एक-एक का संचार (वृद्धि) करना चाहिए। यावत् अथवा एक ओर एक चतुःप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक पंचप्रदेशी स्कंध होता है। जब उसके तीन विभाग किये जायें, तब एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक सप्तप्रदेशी स्कंध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कंध और एक ओर एक छह प्रदेशी स्कंध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणुपुद्गल, एक ओर एक विदेशी स्कंध और एक ओर एक पंचप्रदेशी स्कंध होता है, अथवा एक ओर एक परमागु-पुद्गल और एक ओर दो चतुःप्रदेशी स्कंध होता है, अथवा एक ओर एक विप्रदेशी स्कंध, एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कंध और एक ओर एक चतुःप्रदेशी स्कंध होता है, अथवा तीन त्रिप्रदेशी स्कंध होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ . ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग २०११ चउहा कन्जमाणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवड़; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवड़; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवड़; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ चउप्पएसिए बंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ दो तिपएसिया बंधा भवंति; अहवा एगयओ तिण्णि दुप्पएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ । ... भावार्थ-जब उसके चार विभाग किये जायें, तब एक ओर पृथक-पृथक तीन परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक छह प्रदेशो स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक-पृथक् दो परमाणुपुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक पञ्चप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक-पृथक् दो परमाणपुद्गल, एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुःप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुःप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणुपुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर दो त्रिप्रदेशी स्कन्ध होते हैं, अथवा एक ओर तीन द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है। पंचहा कन्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला; एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, For Personal & Private Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग एओ दुपसिए खंधे; एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ तिणि परमाणुपोग्गला, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवति, अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ चत्तारि दुपएसिया खंधा भवंति । २०१२ भावार्थ- जब नौ प्रदेशी स्कन्ध के पाँच विभाग किये जायें, तब एक ओर पृथक्-पृथक् चार परमाणु- पुद्गल और एक ओर एक पञ्चप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् तीन परमाणु- पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुःप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् तीन परमाणु- पुद्गल और एक ओर दो त्रिप्रदेशी स्कन्ध होते है, अथवा एक ओर पृथक्पृथक् दो परमाणु- पुद्गल, एक ओर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक त्रिदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु- पुद्गल और एक ओर चार द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं । छहा कज्जमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, एगयओ चउएसिए खंधे भव; अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुप्पएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ तिणि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिष्णि दुप्पएसिया खंधा भवंति । भावार्थ- जब नौप्रदेशी स्कन्ध के छह विभाग किये जायें तब एक ओर पृथक्-पृथक् पाँच परमाणु- पुद्गल और एक ओर एक चतुःप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् चार परमाणु पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध, और एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक् For Personal & Private Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग पृथक् तीन परमाणु- पुद्गल और तीन द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं ।. सत्तहा कज्जमाणे एगयओ छ परमाणुपोग्गलां, एगयओ तिप्रसिए खंधे भव: अहवा एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, एगओ दो दुपएसिया खंधा भवंति । २०१३ भावार्थ- नौ प्रदेशी स्कन्ध के सात विभाग किये जायें तब एक और पृथक्-पृथक् छह परमाणु- पुद्गल और एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् पाँच परमाणु-पुद्गल और एक ओर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं । अहा कज्जमाणे एगयओ सत्त परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपए सिए खंधे भव । णवहा कज्ज्रमाणे णव परमाणुपोग्गला भवंति । जब उसके आठ विभाग किये जायें तब एक ओर पृथक्-पृथक् सात परमाण पुद्गल और एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध होता है । जब उसके नौ विभाग किये जायें, तब पृथक्-पृथक् नौ परमाणु- पुद्गल होते हैं । विवेचन-नौप्रदेशी स्कन्ध के २८ विकल्प होते हैं । यथा-१-८ । २-७ । ३-६ । ४–५ । १-१-७ । १-२-६ । १-३-५ । १-४-४ । २-३-४ । ३-३-३ । ११-१-६ । १-१-२-५ । १-१-३-४ । १-२-२-४ । १-२-३-३ । २-२-२-३ ॥ १-१-१-१-५ । १-१-१-२-४ । १-१-१-३-३ । १-१-२-२-३ ॥ १-२-२-२-२ । १-१-१-१-१-४ । १-१-१-१-२-३ | १-१-१-२-२-२ । १-१-१-१-१-१-३ । १-१-१-१-१-२-२ । १-१-१-१-१-१-१-२ । १-१-१-१-१-१-१-१-१ । For Personal & Private Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१४ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग ९ प्रश्न-दस भंते ! परमाणुपोग्गला ९ उत्तर-जाव दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ णवपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ अट्ठपएसिए खंधे भवइ; एवं एक्केक्कं संचारेयव्वं ति, जाव अहवा दो पंच पएसिया खंधा भवंति । भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! दस परमाणु मिलकर क्या बनता है ? ९ उत्तर-हे गौतम ! उनको एक दस प्रदेशी स्कन्ध बनता है। यदि उसके विभाग किये जायें, तो दो, तोन यावत् दस विभाग होते हैं । जब उसके दो 'विभाग किये जायें, तो एक ओर एक परमाण-पुदगल और एक ओर एक नौ प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक अष्ट प्रदेशी स्कन्ध होता है । इस प्रकार एक-एक का संचार करना चाहिये । यावत् दो पञ्चप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। ___तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ अट्ठः पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ चउप्पएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ दो चउप्पएसिया खंधा भवंति; अहवा एग. यओ दो तिपएसिया खंधा, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ । For Personal & Private Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग भावार्थ- जब उसके तीन विभाग किये जाते हैं, तब एक ओर पृथक्पृथक् दो परमाणु- पुद्गल और एक ओर एक अष्ट प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु- पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक सप्तप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक छह प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक पञ्चप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर दो चतुष्पदेशी स्कन्ध होते हैं, अथवा एक और दो त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है । २०१५ चहा कज्जमाणे एगयओ तिष्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ सत्तपसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ छप्परसिए खंधे भवइ अहवा एगओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ तिप्पएसिए खंधे, एगयओ पंचपसि खंधे भव: अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दो चप्पएसिया स्वधा भवंति अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपए सिए खंधे एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवर, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ तिष्णि तिपएसिया स्वधा भवंति; अहवा एगयओ तिण्णि दुपएसिया खंधा, एगयओ चप्पएसए खंधे भवहः अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिणि तिपएसिया खंधा भवंति | अहवा एगयओ दो For Personal & Private Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१६ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ परमाणु और रकन्ध के विभाग दुपएसिया खंधा, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति । भावार्थ-जब उसके चार विभाग किये जाते हैं तो एक ओर पृथक-पथक तीन परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक सप्त प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक छह प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर. एक पंचप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल और एक ओर दो चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होते हैं, अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध, एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुःप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल और एक ओर तीन त्रिप्रदेशी स्कन्ध होते हैं, अथवा एक ओर तीन द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल और एक ओर तीन त्रिप्रदेशी स्कन्ध होते हैं, अथवा एक ओर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर दो त्रिप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। पंचहा कन्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ छप्पएसिए बंधे भवइ; अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयो चउपएसिए खंधे भवइः अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, For Personal & Private Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग २०१७ एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिण्णि दुपएसिया बंधा, एगयओ तिपएसिए खधे भवइ, अहवा पंच दुपएसिया बंधा भवंति । भावार्थ-जब उसके पांच विभाग किये जाय, तब एक ओर पृथक्-पृथक् चार परमाणु पुद्गल और एक ओर एक छह प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् तीन परमाणु पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक पञ्च प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर तीन परमाणु पुद्गल, एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल, एक ओर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर दो परमाणु पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर दो त्रिप्रदेशी स्कन्ध होते हैं, अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर तीन द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा पांच द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। छहा कन्जमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ चउपएसिए खधे भवइ; अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला; एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए बंधे भवइ; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ चत्तारि दुपएसिया खंधा भवंति । For Personal & Private Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१८ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग भावार्थ-जब उसके छह विभाग किये जाते हैं, तो एक ओर पृथक-पृथक पाँच परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक पञ्च प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् चार परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् चार परमाणुपुद्गल और एक ओर दो त्रिप्रदेशी स्कन्ध होते हैं, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् तीन परमाणु-पुद्गल, एक ओर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल और एक ओर चार द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं । सत्तहा कन्जमाणे एगयओ छ परमाणुपोग्गला, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खधे भवइ, अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिण्णि दुपएसिया खंधा भवंति। भावार्थ-जब उसके सात विभाग किये जाते हैं, तो एक ओर पृथक्-पृथक छह परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् पाँच परमाणु पुद्गल और एक ओर द्विप्रदेशी स्कन्ध तथा एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक-पृथक् चार परमाणुपुद्गल और एक ओर तीन द्विप्रदेशी स्कन्ध होता हैं। अट्टहा कज्जमाणे एगयओ सत्त परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए बंधे भवह; अहवा एगयओ छ परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति । For Personal & Private Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ परमाणु ओर स्कन्ध के विभाग भावार्थ-जब उसके आठ विभाग किये जाते हैं, तो एक ओर पृथक-पृथक सात परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् छह परमाणु-पुद्गल और एक ओर दो द्विप्रदेशी स्कंध होते हैं । णवहा कन्जमाणे एगयओ अट्ठ परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे भवइ । दसहा कन्जमाणे दस परमाणुपोग्गला भवंति। . भावार्थ-जब उसके नौ विभाग किये जाते हैं, तो एक ओर पृथक्-पृथक आठ परमाणु-पुद्गल और एक द्वि प्रदेशी स्कंध होता है । जब उसके दस विभाग किये जाते हैं, तो पृथक्-पृथक् दस परमाणुगुद्गल होते हैं। विवेचन-दस प्रदेशी स्कन्ध के ३९ विकल्प होते हैं । यथा-१-९। २-८ । ३-७।४-६ । ५-५ । १-१-८ । १-२-७ । १-३-६ । १-४-५ । २-३-५ । २-४-४ । ३-३-४ । १-१-१-७ ।१-१-२-६ । १-१-३-५ । १-१-४-४। १-२-३-४। १-३-३-३। २-२-२-४। २-२-३-३॥ १-१-१-१-६ । १-१-१-२-५ । १-११-३-४।१-१-२-२-४ । १-१-२-३-३ । १-२-२-२-३।२-२-२-२-२।११-१-१-१-५।१-१-१-१-२-४।१-१-१-१-३-३।१-१-१-२-२-३ । १-१२-२-२-२ । १-१-१-१-१-१-४ । १-१-१-१-१-२-३। १-१-१-१-२२-२ । १-१-१-१-१-१-१-३। १-१-१-१-१-१-२-२। १-१-१-१-१-११-१-२ । १-१-१-१-१-१-१-१-१-१ । : दो परमाणु-पुद्गल से लेकर दस परमाणु-पुद्गल के सब मिला कर १२५ भंग होते हैं । इनमें से तीन भंग शून्य हैं । नौ प्रदेशी में २-२-५ और दस प्रदेशी में २-२-६ तथा १-२-२-५ । शून्य भंग इसमें नहीं गिने गये हैं। १० प्रश्न-संखेज्जा णं भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ For Personal & Private Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२० . भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग साहण्णंति, एगयओ साहणित्ता किं भवइ ? १० उत्तर-गोयमा ! संखेजपएसिए बंधे भवइ । से भिज्जमाणे दुहाऽवि, जाव दसहाऽवि संखेनहाऽवि कजइ । दुहा कजमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवह; अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ; एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवइ; एवं जाव अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवइ; अहवा दो मंखेजपएसिया खंधा भवति । ____ भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! संख्यात परमाणु-पुद्गल एक साथ मिलने पर क्या बनता है ? . १० उत्तर-हे गौतम ! वह संख्यात प्रदेशी स्कन्ध बनता है । यदि उसके विभाग किये जायें, तो दो तीन यावत् दस और संख्यात विभाग होते हैं। जब उसके दो विभाग किये जाते हैं, तो एक ओर एक परमाणु-पुद्गल और एक ओर संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है। इस प्रकार यावत् एक ओर एक दस प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा दो संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ, अहवा गपओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ मरम्मपएसिए खंधे भवइं; अहवा एग. For Personal & Private Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मुत्र -ग. १० उ. ४ परमाणु और मान्य के. विभाग २०२१ यओ परमाणुपोग्गले एगयओ तिपएसिए खंधे एगयओ संग्वेजपएसिए खंधे भवड़; एवं जाव अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणु पोग्गले, एगयओ दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयो दो संखेजपएसिया खंधा भवंति; एवं जाव अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ दो संखेजपएसिया खधा भवंति; अहवा तिण्णि संखेजपएसिया खंधा भवति । भावार्थ-जब उसके तीन विभाग किये जाते हैं, तो एक ओर पृथक्-पृथक दो परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु, एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक और एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है । इस प्रकार यावत् अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक दस प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु पुद्गल और एक ओर दो संख्यात प्रदेशी स्कंध होते हैं, अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कंध और एक ओर दो संख्यात प्रदेशी स्कंध होते हैं। इस प्रकार यावत् एक ओर एक दस प्रदेशी स्कंध और एक ओर दो संख्यात प्रदेशी स्कंध होते हैं, अथवा तोन संख्यात प्रदेशी स्कंध होते हैं। * चहा कन्जमाणे एगयओ तिणि परमाणुपोग्गला, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, For Personal & Private Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२२ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ तिप्पएसिए खंधे, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ; एवं जाव अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला; एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवंति; जाव अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दसपएसिए खंधे एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवंति, अहवा एगयओ परमाणु. पोग्गले, एगयओ तिणि संखेजपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिण्णि संखेजपएसिया खंधा भवंति; जाव अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ तिण्णि संखेजपएसिया खंधा भवंति; अहवा चत्तारि संखेजपएसिया खंधा भवंति। भावार्थ-जब उसके चार विभाग किये जाते हैं, तो एक ओर पृथक्पृथक् तीन परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कंध और एक ओर एक संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक संख्यात प्रवेशी स्कन्ध होता है । इस प्रकार यावत् एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु-पुद् For Personal & Private Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग २०२३ गल, एक ओर एक दस प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाण-पुद्गल, और एक ओर दो संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं, अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर दो संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं । इस प्रकार यावत् एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक दस प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर दो संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं, अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल और एक ओर तीन संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं, अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर तीन संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं । इस प्रकार यावत् एक ओर एक दस प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर तीन संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं, अथवा चारों संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। ___ एवं एएणं कमेणं पंचगसंजोगो वि भाणियव्वो, जाव णवगमंजोगो । दसहा कन्जमाणे एगयओ णव परमाणुपोग्गला, एगयओं संखेजपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ अट्ट परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए, एगयओ संखेजपएसिए खधे भवइ । एएणं कमेणं एक्केको पूरेयव्वो, जाव अहवा एगयओ दसपएसिए खधे; एगयओ णव संखेज्जपएसिया खंधा भवंति; अहवा दस संखेज्जपएसिया खंधा भवंति । संखेज्जहा कज्जमाणे संखेज्जा परमाणुपोग्गला भवंति। भावार्थ-इस प्रकार इस क्रम से पंच संयोगी भी कहना चाहिये, यावत नौ संयोगी तक कहना चाहिये। जब उसके दस विभाग किये जाते हैं तो एक ओर पृथक-पृथक् नौ परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता For Personal & Private Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२४ भगवती सूत्र - श. १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग है, अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् आठ परमाणु- पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेश M स्कन्ध और एक ओर संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है । इस क्रम से एक-एक की संख्या बढ़ाते जाना चाहिये, यावत् एक ओर एक दस प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर नौ संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं, अथवा दस संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं । जब उसके संख्यात विभाग किये जाते हैं तो पृथक्-पृथक् संख्यात परमाणुपुद्गल होते हैं । " विवेचन-संख्यात प्रदेशी स्कन्ध में पहले ग्यारह कहकर फिर दस-दस बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार इसके कुल ४६० भंग होते हैं । यथा - दो संयोगी ११, तीन संयोगी २१, चार संयोगी, ३१, पाँच संयोगी ४१, छह संयोगी ५१, सात संयोगी ६१, आठ संयोगी ७१. नौ संयोगी ८१, दस संयोगी ९१, और संख्यात संयोगी १ । इस प्रकार कुल ४६० भंग होते हैं । ११ प्रश्न - असंखेज्जा णं भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, एगयओ साहणित्ता किं भवइ ? 5 ११ उत्तर - गोयमा ! असंखेज्जपए सिए खंधे भवइ, से भिज्ज - माणे दुहा वि; जाव दसहाऽ वि, संखेज्जहाऽ वि, असंखेज्जहाऽ वि कज्जइ । दुहा कजमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ जाव अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे भवs: एगयओ असंखिजपए सिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ संजर सिए खंधे, एगयओ असंखेज्जपए सिए खंधे भवड़, अहवा दो असंखेज्जपएसिया खंधा भवंति । भावार्थ - ११ प्रश्न - हे भगवन् ! असंख्यात परमाणु- पुद्गल मिलकर क्या बनता है ? For Personal & Private Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र. १२ उ. : परमाणु और कन्ध के विभाग ११ उत्तर-हे गौतम ! उनका असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध बनता है। यदि उसके विभाग किये जायें तो तीन यावत् दस संख्यात और असंख्यात विभाग होते हैं। जब उसके दो विभाग किये जाते हैं, तो एक ओर एक परमाणु-पुद्गल और एक ओर असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, यावत् एक ओर एक दस प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक संख्यात प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा दो असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। तिहा कन्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ असंखेजपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएमिए बंधे, एगयओ अमंखिज्जपएसिए खंधे भवइ; जाव अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ संखेजपएसिए खंधे, एगयओ असंखेजपएसिए खंधे भवड़; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ, दो असंखेजपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ दुपएसिए बंधे, एगयओ दो असंखेज्जपएसिया खंधा भवंति, एवं जाव अहवा एगयओ संखेन्जपएसिए बंधे, एगयओ दो असखिज्जपएसिया खंधा भवंति; अहवा तिणि असंखेजपएसिया खंधा भवंति । भावार्थ-जब उसके तीन विभाग किये जाते हैं, तो एक ओर पृथक-पृथक दो परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा For Personal & Private Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १२ उ. ८ परमाणु और स्कन्ध के विभाग एक ओर एक परमाणु- पुद्गल, एक ओर द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, यावत् एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर दस प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु- पुद्गल, एक ओर एक संख्यात प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल और एक ओर दो असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं, अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर दो असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं । इस प्रकार यावत् एक ओर एक संख्यात प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर दो असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं, अथवा तीन असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं । २०२६ चहा कज्जमाणे एगयओ तिष्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ, एवं चउक्कगसंजोगो, जाव दसगसंजोगो, एए जहेव संखेज्जपएसियस्स, णवरं असंखेज्जगं एगं अहिगं भाणियव्वं, जाव अहवा दस असंखेज्जपए सिया संधा भवंति । भावार्थ - जब उसके चार विभाग किये जाते हैं, तो एक ओर पृथक्पृथक् तीन परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, इस प्रकार चार संयोगी यावत् दस संयोगी तक जानना चाहिये । इन सब का कथन संख्यात प्रदेशी के अनुरूप जानना चाहिये, परन्तु एक 'असंख्यात ' शब्द अधिक कहना चाहिये, यावत् अथवा दस असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं । संखेज्जहा कज्जमाणे एगयओ संखेज्जा परमाणुपोग्गला, एगयओ असंखेज्जप एसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ संखेज्जा दुपएसिया खंधा, एगयओ असंखेज्जपए सिए खंधे भवइ; एवं जाव For Personal & Private Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शः-१२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग २०२० अहवा एगयओ संखेना दसपएसिया खंधा, एगयओ असंखेज. पएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ संखेजा संखेजपएसिया खंधा, एगयओ असंखेजपएसिए खंधे भवइ; अहवा संखेज्जा असंखेज्ज. पएसिया खंधा भवंति। असंखेज्जहा कज्जमाणे असंखेज्जा परमाणुपोग्गला भवंति। ____ भावार्थ-जब उसके संख्यात विभाग किये जाते हैं, तो एक ओर पृथक्पृथक् संख्यात परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर संख्यात द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है । इस प्रकार यावत् एक ओर संख्यात दस प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर संख्यात संख्यातप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा संख्यात, असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। जब उसके असंख्यात विभाग किये जाते हैं, तो पृथक्-पृथक् असंख्य परमाणु पुद्गल होते हैं। विवेचन-असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध में पहले बारह कहकर फिर ग्यारह-ग्यारह बढ़ाने चाहिए। इसके कुल भंग पांच सो सतरह होते हैं । यथा;-दो संयोगी १२, तीन संयोगी २३, चार संयोगी ३४, पाँच संयोगी ४५, छह संयोगी ५६, सात संयोगी ६७, आठ संयोगी ७८, नो संयोगी ८९, दस संयोगी १००, संख्यात संयोगी १२ और असंख्यात संयोगी एक । ये सब ५१७ भंग होते हैं । ___ १२ प्रश्न-अणंता णं भंते ! परमाणुपोग्गला जाव किं भवइ ? १२ उत्तर-गोयमा ! अणंतपएसिए खंधे भवइ; से भिज्जमाणे दुहा वि तिहा वि जाव दसहा वि संखेजा-असंखेजा-अणंतहा वि For Personal & Private Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२८ भगवती सूत्र-श. १२ उ. परमाणु और स्कन्ध के विभाग कजइ । दुहा कजमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ अणंतपएसिए बंधे भवइ; जाव अहवा दो अणंतपएसिया बंधा भवति । ___ भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्त परमाणु-पुद्गल इकट्ठे होकर क्या बनता है ? १२ उत्तर-हे गौतम ! एक अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होता है। यदि उसके विभाग किये जाये, तो दो, तीन यावत् दस, संख्यात, असंख्यात और अनन्त विभाग होते हैं। जब दो विभाग किये जाते हैं, तो एक ओर एक परमाणुपुद्गल और एक ओर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होता है, यावत् दो अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले. एगयओ दुपएसिए, एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवड़; जाव अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ असंखेजपएसिए खंधे, एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा भवंति, एवं जाव अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ दो अणंतपएसिया बंधा भवंति; अहवा एगयओ संखेजपएसिए खंधे, एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ असंखेजपएसिए खंधे एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा भवंति; अहवा तिण्णि अणंतपएसिया बंधा भवति । For Personal & Private Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग २०२९ भावार्थ-जब उसके तीन विभाग किये जाते हैं, तो एक ओर पृथक-पथवा दो परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होता है, यावत् एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक और एक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक ओर एक परमाण-पुद्गल और एक ओर दो अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होते हैं, अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर दो अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होते हैं । इस प्रकार यावत् एक ओर एक दस प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर दो अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होते हैं, अथवा एक और एक संख्यात प्रदेशी स्कंध और एक ओर दो अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होते है, अथवा एक ओर एक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर दो अनन्त प्रदेशो स्कंध होते हैं, अथवा तीनों अनंत प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। चउहा कन्जमाणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ अणंतपएमिए बंधे भवड; एवं चउपकसंजोगो, जाव असंखेजगसंजोगो, एए सव्वे जहेव असंखेजाणं भणिया तहेव अणंताणवि भाणियव्यं; णवरं एक्कं अणंतगं अभहियं भाणियन्वं, जाव अहवा एगयओ संखेना संखेजपएसिया बंधा, एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ संखेजा असंखेजपएसिया खंधा, एगयओ अणंतपएमिए खधे भवड़; अहवा मंग्वेज्जा अणंतपएसिया खंधा भवंति। भावार्थ-जब उसके चार विभाग किये जाते हैं, तो एक ओर पथक-पृथक तीन परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक अनंत प्रदेशी स्कंध होता है । इस प्रकार For Personal & Private Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग चार संयोगी यावत् संख्यात संयोगी तक कहना चाहिए। ये सब भंग असंख्यात के अनुरूप कहना चाहिए, परंतु यहाँ एक 'अनन्त' शब्द अधिक कहना चाहिए, यावत् एक ओर संख्यातप्रदेशी स्कन्ध, संख्यात होते हैं और एक ओर एक अनन्त प्रदेशी स्कंध होता है, अथवा एक ओर असंख्यात प्रदेशी स्कंध, संख्यात होते हैं और एक ओर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा अनन्त प्रदेशी स्कन्ध संख्यात होते हैं । २०३० असंखेज्जहा कज्जमाणे एगयओ असंखेज्जा परमाणुपोग्गला, एओ अणतपसि खंधे भवइ अहवा एगयओ असंखेज्जा दुपएसिया खंधा, एगयओ अनंतपए सिए खंधे भवड़; जाव अहवा एगयओ असंखेजा संखेज्जपएसिया खंधा, एगयओ अनंतपएसिए खंधे भवड़ अहवा एगयओ असंखेजा असंखेज्जपएसिया खंधा, एगयओ अनंतपए सिए बंधे भवइ अहवा असंखेज्जा अनंतपएसिया खंधा भवति । अनंतहा कजमाणे अनंता परमाणुपोग्गला भवंति । भावार्थ- जब उसके असंख्यात विभाग किये जाते हैं, तो एक ओर पृथक्पृथक् असंख्यात परमाणु- पुद्गल और एक ओर एक अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा एक और द्विप्रदेशी स्कन्ध, असंख्यात होते हैं और एक ओर एक अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होता है, यावत् एक ओर संख्यात प्रदेशी स्कन्ध असंख्यात होते हैं और एक ओर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध एक होता है, अथवा एक ओर असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध असंख्यात होते हैं और एक ओर एक अनन्त प्रदेशी स्कंध होता है, अथवा असंख्यात अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होते हैं । अब उसके अनन्त विभाग किये जाते हैं, तो पृथक्-पृथक् अनंत परमाणुपुद्गल होते हैं । For Personal & Private Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ पुद्गल परिवर्तन के भेद २०३१ विवेचन-अनन्त प्रदेशी स्कन्ध में पहले तेरह कहकर फिर बारह बढ़ाने चाहिये । इस प्रकार अनन्त प्रदेशी स्कन्ध के पांच सौ छिहत्तर भंग होते हैं । यथा-दो सयोगी १३, तीन संयोगी २५, चार संयोगी ३७, पांच संयोगी ४९, छह संयोगी ६१, सात संयोगी ७३, आठ संयोगी ८५, नी संयोगी ९७, दस संयोगी १०९, संख्यात संयोगी १३, असंख्यात संयोगी १३ और अनन्त संयोगी १ । ये कुल मिलाकर ५७६ भंग होते हैं । पुद्गल परिवर्तन के भेद १३ प्रश्न-एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं साहणणा-भेयागुवाएणं अणंताणंता पोग्गलपरियट्टा समणुगंतव्वा भवंतीति मक्खाया ? १३ उत्तर-हंता, गोयमा ! एएसि णं परमाणुपोग्गलाणं साहणणा० जाव मक्खाया। १४ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते ? ..१४ उत्तर-गोयमा ! सत्तविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते, तं जहा१ ओरालियपोग्गलपरियट्टे २ वेवियपोग्गलपरियट्टे, ३ तेयापोग्गलपरियट्टे ४ कम्मापोग्गलपरियट्टे ५ मणपोग्गलपरियट्टे ६ वइ. पोग्गलपरियट्टे ७ आणापाणुपोग्गलपरियट्टे । १५ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! कइविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णते ? १५ उत्तर-गोयमा ! सत्तविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते, तंजहा१ ओरालियपोग्गलपरियट्टे २ वेउब्बियपोग्गलपरियट्टे जाव ७ For Personal & Private Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३२ भगवती मूत्र--ग. १२ उ. गुद्गल परिवर्तन के मेव आणापाणुपोग्गलपरियट्टे, एवं जाव वेमाणियाणं । __ १६ प्रश्न-एगमेगस्स णं भंते ! णेरइयस्स केवइया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता ? १६ उत्तर-अणंता, (प्र०) केवइया पुरेक्खडा ? (उ०) करसइ अस्थि, कस्सइ णत्थि; जस्सत्थि जहण्णेणं एकको वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा वा असंखजा वा अणंता वा। १७ प्रश्न-एगमेगस्स .णं भंते ! असुरकुमारस्म केवड्या ओरालियपोग्गल० ? १७ उत्तर-एवं चेव, एवं जाव वेमाणियस्म । कठिन शब्दार्थ-साहणणा-संघातसंयोग. पुरेक्खडा-पुरस्कृत-अनागत-भविष्यत्काल । भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन ! क्या परमाणु पुद्गलों के संयोग और विभाग से होने वाले अनन्तानन्त पुद्गल परिवर्तन जानने योग्य हैं ? १३ उत्तर-हाँ, गौतम ! संयोग और विभाग से होने वाले परमाणु पुद्गलों के अनन्तानन्त पुद्गल परिवर्तन जानने योग्य है। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! पुद्गल परिवर्तन कितने प्रकार का कहा गया है ? १४ उत्तर-हे गौतम ! सात प्रकार का कहा गया है । यथा-१ औदारिक पुद्गल परिवर्तन, २ वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन, ३ तेजस पुद्गल परिवर्तन, ४ कार्मण पुद्गल परिवर्तन, ५ मनः पुद्गल परिवर्तन, ६ वचन पुद्गल परिवर्तन और ७ आनप्राण पुद्गल परिवर्तन । १५ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक जीवों के कितने प्रकार के पुद्गल परिवर्तन कहे गये हैं ? १५ उत्तर-हे गौतम ! सात पुद्गल परिवर्तन कहे गये हैं । यथा-औदा For Personal & Private Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ दगल परिवर्तन के मेद रिक पुद्गल परिवर्तन, वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन यावत् आनप्राण पुदगल परिवर्तन । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक कहना चाहिये। १६ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रत्येक नरयिक जीव के भतकाल में औदारिक पुद्गल परिवर्तन कितने हुए है। १६ उत्तर-हे गौतम ! अनंत हुए हैं। (प्रश्न) हे भगवन् ! भविष्यत्काल में कितने होंगे ? (उत्तर) हे गौतम ! किसी के होंगे ओर किसी के नहीं होंगे। जिसके होंगे उनके जघन्य एक, दो, तीन होंगे और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनंत होंगे। १७ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रत्येक असुरकुमार के भूतकाल औदारिक पुद्गल परिवर्तन कितने हुए हैं ? १७ उत्तर-हे गौतन ! पूर्ववत् जानना चाहिये। इसी प्रकार पावत् मानिक तक जानना चाहिये । १८ प्रश्न-पगमेगस्स णं भंते ! गैरइयस्स केवइया वेउव्वियपोग्गलपरियट्टा, अतीता० ? ...१८-उत्तर-अणंता, एवं जहेव ओरालियपोग्गलपरियट्टा तहेव वेउवियपोग्गलपरियट्टा वि भाणियन्वा, एवं जाव वेमाणियस्स, एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टा, एए एगत्तिया सत्त दंडगा भवंति । १९ प्रश्न-णेरड्याणं भंते ! केवइया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता ? १९ उत्तर-गोयमा ! अणंता, (प्र०) केवइया पुरेवखडा ? (उ०) अणंता, एवं जाव वेमाणियाणं, एवं वेउब्वियपोग्गलपरियट्टा For Personal & Private Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १२ उ. ४ पुद्गल परिवर्तन के भेद वि, एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टा, जाव वेमाणियाणं एवं एए पोहत्तिया सत्त उव्वीसदंडगा । २० प्रश्न - एगमेगस्स णं भंते ! णेरइयस्स णेरइयत्ते केवइया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता ? २० उत्तर - णत्थि एक्को वि । (प्र०) केवइया पुरेक्खडा ? (उ० ) णत्थि एक्को वि । २१ प्रश्न - एगमेगस्स णं भंते ! णेरइयरस असुरकुमारते केवइया ओरालियपोग्गलपरियट्टा० १ २१ उत्तर - एवं चेव, एवं जाव थणियकुमारत जहा असुरकुमारत्ते । २२ प्रश्न- एगमेगस्स णं भंते ! णेरइयस्स पुढंविक्काइयत्ते केवइया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता ? २०३४ २२ उत्तर - अनंता, (प्र०) केवइया पुरेक्खडा १ ( उ० ) कस्सइ अस्थि, कस्स णत्थि जस्सत्थि तस्स जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा, एवं जाव मणुस्सत्ते, वाणमंतर - जोइ सिय-वेमाणियत्ते जहा असुरकुमारते । कठिन शब्दार्थ - एगत्तिया - एक वचन सम्बन्धी, पोहत्तिया - बहु वचन सम्बन्धी । भावार्थ - १८ प्रश्न - हे भगवन् ! प्रत्येक नैरयिक जीव के भूतकाल में वैकिय पुद्गल परिवर्तन कितने हुए हैं ? १८ उत्तर - हे गौतम! अनन्त हुए हैं। जिस प्रकार औदारिक पुद्गल For Personal & Private Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १२ उ. ४ पुद्गल परिवर्तन के भेद परिवर्तन के विषय में कहा, उसी प्रकार वैकिय पुद्गल परिवर्तन के विषय में भी जानना चाहिए, यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए । इसी प्रकार यावत् आनप्राण पुद्गल परिवर्तन तक कहना चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक जीव की अपेक्षा सात दण्डक होते हैं । १९ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीवों के भूतकाल में औदारिक पुद्गल परिवर्तन कितने हुए हैं ? २०३५ १९ उत्तर - हे गौतम ! अनन्त हुए हैं । ( प्रश्न) हे भगवन् ! भविष्य में कितने होंगे ? (उत्तर) हे गौतम ! अनन्त होंगे। इस प्रकार यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए । इसी प्रकार वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन, यावत् आनप्राण पुद्गल परिवर्तन के विषय में यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिये । इस प्रकार सातों पुद्गल परिवर्तन के विषय में बहुवचन सम्बन्धी सात दण्डक चौवीस दण्डक कहना चाहिये । २० प्रश्न - हे भगवन् ! प्रत्येक नैरयिक जीव के, नैरयिक अवस्था में औदारिक पुद्गल परिवर्तन कितने हुए हैं ? ! २० उत्तर - हे गौतम ! एक भी नहीं हुआ । ( प्रश्न ) हे भगवन् भविष्य में कितने होंगे ? (उत्तर) हे गौतम ! एक भी नहीं होगा । २१ प्रश्न - हे भगवन् ! प्रत्येक नैरयिक जीव के, असुरकुमारपने में औदारिक पुद्गल परिवर्तन कितने हुए हैं ? २१ उत्तर - हे गौतम! पूर्वोक्त वक्तव्यतानुसार जानना चाहिए । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक कहना चाहिए । २२ प्रश्न - हे भगवन् ! प्रत्येक नैरयिक जीव के पृथ्वीकायपने औदारिक पुद्गल परिवर्तन कितने हुए हैं ? २२ उत्तर - हे गौतम! अनन्त हुए हैं । ( प्रश्न) हे भगवन् ! भविष्य में कितने होंगे ? (उत्तर) हे गौतम! किसी के होंगे और किसी के नहीं होंगे। जिसके होंगे, उसके जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात और अनन्त For Personal & Private Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १२. उ. ४ पुद्गल परिवर्तन के भेद होंगे और इसी प्रकार यावत् मनुष्य भव तक में कहना चाहिए। जिस प्रकार असुरकुमार के विषय में कहा, उसी प्रकार वागव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक के विषय में भी कहना चाहिए । २०३६ विवेचन - परमाणु पुद्गलों के संयोग और वियोग ( विभाग) से अनन्तानन्त ( अनन्त .को अनन्त से गुणा करने पर जितने होते हैं, वे अनन्तानन्त कहलाते हैं ) परिवर्तन होते हैं । एक परमाणु द्व्यणुकादि द्रव्यों के साथ संयुक्त होने पर अनन्त परिवर्तनों को प्राप्त करता है, क्योंकि परमाणु अनन्त हैं और प्रति परमाणु उसका परिवर्तन हो जाता है । इस प्रकार परमाणु पुद्गल परिवर्तन अनन्तानन्त हो जाते हैं । पुद्गल परिवर्तन के औदारिक पुद्गल परिवर्तन आदि सात भेद ऊपर बतलाये गये हैं । औदारिक शरीर में रहता हुआ जीव, जब लोक के सभी पुद्गलों को औदारिक शरीर के रूप में ग्रहण कर लेता हैं, तब उसे आंदारिक पुद्गल परिवर्तन कहते हैं । इसी प्रकार वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन आदि का भी अर्थ समझना चाहिये । अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करते हुए नैरयिक जीवों के सात प्रकार को पुद्गल परिवर्तन कहे गये हैं। प्रत्येक नैरयिक जीव के औदारिक पुद्गल परिवर्तन आदि अतीत काल सम्बन्धी अनन्त हैं। क्योंकि अतीत फाल अनादि है और जीव भी अनादि है । तथा पुद्गलों को ग्रहण करने का उसका स्वभाव है । अभव्य जीव के औदारिकादि पुद्गल परिवर्तन होते ही रहेंगे, जो नरकादि गति से निकल कर मनुष्य भव को प्राप्त करके सिद्धि को प्राप्त कर लेगा, या जो संख्यात और असंख्यात भवों से भी सिद्धि को प्राप्त करेगा, उसके पुद्गल परिवर्तन नहीं होगा। जिसका संसार परिभ्रमण अधिक होगा, वह एक या अनेक पुद्गल परिवर्तन करेगा। एक पुद्गल परिवर्तन भी अनन्त काल में पूरा होता है । एकवचन सम्बन्धी औदारिकादि सात प्रकार के पुद्गल परिवर्तन होने से, सात दण्डक (विकल्प) होते हैं। ये सात दण्डक नैरयिकादि चौवीस दण्डकों में कहना चाहिये और इसी प्रकार बहुवचन से भी कहना चाहिये । एकवचन और बहुवचन सम्बन्धी दण्डकों में अन्तर यह है कि एकवचन सम्बन्धी दण्डकों में भविष्यत्कालीन पुद्गल परिवर्तन किसी जीव के होते हैं और किसी जीव के नहीं होते । बहुवचन संबंधी दण्डकों में तो होते ही हैं, क्योंकि उसमें जीव सामान्य का ग्रहण है ! For Personal & Private Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १२ उ. ४ पुद्गल परिवर्तन के भेद २३ प्रश्न - एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स गैरइयत्ते केवइया ओरालियपोग्गलपरियट्टा ? २३ उत्तर - एवं जहा रइयस्स वत्तव्वया भणिया, तहा असुरकुमारस्स वि भाणियव्वा, जाव वैमाणियत्ते, एवं जाव थणियकुमा रस्स, एवं पुढविक्काइयस्स वि एवं जाव वेमाणियस्स, सव्वेसिं एक्को गमो । २४ प्रश्न - एगमेगस्स णं भंते! णेरइयस्स णेरइयत्ते केवडया वेब्वयपोग्गलपरियट्टा अतीता ? २४ उत्तर - अनंता, (प्र०) केवइया पुरेक्खडा ? (उ० ) एकोतरिया जाव अनंता वा, एवं जाव थणियकुमारत्ते । २५ प्रश्न - पुढविका इयत्ते पुच्छा । २५ उत्तर - एक्व, (प्र०) केवइया पुरेक्खडा ? ( उ० ) त्थि एक्को वि, एवं जत्थ वेडव्वियसरीरं अत्थि तत्थ एगुतरिओ, जत्थ णत्थि तत्थ जहा पुढविकाइयत्ते तहा भाणियव्वं, जात्र वैमाणियस्स वेमाणियत्ते । तेयापोग्गलपरियट्टा, कम्मापोग्गलपरियट्टा य सव्वत्थ एकोत्तरिया भाणियव्वा । मणपोग्गलपरियट्टा सव्वेसु पंचिदिए एकोत्तरिया, विगलिंदिरसु णत्थि । वइपोग्गल - परियट्टा एवं चैव, णवरं एगिदिएसु णत्थि भाणियव्वा । आणापाणुपोग्गल परियट्टा सव्वत्य एकोत्तरिया, जाव वेमाणियस्स वैमाणियत्ते । २०३७ For Personal & Private Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३८ भगवती सूत्र - श. १२ उ. ४ पुद्गल परिवर्तन के भेद कठिन शब्दार्थ - एकोत्तरिया - एक से लेकर अनन्त तक । भावार्थ - २३ प्रश्न - हे भगवन् ! प्रत्येक असुरकुमार के नरयिक भव में औदारिक पुद्गल परिवर्तन कितने हुए हैं ? २३ उत्तर - हे गौतम ! जिस प्रकार नैरयिकों का कथन किया है, उसी प्रकार असुरकुमार के विषय में यावत् वैमानिक भव पर्यंत कहना चाहिये । इसी प्रकार यावत् स्तनित कुमारों तक कहना चाहिये और इसी प्रकार पृथ्वीकाय से लेकर यावत् वैमानिक पर्यन्त एक समान कहना चाहिए । २४ प्रश्न - हे भगवन् ! प्रत्येक नैरयिक जीव के, नैरयिक भव में वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन कितने हुए है ? २४ उत्तर - हे गौतम! अनन्त हुए हैं । ( प्रश्न ) हे भगवन् ! भविष्य में कितने होंगे ? (उत्तर) हे गौतम! होंगे या नहीं, यदि होंगे तो एक से लेकर यावत् अनन्त होंगे । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारभव तक कहना चाहिए । २५ प्रश्न - हे भगवन् ! प्रत्येक नैरयिक जीव के पुदगल परिवर्तन कितने हुए हैं ? पृथ्वीकायिक भव में वैक्रिय २५ उत्तर - हे गौतम ! एक भी नहीं हुआ । ( प्रश्न) हे भगवन् ! आगे कितने होंगे ? (उत्तर) हे गौतम! एक भी नहीं होगा। इस प्रकार जहाँ वैक्रिय शरीर है, वहाँ एकादि पुद्गल परिवर्तन जानना चाहिये और जहाँ वैक्रिय शरीर नहीं है, वहाँ पृथ्वीकायिकपने में कहा, उसी प्रकार कहना चाहिए, यावत् वैमानिक जीवों के वैमानिकभव पर्यन्त कहना चाहिए। तैजस पुद्गल परिवर्तन और कार्मण पुद्गल परिवर्तन सर्वत्र एक से लगाकर अनन्त तक कहना चाहिए । मन पुद्गल परिवर्तन सभी पञ्चेन्द्रिय जीवों में एक से लेकर अनन्त तक कहना चाहिए, किंतु विकलेन्द्रियों (एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय) में मनःपुद्गल परिवर्तन नहीं होता । इस प्रकार वचन पुद्गल परिवर्तन का भी कहना चाहिये, किंतु विशेषता यह है कि वह एकेन्द्रिय जीवों में नहीं होता । आन For Personal & Private Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ पुद्गल परिवर्तन के भेद २०३९ प्राण (श्वासोच्छवास) पुदगल परिवर्तन सभी जीवों में एक से लेकर अनन्त तक जानना चाहिये, यावत् वैमानिक के वैमानिक भव तक कहना चाहिये । २६ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! गेरइयत्ते केवइया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता ? ... २६ उत्तर-णस्थि एक्को वि। (प्र०) केवइया पुरेपखडा ? (उ०) णत्थि एक्को वि, एवं जाव थणियकुमारते । २७ प्रश्न-पुढविकाइयत्ते पुच्छा। २७ उत्तर-अणंता । (प्र०)केवइया पुरेक्खडा ? (उ०) अांता, एवं जाव मणुस्सत्ते । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियत्ते जहा गेरइयत्ते, एवं जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते, एवं सत्त वि पोग्गलपरियट्टा भाणि. पव्वा; जत्थ अस्थि तत्थ अतीता वि पुरेक्खडा वि अणता भाणियव्वा, जत्य णत्थि तत्थ दो वि णत्थि भाणियब्वा । जाव (प्र०) वेमाणिपाणं वेमाणियते केवइया आणापाणुरोग्गलपरियट्टा अतीता ? (उ०) अणंता । (प्र०) केवइया पुरेक्खडा ? (उ०) अणंता । २८ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'ओरालियपोग्गल. परियट्टे ओरालियपोग्गलपरियट्टे ?' ___२८ उत्तर-गोयमा ! जणं जीवेणं ओरालियसरीरे वट्टमाणेणं ओरालियसरीरपाओग्गाई दव्वाइं ओरालियसरीरत्ताए गहियाई, For Personal & Private Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.४० भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ पुदगल परिवर्तन के भेद बद्धाइं, पुट्ठाई, कडाई, पट्टवियाई, णिविट्ठाई, अभिणिविट्ठाई, अभि. समण्णागयाई, परियाइयाई, परिणामियाई, णिजिणाई, णिसि. रियाई, णिसिट्ठाइं भवंति; से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-'ओरा. लियपोग्गलपरियट्टे ओरालियपोग्गलपरियट्टे ।' एवं वेउब्वियपोग्गलपरियट्टे वि, णवरं वेउब्वियसरीरे वट्टमाणेणं वेउवियसरीरप्पा. योग्गाई, सेसं तं चेव सव्वं, एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टे, गवरं आणापाणुपायोग्गाइं सव्वदव्वाइं आणापाणुत्ताए, सेसं तं चेव ? भावार्थ-२६ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीवों के नरयिकभव में कितने औदारिक पुद्गल परिवर्तन हुए हैं ? २६ उत्तर-हे गौतम ! एक भी नहीं हुआ। (प्रश्न)हे भगवन् ! आगे कितने होंगे? (उत्तर) हे गौतम ! एक भी नहीं होगा। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारपने तक कहना चाहिये। २७ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीवों के पृथ्वीकायपने में औदारिक पुद्गल परिवर्तन कितने हुए हैं ? . २७ उत्तर-हे गौतम ! अनन्त हुए हैं । (प्रश्न) हे भगवन् ! आगे कितने होंगे ? (उत्तर)हे गौतम ! अनन्त होंगे। इसी प्रकार यावत् मनुष्यभव तक कहना चाहिए। जिस प्रकार नैरयिकभव में कहे हैं, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकभव में कहना चाहिए । इसी प्रकार यावत् वैमानिकों के वैमानिकभव तक सातों ही पुद्गल परिवर्तन कहना चाहिए। जहां जो पुद्गल परिवर्तन हों, वहाँ अतीत (बीते हुए) और पुरस्कृत (भविष्यकालीन) अनन्त कहना चाहिए और जहां नहीं हों, वहाँ अतीत और पुरस्कृत दोनों में नहीं कहना चाहिए । यावत् (प्रश्न) हे भगवन् ! वैमानिकों के वैमानिकभव में कितने आनप्राणपुद्गल परिवर्तन हुए हैं ? (उत्तर) हे गौतम ! अनन्त हए हैं। For Personal & Private Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ पुद्गल परिवर्तन के भेद . . २०४१ (प्रश्न) हे भगवन् ! आगे कितने होंगे? (उत्तर) हे गौतम ! अनन्त होंगे। २८ प्रश्न-हे भगवन् ! 'औदारिक पुद्गल परिवर्तन' यह औदारिक पुद्गल परिवर्तन क्यों कहलाता है ? २८ उत्तर-हे गौतम ! औदारिक शरीर में रहते हुए जीव ने, औदारिक शरीर योग्य द्रव्यों को औदारिक शरीरपने ग्रहण किये है, बद्ध किये हैं अर्थात जीव प्रदेशों के साथ एकमेक किये हैं, शरीर पर रेणु के समान स्पष्ट किये हैं, अथवा नवीन नवीन ग्रहण कर उन्हें पुष्ट किया है, उन्हें किया है, अर्थात् पूर्व परिणाम की अपेक्षा परिणामान्तर किया है । प्रस्थापित (स्थिर) किया है, स्थापित किया है, अभिनिविष्ट (सर्वथा लगे हुए) किये हैं, अभिसमन्वागत (सर्वथा प्राप्त) किये हैं, सभी अवयवों से उन्हें ग्रहण किया है, परिणामित (रसानुभूति से परिणामान्तर प्राप्त किया है, निर्जीर्ण (क्षीग रसवाले) किया है, निःश्रित (जीव प्रदेशों से पृथक् ) किया है, निःसष्ट (अपने प्रदेशों से परित्यक्त) किया है, इसलिए हे गौतम ! 'औदारिक पुद्गल परिवर्तन' औदारिक पुद्गल परिवर्तन कहलाता है । इसी प्रकार वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन भी कहना चाहिए, परन्तु इतनी विशेषता है कि 'वैक्रिय शरीर में रहते हुए जीव ने वैक्रिय शरीर योग्य ग्रहण आदि किया है,' इत्यादि कहना चाहिए। शेष पूर्ववत् कहना चाहिए। इसी प्रकार यावत् आनप्राग पुद्गल परिवर्तन तक कहना चाहिए। किंतु वहाँ 'आनप्राण योग्य सर्व द्रव्यों को आनप्राणपने ग्रहणादि किया,' इत्यादि कहना चाहिए । शेष पूर्ववत् जानना चाहिए। विवेचन-नरयिक भव में रहते हुए अनन्त वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन हुए हैं और भविष्यत्काल में किसी के होंगे और किसी के नहीं होंगे। जिसके होंगे, उसके जघन्य एक दो, तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होंगे। वायुकाय, मनुष्य, तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय और व्यन्तरादि में वैक्रिय शरीर है । वहाँ वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन एकोत्तरिक कहने चाहिये और जहाँ अप्प्यादि में वैक्रिय शरीर · नहीं हैं, वहाँ वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन भी नहीं है । For Personal & Private Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १२ उ. ४ पुद्गल परिवर्तन के भेद तेजस और कार्मण शरीर सभी संसारी जीवों में होते हैं, इसलिये सभी नारकादि जीवों में तैजस् कार्मण पुद्गल परिवर्तन भविष्यत्काल सम्बन्धी एकोत्तरिक कहने चाहिये । विकलेन्द्रियों में मनःपुद्गल परिवर्तन नहीं होता । 'विकलेन्द्रिय' शब्द यद्यपि बेइंद्रिय तेइंद्रिय और चौइंद्रिय जीवों के लिए रूढ है, तथापि यहाँ 'विकलेन्द्रिय' शब्द से एकेन्द्रिय जीवों का भी ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि उनमें भी इन्द्रियों की परिपूर्णता नहीं है और मन का अभाव है । अतः उनमें मनपुद्गल परिवर्तन नहीं है । वचन पुद्गल परिवर्तन नारकादि जीवों में हैं, केवल एकेन्द्रिय जीवों में नहीं है । औदारिक पुद्गल परिवर्तन का अर्थ बतलाते हुए मूल पाठ में 'गहियाई बढ़ाई' आदि तेरह पद दिये हैं जिनका अर्थ भावार्थ में कर दिया गया है। इनमें से पहले के चार पंद औदारिक पुद्गलों को ग्रहण करने विषयक हैं। उनसे आगे के 'पट्टवियाई' आदि पाँच पद स्थिति विषयक हैं। उनसे आगे के 'परिणामियाई' आदि चार पद औदारिक पुद्गलों को आत्म-प्रदेशों से पृथक् करने विषयक हैं । २०४२ २९ प्रश्न - ओरालियपोग्गलपरियट्टे णं भंते ! केवइकालस्स णिव्वत्तिज्जह १ २९ उत्तर - गोयमा ! अनंताहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं एवइकालस्स णिव्वित्तिज्जइ एवं वेउब्वियपोग्गलपरियट्टे वि, एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियद्रे वि । ३० प्रश्न - एयस्स णं भंते ! ओरालियपोग्गलपरियट्टणिव्वत्तणाकालस्स, वेउब्वियपोग्गल० जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टणिव्वत्तणाकालस्स करे करेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ? ३० उत्तर - गोयमा । सव्वत्थोवे कम्मगपोग्गल परियट्टणिव्वचणाकाले, तेयापोग्गलपरियदृणिव्वत्तणाकाले अनंतगुणे, ओरा For Personal & Private Use Only ". Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ परमाणु और स्कन्ध के विभाग लियपोग्गल० अणंतगुणे, आणापाणुपोग्गल० अणंतगुणे, मणपोग्गल० अणंतगुणे, वइपोग्गल० अणंतगुणे, वेउब्वियपोग्गलपरियदृणिवत्तणाकाले अणंतगुणे । ___३१ प्रश्न-एएसि णं भंते ! ओरालियपोग्गलपरियट्टाणं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसा. हिया वा ? - ३१ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा वेउवियपोग्गलपरियट्टा, वइपो० अणंतगुणा, मणपो० अर्णतगुणा, आणापाणुपो० अणंत. गुणा, ओरालियपो० अणंतगुणा, तेयापो० अणंतगुणा कम्मगपो० अणंतगुणा। .. ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं जाव विहरह के ॥ चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो । कठिन शब्दार्थ-णिव्वत्तिज्जइ-निवर्तित-निष्पन्न होता है। भावार्थ-२९ प्रश्न-हे भगवन् ! औदारिक पुद्गल परिवर्तन कितने काल में निर्वतित-निष्पन्न होता है ? २९ उत्तर-हे गौतम ! अनन्त उत्सपिणी और अवसर्पिणी काल में निष्पन्न होता है । इसी प्रकार वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन यावत् आनप्राण पुद्गल परिवर्तन तक जानना चाहिए। ३० प्रश्न-हे भगवन् ! औदारिक पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल, वक्रिय पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल यावत् आनप्राण पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल, इनमें कौनसा काल किस काल से अल्प यावत् विशेषाधिक है ? For Personal & Private Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४४ भगवती सूत्र--श. १२ उ. ४ पुद्गल परिवर्तन के भेद ३० उत्तर-हे गौतम ! सब से थोड़ा कार्मण-पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल है, उससे तैजस पृद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है, उससे औदारिक पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है, उससे आनप्राण पुदगल परिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है, उससे मनःपुद्गलपरिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है, उससे वचनपुद्गलपरिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है और उससे वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है। ३१ प्रश्न-हे भगवन् ! औदारिक पुद्गल परिवर्तन यावत् आनप्राण पुद्गल परिवर्तन, इनमें कौन पुद्गल परिवर्तन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक है ? ३१ उत्तर-हे गौतम ! सबसे थोड़ा वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन है । उससे वचन पुद्गल परिवर्तन अनन्त गुण है, उससे मनःपुद्गल परिवर्तन अनन्त गुण है, उससे आनप्राग पुदाल परिवर्तन अनन्त गुण है, उससे औदारिक पुद्गल परिवर्तन अनन्त गुण है, उससे तैजस पुद्गल परिवर्तन अनन्त गुण है और उससे कार्मग पुद्गल परिवर्तन अनन्त गुण है । . हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विवरते हैं। विवेचन-औदारिक पुद्गल परिवर्तन आदि अनन्त उत्सपिणी अवसर्पिणी काल में निष्पन्न होते हैं । क्योंकि पुद्गल अनन्त हैं और उनका ग्राहक एक जीव होता है । तथा पुद्गल परिवर्तन में पूर्व गृहीत पुद्गलों की गणना नहीं की जाती। इन पुद्गल परिवर्तनों के निष्पत्ति काल का अल्प-बहुत्व बतलाते हुए कहा गया है कि कार्मण पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल (निर्वर्तनाकाल) सब से थोड़ा है। क्योंकि कार्मण पुद्गल सूक्ष्म हैं और वहुत-से परमाणुओं से निष्पन्न होता है, इसलिये वे एक ही वार में बहुत से ग्रहण किये जाते हैं तथा नैरयिकादि सभी अवस्था में रहा हुआ जीव, प्रति समय उनको ग्रहण करता है, इसलिये स्वल्पकाल में ही उन सभी पुद्गलों का ग्रहण हो जाता है । उससे तेजस पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है, क्योंकि तेजस् पुद्गल स्थूल है, अतः उनमें एक वार में अल्प पुद्गल का ग्रहण होता है । अल्प प्रदेशों से निष्पन्न होने के कारण एक बार में भी उन अल्प अणुओं का ही ग्रहण होता है, इसलिये For Personal & Private Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ पुद्गल परिवर्तन के भेद २०४५ यह उनसे अनन्त गुण है । उसमें औदारिक पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है । क्योंकि औदारिक पुद्गल अति स्थूल है. अतः उन में मे अल्प का ही ग्रहण होता है और वे प्रदेश भी अल्पतर हैं । अतः उनके ग्रहण करने पर एक समय में अल्प अणु ही गृहीत होते है। दूसरी बात यह है कि वे कार्मण और तंजन पुद्गलों की तरह सर्व संसारी जीवों से निरन्तर गृहीत नहीं होते, किंतु केवल औदारिक गरीरधारी जीवों द्वारा ही उनका ग्रहण होता है, अत: बहुत काल में उनका ग्रहण होता है। उससे आनप्राण पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है । यद्यपि आनप्राण पुद्गल औदारिक पुद्गलों से मूक्ष्म और बहु प्रदेशी हैं, इसलिये उनका अल्पकाल में हो ग्रहण हो सकता है, तथापि अपर्याप्त अवस्था में उनका ग्रहण न होने से तथा पर्याप्त अवस्था में भी औदारिक शरीर पुद्गलों की अपेक्षा उनका अल्प परिमाण में ग्रहण होने से उनका शीघ्र ग्रहण नहीं होता । इसलिये औदारिक पुद्गल परिवर्तन निप्पत्तिकाल से आनप्राण पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है। उससे मन पुद्गल परिवर्तन निष्पनिकाल अनन्त गुण है । यद्यपि आनप्राण पुद्गलों से मन पुद्गल सूक्ष्म और बहुप्रदेशी है, इसलिये अल्पकाल में ही उनका ग्रहण हो सकता है, तथापि एकेन्द्रियादि की कायस्थिति बहुत लम्बी है । उसमें चले जाने पर मन की प्राप्ति बहुत लम्बे . समय में होती है । इसलिये मन पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल उनमे अनन्त गुण कहा गया है। उससे वचन पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है । यद्यपि मन की अपेक्षा वचन शीघ्र प्राप्त होता है तथा द्वीन्द्रियादि अवस्था में भी वचन होता है, तथापि मन द्रव्यों की अपेक्षा भापा द्रव्य अति स्थूल है। इसलिये एक समय में उनका अल्प परिमाण में ही ग्रहण होता है, अत: मन पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल से वचन पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है । इससे वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है । क्योंकि वैक्रिय शरीर बहुत लम्बे समय में प्राप्त होता है। इसके पश्चात् इन पुद्गल परिवर्तनों का पारस्परिक अल्प-बहुत्व बतलाया गया है। वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन सबसे थोड़े हैं, क्योंकि वे बहुत काल में निष्पन्न होते हैं । उससे वचन पुद्गल परिवर्तन अनन्त गुण हैं, क्योंकि वे अल्पतरकाल में ही निष्पन्न होते हैं। इसी रीति से आगे-आगे का भी अल्प-बहुत्व समझ लेना चाहिये । ॥ बारहवें शतक का चतुर्थ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२ उद्देशक ५ पाप कर्म के वर्णादि पर्याय १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-अह भंते ! १ पाणाइवाए, २ मुसावाए, ३ अदिण्णादाणे, ४ मेहुणे, ५ परिग्गहे-एस णं कइवण्णे, कइगंधे, कइरसे, कइफासे, पण्णत्ते ? . १ उत्तर-गोयमा ! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे, पण्णत्ते। २ प्रश्न-अह भंते ! १ कोहे, २ कोवे, ३ रोसे, ४ दोसे, ५ अखमा, ६ संजलणे, ७ कलहे, ८ चंडिक्के, ९ भंडणे, १० विवादेएस णं कइवण्णे, जाव कइफासे पण्णत्ते ? २ उत्तर-गोयमा ! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे पण्णत्ते । ३ प्रश्न-अह भंते ! १ माणे, २ मए, ३ दप्पे, ४ थंभे, ५गव्वे, ६ अत्तुक्कोसे, ७ परपरिवाए, ८ उक्कासे, ९ अवकासे, १० उण्णत्ते, ११ उण्णामे, १२ दुग्णामे-एस णं कइवण्णे ४ ? ३ उत्तर-गोयमा ! पंचवण्णे, जहा कोहे तहेव । भावार्थ-१-राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछाहे भगवन् ! प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह-ये सभी कितने वर्ण गंध, रस और स्पर्श वाले हैं ? । १ उत्तर-हे गौतम ! ये पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चार स्पर्श वाले कहे हैं । २ प्रश्न-हे भगवन् ! क्रोध, कोप, रोष, दोष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, For Personal & Private Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगवती सूत्र -श. १२ उ. ५ पाप कर्म के वर्णादि पर्याय चाण्डक्य, भण्डन और विवाद- ये सभी कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शवाले कहे हैं ? २ उत्तर - हे गौतम ! ये पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और चार स्पर्श कहे हैं । باره: ३ प्रश्न - हे भगवन् ! मान, मद, दर्प, स्तम्भ, गर्व, अत्युत्क्रोश, परपरिवाद, उत्कर्ष, अपकर्ष, उन्नत, उन्नाम, दुर्नाम- ये सभी कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शवाले कहे हैं ? ३ उत्तर - हे गौतम! ये पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और चार स्पर्श कहे हैं । विवेचन - प्राणातिपात-जीव हिंसा से उत्पन्न होने वाला कर्म अथवा जीव हिंसा को उत्पन्न करनेवाला चारित्र मोहनीय कर्म भी उपचार से प्राणातिपात कहलाता है । क्रोध, लोभ, भय और हास्य के वश असत्य, अप्रिय अहितकारी वचन कहना 'मृषावाद' है । स्वामी की आज्ञा के बिना कुछ भी लेना 'अदत्तादान' है । विषय वासना से प्रेरित स्त्री-पुरुष के संयोग को 'मैथुन' कहते हैं। धन कञ्चनादि बाह्य परिग्रह है और मूर्च्छा ममत्व होना - भाव परिग्रह है । ये पांचों पाप, पुद्गल रूप होने से इनमें पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और चार (स्निग्ध, रुक्ष, शीत और उष्ण) स्पर्श होते हैं । इसी प्रकार क्रोध और मान में भी होते | यहाँ क्रोध के दस पर्यायवाची शब्द कहे गये हैं। क्रोध के परिणाम को उत्पन्न करनेवाले कर्म को 'क्रोध' 'कहते हैं । इन दस नामों में 'क्रोध' यह सामान्य नाम है और कोपादि उसके विशेष नाम हैं । १ क्रोध, २ कोप- क्रोध के उदय से अपने स्वभाव से चलित होना 'कोप' कहलाता है, ३ रोष - क्रोध की परम्परा, ४ दोष - अपने आपको तथा दूसरे को दूषण देना, अथवा द्वेष - अप्रीति, ५ अक्षमा- दूसरे के द्वारा किये हुए अपराध को सहन नहीं करना, ६ संज्वलनबार-बार क्रोध से प्रज्वलित होना, ७ कलह - वाग्युद्ध अर्थात् परस्पर अनुचित शब्द बोलना, ८ वाण्डिक्य- रौद्र रूप धारण करना, ९ भण्डन - दण्ड, शस्त्र आदि से युद्ध करना और १० विवाद - परस्पर विरुद्ध वचन बोल कर विवाद करना -झगड़ा करना । यह इन शब्दों का शब्दार्थ है, अन्यथा ये सभी शब्द क्रोध के एकार्थक हैं । मान-अपने आपको दूसरों से उत्कृष्ट समझना 'मान' कहलाता है। इसके सार्थक बारह नाम हैं-१ मान-अभिमान के परिणाम को उत्पन्न करने वाले कषाय को 'मान' कहते For Personal & Private Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १२ उ. ५ पाप कर्म के वर्णादि पर्याय हैं । २ मद-मद करना या हर्ष करना, दर्प (दुप्तता ) घमण्ड में चूर होना, ४ स्तंभ-नम्र न होना, स्तंभ की तरह कठोर बने रहना । ५ गर्व - अहंकार, ६ अत्युत्कोश - अपने को दूसरों से उत्कृष्ट मानना - बताना, ७ परपरिवाद-दूसरे की निन्दा करना । अथवा 'परपरिपात' दूसरे को उच्च गुणों से पतित करना, ८ उत्कर्ष - क्रिया से अपने आपको उत्कृष्ट मानना । अथवा अभिमान पूर्वक अपनी समृद्धि प्रकट करना, ९ अपकर्ष - अपने से दूसरे को तुच्छ बताना, १० उन्नत - विनय का त्याग करना, 'उन्नय' अभिमान से नीति का त्याग कर अनीति में प्रवृत्त होना, ११ उन्नाम-वन्दन योग्य पुरुष को भी वन्दन न करना, अथवा अपने को नमस्कार करने वाले पुरुष को न नमना एवं सद्भाव न रखना, और १२ . दुर्नाम - वन्दनीय पुरुष को भी अभिमानपूर्वक बुरे ढंग से वंदन करना । ये 'स्तंभ' आदि मान के कार्य हैं, अथवा ये सभी शब्द 'मान' के एकार्थक शब्द हैं । २०४८ ४ प्रश्न - अह भंते ! १ माया, २ उवही, ३ णियडी, ४ वलये, ५ गहणे, ६ णूमे, ७ कक्के, ८ कुरुए, ९ जिम्हे, १० किव्विसे, ११ आयरणया, १२ ग्रहणया, १३ वंचणया १४ पलिउंचणया, १५ साइजोगे य- एस णं कड़वण्णे ४ पण्णत्ते ? ४ उत्तर - गोयमा ! पंचवण्णे, जहेव कोहे । ५ प्रश्न - अह भंते ! १ लोभे २ इच्छा ३ मुच्छा ४ कंखा - ५ गेही ६ तण्हा, ७. भिज्झा ८ अभिज्झा ९ आसासणया १० पत्थया ११ लालप्पणया १२ कामासा १३ भोगासा १४ जीवियासा १५ मरणामा १६ मंदीरागे - एस णं कइवण्णे ४ ? ५ उत्तर - जहेब कोहे | ६ प्रश्न - अह भंते ! पेज्जे, दोसे, कलहे, जाव मिच्छादंसण For Personal & Private Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगवती सूत्र-रा. १२ . ५ पाप कर्म के वर्णादि पर्याय सल्ले - एस णं कइवपणे ? ६ उत्तर - जहेब कोहे तहेव चउफासे । कठिन शब्दार्थ- पेज्जे- प्रेम - राग, दोसे-द्वेष | भावार्थ-४ प्रश्न - हे भगवन् ! माया, उपधि, निकृति, वलय, गहन, नूम, कल्क, कुरूपा, जिह्मता, किल्विष, आदरणता ( आचरणता) गूहनता, वञ्चनता, प्रति कुंचनता और सातियोग- इन सभी में कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हैं ? ४ उत्तर - हे गौतम ! इन सभी का कथन क्रोध के समान जानना चाहिए । ५ प्रश्न - हे भगवन् ! लोभ, इच्छा, मूच्र्छा, कांक्षा, गृद्धि, तृष्णा, भिध्या, अभिध्या, आशंसना, प्रार्थना, लालपनता, कामाशा, भोगाशा, जीविताशा, मरणाशा और नन्दिराग- इनमें कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हैं । .२०४९ ५ उत्तर - हे गौतम! क्रोध के समान समझना चाहिए । ६ प्रश्न - हे भगवन् ! प्रेम-राग, द्वेष, कलह यावत् मिथ्यादर्शन शल्य, इनमें कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हैं ? ६ उत्तर - हे गौतम ! क्रोध के समान जानो । विवेचन- १ माया - यह 'माया' का सामान्य वाचक नाम है । 'उपधि' आदि उसके भेद हैं । २ उपधि - किसी को ठगने के लिए प्रवृत्ति करना । ३ निकृति - किसी का आदर सत्कार करके फिर उसके साथ 'माया' करना, अथवा एक मायाचार छिपाने के लिए दूसरा भायाचार करना । ४ वलय- किसी को अपने जाल में फँसाने के लिए मीठे वचन बोलना । ५ गहन - दूसरों को ठगने के लिए अव्यक्त शब्दों का उच्चारण करना, अथवा ऐसे गहन (गूढ ) अर्थ वाले शब्दों का प्रयोग करके जाल रचना कि दूसरे की समझ में ही न आवे । नूम - मायापूर्वक नीचता का आश्रय लेना । ७ कल्क- हिसाकारी उपायों से दूसरे को ठगना । ८ कुरूपा - निन्दित रीति से मोह उत्पन्न करके ठगने की प्रवृत्ति करना । ९ जिह्मता - कुटिलतापूर्वक ठगने की प्रवृत्ति । १० किल्विष - किल्विषी जैसी प्रवृत्ति करना । ११ आदरणता( आचरणता ) मायाचार से किसी का आदर करना, अथवा ठगाई के लिए अनेक प्रकार की क्रियाएँ करना । १२ गूहनता अपने स्वरूप को छिपाना । १३ वञ्चनता - दूसरे को ठगना । For Personal & Private Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५० भगवती सूत्र - १२ उ. ५ पाप कर्म के वर्णादि पर्याय १४ प्रतिकुञ्चनता - सरल भाव से कहे हुए वाक्य का खण्डन करना या विपरीत अर्थ लगाना और १५ सातियोग - उत्तम पदार्थ के साथ हीन पदार्थ मिला देना। ये सभी शब्द 'माया' के एकार्थक शब्द हैं । मूर्च्छा - ममत्व को 'लोभ' कहते हैं - १ लोभ- यह 'लोभ' कषाय का सामान्यवाची नाम है । 'इच्छा' आदि इसके विशेष भेद हैं । २ इच्छा - किसी वस्तु को प्राप्त करने की अभिलाषा । ३ मूर्च्छा-प्राप्त की हुई वस्तुओं की रक्षा के लिए निरन्तर अभिलाषा करना । ४ कांक्षा - अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा । ५ गृद्धि प्राप्त वस्तुओं पर आसक्तिभाव । ६ तृष्णा - प्राप्त पदार्थ का व्यय न हो ऐसी इच्छा । ७ भिध्या-विषयों का ध्यान, विषयों में एकाग्रता । ८ अभिध्या-चित्त का चञ्चलता । ९ आशंसना - अपने इष्ट पदार्थ की इच्छा । १० प्रार्थना - दूसरों से इष्ट पदार्थ की याचना । ११ लालपनता - विशेष रूप से बोल कर प्रार्थना करना । १२ कामाशा - इष्ट शब्द और इष्ट रूप को प्राप्त करने की इच्छा । १३ भोगाशा - इष्ट गन्धादि को प्राप्त करने की इच्छा करना । १४ जीविताशा - जीवन की अभिलाषा करना । १५ मरणाशा - विपत्ति के समय मरण की अभिलाषा करना । १६ नंन्दीराग - विद्यमान सम्पत्ति पर राग भाव होना, अथवा नन्दो अर्थात् वांछित अर्थ की प्राप्ति और राग अर्थात् विद्यमान पर रागभाव - ममत्वभाव होना । 'पेज्ज' - प्रेम - पुत्रादि विषयक स्नेह । द्वेष - अप्रीति । कलह - प्रेम हास्यादि से उत्पन्न क्लेश अथवा वाग्युद्ध | अभ्याख्यान - प्रकट रूप से अविद्यमान दोषों का आरोप लगाना- झूठा कलंक लगाना । पैशुन्य - पीठ पीछे किसी के दोष प्रकट करना चुगली करना । परपरिवाददूसरे की बुराई करना - निन्दा करना । अरतिरति - मोहनीय कर्म के उदय से प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति होने पर जो उद्वेग होता है, वह 'अरति' है और अनुकूल विषयों के प्राप्त होने पर चित्त में जो आनन्द रूप परिणाम उत्पन्न होता है, वह 'रति' हैं। जीव को जब एक विषय में रति होती है, तब दूसरे विषय स्वतः अरति हो जाती । यही कारण है कि एक वस्तु विषयक रति को ही दूसरे विषय की अपेक्षा से अरति कहते हैं । इसलिये दोनों को एक पापस्थानक गिना है। मायामृषा - मायापूर्वक झूठ बोलना । मिथ्यादर्शन शल्य - - श्रद्धा का विपरीत होना । जैसे-शरीर में चुभा हुआ शल्य सदा कष्ट देता हैं, उसी प्रकार मिथ्यादर्शन भी आत्मा को दुःखी बनाये रखता है । प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक ये अठारह ही पापस्थान पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चार स्पर्श वाले हैं । For Personal & Private Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगवती सूत्र-श. १२ उ. ५ विरति आदि आत्मपरिणाम. २०५१ विरति आदि आत्मपरिणाम ७ प्रश्न-अह भंते ! १ -पाणाइवायवेरमणे, जाव ५ परिग्गहवेरमणे, ६ कोहविवेगे जाव १८ मिच्छादंसणसल्लविवेगे-एम णं कइवण्णे, जाव कइफासे पण्णते ? ७ उत्तर-गोयमा ! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे पण्णत्ते । ८ प्रश्न-अह भंते ! १ उप्पत्तिया २ वेणइया ३ कम्मिया ४ पारिणामिया-एस णं कइवण्णा ? ८ उत्तर-तं चेव जाव अफासा पण्णत्ता। ९ प्रश्न-अह भंते ! १ उग्गहे २ ईहा ३ अवाए ४ धारणाएस णं कइवण्णा ? ९ उत्तर-एवं चेव जाव अफासा पण्णत्ता । ..१० प्रश्न-अह भंते ! १ उट्ठाणे २ कम्मे ३ बले ४ वीरिए ५ पुरिसकारपरक्कमे-एस णं कइवण्णे ? १० उत्तर-तं चेव जाव अफासे पण्णते ? कठिन शब्दार्थ-उग्गहे--अवग्रह, उट्ठाणे--उत्थान । भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! प्राणातिपात विरमण यावत् परिग्रह विरमण, क्रोधविवेक (क्रोध त्याग) यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक-इन सभी के कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हैं ? ७ उत्तर-हे गौतम ! ये सभी वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से रहित हैं। For Personal & Private Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५२ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ५ विरति आदि आत्मपरिणाम ८प्रश्न-हे भगवन् ! औत्पत्तिकी, वनयिकी, कार्मिको और पारिणामिकी बुद्धि में कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हैं ? ८ उत्तर-हे गौतम ! ये वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित हैं। .९ प्रश्न-हे भगवन् ! अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये सभी कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले हैं ? ९ उत्तर-हे गौतम ! ये सभी वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित हैं। १० प्रश्न-हे भगवन् ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकारपराक्रमये सभी कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले हैं ? १० उत्तर-हे गौतम ! ये सभी वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित हैं। विवेचन-प्राणातिपात विरमणादि जीव के उपयोग स्वरूप हैं और जीव का स्वरूप अमूर्त है, इसलिये अठारह पापों का विरमण, वर्णादि रहित है । औत्पत्तिको बुद्धि-जो बुद्धि बिना देखे, सुने और सोचे ही पदार्थों को सहसा ग्रहण कर के कार्य को सिद्ध कर देती है, उसे औत्पत्तिकी बुद्धि कहते हैं । . वनयिको बुद्धि-गुरु महाराज की सेवा-शुश्रूषा करने से प्राप्त होने वाली बुद्धिवनयिकी बुद्धि है। कामिकी बुद्धि-कर्म अर्थात् सतत् अभ्यास और विचार से विस्तृत होने वाली बुद्धि कार्मिकी है । जैसे-सुनार, किसान आदि कर्म करते-करते अपने कार्य में उत्तरोत्तर विशेष दक्ष हो जाते हैं। पारिणामिकी बुद्धि-अति दीर्घकाल तक पूर्वापर पदार्थों के देखने आदि से उत्पन्न होने वाला आत्मा का धर्म, परिणाम कहलाता है, उस परिणाम के निमित्त से होने वाली बुद्धि को पारिणामिकी बुद्धि कहते हैं । अर्थात् वयोवृद्ध व्यक्ति को बहुत काल तक संसार के अनुभव से प्राप्त होने वाली बुद्धि पारिणामिकी बुद्धि कहलाती है। अवाह--इन्द्रिय और पदार्थों के योग्य स्थान में रहने पर, सामान्य प्रतिभास रूप दर्शन के बाद होने वाले अवान्तर सत्ता सहित वस्तु के प्रथम ज्ञान को अवग्रह कहते हैं। जैसे-दूर से किसी चीज का ज्ञान होना। हा-अवग्रह से जाने हुए पदार्थ के विषय में उत्पन्न हुए संशय को दूर करते हुए विशेप की जिज्ञासा को 'हा' कहते हैं । For Personal & Private Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १२ उ ५ अवकाशान्तरादि में वर्णादि अवाय - ईहा से जाने हुए पदार्थों में निश्चयात्मक ज्ञान होना अवाय कहलाता है । धारणा - अवाय से जाना हुआ पदार्थों का ज्ञान इतना दृढ़ हो जाय कि कालान्तर में भी उसका विस्मरण न हो, तो उसे धारणा कहते हैं । र्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम मे उत्पन्न होने वाले जीव के परिणाम विशेषों को उत्थानादि कहते हैं। उत्थान शारीरिक चेष्टा विशेष कर्म - भ्रमणादि क्रिया । बल- शारीरिक सामर्थ्यं । वीर्यं जीव प्रभाव अर्थात् आत्मिक शक्ति । पुरुषकारपराक्रमस्वाभिमान विशेष । आपत्तिकी बुद्धि आदि चार, अवग्रहादि चार और उत्थानादि पांच ये सभी जीव के उपयोग विशेष हैं । अतः अमूर्त होने से वर्णादि रहित हैं । २०५३ अवकाशान्तरादि में वर्णादि ११ प्रश्न - सत्तमे णं भंते! उवासंतरे कड़वण्णे ? ११ उत्तर - एवं चैव जाव अफासे पण्णत्ते । १२ प्रश्न - सत्तमे णं भंते ! तणुवाए कड़वणे ? १२ उत्तर - जहा पाणाइवाए, णवरं अडफासे पण्णत्ते, एवं जहा सत्तमेतत्राएं तहा सत्तमे घणवाए, घणोदही, पुढवी । छट्टे उवासंतरे अवण्णे, तणुवाए जाव छट्ठी पुढवी- एयाई अटुफासाई, एवं जहा सत्तमाए पुढवीए वत्तव्वया भणिया तहा जाव पढमाए पुढ वीए भाणियव्वं । जंबुद्दीवे दीवे जाव सयंभुरमणे समुद्दे, सोहम्मे कप्पे, जाव ईसिप भारा पुढवी, णेरइयावासा, जाव वेमाणियावासा - एयाणि सव्वाणि अडफासाणि । For Personal & Private Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५४ भगवती सूत्र - १२ उ. ५ अवकाशान्तरादि में वर्णादि १३ प्रश्न - रइया णं भंते ! कड़वण्णा, जाव कइफासा पण्णत्ता । १३ उत्तर - गोयमा ! वेउब्विय तेयाई पडुच्च पंचवण्णा, पंचरसा, दुग्गंधा, अट्ठफासा पण्णत्ता, कम्मगं पडुच्च पंचवण्णा, पंचरसा, दुगंधा, चउफासा पण्णत्ता, जीवं पडुच्च अवण्णा, जाव अफासा पण्णत्ता, एवं जाव थणियकुमारा । १४ प्रश्न - पुढविक्काइयाणं पुच्छा । १४ उत्तर - गोयमा ! ओरालिय-तेयगाई पडञ्च पंचवण्णा जाव अट्ठफासा पण्णत्ता, कम्मगं पडुच्च जहा णेरइयाणं, जीवं पडुच्च तहेव, एवं जाव चउरिंदिया । णवरं वाउक्काइया ओरालियवे उब्विय-तेयगाई पडुच पंचवण्णा, जाव अटुफासा पण्णत्ता; सेसं जहा णेरइयाणं । पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा वाउवकाइया । , कठिन शब्दार्थ-उवासंतरे - अवकाशांतर । भावार्थ - ११ प्रश्न - हे भगवन् ! सातवें अवकाशान्तर में कितने वर्ण, गंध, रस और स्पर्श हैं ? ११ उत्तर - हे गौतम ! वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श रहित है । १२ प्रश्न - हे भगवन् ! सातवां तनुवात, कितने वर्णादि युक्त है ? १२ उत्तर - हे गौतम ! प्राणातिपात के समान कहना चाहिये, किंतु इतनी विशेषता है कि यह आठ स्पर्शवाला है। सातवें तनुवात के समान सातवां घनवात धनोदधि और सातवीं पृथ्वी कहनी चाहिये । छठा अवकाशान्तर वर्णादि रहित है। छठा तनुवात, घनवात घनोवधि और छड़ो पृथ्वी, ये सब आठ स्पर्श वाले । जिस प्रकार सातवीं पृथ्वी की वक्तव्यता कहीं है, उसी प्रकार यावत् प्रथम For Personal & Private Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शः १२ उ: ५ अवकाशान्तरादि में वर्णादि २०५५ पृथ्वी तक जानना चाहिये। जम्बूद्वीप यावत् स्वयम्भूरमण समुद्र, सौधर्मकल्प यावत् ईषत्प्रागभारा पृथ्वी, नरयिकवास चावत वैमानिकवास, ये सब आठ स्पर्शवाले हैं। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिकों में कितने वणं, गन्ध, रस और स्पर्श हैं ? १३ उत्तर-हे गौतम ! वैक्रिय और तेजस पुद्गलों की अपेक्षा वे पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्शवाले हैं। कार्मण पुद्गलों की अपेक्षा पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और चार स्पर्शवाले हैं। जीव की अपेक्षा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श रहित हैं। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिये। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शवाले हैं ? १४ उत्तर-हे गौतम ! औदारिक और तेजस पुद्गलों की अपेक्षा पांच:.. वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श वाले हैं। कार्मण की अपेक्षा और जीव की अपेक्षा पूर्ववत्-नरयिकों के कथन के समान जानना चाहिये । इसी प्रकार यावत् चौइन्द्रिय तक जानना चाहिये। परन्तु इतनी विशेषता है कि वायकायिक औदारिक, वैक्रिय और तेजस पुद्गलों की अपेक्षा पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श वाले हैं। शेष नरयिकों के समान जानना चाहिये । पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीवों का कयन भी वायुकायिकों के समान जानना चाहिये । - विवेचन-पहली और दूसरी नरक पृथ्वी के बीच का आकाश-खण्ड प्रथम 'अवका. शान्तर' कहलाता है, उसकी अपेक्षा सप्तम नरक पृथ्वी के नीचे का आकाश-खण्ड 'सप्तम अवकाशान्तर' कहलाता है । उसके ऊपर सातवां धनवात है । उसके ऊपर सातवां घनोदधि है और उसके ऊपर सातवीं नरक पृथ्वी है । इसी क्रम से प्रथम नरक पृथ्वी तक जानना चाहिये । तनुवात आदि पौद्गलिक होने से मूर्त है, अतएव वे वर्णादि वाले हैं। वादर परिणाम वाले होने से इनमें आठ स्पर्श होते हैं। _ १५ प्रर-मणुस्साणं पुच्छ । .....१५ उचर-ओरालिय-वेउन्विप-आहारग-तेयगाई पड्डुच पंच. For Personal & Private Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५६ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ५ अवकाशान्तरादि में वर्णादि वण्णा जाव अट्ठफासा पण्णत्ता; कम्मगं जीवं च पडुच जहा णेरइ. याणं, वाणमंतर-जोइसिय वेमाणिया जहा णेरइया । धम्मत्थिकाए जाव पोग्गलत्थिकाए-एए सब्बे अवण्णा जाव अफासा, गवरं पोग्गलत्थिकाए पंचवण्णे, पंचरसे, दुगंधे, अट्ठफासे पण्णत्ते । णाणावरणिज्जे जाव अंतराइए-एयाणि चउफासाणि। . . १६ प्रश्न-कण्हलेसा णं भंते ! कइवण्णा-पुच्छा । १६ उत्तर-दबलेसं पडुच्च पंचवण्णा जाव अट्ठफासा पण्णत्ता, भावलेसं पडुच्च अवण्णा ४ एवं जाव सुक्कलेस्सा। सम्मद्दिट्ठि ३, चखुदंसणे ४; आभिणिवोहियणाणे ५ जाव विभंगणाणे, आहार. सण्णा, जाव परिग्गहसण्णा-एयाणि अवण्णाणि ४ । ओरालियसरीरे, जाव तेयगसरीरे-एयाणि अट्ठफासाणि । कम्मगसरीरे चउ- .. फासे, मणजोगे, वयजोगे य चउफासे कायजोगे अटफासे । सागा. रोवओगे य अणागारोवओगे य अवण्णा । भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! मनुष्य कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले हैं। १५ उत्तर-हे गौतम ! औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तेजसं पुद्गलों की अपेक्षा पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श वाले हैं। कार्मण पुदगल और जीव की अपेक्षा नैरयिकों के समान जानना चाहिए और नरयिकों के समान ही वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों का कथन करना चाहिये । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल-ये वर्ण, गन्ध, रस, और .. For Personal & Private Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ५ अवकाशान्तरादि में वर्णादि स्पर्श रहित हैं। पुद्गलास्तिकाय पांच वर्ण, पांव रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श वाला है । ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय-ये आठ फर्म पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और चार स्पर्श वाले हैं । १६ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्ण लेश्या कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाली है ? १६ उत्तर-हे गौतम ! द्रव्य लेश्या को अपेक्षा पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श वाली है और भाव लेश्या की अपेक्षा वर्णादि रहित है । इसी प्रकार यावत् शुक्ल लेश्या तक जानना चाहिये । सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि सम्यगमिथ्यादृष्टि, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन,केवलदर्शन,आभिनियोधिक (मति)ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान, आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा, ये सभी वर्णादि रहित हैं। औदारिक शरीर, वैक्रियशरीर, आहारक शरीर और तेजसशरीर ये आठ स्पर्श वाले हैं और कार्मगशरीर, मनयोग और ववनयोग, ये चार स्पर्श वाले हैं। कोय योग आठ स्पर्शवाला है। साकारोपयोग और अनाकारोपयोग ये दोनों वर्णादि रहित हैं। १७ प्रश्न-सब्बदव्वा णं भंते ! कड़वण्णा-पुच्छा । १७ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइया सव्वदव्या पंचवण्णा, जाव अट्ठफासा पण्णता अत्यंगइया सम्बदन्वा पंचवण्णा चउकासा पण्णता; अत्थेगइया सव्वदव्वा एगवण्णा एगगंधा एगरसा दुफासा पण्णत्ता, अत्थेगइया सव्वदव्वा अवण्णा जाव अफासा पण्णत्ता । एवं सबपएसा वि सव्वपजवा वि तीयद्धा अवण्णा जाव अासा पण्णत्ता, एवं अणागयद्धा वि एवं सम्बद्धा वि। For Personal & Private Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : भगवती सूत्र - १२ : ५. अवकाशान्तरादि में वर्णादि १० प्रश्न - जीवे णं भंते! गर्भ वक्कममाणे कवणं, कहगंध, कइरसं, कफासं परिणामं परिणमइ ? १८ उत्तर - गोयमा ! पंचवण्णं, पंचरसं, दुगंधं, अडफासं परिणामं परिणम | २०५८ भावार्थ - १७ प्रश्न - हे भगवन् ! सभी द्रव्य कितने वर्णादि वाले हैं ? १७ उत्तर - हे गौतम! कुछ द्रव्य पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श वाले हैं, कुछ पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और चार स्पर्शवाले हैं. और कुछ एक वर्ण, एक रस, एक गन्ध और दो स्पर्श वाले हैं, तथा कुछ द्रव्य वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित हैं। इसी प्रकार सभी प्रदेश, सभी पर्याय, अतीत काल, अनागत काल और समस्त काल - ये सब वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित हैं। १८ प्रश्न - हे भगवन् ! गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव कितने वर्ण, गंध रस और स्पर्श वाले परिणाम से परिणत होता है ? १८ उत्तर - हे गौतम ! वह पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श वाले परिणाम से परिणत होता है । विवेचन -- लेश्या दो प्रकार की है; द्रव्य - लेश्या और भाव-लेश्या । द्रव्य लेश्या वादर पुद्गल परिणाम रूप होने से वह पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श वाली होती है । भावलेश्या आन्तरिक परिणामरूप होने से वर्णादि रहित होती है । बादर पुद्गल पाँच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श वाले होते है और सूक्ष्म पुद्गल द्रव्य पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और चार स्पर्श वाले होते हैं । परमाणु- पुद्गल एक वर्ण, एक रस, एक गन्ध और दो स्पर्श वाला होता है। दो स्पर्श इस प्रकार है- स्निग्ध और उष्ण अथवा स्निग्ध और शीत अथवा रूक्ष और शीत अथवा रूक्ष और उष्ण । द्रव्य के निर्विभाग अंश को 'प्रदेश' कहते हैं और द्रव्य के धर्म को 'पर्याय' कहते हैं । मूर्त द्रव्यों के प्रदेश और पर्याय, उन्हीं के समान वर्णादि वाले होते हैं। अमूर्त्त द्रव्यों के प्रदेश और पर्याय भी उन्हीं द्रव्यों के समान वर्णादि रहित होते हैं । अतीत, अनागत और सर्वं काल, ये अमूर्त होने से वर्णादि रहित हैं । For Personal & Private Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १२ उ. ५ कर्म परिणाम से जीव के विविध रूप २०५९ निष्कर्प यह है कि १८ पाप, ८ कर्म, कार्मण-शरीर, मनयोग, वचनयोग और सूक्ष्म पुद्गलास्तिकाय का स्कन्ध-ये तीस प्रकार के स्कन्ध, पाँच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और चार स्पर्श (शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूम) युक्त होते हैं । ६ द्रव्यलेश्या. ४ शरीर (औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तेजस्) घनोदधि, घनवात, तनुवात, काययोग और वादर पुद्गलास्तिकाय का स्कन्ध, इन पन्द्रह प्रकार के स्कन्धों में पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्श पाये जाते हैं। १८ पाप से विरति, १२ उपयोग (५ ज्ञान, ३ अज्ञान और ४ दर्शन) छह भाव. लेश्या, पाँच द्रव्य (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल) चार बुद्धि, चार अवग्रहादि, तीन दृष्टि, पांच शक्ति (उत्थानादि) चार संज्ञा, इन ६१ प्रकार के स्कन्धों में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नहीं पाये जाते । ये सभी अरूपी हैं। गर्भ में आता हुआ जीव (शरीर युक्त जीव) पंच वर्णादि वाला होता है । कर्म परिणाम से जीव के विविध रूप १९ प्रश्न-कम्मओ णं भंते ! जीवे णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ, कम्मओ णं जए णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ ? · १९ उत्तर-हंता गोयमा ! कम्मओ गंतं चेव जाव परिणमइ, णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ ।। * सेवं भंते ! से भंते ! त्ति ® . ॥ पंचमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-विभत्तिभाव-विविध रूप, जए-जगत् (जीव समूह) । भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव कर्मों से ही मनुष्य तिर्यञ्चादि विविध रूपों को प्रात होता है, कर्मों के बिना विविध रूपों को प्राप्त नहीं होता For Personal & Private Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६० भगवती सूत्र-श. १२ उ. : चन्द्रमा को राहु ग्रसता है ? क्या जगत कर्मों से विविध रूपों को प्राप्त होता है ? और बिना कर्मों के प्राप्त नहीं होता? १९ उत्तर-हां, गौतम ! कर्म से जीव और जगत् (जीवों का समूह) विविध रूपों को प्राप्त होते हैं, किन्तु कर्मों के बिना विविध रूपों को प्राप्त नहीं होते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-जीव नरक, तिर्यच, मनुष्य और देवगति में जिन विविध रूपों को प्राप्त होता है, वह सभी कर्मों के उदय से प्राप्त होता है, बिना कर्मों के जीव विभिन्न रूपों को धारण नहीं कर सकता । सुख-दुःख, सम्पन्नता-विपन्नता, जन्म-मरण, रोग-शोक, संयोगवियोग, आदि परिणामों को जीव स्वकृत कर्मों के उदय से भोगता है। ॥ बारहवें शतक का पांचवाँ उद्देशक सम्पूर्ण । शतक ११ उद्देशक चन्द्रमा को राहु ग्रसता है ? १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-बहुजणे णं भंते ! अप्ण मण्णस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ-एवं खलु राहू चंदं गेण्हइ, एवं०, से कहमेयं भंते ! एवं ? १ उत्तर-गोयमा ! जण्णं से बहुजणे अण्णमण्णस्स० जाव मिच्छते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि, जाव एवं For Personal & Private Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगनती मूत्र-स. १२ उ. ६ चन्द्रमा के राहु प्रगता है ? २०६१ परूवेमि-एवं खलु राहू देवे महिड्डीए. जाव महेमक्खे, वरवत्यथर. वरमल्लधरे, वरगंधधरे, वराभरणधारी, राहुस्स णं देवस्स णव णामधेना पण्ण ता, तं जहा-१ सिंघाडए २ जडिलए ३ ग्वत्तण ४ खरए ५ दद्दरे ६ मगरे ७ मच्छे ८ कच्छभे ९ कण्हमप्पे । राहुस्स णं देवस्स विमाणा पंचवण्णा पण्णत्ता, तं जहा-किण्हा. .. णीला, लोहिया, हालिद्दा, सुकिल्ला । अस्थि कालए राहुविमाणे खंजणवण्णाभे पण्णत्ते, अस्थि णीलए राहुविमाणे लाउयवण्णाभे पण्णते, अस्थि लोहिए राहुविमाणे मंजिट्टवण्णाभे पण्णत्ते, अस्थि पीतए राहुविमाणे हालिद्दवण्णाभे पण्णत्ते, अस्थि सुविकल्लए राहुविमाणे भासरासिवण्णाभे पण्णत्ते । जया णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउब्वमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं पुरस्थिमेणं आवरित्ता णं पञ्चत्थिमेणं वीईवयइ तया णं पुरत्थिमेणं चंदे उवदंसेइ, पञ्चत्थिमेणं राहू, जया णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं पचत्थिमेणं आवरित्ता णं पुरथिमेणं वीईवयह तया णं पचत्थिमेणं चंदे उवदंसेइ, पुरथिमेणं राहू एवं जहा पुरथिमेणं पचत्थिमेण य दो आलावगा भणिया तहा दाहिणेण य उत्तरेण य दो आलावगा भाणियबा, एवं उत्तरपुरस्थिमेण दाहिणपञ्चत्थिमेण य दो आला. वगा भाणियबा, एवं दाहिणपुरस्थिमेणं उत्तरपञ्चत्थिमेण य दो For Personal & Private Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६२ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ६ चन्द्रमा को राहु ग्रसता है ? आलावगा भाणियव्वा, एवं चेव जाव तया णं उत्तरपञ्चत्थिमेणं चंदे उवदंसेइ, दाहिणपुरस्थिमेणं राहू । जया णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं आवरेमाणे २ चिटइ तया णं मणुस्सलोए मणुस्सा वयंति-‘एवं खलु राहू चंदं गेण्हइ, एवं०' । जया णं राहू आगच्छमाणे ४ चंदस्स लेस्सं आवरित्ता णं पासेणं वीईवयइ तया णं मणुस्सलोए मणुस्सा वयंति-‘एवं खलु चंदेणं राहुस्स कुच्छी भिण्णा, एवं०' । जया णं राहू आगच्छमाणे वा ४ चंदस्स लेस्सं आवरित्ता णं पचोसक्का तया णं मणुस्सलोए मणुस्सा वयंति-'एवं खलु राहुणा चंदे वंते, एवं०' । जया णं राहू आगच्छमाणे वा जाव परियारेमाणे वा चंदलेस्सं अहे सपक्खि सपडिदिसिं आवरित्ता णं चिट्ठइ तया णं मणुस्सलोए मणुस्सा वयंति-‘एवं खलु राहुणा चंदे घत्थे, एवं०' । कठिन शब्दार्थ-सपक्खि-समान दिशा में। सपडिदिसि-समान विदिशा में । घत्थेग्रसित किया। भावार्थ-१-राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा-हे भगवन् ! बहुत-से मनुष्य इस प्रकार कहते हैं और परूपणा करते हैं कि 'राहु चन्द्रमा को ग्रसता है, तो हे भगवन् ! 'राहु चन्द्रमा को ग्रसता है' यह किस प्रकार हो सकता है ? १ उत्तर-हे गौतम ! बहुत-से मनुष्य परस्पर यों कहते हैं और परूपणा करते हैं कि 'राहु चन्द्रमा को ग्रसता है-यह मिथ्या है । हे गौतम ! में इस प्रकार कहता हूँ तथा परूपणा करता हूँ कि राहु महद्धिक यावत् महासौख्य For Personal & Private Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १२ उ. ६ चन्द्रमा को गहु ग्रसता है ? २०६३ वाला है । वह उत्तम वस्त्र, उत्तम माला, उत्तम सुगंध और उत्तम आभूषणों को धारण करने वाला देव है। उस राहु देव के नौ नाम कहे हैं । यथा-१ शृंगाटक २ जटिलक ३ क्षत्रक ४ खर ५ दर्दुर ६ मकर ७ मत्स्य ८ कच्छप और ९ कृष्णसर्प। राहु के विमान पांच वर्णों वाले कहे हैं। यथा-१ काला २ नीला ३ लाल ४ पीला और ५ श्वेत, इनमें से राहु का जो काला विमान है, वह खंजन (काजल) के समान वर्ण वाला है, जो नीला (हरा) विमान है, वह कच्चे तुम्बे के समान वर्ण वाला है, जो लाल विमान है, वह मजीठ के समान वर्ण वाला है, जो पीला विमान है, वह हल्दी के समान वर्ण वाला है और जो श्वेत विमान है, वह भस्मराशि (राख के ढेर) के समान वर्ण वाला है। जब आता-जाता हआ, विकुर्वणा करता हआ, तथा काम-क्रीड़ा करता हुआ राहु देव, पूर्व में रहे हुए चन्द्रमा के प्रकाश को. ढक कर पश्चिम की ओर जाता है, तब पूर्व में चन्द्र दिखाई देता है और पश्चिम में राह दिखाई देता है, जब पश्चिम में चन्द्रमा के प्रकाश को ढक कर पूर्व की ओर जाता है, तब पश्चिम में चन्द्रमा दिखाई देता है और पूर्व में राहु दिखाई देता है । जिस प्रकार पूर्व और पश्चिम के दो आलापक कहे हैं, उसी प्रकार दक्षिण और उत्तर के दो आलापक कहना चाहिये, इसी प्रकार उत्तर-पूर्व (ईशानकोण) और दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्यकोण) के दो आलापक कहना चाहिये और इसी प्रकार दक्षिण-पूर्व (अग्निकोण) और उत्तर-पश्चिम (वायव्यकोण) के दो आलापक कहना चाहिये। इसी प्रकार यावत् जब उत्तर-पश्चिम में चन्द्र दिखाई देता है और दक्षिण-पूर्व में राहु दिखाई देता है एवं जब गमनागमन करता हुआ, विकुर्वणा करता हुआ अथवा काम-क्रीड़ा करता हुआ राहु, चन्द्रमा के प्रकाश को आवृत करता है, तब मनुष्य कहते हैं कि 'चन्द्रमा को राहु ग्रसता है, इसी प्रकार जब राहु चन्द्रमा के प्रकाश को आवृत करता हुआ निकट से निकलता है, तब मनुष्य कहते हैं कि 'चन्द्रमा ने राहु की कुक्षि का भेदन कर दिया' । इसी प्रकार राहु जब चन्द्रमा के प्रकाश को ढकता हुआ पोछा लौटता है, तब मनुष्य कहते हैं कि 'राहु ने चन्द्रमा का वमन कर दिया । इसी प्रकार जब राहु चन्द्रमा For Personal & Private Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६४ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ६ नित्यराहु पर्वराहु के प्रकाश को नीचे से, चारों दिशाओं से और चारों विदिशाओं से ढक देता है, तव मनुष्य कहते हैं कि 'राहु ने चन्द्रमा को ग्रसित कर लिया है।' विवेचन-राहु और चन्द्रमा के विमान की अपेक्षा 'ग्रहण' कहलाता है । विमानों में ग्रासक और ग्रसनीय भाव नहीं समझना चाहिये, किन्तु आच्छादक और आच्छाद्य भाव है और इसो को 'ग्रास' होना कहा गया है । यह ग्रास (राहु के द्वारा चन्द्र का आच्छादन) वंम्रसिक (स्वाभाविक) है । नित्यराहु पर्वराहु २ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! राहू पण्णत्ते ? २ उत्तर-गोयमा ! दुविहे राहू पण्णत्ते, तं जहा-धुवराहू य पव्वराहू य । तत्थ णं जे से धुवराहू से गं बहुलपक्खस्स पाडिवए पण्णरसइभागेणं पण्णरसइभागं चंदस्स लेस्सं आवरेमाणे २ चिट्ठइ, तंजहा-पढमाए पढमं भागं, वितियाए वितियं भागं, जाव पण्णरसेसु पण्णरसमं भागं, चरिमसमये चंदे रत्ते भवइ, अवसेसे समये चंदे रत्ते य विरत्ते य भवइ, तमेव सुक्कपक्खस्स उवदंसेमाणे २ चिट्ठइ, पढमाए पढमं भागं जाव पण्णरसेसु पण्णरसमं भाग, चरिमसमये चंदे विरत्ते भवइ; अवसेसे समये चंदे रत्ते य विरत्ते य भवइ । तत्थ णं जे से पव्वराहू से जहण्णणं छण्हं मासाणं उक्कोसेणं बायालीसाए मासाणं चंदस्स, अडयालीसाए संवच्छराणं For Personal & Private Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ६ नित्यराहु पर्वराहु २०६५ " ३ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ-'चंदे ससी', 'चंदे ससी' ? ... ३ उत्तर-गोयमा ! चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो मियंके विमाणे कंता देवा कंताओ देवीओ कंताई आसण-सयण-खंभभंडमत्तोवगरणाई, अप्पणा वि य णं चंदे जोइसिंदे जोइसराया सोमे कंते सुभए पियदंसणे सुरूवे, से तेणटेणं जाव ससी। ____४ प्रश्न-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चड्-'सूरे आइच्चे,' 'सूरे आइच्चे' ? ४ उत्तर-गोयमा ! सूरादिया णं समया इ वा आवलिया इ वा जाव उस्सप्पिणी इ वा अवसप्पिणी इ वा, से तेणटेणं जाव आइच्चे। कठिन शब्दार्थ-मियंके-मृगाङ्क, आइच्चे-आदित्य । ... भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! राहु कितने प्रकार का कहा है ? ... २ उत्तर-हे गौतम ! राहु दो प्रकार का कहा है। यथा-ध्रुव-राहु (नित्य-राहु) और पर्व राहु । जो ध्रुव राहु है, वह कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से लेकर प्रतिदिन अपने पन्द्रहवें भाग से, चन्द्र-बिम्ब के पन्द्रहवें भाग को ढकता रहता है । यथा-प्रतिपदा को प्रथम भाग ढकता है, द्वितीया के दिन दूसरे भाग को ढकता है, इस प्रकार यावत् अमावस्या के दिन चन्द्रमा के पन्द्रहवें भाग को ढकता है । कृष्ण पक्ष के अन्तिम समय में चन्द्रमा रक्त (सर्वथा आच्छादित) हो जाता है और दूसरे समय में चन्द्र रक्त (अंश से आच्छादित) और विरक्त अंश से अनाच्छादित रहता है । शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से लेकर प्रतिदिन चन्द्र के प्रकाश का पन्द्रहवां भाग खुला होता जाता है। यथा-प्रतिपदा के दिन पहला भाग खुला होता है यावत् पूर्णिमा के दिन पन्द्रहवां भाग खुला हो जाता है। For Personal & Private Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६६ ___भगवती सूत्र-श. १२ उ. ६ नित्यराहु पर्वराहु शुक्लपक्ष के अन्तिम समय में चन्द्र विरक्त (सर्वथा अनाच्छादित) हो जाता है और शेष समय में चन्द्र रक्त और विरक्त रहता है । जो पर्वराह है वह जघन्य छह मास चन्द्र और सूर्य को ढकता है और उत्कृष्ट बयालीस मास में चन्द्रमा को और अड़तालीस वर्ष में सूर्य को ढकता है। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! चन्द्रमा को 'शशी' (सश्री) क्यों कहते हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! ज्योतिषियों का इन्द्र, एवं ज्योतिषियों का राजा चन्द्र के मगाङ्क (मग के चिन्ह वाला) विमान है। उसमें कान्त (सुन्दर) देव, कांत देवियां और कांत आसन, शयन, स्तंभ, पात्र आदि उपकरण है, तथा ज्योतिषियों का इंद्र, ज्योतिषियों का राजा चंद्र स्वयं भी सौम्य, कांत, सुभंग, प्रियदर्शन और सुरूप है, इसलिये चन्द्र को 'शशी' (सश्री-शोभा सहित) कहते हैं। ___ ४ प्रश्न-हे भगवन् ! सूर्य को 'आदित्य' (आदि-प्रथम-पहला) क्यों कहते हैं ? -४ उत्तर-हे गौतम ! समय, आवलिका यावत् उत्सर्पिणी और अवसपिणी आदि कालों का आदिभूत (कारण) सूर्य है, इसलिये इसे 'आदित्य' कहते विवेचन-राहु दो प्रकार का है- ध्रुवराहु और पर्वराहु । ध्रुवगहु चन्द्रमा के नीचे नित्य रहता है । चन्द्रमा के सोलह भाग (अंश-कला) हैं । कृष्णपक्ष में राहु प्रतिदिन चन्द्रमा के एक-एक भाग को आच्छादित करता जाता है । अमावस्या तक वह पन्द्रह भागों को आच्छादित कर देता है और शुक्लपक्ष में प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक प्रतिदिन एक-एक भाग को अनावृत (खुला) करता जाता है । पर्वराहु जघन्य छह मास में चन्द्रमा को आवृत करता है और उत्कृष्ट ४२ मास में आवृत करता है । सूर्य को जघन्य छह मास में और उत्कृष्ट ४८ वर्ष में आच्छादित करता है। यही चन्द्र ग्रहण और सूर्य-ग्रहण कहलाता है । चंद्र सम्बन्धी देव और देवी तथा स्वयं चन्द्र कान्त्यादि से युक्त होने के कारण 'शशी' कहलाता है। समय, आवलिका, दिन, रात आदि का विभाग सूर्य से ही ज्ञात होता है, अर्थात् समयादि का ज्ञान करने में सूर्य 'आदि' (प्रथम) कारण है । इसलिये इसे 'आदित्य' कहते हैं । For Personal & Private Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १२ उ. ६ चन्द्र सूर्य के भोग २०६७ चन्द्र सूर्य के भोग ५ प्रश्न-चंदस्म णं भंते ! जोइसिंदस्स जोइसरण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? ५ उत्तर-जहा दसमसए जाव णो चेव णं मेहुणवत्तियं । सूरस्स वि तहेव । ६ प्रश्न-चंदिम-सूरिया णं भंते ! जोइसिंदा जोइसरायाणो केरिसए कामभोगे पचणुभवमाणा विहरंति ? ६ उत्तर-गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे पढमजोव्वणुढाण बलत्थे पढमजोव्वणुटाणवलत्थाए भारियाए सदिध अचिरवत्तविवाहकजे, अत्थगवेसणयाए सोलसवासविप्पवासिए, से णं तओ लढे, कयकजे, अणहसमग्गे पुणरवि णियगगिहं हव्वमागए, पहाए कयवलि'कम्मे, कयकोउय-मंगलपायच्छित्ते, सव्वालंकारविभूसिए मणुण्णं थालिपागसुद्धं अट्ठारसवं जणाउलं भोयणं भुत्ते समाणे, तंति तारिस. गंसि वासघरंसि, वण्णओ महब्बले कुमारे, जाव सयणोवयारकलिए ताए तारिसियाए भारियाए. सिंगारागारचारवेसाए जाव कलियाए अणुरत्ताए अविरत्ताए मणाणुकूलाए सद्धि इटे सद्दे फरिसे जाव पंच. विहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणे विहरेजा, से णं गोयमा ! पुरिसे विउसमणकालसमयसि केरिसयं सायासोक्खं पञ्चणुभ For Personal & Private Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६८ भगवती मूत्र-ग. १२ उ ६ चन्द्र सूर्य के भोग वमाणे विहरइ ? ओरालं समणाउसो ! तस्स णं गोयमा ! पुरिसस्स कामभोगेहिंतो वाणमंतराणं देवाणं एत्तो अणंतगुणविसिट्ठतरा चेव कामभोगा; वाणमंतराणं देवाणं कामभोगेहितो असुरिंद वज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं एत्तो अणंतगुणविसिद्धतरा चेव कामभोगा; असुरिंदवजियाणं भवणवासियाणं देवाणं कामभोगेहितो असुरकुमाराणं देवाणं एत्तो अणंतगुणविमिट्टतरा चेव कामभोगा; असुरकुमाराणं देवाणं कामभोगेहिंतो गहगण-णक्णत्त तारा-रूवाणं जोइसियाणं देवाणं एत्तो अणंतगुणविसिट्टतरा चेव कामभोगा; गहगण णक्खत्त-जाव कामभोगेहिंतो चंदिम-सूरियाणं जोइसियाणं जोइसराईणं एत्तो अणंतगुणविसिट्टतरा चेव कामभोगा; चंदिमसूरिया णं गोयमा ! जोइसिंदा जोइसरायाणो एरिसे कामभोगे पच्चणुव्भवमाणा विहरति । . * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे ममणं भगवं महा. वीरं जाव विहरइ * ॥ छट्ठओ उद्देसओ समत्तो ॥ • कठिन शब्दार्थ-पच्चणुम्भवमाणा-अनुभव करते हुए। भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्योतिषियों के इन्द्र, ज्योतिषियों के राजा चन्द्रमा के कितनी अग्रमहिषियां हैं ? . ५ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार दशवें शतक के दशवें उद्देशक में कहा है, उस प्रकार जानना चाहिये, यावत् "अपनी राजधानी में सिंहासन पर मैथुन For Personal & Private Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मुग-ग. १२ उ. : वाद्र पूर्व के भोग २०६९ निमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं है"-तक कहना चाहिये । सूर्य के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार कहना चाहिये। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्योतिषियों के इन्द्र, ज्योतिषियों के राजा चन्द्र और सूर्य किस प्रकार के काम-भोग भोगते हुए विवरते हैं ? ६ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार प्रथम युवा अवस्था के प्रारम्भ में किती बलवान् पुरुष ने युवावस्था में प्रविष्ट होती हुई किसी बलशाली कन्या के साथ नया ही विवाह किया और इसके बाद ही वह पुरुष अर्थोपार्जन करने के लिये परदेश चला गया और सोलह वर्ष तक विदेश में रहकर धनोपार्जन करता रहा, फिर सभी कार्यों को समाप्त करके वह निविघ्न रूप से लौटकर अपने घर आया। फिर स्नानादि तथा विघ्न निवारणार्थ कौतुक और मंगल रूप प्रायश्चित करे, फिर सभी अलंकारों से अलंकृत होकर, मनोज्ञ स्थालीपाक विशुद्ध अठारह प्रकार के व्यञ्जनों से युक्त भोजन करे, तत्पश्चात् महाबल के उद्देशक में वणित वासगृह के समान शयनगृह में, शृंगार की गृहरूप सुन्दर वेषवाली यावत् ललित कलायुक्त, अनुरक्त, अत्यन्त रागयुक्त और मनोऽनुकूल स्त्री के साथ वह इष्ट शब्द-स्पर्शादि पांच प्रकार के . मनुष्य सम्बन्धी काम-भोग सेवन करता है। वेदोपशमन (विकार शान्ति) के समय में " हे गौतम ! वह पुरुष किस प्रकार के सुख का अनुभव करता है ?" (गौतम स्वामी कहते हैं कि) "हे भगवन् ! वह पुरुष उदार सुख का अनुभव करता है" (भगवान् फरमाते हैं कि) "हे गौतम! उस पुरुष के काम-भोगों की अपेक्षा वाणव्यन्तर देवों के काम-भोग अनन्त गुण विशिष्ट होते हैं । वाणव्यन्तर देवों के काम-भोगों से असुरेन्द्र के सिवाय शेष भवनवासी देवों के काम-भोग अनन्तगुण विशिष्ट होते हैं। शेष भवनवासी देवों के काम-भोगों से असुरकुमार देवों के काम-भोग अनन्तगुण विशिष्ट होते हैं । असुरकुमार देवों के काम-भोगों से ज्योतिषी देवरूप ग्रहगण, नक्षत्र और तारा देवों के काम-भोग अनन्त गुण विशिष्ट होते हैं । ज्योतिषी देव रूप ग्रहग ग, नक्षत्र और तारा के देवों के कामभोग से ज्योतिषियों के इन्द्र, ज्योतिषियों के राजा चन्द्र और सूर्य For Personal & Private Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७० भगवती सूत्र-श. १२ उ. ७ बकरियों के बाड़े का दृपयांत के काम-भोग अनंतगुण विशिष्ट होते हैं। हे गौतम ! ज्योतिषियों के इन्द्र ज्योतिषियों के राजा चन्द्र और सूर्य इस प्रकार के काम भोगों का अनुभव करते हुए विचरते हैं। ___ "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है"ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-भगवती शतक दस उद्देशक दस में चन्द्र और सूर्य की अग्रमहिषियां, परिवार आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। यहाँ काम-भोगों के सुख को जो 'उदार मुग्व' कहा गया है, वह सांसारिक सामान्य जन की अपेक्षा से कहा गया है । वास्तव में तो काम-भोग सम्बन्धी सुख सुख नहीं है, किन्तु सुखाभास है और दुःख रूप है । संसारी लोगों ने दुःख रूप काम-भोगों को भी सुग्वरूप मान लिया है । यह केवल उनकी विडम्बना मात्र है। ॥ बारहवें शतक का छठा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १२ उद्देशक ७ बकरियों के बाड़े का दृष्टांत १ प्रश्न-तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी-केमहालए णं भंते ! लोए पण्णत्ते ? ____१ उत्तर-गोयमा ! महतिमहालए लोए पण्णत्ते, पुरत्थिमेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ, दाहिणेणं असंखिज्जाओ एवं चेव, एवं पञ्चत्थिमेण वि, एवं उत्तरेण वि, एवं उड्ढे पि, अहे For Personal & Private Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १२ उ. ७ बकरियों के बाड़े का दृष्टांत असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ आयाम विक्खंभेणं । २ प्रश्न - एयंसि णं भंते! एमहालयंमि लोगंसि अस्थि के परमाणुपोग्गलमेत्ते वि एमे, जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, ण मए वा वि ? २ उत्तर - गोयमा ! णो इट्टे समट्टे | प्रश्न - से केणणं भंते! एवं बुचड़, - एयंसि णं एमहाल्यंसि लोगंसि णत्थि के परमाणुपोग्गलमेत्ते वि परसे, जत्थ णं अयं जीवे जाए वा, ण मए वा वि' ? उत्तर - गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे अयासयस्स एगं महं अयावयं करेजा से णं तत्थ जहण्णेणं एक्कं वा दो वा तिष्णि वा उक्को सेणं अयासहस्सं पक्खिवेज्जा, ताओ णं तत्थ परगोयराओ पउरपाणियाओ जहणेणं एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्कोसेणं छम्मासे परिवसेज्जा, अस्थि णं गोयमा ! तस्स अयावयस्स केई परमाणुपोग्गलमेत्ते वि परसे, जेणं तासिं अयाणं उच्चारेण वा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणपण वा वंतेण वा पित्तेण वा पूरण वा सुक्केण वा सोणिएण वा चम्मेहिं वा रोमे हिं वासिंगेहिं वा खुरेहिं वा णहेहिं वा अणक्कंतपुव्वे भवइ ? णो इण्डे समट्ठे होना विणं गोयमा ! तस्स अयावयस्स केई परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पसे, जे णं तासिं अयाणं उच्चारेण वा जाव • For Personal & Private Use Only २०७१ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७२ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ७ बुकरियों के बाड़े का दृष्टांत णहेहिं वा अणक्कंतपुव्वे, णो चेव णं एयंसि एमहालयंसि लोगंसि लोगस्स य सासयं भावं, संसारस्स य अणाइभावं, जीवस्स य णिचभावं, कम्मबहुत्तं, जम्मण-मरणवाहुल्लं च पडुच्च गस्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे, जत्थ णं अयं जीवे ण जाए वा ण मए वा वि, से तेणट्रेणं तं चेव जाव ण मए वा वि। . कठिन शब्दार्थ--अयावयं--अजाव ज-बकरियों का बाड़ा । भावार्थ-१ प्रश्न-उस काल उस समय में गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा-"हे भगवन् ! लोक कितना बड़ा है ?" १ उत्तर-हे गौतम ! लोक बहुत बड़ा है। वह पूर्व दिशा में असंख्य कोटा-कोटि योजन है, इसी प्रकार दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में भी असंख्य कोटा-कोटि योजन है और इसी प्रकार ऊर्ध्वदिशा और अधोदिशा में ' भी असंख्य कोटा-कोटि योजन आयामविष्कम्भ (लम्बाई चौड़ाई) वाला है। २ प्रश्न-हे भगवन् ! इतने बड़े लोक में क्या कोई परमाणु-पुद्गल जितना .. भी आकाश-प्रदेश ऐसा है जहाँ पर इस जीव ने जन्म-मरण नहीं किया है ? २ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। प्रश्न-हे भगवन इसका क्या कारण है ? उत्तर-हे गौतम ! जैसे कोई पुरुष सौ बकरियों के लिये एक विशाल अजावज वनवाये उसमें कम से कम एक, दो, तीन और अधिक से अधिक एक हजार बकरियों को रखे और उसमें उनके लिये घास पानी डाल दे। यदि वे बकरियां वहां कम से कम एक, दो, तीन दिन और अधिक से अधिक छह महीने तक रहें। भगवान् पूछते हैं-"हे गौतम ! उस बाड़े का कोई परमाणु पुद्गल मात्र प्रवेश ऐसा रह सकता है कि जो बकरियों की मल, मूत्र, श्लेष्म, नाम का मैल, वमन, पित्त, शुक्र, रुधिर, चर्म, रोम, सींग, खुर और नख से स्पर्श न किया गया हो ?' For Personal & Private Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १२ उ. ७ जीवों का अनन्त जन्म-मरण २०७३ गौतम स्वामी उत्तर देते हैं-" हे भगवन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।" भगवन कहते हैं कि-"हे गौतम ! कदाचित् उस बाड़े में कोई एक परमाणु-पुद्गल मात्र प्रदेश ऐसा रह भी सकता है कि जो बकरियों के मल यावत् नखों से स्पृष्ट न हुआ हो, तथापि इतने बड़े लोक में, लोक के शाश्वत भाव के कारण, संसार के अनादि होने के कारण, जीव की नित्यता के कारण, कर्म की बहुलता के कारण और जन्म-मरण की बहुलता के कारण कोई भी परमाणु-पुद्गल मात्र प्रदेश ऐसा नहीं है कि जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण नहीं किया हो। इस कारण हे गौतम ! उपर्युक्त बात कही गई है।" , विवेचन-मसार का ऐसा कोई भी परमाणु-पुद्गल मात्र प्रदेश गेष नहीं, जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण नहीं किया हो । इस बात की पुष्टि के लिये पांच कारण दिये गये हैं। विनाशी के लिये यह बात नहीं हो सकती, अत: कहा गया है कि 'लोक शाश्वत है। लोक के शाश्वत होने पर भी यदि वह सादि (आदि सहित) हो, तो उपर्युक्त बात घटित नहीं हो सकती, इसलिये कहा गया है कि 'लोक अनादि है ।' अनेक जीवों की अपेक्षा संसार यदि अनादि हो और विवक्षित जीव अनित्य हो, तो उपर्युक्त अर्थ घटित नहीं हो सकता, इसलिये कहा गया है कि 'जीव नित्य है।' जीव के नित्य होने पर भी यदि कर्म अल्प हो, तो तथाविध संसार परिभ्रमण नहीं हो सकता और उस दशा में उपर्युक्त अर्थ घटित नहीं हो सकता, इसलिये कर्मों की बहुलता बतलाई गई है। कर्मों की बहुलता होने पर भी यदि जन्म-मरण की अल्पता हो, तो उपर्यक्त अर्थ घटित नहीं हो सकता, अत: जन्मादि की बहलता बतलाई गई है । इन पांच कारणों से इतने बड़े लोक में ऐसा कोई एक भी आकाश प्रदेश नहीं, जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण नहीं किया हो । जीवों का अनन्त जन्म-मरण ३ प्रश्न-कइ णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? ३ उत्तर-गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, जहा पढमसए For Personal & Private Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७४ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ७ जीवों का अनन्त जन्म-मरण पंचमउद्देसए तहेव आवासा ठावेयव्वा जाव अणुत्तरविमाणेत्ति, जाव अपराजिए सबट्ठसिद्धे । ४ प्रश्न-अयं णं भंते ! जीवे इमीले रयणप्पभाए शुढवीए तीमाए णिरयावाससयमहस्सेसु एगमेगंसि णिरयावासंसि पुढवि. काइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए णरगत्ताए णेरइयत्ताए उव. वण्णपुवे ? ४ उत्तर-हंता गोयमा ! अमइं अदुवा अणंतग्युत्तो। ५ प्रश्न-सब्बजीवा वि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरया० ? . ५ उत्तर-तं चेव जाव अणंतवुत्तो। ६ प्रश्न-अयं णं भंते ! जीवे सकरप्पभाए पुढवीए पणवीसा० ? ६ उत्तर-एवं जहा रयणप्पभाए तहेव दो आलावगा भाणि. यव्वा, एवं जाव घूमप्पभाए । ७ प्रश्न-अयं णं भंते ! जीवे तमाए पुढवीए पंचूणे णिरया. वाससयसहस्से एगमेगंसि० ? .. ७ उत्तर-मेसं तं चेव । ८ प्रश्न-अयं णं भंते ! जीवे अहेसत्तमाए पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहालएसु महाणिरएसु एगमेगंसि णिरयावासंसि० ? ८ उत्तर-सेसं जहा रयणप्पभाए । For Personal & Private Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ग. १२ उ. ७ जीवों का अनन्त जन्म-मरण ९ प्रश्न- अयं र्ण भंते! जीवे चउसट्टीए असुरकुमारावासस्यसहस्से एगमेगंस असुरकुमारावासंसि पुढविनकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए देवत्ताए देवित्ताए आसण-सयण-भंडमत्तोवगरणता ववण्णवे ? ९ उत्तर - हंता गोयमा ! जाव अनंतखुत्तो। सव्वजीवा वि णं भंते ! एवं चेव, एवं जाव थणियकुमारेसु । णाणत्तं आवासेसु, आवासा पुव्वभणिया । कठिन शब्दार्थ - असई - अमकृत अनेक वार, अनंतक्खुत्तो - अनन्त बार । भावार्थ - ३ प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वियाँ कितनी कही है ? २०७५ ३ उत्तर - हे गौतम! पृथ्वियाँ सात कही हैं । यहाँ प्रथम शतक के पांचवें उद्देशक में कहे अनुसार नरकादि के आवास कहने चाहिये। इसी प्रकार यावत् अनुत्तरविमान यावत् अपराजित और सर्वार्थसिद्ध तक कहना चाहिये । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! यह जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में, पृथ्वीकायिकपने यावत् वनस्पतिकायिकपने, नरकपने (नरकावास पृथ्वीकायिकरूप) और नैरयिकपने, पहले उत्पन्न हुआ है ? ४ उत्तर - हाँ, गौतम ! अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चुका है। ५ प्रश्न - हे भगवन् ! सभी जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में पृथ्वीकायिकपने यावत् वनस्पतिकायिकपने, नरकपने और नैरयिकपने, पहले उत्पन्न हो चुके हैं ? ५ उत्तर - हाँ, गौतम ! अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं। ६ प्रश्न - हे भगवन् ! यह जीव, शर्कराप्रभा के पच्चीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में, पृथ्वीकायिकपने यावत् वनस्पतिकायिकपने यावत For Personal & Private Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७६ भगवती मूत्र- ग. १२ उ. ७ जीवों का अनंत जन्म-मरण पहले उत्पन्न हो चुका है ? ६ उत्तर-हां, गौतम ! जिस प्रकार रत्नप्रभा के दो आलापक कहे हैं, उसी प्रकार शर्कराप्रभा के भी दो आलापक (एक जीव और सभी जीव के) कहने चाहिये । इसी प्रकार यावत् धून प्रभा तक कहना चाहिये । ७ प्रश्न-हे भगवन् ! यह जीव, तमःप्रभा पृथ्वी के पांच कम एक लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में पूर्ववत् उत्पन्न हो चुका है ? ७ उत्तर-हाँ, गौतम ! पूर्ववत् उत्पन्न हो चुका है। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! यह जीव, अधःसप्तम पृथ्वी के पांच अनुत्तर और अति विशाल नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में पूर्ववत् उत्पन्न हो चुका है ? ८ उत्तर-हाँ, गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी के समान हो चुका है। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! यह जीव, असुरकुमारों के चौसठ लाख असुरकुमारावासों में से प्रत्येक असुरकुमारावास में, पृथ्वोकायिकपने यावत् वनस्पतिकायिकपने, देवपने, देवीपने, आसन, शयन, पात्रादि उपकरण के रूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ? ९ उत्तर-हां, गौतम ! अनेक बार या अनन्तबार उत्पन्न हो चुका है। सभी जीवों के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिये । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक जानना चाहिये। किन्तु उनके आवासों की संख्या में भेद है । वह संख्या पहले बताई गई है। १० प्रश्न-अयं णं भंते ! जीवे असंखेज्जेसु पुढविक्काइया. वाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए उववण्णपुव्वे ? ___ १० उत्तर-हंता गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो। एवं सम्वजीवा वि, एवं जाव वणस्सइकाइएसु । For Personal & Private Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगरती मूत्र-श. १२ उ.७ जीवों का अनंत जन्म-मरण २०४७ ११ प्रश्न-अयं णं भंते ! जीवे असंखेज्जेसु बेंदियावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि वेदियावासंसि पुढविक्काइयत्ताए जाव वणस्सइ. काइयत्ताए वेइंदियत्ताए उववण्णपुव्वे ? ११ उत्तर-हंता गोयमा ! जाव खुनो । सव्वजीवा वि णं एवं चेव, एवं जाव मणुस्सेसु, णवरं तेंदियएसु जाव वणस्सइकाइयत्ताए तेंदियत्ताए, चउरिदिएसु चरिंदियत्ताए, पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु पंचिंदियतिरिक्खजोणियत्ताए, मणुस्सेसु मणुस्सत्ताए, सेसं जहा बेंदियाणं, वाणमंतर-जोइसिय-सोहम्मीसाणेसु य जहा असुरकुमाराणं । __१२ प्रश्न-अयं णं भंते ! जीवे सणंकुमारे कप्पे वारससु विमाणावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि वेमाणियावासंसि पुढविकाइय. त्तार? ...१२ उत्तर-सेसं जहा असुरकुमाराणं जाव अणंतखुत्तो, णो चेव णं देवित्ताए, एवं सब्वजीवा वि; एवं जाव आणय-पाणएसु, एवं आरण-च्चुएसु वि। ___ १३ प्रश्न-अयं णं भंते ! जीवे तिसु वि अट्ठारसुत्तरेसु गेविजविमाणावाससयेसु०? १३ उत्तर-एवं चेव । १४ प्रश्न-अयं णं भंते ! जीवे पंचमु अणुत्तरविमाणेसु एग. For Personal & Private Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७८ भगवती सूत्र-ग. १२ उ. 3 जीवों का अनंत जन्म-मरण मेगंसि अणुत्तरविमाणंसि पुढवि० ? __१४ उत्तर-तहेव जाव अणंतखुत्तो, णो चेव णं देवत्ताए वा देवित्ताए वा, एवं सव्वजीवा वि । भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! यह जीव असंख्यात लाख पृथ्वीकायिक आवासों में से प्रत्येक पृथ्वीकायिकावास में पृथ्वीकायिकपने यावत् वनस्पतिकायिक रूप में उत्पन्न हो चुका है ? १० उत्तर-हाँ, गौतम ! अनेक बार या अनंत बार उत्पन्न हो चुका है। इसी प्रकार सभी जीवों के लिये भी कहना चाहिये । इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिकों में भी कहना चाहिये। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! यह जीव असंख्यात लाख बेइन्द्रियावासों में से प्रत्येक बेइन्द्रियावास में पृथ्वीकायिकपने यावत् वनस्पतिकायिकपने और बेइन्द्रिय के रूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ? ११ उत्तर-हाँ, गौतम ! अनेक बार या अनंत बार उत्पन्न हो चुका है। इसी प्रकार सभी जीवों के विषय में भी कहना चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि तेइन्द्रियों में यावत् वनस्पतिकायिकपने और तेइन्द्रियपने, चौइन्द्रियों में यावत् चौइन्द्रियपने, पञ्वेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिकों में यावत् पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकपने और मनुष्यों में यावत् मनुष्यपने उत्पत्ति जाननी चाहिये । शेष सभी बेइन्द्रियों के समान कहना चाहिये। जिस प्रकार असुरकुमारों के विषय में कहा है, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिषी, सौधर्म और ईशान देवलोक तक कहना चाहिये। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! यह जीव सनत्कुमार देवलोक के बारह लाख विमानावासों में से प्रत्येक विमानावास में पृथ्वीकायिकपने यावत् पहले उत्पन्न हो चुका है ? १२ उत्तर-हाँ, गौतम ! सब कथन असुरकुमारों के समान जानना For Personal & Private Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १२ उ ७ जीवों का अनंत जन्म-मरण चाहिये । किन्तु वहाँ देवीपने उत्पन्न नहीं हुआ । इसी प्रकार सभी जीवों के विषय में जानना चाहिए । इसी प्रकार यावत् आनत, प्राणत, आरण और अच्युत तक जानना चाहिये । २०७९ १३ प्रश्न - हे भगवन् ! यह जीव तीन सौ अठारह ग्रैवेयक विमानावासों में से प्रत्येक विमानावास में पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् उत्पन्न हो चुका है ? १३ उत्तर - हाँ, गौतम ! पूर्ववत् उत्पन्न हो चुका है । १४ प्रश्न - हे भगवन् ! यह जीव पांच अनुत्तर विमानों में से प्रत्येक विमान में पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् पहले उत्पन्न हो चुका है ? १४ उत्तर - हाँ, गौतम ! अनेक बार या अनन्त बार उत्पन्न हो चुका है, किन्तु वहाँ देव और देवी रूप से उत्पन्न नहीं हुआ । इसी प्रकार सभी जीवों के विषय में जानना चाहिये । विवेचन - पृथ्वी कायिका वास असंख्यात हैं । किन्तु उनकी बहुलता बतलाने के लिये 'सयसम्म ( शतसहस्र - लाख ) ' शब्द का प्रयोग किया है । पहले और दूसरे देवलोक तक ही देवियां उत्पन्न होती हैं, इसलिये उससे आगे के देवलोकों में देवीपने उत्पन्न होने का निषेध किया है । अनुत्तर विमानों में तो कोई भी जीव, देव रूप मे अनन्त बार उत्पन्न नहीं हो सकता । और देवियों की उत्पत्ति तो वहाँ है ही नहीं । इसलिये अनुत्तर विमानों में देवपने और देवीपने अनन्तवार उत्पन्न होने का निषेध किया गया है। १५ प्रश्न - अयं णं भंते! जीवे सव्वजीवाणं माइत्ताए, पिड़त्ताए, भाइत्ताए, भगिणित्ताए, भज्जत्ताए, पुत्तत्ताए, घूयत्ताए, सुन्हताए उववण्णपुब्वे ? १५ उत्तर - हंता गोमा ! असई, अदुवा - अनंतखुत्तो । For Personal & Private Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८० भगवतीमत्र-दा. १२.७जीवो का अनंत जन्म-मरण १६ प्रश्न-सव्वजीवा वि णं भंते ! इमस्स जीवम्म माइत्ताए जाव उववण्णपुव्वा ? १६ उत्तर-हंता गोयमा ! जाव अणंतवुत्तो। १७ प्रश्न-अयं णं भंते ! जीवे सव्वजीवाणं अरित्ताए, वेरियत्ताए, घातगत्ताए, वहगत्ताए, पडिणीयत्ताए, पच्चामित्तत्ताए उववण्णपुव्वे ? १७ उत्तर-हंता गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो। १८ प्रश्न-सव्वजीवा वि णं भंते ! १८ उत्तर-एवं चेव । १९ प्रश्न-अयं णं भंते ! जीवे सव्वजीवाणं रायत्ताए, जुवरायत्ताए जाव सत्थवाहत्ताए उववण्णपुब्वे ? १९ उत्तर-हंता गोयमा ! असई, जाव अणंतखुत्तो । सव्व. जीवाणं एवं चेव । २० प्रश्न-अयं णं भंते ! जीवे सव्वजीवाणं दासत्ताए, पेस. त्ताए, भयगत्ताए, भाइल्लगत्ताए, भोगपुरिसत्ताए, सीसत्ताए, वेसत्ताए उववण्णपुब्बे ? २० उत्तर-हंता गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो । एवं सब्वजीवा वि अणंतखुत्तो। * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ * ॥ सत्तमो उद्देसओ समत्तो ॥ For Personal & Private Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १२ उ. ७ जीवों का अनंत जना मरण २०८१ कठिन शब्दार्थ-सुण्हत्ताए-स्नुपा-पुत्र-वधू रूप मे, भाइल्लगत्ताए-भागीदार रूप मे। ___ भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! यह जीव, सभी जीवों के मातापने, पिता, भाई, बहन, स्त्री, पुत्र और पुत्रवधू के सम्बन्ध से पहले उत्पन्न हो चुका है ? १५ उत्तर-हाँ, गौतम ! अनेक बार या अनंत बार उत्पन्न हो चुका है। १६ प्रश्न-हे भगवन् ! सभी जीव, इस जीव के मातापने यावत पुत्रवधूपने उत्पन्न हो चुके हैं ? | १६ उत्तर-हां, गौतम ! अनेक बार या अनंत बार उत्पन्न हो चुके हैं। १७ प्रश्न-हे भगवन् ! यह जीव, सभी जीवों के शत्रुपने, वैरी, घातक, वधक, प्रत्यनीक और शत्रुसहायक होकर उत्पन्न हो चुका है। १७ उत्तर-हाँ, गौतम ! अनेक बार या अनंत बोर उत्पन्न हो चुका है। १८ प्रश्न-हे भगवन् ! सभी जीव, इस जीव के शत्रुपने यावत् शत्रुसहायकपने पहले उत्पन्न हो चुके हैं ? १८ उत्तर-हाँ, गौतम ! अनेक बार या अनंत वार उत्पन्न हो चुके हैं। १९ प्रश्न-हे भगवन् ! यह जीव, सभी जीवों के राजापने, युवराज यावत् सार्थवाहपने पहले उत्पन्न हो चुका है ? १९ उत्तर-हाँ, गौतम ! अनेक बार या अनंत बार उत्पन्न हो चुका है। इसी प्रकार सभी जीवों के विषय में भी जानना चाहिये। २० प्रश्न-हे भगवन् ! यह जीव, सभी जीवों के दासपने, प्रेष्यपने (नौकर होकर) भूतक, भागीदार, भोगपुरुष (दूसरों के उपाजित धन का भोग करने वाला) शिष्य और द्वेष्य (द्वेषी-ईर्षाल) के रूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ? . २० उत्तर-हां, गौतम ! अनेक बार या अनंत बार उत्पन्न हो चुका है। इस प्रकार सभी जीव भी इस जीव के प्रति पूर्वोक्त रूप से उत्पन्न हो चुके हैं। "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है"ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ वारहवें शतक का सातवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२ उद्देशक ८ देव का नाग आदि में उपपात १ प्रश्न-तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी-देवे णं भंते ! महिड्ढीए जाव महेसक्खे अणंतरं चयं चइत्ता विसरीरेसु णागेसु उववज्जेज्जा ! १ उत्तर-हंता गोयमा ! उववज्जेज्जा। २ प्रश्न-से णं तत्थ अचिय-वंदिय-पूइय-सक्कारिय-सम्माणिए दिव्ये सच्चे सच्चोबाए सण्णिहियपाडिहेरे यावि भवेजा ? __२ उत्तर-हंता, भवेज्जा। ३ प्रश्न-से णं भंते ! तओहिंतो अणंतरं उब्वट्टिता सिझेज्जा बुज्झेज्जा जाव अंतं करेज्जा ? ३ उत्तर-हंता सिज्झेज्जा, जाव अंतं करेज्जा। ४ प्रश्न-देवे णं भंते ! महिड्ढीए एवं चेव जाव विसरीरेसु मणीसु उववज्जेजा ? ४ उत्तर-एवं चेव जहा णागाणं । ५ प्रश्न-देवे णं भंते ! महिड्ढीए जाव बिसरीरेसु रुखेसु उव. वज्जेज्जा ? ५ उत्तर-हंता, उववज्जेज्जा एवं चेव, णवरं इमं णाणत्तं जाव For Personal & Private Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १० उ. ८ देव का नागादि में उपपात २०८३ सण्णिहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहिए यावि भवेज्जा ? हंता भवेजा, सेसं तं चेव जाव अंतं करेजा। ६ प्रश्न-अह भंते ! गोलंगूलवसभे, कुक्कुडवसभे, मंडुकवसभेएए णं णिस्सीला णिव्वया णिग्गुणा णिम्मेरा णिप्पञ्चक्खाणपोसहोववामा कालमामे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोमेणं सागरोवमटिड़यंसि णरयंसि गेरइयत्ताए उववज्जेजा ? ६ उत्तर-समणे भगवं महावीरे वागरेइ-'उववजमाणे उववण्णे त्ति वत्तव्वं सिया । ७ प्रश्न-अह भंते ! सीहे वग्घे जहा उस्स(ओस)प्पिणीउद्देसए जाव परस्मरे-एए णं णिस्सीला० ? ७ उत्तर-एवं चेव जाव वत्तव्वं सिया । ८ प्रश्न-अह भंते ! ढंके कंक विलए मग्गुए सिखी-एए णं णिस्सीला०? ८ उत्तर-सेसं तं चैव जाव वत्तव्वं सिया । ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ ॐ ॥ अट्ठमो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-गोलंगूलवसभे--गोलांगुल वृषभ-बड़ा बन्दर । ढंके--कौआ । कंके-गिद्ध । विलए--विलक-एक पक्षी । सिखी-शिखी-मोर।। भावार्थ-१ प्रश्न-उस काल उस समय में गौतम स्वामी ने यावत् इस For Personal & Private Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.८४ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ८ जीव का नागादि में उपपात प्रकार पूछा-हे भगवन् ! महाऋद्धिवाला, यावत् महासुखवाला देव चवकर (मरकर) तुरन्त ही केवल दो शरीर धारण करने वाले नागों में (सर्प अथवा हाथी में) उत्पन्न होता है ? १ उत्तर-हां गौतम ! उत्पन्न होता है। २ प्रश्न-हे भगवन् ! वह वहां नाग के भव में अचित, वन्दित, पूजित, सत्कारित, सम्मानित, दिव्य, प्रधान, सत्य, सत्यावपातरूप एवं तन्निहित प्रातिहारिक होता है ? २ उत्तर-हां, गौतम ! होता है । ३ प्रश्न-हे भगवन् ! वहां से चवकर अन्तर रहित वह मनुष्य होकर सिद्ध, बुद्ध होता है, यावत् संसार का अन्त करता है ? ३ उत्तर-हां, गौतम ! वह सिद्ध बुद्ध होता है, यावत् संसार का अन्त . करता है। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुख वाला देव, दो शरीर ' वाली मणियों में उत्पन्न होता है ? ४ उत्तर-हां, गौतम ! नागों की तरह पूरा वर्णन करना चाहिये । . ५ प्रश्न-हे भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुख वाला देव दो शरीर धारण करने वाले वृक्षों में उत्पन्न होता है ? ५ उत्तर-हां, गौतम ! होता है, पूर्ववत् । परन्तु इतनी विशेषता है कि जिस वृक्ष में वह उत्पन्न होता है, वह वृक्ष सन्निहित प्रातिहारिक होता है, तथा उस वृक्ष की पीठिका (चबुतरा आदि) गोबरादि से लीपी हुई और खड़िया मिट्टी आदि द्वारा पोती हुई होती है। शेष पूर्ववत्, यावत् वह संसार का अन्त करता है। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! वानवृषभ (बड़ा बन्दर) कुक्कुट-वृषभ (बड़ा कूकड़ा) मंडूक-वृषभ (बड़ा मेंढक) ये सभी शील रहित, व्रत रहित, गुण रहित, मर्यादा रहित, प्रत्याख्यान पौषधोपवास रहित, काल के समय काल करके इस For Personal & Private Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १२ उ. ८ जीव का नागादि में उपपात २०८५ रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट सागरोपम की स्थिति वाले नरकावास में नरयिक रूप से उत्पन्न होते हैं ६ उत्तर-श्रमण भगवान महावीर स्वामी कहते हैं कि-हां, गौतम ! नैरयिक रूप से उत्पन्न होता है, क्योंकि 'उत्पन्न होता हुआ, उत्पन्न हुआ कहलाता है।' ७ प्रश्न-हे भगवन् ! सिंह, व्याघ्र आदि सातवें शतक के छठे अवसर्पिणी उद्देशक में कथित जीव यावत् पाराशर-ये सभी शील रहित इत्यादि पूर्वोक्त रूप से उत्पन्न होते हैं ? ७ उत्तर-हाँ, गौतम ! होते हैं। ८ प्रश्त-हे भगवन् ! कौआ, गिद्ध, बिलक, मद्गुक और मोर-ये सभी शील रहित इत्यादि पूर्वोक्त रूप से उत्पन्न होते हैं ? ८ उत्तर-हां, गौतम ! उत्पन्न होते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-जो जीव देव भव से चवकर वृक्ष में उत्पन्न होता है, तो उसका पूर्व-संगतिक देव उस वृक्ष की रक्षा करता है और वह उसके समीप रहता है । अतएव वह वृक्ष देवाधिष्ठित कहलाता है। ऐसा देवाधिष्ठित विशिष्ट वृक्ष बद्धपीठ होता है । लोग उस पीठ (चबूतरा) को गोबरादि से लोप कर तथा वड़िया-मिट्टी आदि से पोतकर स्वच्छ रखते हैं। जो जीव नागादि के शरीर को छोड़कर मनुष्य शरीर को धारण करके मोक्ष को प्राप्त करते हैं । वे दो शरीर को धारण करने वाले नागादि कहलाते हैं। जिस समय वानरादि हैं, उस समय वे नारकरूप नहीं हैं । फिर नारकरूप से कैसे उत्पन्न हुए ? इस प्रश्न के उत्तर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी कहते हैं कि 'उत्पन्न होता हुआ भी उत्पन्न हुआ कहलाता है । इसलिये जो वानरादि नारकरूप से उत्पन्न होने वाले हैं, वे ' उत्पन्न हुए' कहलाते हैं । ॥ बारहवें शतक का आठवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२ उद्देशक भव्यद्रव्यादि पांच प्रकार के देव १ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! देवा पण्णता ? १ उत्तर-गोयमा ! पंचविहा देवा पण्णत्ता, तं जहा-१ भवियदव्वदेवा २ णरदेवा ३ धम्मदेवा ४ देवाहिदेवा ५ भावदेवा । २ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-'भवियदव्वदेवा भवियदबदेवा'? २ उत्तर-गोयमा ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए वा. मणुस्से वा देवेसु उववजित्तए, मे तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'भवियदव्वदेवा भवियदव्वदेवा।। ३ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-गरदेवा गरदेवा'? ३ उत्तर-गोयमा ! जे इमे रायाणो चाउरतचकवट्टी उप्पण्णसमत्तचक्करयणप्पहाणा णवणिहिपइणो समिद्धकोसा बत्तीसं रायवरसहस्साणुयायमग्गा सागरवरमेहलाहिवइणो मणुस्सिंदा, से तेणटेणं जाव ‘णरदेवा गरदेवा'। ४ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'धम्मदेवा धम्मदेवा' ? ४ उत्तर-गोयमा ! जे इमे अणगारा भगवंतो ईरियासमिया जाव गुत्तवंभयारी, से तेणटेणं जाव 'धम्मदेवा धरमदेवा' । ५ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ-'देवाहिदेवा देवाहिदेवा' ? For Personal & Private Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १. उ. . भव्यद्रव्यादि पांच प्रकार के देव २०८७ ५ उत्तर-गोयमा ! जे इमे अरिहंता भगवंतो उप्पण्णणाणदसणधरा जाव सव्वदरिसी, से तेणटेणं जाव 'देवाहिदेवा देवाहि. देवा'। ६ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'भावदेवा भावदेवा' ? ६ उत्तर-गोयमा ! जे इमे भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया देवा देवगड़णामगोयाई कम्माई वेदेति, से तेणटेणं जाव 'भावदेवा भावदेवा'। कठिन शब्दार्थ-पवणिहिपइणो-नवनिधि पति-नवनिधियों के स्वामी । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! देव कितने प्रकार के कहे हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! देव पांच प्रकार के कहे हैं । यथा-भव्यद्रव्यदेव, नरदेव, धर्मदेव, देवाधिदेव और भावदेव । २ प्रश्न-हे भगवन् ! 'भव्यद्रव्य देव'-ऐसा कहने का कारण क्या है ? २ उत्तर-हे गौतम ! जो पञ्चेन्द्रिय-तिर्यञ्च-योनिक अथवा मनुष्य, देवों में उत्पन्न होने योग्य (भव्य) हैं, वे 'भव्य द्रव्यदेव' कहलाते हैं। ३ प्रश्न- हे भगवन् ! 'नरदेव' क्यों कहलाते हैं ? __ ३ उत्तर-हे गौतम ! जो राजा, पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में समुद्र तथा उत्तर में हिमवान् पर्वत पर्यन्त छह खण्ड पृथ्वी के स्वामी चक्रवर्ती हैं। जिनके यहाँ समस्त रत्नों में प्रधान चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है, जो नवनिधि के स्वामी हैं, समृद्ध भण्डार वाले हैं, बत्तीस हजार राजा जिनका अनुसरण करते हैं, ऐसे महासागर रूप उत्तम मेखला पर्यन्त पृथ्वी के पति और मनुष्येन्द्र हैं, वे 'नरदेव' कहलाते हैं। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! 'धर्मदेव' क्यों कहलाते हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! जो ये अनगार भगवान ईर्यासमिति आदि समितियों For Personal & Private Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८८ भगवती सूत्र - श. १२ उ. ९ भव्यद्रव्यादि पांच प्रकार के देव से समन्वित यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हैं, वे 'धर्मदेव' कहलाते हैं । ५ प्रश्न - हे भगवन् ! 'देवाधिदेव' क्यों कहलाते हैं ? ५ उत्तर - हे गौतम ! उत्पन्न हुए केवलज्ञान और केवलदर्शन को धारण करने वाले यावत् सर्वदर्शी अरिहन्त भगवान् 'देवाधिदेव' कहलाते हैं । ६ प्रश्न - हे भगवन् ! 'भावदेव' किसे कहते हैं ? ६ उत्तर - हे गौतम ! भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव, जो देवगति सम्बन्धी नामकर्म और गौत्र कर्म का वेदन कर रहे हैं, वे 'भावदेव' कहलाते है । विवेचन - जो क्रीड़ादि धर्म वाले हैं अथवा जिनकी आराध्यरूप से स्तुति की जाती है. वे 'देव' कहलाते हैं । भव्यद्रव्य देव में 'द्रव्य' शब्द अप्राधान्य वाचक है । भूतकाल में देव पर्याय को प्राप्त हुआ अथवा भविष्यत्काल में देवपने को प्राप्त करने वाले, किन्तु वर्तमान में देव के गुणों से शून्य होने के कारण वे अप्रधान हैं। इनमें से जो इस भव के बाद ही देवपने को प्राप्त करने वाले हैं, वे 'भव्यद्रव्यदेव' कहलाते हैं । मनुष्यों में देवों के समान आराधना करने के योग्य मनुष्येन्द्र- चक्रवर्ती ''नरदेव' कहलाते हैं । श्रुतादि धर्म द्वारा जो देव तुल्य हैं, अथवा जिनमें धर्म की ही प्रधानता है, ऐसे धार्मिक देवरूप अनगार 'धर्मदेव' कहलाते हैं । पारमार्थिक देवपना होने से जो देवों से भी अधिक श्रेष्ठ हैं, ऐसे तीर्थंकर भगवान् 'देवाधिदेव' अथवा 'देवातिदेव' कहलाते हैं । देवगत्यादि कर्म के उदय से देवपने का अनुभव करने वाले 'भावदेव' कहलाते हैं । ७ प्रश्न - भवियदव्वदेवा णं भंते । कओहिंतो उववजंति, किं णेरइएहिंतो उववज्जंति, तिरिक्ख० मणुस्त० देवेहिंतो उववजंति ? ७ उत्तर - गोयमा ! रइए हिंतो उववनंति, तिरि० मणु० देवे For Personal & Private Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १२३.९ भव्यद्रव्यादि पांच प्रकार के देव २०८२ हिंतो वि उववज्जंति, भेओ जहा वक्कंतीए सब्वेसु उववाएयव्वा जाव 'अणुत्तरोववाइय' त्ति, णवरं असंखेज्जावासाज्यअकम्मभूमगअंतरदीवगसव्वसिद्धवजं जाव अपराजियदेवेहिंतो वि उववज्जंति, णो सिद्धदेवेहिंतो उववज्र्ज्जति । ८ प्रश्न - णरदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववज्जंति ? किं शेरइए० पुच्छा । ८ उत्तर - गोयमा ! गैरइए हिंतो वि उववज्जंति णो तिरि०, णो मणु देवेहिंतो वि उववनंति । , ९ प्रश्न - जड़ रहए हिंतो उववज्जंति किं रयणप्पभापुढविणेरइहिंतो उववज्जंति, जाव अमत्तमपुढविणेरइए हिंतो उववज्जंति ? ९ उत्तर - गोयमा ! रयणप्पभापुढविणेरइए हिंतो उववज्जंति, णो सक्कर • जाव णो आहेसत्तमपुढविणेरइए हिंतो उववजंति । १० प्रश्न - जड़ देवेहिंतो उववजंति किं भवणवा सिदे वे हिंतो उववज्जं ति, वाणमंतर० जोइसिय० वैमाणियदेवेहिंतो उववज्जंति ? १० उत्तर - गोयमा ! भवणवासिदेवेहिंतो वि उववज्जंति, वाणमंतर० एवं सव्वदेवेसु उववा एयव्वा, वक्कंतीभेएणं जाव सव्वट्टसिद्धत्ति । ११ प्रश्न - धम्मदेवा णं भंते! कओहिंतो उववजंति ? किं रइएहिंतो ० ? For Personal & Private Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९० ११ उत्तर - एवं वक्कंती भेएणं सव्वेसु उववाएयव्वा जाव 'सव्व सिद्ध' त्ति | णवरं तमा- अहेसत्तमाए णो उववाओ तेउ वाउ - असंखिज्जवासाज्यअ कम्मभूमग अंतरदीवगवज्जेसु । १२ प्रश्न - देवाहिदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववजंति, किं रइए हिंतो उववज्जंति - पुच्छा । १२ उत्तर - गोयमा ! रइए हिंतो उववज्जंति, णो तिरि०, णो मणु देवेहिंतो वि उववज्जंति । भगवती सूत्र - श. १२ उ. ९ भव्यद्रव्यादि पांच प्रकार के देव १३ प्रश्न - जइ रइए हिंतो ० ? १३ उत्तर - एवं तिसु पुढवीसु उववज्जंति सेसाओ खोडे - यव्वाओ । १४ प्रश्न - जड़ देवेहिंतो ० १ १४ उत्तर - वेमाणि सेसा खोडेयव्वा । भाणियव्वो । सव्वेसु उववज्जंति जाव सव्वट्टसिद्धत्ति, १५ प्रश्न - भावदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववज्जंति ? १५ उत्तर - एवं जहा वक्कंतीए भवणवासीणं उववाओ तहा कठिन शब्दार्थ - खोडेयव्वा निषेध करना चाहिये । ७ प्रश्न - हे भगवन् ! भव्यद्रव्य देव किस गति से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते है, अथवा तिर्यञ्चों, मनुष्यों या देवों से For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १२ उ ९ भव्यद्रव्यादि पांच प्रकार के देव २०९१ आकर उत्पन्न होते हैं ? ७ उत्तर-हे गौतम ! नै रयिकों, तिर्यञ्चों , मनुष्यों और देवों से आकर उत्पन्न होते हैं। यहां प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद में कहे अनुसार भेद (विशेषता! कहना चाहिये। उन सभी के उत्पत्ति के विषय में अनुत्तरौपपातिक तक कहना चाहिये । इसमें इतनी विशेषता है कि असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले अकर्मभूमि और अन्तरद्वीप के जीव तथा सर्वार्थसिद्ध के जीवों को छोड़कर यावत् अपराजित देवों (भवनपति से लगाकर अपराजित नाम के चौथे अनुत्तर विमान तक) से आकर उत्पन्न होते हैं, परन्तु सर्वार्थसिद्ध के देवों से आकर उत्पन्न नहीं होते। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! नरदेव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं, क्या नैरयिक, तिर्यच, मनुष्य या देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? ८ उत्तर-हे गौतम ! वे नरयिक और देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तिथंच और मनुष्यों से आकर उत्पन्न नहीं होते। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे नरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी के नरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं ? ९ उत्तर-हे गौतम ! वे रत्नप्रभा पृथ्वी के नरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, किंतु शकंराप्रभा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी के नैरयिकों से नहीं। १० प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? १० उत्तर-हे गौतम ! वे भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक-सभी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार सभी देवों के विषय में यावत् सर्वार्थसिद्ध पर्यंत, व्युत्क्रान्ति पद में कथित विशेषता पूर्वक उपपात कहना चाहिये। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! धर्मदेव नरयिक आदि किप्त गति से आकर उत्पन्न होते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९२ भगवती सूत्र-शः १२ उ. ९ भव्यद्रव्यादि पांच प्रकार के देव ' ११ उत्तर-हे गौतम ! यह सभी वर्णन व्युत्क्रान्ति पद में कथित भेद सहित यावत् सर्वार्थसिद्ध तक उपपात कहना चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि तमःप्रभा और अधःसप्तम पृथ्वी से तथा तेउकाय, वायुकाय, असंख्यात वर्ष वाले कर्मभमिज, अकर्मभूमिज और अन्तरद्वीपज मनुष्य तथा तिर्यंचों से आकर धर्मदेव उत्पन्न नहीं होते हैं। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! देवाधिदेव कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या नरयिकादि चारों गति से आकर उत्पन्न होते हैं ? १२ उत्तर-हे गौतम ! नेरयिक और देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तिर्यंच और मनुष्य गति से आकर उत्पन्न नहीं होते। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते है, तो क्या रत्नप्रभा आदि के नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते है ? . . . १३ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम तीन पृथ्वियों से आकर उत्पन्न होते हैं, शेष पृथ्वियों का निषेध है। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या भवनपति आदि से आकर उत्पन्न होते हैं ? १४ उत्तर-हे गौतम ! सभी वैमानिक देवों से यावत् सर्वार्थ सिद्ध से आकर उत्पन्न होते हैं। शेष देवों का निषेध करना चाहिये। १५ प्रश्न-हे भगवन् ! भावदेव किस गति से आकर उत्पन्न होते हैं ? १५ उत्तर-हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद में जिस प्रकार भवनवासियों का उपपात कहा है, उसी प्रकार यहां कहना चाहिये। विवेचन-भव्य द्रव्यदेव की उत्पत्ति में असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और अन्तरदीपज तथा सर्वार्थ सिद्ध के देवों का निपध किया है, इसका कारण यह है कि असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले जीव तथा अकर्मभूमिज और अन्तरद्वीपज तो सीधे भाव देवों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु भव्यद्रव्यदेवों (मनुष्य तिर्यञ्च ) में उत्पन्न नहीं होते गौर सर्भिसिद्ध के देव तो भव्यद्रव्य सिद्ध हैं । अर्थात् वे तो मनुष्यभव करके सिद्ध हो जाते हैं, अतः वे मनुष्य में उत्पन्न होकर भी भव्यद्रव्यदेवों में उत्पन्न नहीं होते । . For Personal & Private Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ५ भव्यद्रव्यादि पांच प्रकार के देव - तमःप्रभा (छठी नरक) तक में निकले हुए जीव मनुष्य-भव प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु चारित्र प्राप्त नहीं कर मकते । अधःमातम पृथ्वी, ते उकाय, वायुकाय, असंख्यात वर्ष की आयुप्य वाले कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और अन्तरद्वीपज मनुष्य तथा तिर्यञ्च-इनस निकले हुए जीव तो मनुष्य-भव भी प्राप्त नहीं कर सकते । अतएव वे धर्मदेव (चारित्रयुक्त अनगार) नहीं हो सकते ।। पहली, दूसरी और तीसरी नरक से निकले हुए जीव तीर्थकर पद प्राप्त कर सकते हैं । शेष चार पृथ्वियों से निकले हुए जीव तीर्थंकर नहीं हो सकते । अतः आगे की पृथ्वियों का निषेध किया गया है। बहुत से स्थानों में आकर जीव भग्नपति देवपने उत्पन्न होते हैं, क्योंकि उनमें असंज्ञी जीव भी उत्पन्न होते हैं. इसलिये यहां भ नपति सम्बन्धी उपपात का कथन किया है। १६ प्रश्न-भवियदव्वदेवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ! १६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओक्माई। - १७ प्रश्न-णरदेवाणं पुच्छा । १७ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं सत्त वाससयाई, उकोसेणं चउरासीई पुवसयसहस्साई। १८ प्रश्न-धम्मदेवाणं भंते ! पुच्छा। १८ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुब्बकोडी। १९ प्रश्न-देवाहिदेवाणं पुन्छ । ___ १९ उत्तर-गोयमा ! जहएणेणं वावत्तरि वासाई, उक्कोसेणं For Personal & Private Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९४ भगवती मूत्र-श. १२ उ. ९ भव्यद्रव्यादि पांच प्रकार के देव चउरासीइं पुव्वसयसहस्साई। २० प्रश्न-भावदेवाणं पुच्छा। २० उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! भव्यद्रव्य देवों की स्थिति कितने काल को कही है। १६ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम । १७ प्रश्न-हे भगवन् ! नरदेवों की स्थिति कितने काल की है ? १७ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य सात सौ वर्ष और उत्कृष्ट चौरासी लाख पूर्व की है। १८ प्रश्न-हे भगवन् ! धर्मदेवों की स्थिति कितने काल की है ? १८ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि । १९ प्रश्न-हे भगवन् ! देवाधिदेवों की स्थिति कितने काल की है ? १९ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य बहत्तर वर्ष और उत्कृष्ट चौरासी लाख पूर्व की है। २० प्रश्न-हे भगवन् ! भावदेवों की स्थिति कितने काल की है ? २० उत्तर-हे गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। विवेचन-अन्तर्मुहूर्त की आयुष्यवाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, देवरूप में उत्पन्न होते हैं, इसलिये भव्यद्रव्यदेव की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की कही गई है । तीन पल्योपम की स्थिति वाले देवकुरु और उत्तरकुरु के मनुष्य और तिर्यञ्च भी देव होते हैं, इसलिये भव्यद्रव्यदेव की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है। नरदेव (चक्रवर्ती) की जघन्य स्थिति सात सौ वर्ष की होती है । ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की आयु इतनी ही थी। उत्कृष्ट स्थिति चौरासी लाख पूर्व की होती है। भरत चक्रवर्ती For Personal & Private Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ 3. ९ भव्यद्रव्यादि पांच प्रकार के देव २०९५. की आयु इतनी ही थी। कोई भी मनुप्य अन्तर्महर्त आय प्य शेष रहने पर चारित्र स्वीकार करे तो, उमकी अपेक्षा धर्मदेव की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त को कही गई है । कोई पूर्वकोटि वर्ष की आयुप्यवाला मनुष्य, सातिरेक आठ वर्ष की उम्र में चारित्र स्वीकार करे । उसकी अपेक्षा धर्मदेव की उत्कृष्ट स्थिति देशोनपूर्वकोटि कही गई है। पूर्वकोटि वर्ष से अधिक की आयुष्य वाला मनुष्य, चारित्र स्वीकार नहीं कर सकता। देवाधिदेव की जघन्य स्थिति बहत्तर वर्ष की है । चरम तीर्थपति भ. महावीरस्वामी की आय इतनी ही थी । उत्कृष्ट स्थिति चौरासी लाग्य पूर्व की होती है। प्रथम तीर्थकर भ० ऋपभदेव की आयु इतनी ही थी। । २१ प्रश्न-भवियदव्वदेवा णं भंते ! किं एगत्तं पभू विउटिवत्तए, पुहुत्तं पभू विउन्वित्तए ? - ____२१ उत्तर-गोयमा ! एगत्तं पि पभू विउवित्तए, पुहुत्तं पि पभू विउवित्तए, एगत्तं विउव्वमाणे एगिदियरूवं वा जाव पंचिंदियरूवं वा, पुहुत्तं विउव्वमाणे एगिदियरूवाणि वा, जाव पंचिंदियरूवाणि वा, ताई संखेजाणि वा असंखेज्जाणि वा, संबद्धाणि वा असंबद्धाणि वा, सरिसाणि वा असरिसाणि वा विउव्वंति, विउवित्ता तओ पच्छा अप्पणो जहिच्छियाई कज्जाइं करेंति, एवं गरदेवा वि, एवं धम्मदेवा वि । २२ प्रश्न-देवाहिदेवाणं पुच्छ ? २२ उत्तर-गोयमा ! एगत्तं पि पभू विउवित्तए, पहुत्तं पि पभू विउवित्तए, णो चेव णं संपत्तीए विउब्बिसु वा विउविति वा For Personal & Private Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९६ भगवती सूत्र - ग. १२ उ. ९ भव्यद्रव्यादि पाच प्रकार के देव विउव्विस्संति वा । २३ प्रश्न - भावदेवाणं पुच्छा । २३ उत्तर - जहा भवियदव्वदेवा । कठिन शब्दार्थ- हुतं - पृथक्त्व - अनेक । भावार्थ - २१ प्रश्न - हे भगवन् ! भव्यद्रव्यदेव एक रूप अथवा अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? २१ उत्तर - हाँ गौतम ! भव्यद्रव्यदेव एक रूप और अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है। एक रूप की विकुर्वणा करता हुआ एक एकेन्द्रिय रूप यावत् एक पञ्चेन्द्रियरूप की विकुर्वणा करता है । अथवा अनेक रूपों की विकुर्वणा करता हुआ अनेक एकेंद्रिय रूप यावत् अनेक पञ्चेन्द्रिय रूप विकुर्वणा करता है । वे रूप संख्यात या असंख्यात, सम्बद्ध या असम्बद्ध, समान या असमान होते हैं। उनसे वह अपना यथेष्ट कार्य करता है । इसी प्रकार नरदेव और धर्मदेव के विषय में भी समझना चाहिये । २२ प्रश्न - हे भगवन् ! देवाधिदेव एक रूप या अनेक रूपों की विकुर्वणा . करने में समर्थ है ? २२ उत्तर - हे गौतम ! एक रूप और अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है । परन्तु उन्होंने ( शक्ति होते हुए भी उत्सुकता के अभाव से ) सम्प्राप्ति द्वारा कभी विकुर्वणा नहीं की, करते भी नहीं और करेंगे भी नहीं । २३ प्रश्न - हे भगवन् ! भावदेव एक रूप या अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? २३ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार भव्यद्रव्यदेव का कथन किया है, उसी प्रकार इनका भी जानना चाहिये । विवेचन-वे ही भव्यद्रव्यदेव ( - मनुष्य और तिर्यंच ) एक या अनेक रूपों की विकुर्वणा कर सकते हैं, जो वैक्रिय-लब्धि सम्पन्न हों | For Personal & Private Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १२ उ. ९ भव्यद्रव्यादि पांच प्रकार के देव २०९७ २४ प्रश्न-भवियदबदेवा णं भंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति कहिं उववनंति ? किं णेरइएसु उववजंति जाव देवेसु उववजति ? २४ उत्तर-गोयमा ! णो णेरइएमु उववनंति, णो तिरि० णो मणु० देवेमु उववजंति, जड़ देवेसु उववजति सब्वदेवेसु उववज्जति जाव सबट्ठसिद्धत्ति । २५ प्रश्न-णरदेवा णं भंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता-पुन्छ । २५ उत्तर-गोयमा ! गैरइएसु उववजंति, णो तिरि० णो मणु० णो देवेमु उववजंति, जइ गैरइएमु उववनंति० सत्तसु वि पुढवीसु उववजंति। .. २६ प्रश्न-धम्मदेवा णं भंते ! अणंतरं०-पुच्छा। २६ उत्तर-गोयमा ! णो णेरइएसु उववनंति, णो तिरि० णो मणु० देवेसु उववति । . २७ प्रश्न-जइ देवेसु उववजति किं भवणवासि०-पुच्छा । २७ उत्तर-गोयमा ! णो भवणवासिदेवेसु उववजंति, णो वाणमंतर०, णो जोइसिय०, वेमाणियदेवेसु उववजंति, सब्बेसु वेमाणिएमु उववजंति जाव सबसिद्धअणुत्तरोववाइएसु-जाव उववजंति, अत्थेगइया सिझंति जाव अंतं करेंति। .. २८ प्रश्न-देवाहिदेवा अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति, कहिं For Personal & Private Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१८ उववजंति ? भगवती सूत्र - १२उ ९ भव्यद्रव्यादि पांच प्रकार के देव २८ उत्तर - गोयमा ! सिज्झति जाव अंतं करेंति । २९ प्रश्न - भावदेवा णं भंते ! अनंतरं उव्वद्वित्ता- पुच्छा । २९ उत्तर - जहा वक्कंतीए असुरकुमाराणं उववट्टणा तहा भाणियव्वा । कठिन शब्दार्थ - उब्वट्टित्ता- निकल कर । भावार्थ - २४ प्रश्न - हे भगवन् ! भव्यद्रव्यदेव मरकर तुरन्त नैरयिकों में यावत् देवों में उत्पन्न होते हैं ? २४ उत्तर - हे गौतम! नैरयिक, तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते, देवों में उत्पन्न होते हैं और देवों में भी सभी देवों में यावत् सर्वार्थसिद्ध तक उत्पन्न होते हैं । २५ प्रश्न - हे भगवन् ! नरदेव मरने के बाद तत्काल किस गति में उत्पन्न होते हैं ? २५ उत्तर - हे गौतम! नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं । तिर्यंच, मनुष्य और देवों में उत्पन्न नहीं होते । नैरयिकों में भी सातों नरकं पृथ्वियों में उत्पन्न होते हैं। २६ प्रश्न - हे भगवन् ! धर्मदेव आयु पूर्ण कर तत्काल कहाँ उत्पन्न होते हैं ? २६ उत्तर - हे गौतम! वे नरक, तियंच और मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते, देवों में उत्पन्न होते हैं । २७ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि धर्मदेव, देवों में उत्पन्न होते हैं, तो भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी या वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं ? २७ उत्तर - हे गौतम! भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देवों में For Personal & Private Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. १२ उ. ९ भव्यद्रव्यादि पांच प्रकार के देव २०९९ उत्पन्न नहीं होते, वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं। वैमानिकों में वे सभी वैमानिक देवों में यावत् सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक देवों में उत्पन्न होते हैं और कोई-कोई धर्मदेव सिद्ध होकर समस्त दुःखों का अन्त कर देते हैं। २८ प्रश्न-हे भगवन् ! देवाधिदेव आयु पूर्ण कर तत्काल कहाँ उत्पन्न होते हैं ? २८ उत्तर-हे गौतम ! वे सिद्ध होते हैं यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं ? २९ प्रश्न-हे भगवन् ! भावदेव तत्काल आयु पूर्ण कर कहाँ उत्पन्न होते हैं ? २९ उत्तर-हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद में, जिस प्रकार असुरकुमारों को उद्वर्तना कही है, उसी प्रकार यहां भावदेवों की भी उद्वर्तना कहनी चाहिये। विवेचन-यद्यपि कोई चक्रवर्ती देवों में भी उत्पन्न होते हैं, तथापि वे नरदेवपन (चक्रवर्ती पद) छोड़ कर, धर्मदेव पद स्वीकार करके माधु बने, तभी देवों में या सिद्धों में उत्पन्न होते हैं। काम-भोगों का त्याग किये बिना-नरदेव अवस्था में तो वे नरक में ही उत्पन्न होते हैं। ३० प्रश्न-भवियदव्वदेवे णं भंते ! 'भवियदव्वदेवे' त्ति कालओ केवचिरं होइ ? ... ३० उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उकोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं, एवं जच्चेव ठिई सच्चेव संचिट्ठणा वि जाव भावदेवस्स णवरं धम्मदेवस्स जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी। । ३१ प्रश्न-भवियदबदेवस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? For Personal & Private Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०० भगवती सूत्र-श. १२ उ. ६ भव्यद्रव्यादि पांच प्रकार के देव - ३१ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहत्तमन्भहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइकालो। ३२ प्रश्न-णरदेवाणं पुन्छ ।। ३२ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं साइरेगं सागरोवमं, उक्कोसेणं अणंतकालं-अवइदं पोग्गलपरियटै देसूर्ण । ३३ प्रश्न-धम्मदेवस्स णं पुच्छ । ३३ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमपहृत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, जाव अवड्ढं पोग्गलपरियट्टं देसूर्ण । ३४ प्रश्न-देवाहिदेवाणं पुच्छ । ३४ उत्तर-गोयमा ! णत्थि अंतरं । . ३५ प्रश्न-भावदेवस्स णं पुच्छा। ३५ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइकालो। कठिन शब्दार्थ-संचिटणा-संस्थिति । भावार्थ-३० प्रश्न-हे भगवन् ! भव्यद्रव्यदेव, भव्यद्रव्यदेव रूप से कितने काल तक रहता है ? .. ३० उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम तक रहता है। जिस प्रकार भवस्थिति कही, उसी प्रकार संस्थिति भी कहनी चाहिये । विशेषता यह कि धर्मदेव जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि वर्ष तक रहता है। ३१ प्रश्न-हे भगवन् ! भग्यनग्यदेव का अंतर कितने काल का होता है ? For Personal & Private Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ ३. ९ भध्य द्रव्यादि पांच प्रकार के देव २१०१ ३१ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक दस हजार वर्ष तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल-वनस्पति काल पर्यन्त अन्तर होता है। ३२ प्रश्न-हे भगवन् ! नरदेव का अन्तर कितने काल का होता है ? ३२ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक सागरोपम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट अनन्तकाल, देशोन अपार्द्ध पुद्गल-परावर्तन पर्यन्त अन्तर होता है । ३३ प्रश्न-हे भगवन् ! धर्मदेव का अन्तर कितने काल का होता है ? ३३ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य पल्योपम पृथक्त्व और उत्कृष्ट अनन्तकाल, देशोन अपार्द्ध पुद्गल-परावर्तन पर्यन्त होता है। ३४ प्रश्न-हे भगवन ! देवाधिदेव का अन्तर कितने काल का होता है ? . ३४ उत्तर-हे गौतम ! देवाधिदेव का अन्तर नहीं होता। ३५ प्रश्न-हे भगवन् ! भावदेव का अन्तर कितने काल का होता है ? ३५ उत्तर-है गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल, वनस्पतिकाल पर्यन्त अन्तर होता है । विवेचन--कोई धर्मदेव, अशुभ भाव को प्राप्त करके फिर पीछा एक समय मात्र शुभ भाव को प्राप्त कर तुरन्त मृत्यु को प्राप्त होता है । इसलिये धर्मदेव का जघन्य मंचिट्ठणा काल परिणामों की अपेक्षा से एक समय का कहा गया है। कोई भव्यद्रव्यदेव होकर दम हजार वर्ष की स्थिति वाले व्यन्तरादि देवों में उत्पन्न हो गया। वहाँ से चवकर शुभ पृथ्वी आदि में चला गया । वहाँ जाकर अन्तर्मुहर्त तक रहा । फिर भव्यद्रव्यदेव रूप से उत्पन्न हो गया। इस प्रकार अन्तर्मुहर्त अधिक दस हजार वर्ष का अन्तर होता है। शंका-देवलोक से चवकर तुरन्त भव्यद्रव्यदेव रूप से उत्पत्ति का सम्भव होने से दम हजार वर्ष का अन्तर होता है, परन्तु अन्तर्मुहूर्त अधिक कैसे होता है ? . समाधान-सर्व जघन्य आयुष्य वाला देव, वहाँ से चवकर शुभ पृथ्वी आदि में उत्पन्न होकर भव्यद्रव्यदेव (तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय) में उत्पन्न होता है'-ऐमा प्राचीन टीकाकार का आशय मालूम होता है। उस मत के अनुसार अन्तर्मुहुर्त अधिक दस हजार वर्ष का अंतर होता है । कोई आचार्य इसका समाधाम इस प्रकार भी करते हैं-जिसने देव का आयुष्य बांध लिया है, उसको यहाँ 'भव्यद्रव्यदेव' रूप से समझना चाहिये । इससे दस हजार वर्ष For Personal & Private Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०२ भगवती सूत्र-ग. १२ 3. ९ भव्यद्रव्यादि पांच प्रकार के देव की स्थिति वाला देव, देवलोक से चवकर भव्यद्रव्यदेवाने उत्पन्न होता है और अन्तर्मुहर्त के बाद आयुष्य का बंध करता है। इसलिये अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष का अन्तर होता है। तथा अपर्याप्त जीव देवगति में उत्पन्न नहीं हो सकता, अत: पर्याप्त होने के बाद ही उसे भव्यद्रव्यदेव गिनना चाहिये। इस प्रकार गिनने से जघन्य अन्तर अन्तर्मुहुर्त अधिक दस हजार वर्ष का होता है । यह मान्यता विशेष संगत ज्ञात होती है । क्योंकि चौवीसवें गमा शतक में जघन्य स्थिति वाले देवों का तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय में भव्यद्रव्यदेवपने उत्पन्न होना बताया है । इसलिए यहाँ पर 'बद्धायु' को ही भव्यद्रव्यदेव बताया है । स्थिति द्वार में एक भविक भव्यद्रव्यदेव की स्थिति बताई है। भव्यद्रव्यदेव मरकर देव होता है और वहाँ से चवकर वनस्पति आदि में अनन्त काल तक रहकर फिर भव्यद्रव्यदेव होता है । इस अपेक्षा मे उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल का होता है । कोई नरदेव (चक्रवर्ती) कामभोगों में आसक्त रहता हुआ यहाँ से मरकर पहली नरक में उत्पन्न हो । वहाँ एक सागरोपम की आयुष्य भोगकर पुनः नरदेव हो और जबतक चत्ररत्न उत्पन्न न हो, तबतक उसका जघन्य अन्तर एक सागरोपम से कुछ अधिक होता है। कोई सम्यग्दृष्टि जीव चक्रवर्ती पद प्राप्त करे, फिर वह देगीन अपार्द्ध पुद्गल-परावर्तन काल तक संसार में परिभ्रमण करे, इसके बाद सम्यक्त्व प्राप्त कर चक्रवर्तीपन प्राप्त करे और संयम पालकर मोक्ष जाय, इस अपेक्षा मे नरदेव का उत्कृष्ट अन्तर देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्तन कहा गया है । कोई धर्मदेव (चारित्र युक्त साधु) मौधर्म देवलोक में पल्योपम पृथक्त्व की आयुष्य वाला देव होवे और वहाँ से चवकर पुन: मनुष्य भव प्राप्त करे । वहाँ वह साधिक आठ वर्ष की उम्र में चारित्र स्वीकार करे, इस अपेक्षा से धर्मदेव का जघन्य अन्तर पल्योपम पृथक्त्व कहा गया है। देवाधिदेव (तीर्थकर भगवान् ) मोक्ष में जाते हैं । इसलिये उनका अन्तर नहीं होता है। ३६ प्रश्न-एएसि णं भंते ! भवियदव्वदेवाणं, णरदेवाणं, जाव भावदेवाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? ३६ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा णरदेवा, देवाहिदेवा संखेज. For Personal & Private Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १२ उ. ९ भव्यद्रव्यादि पांच प्रकार के देव गुणा, धम्मदेवा संखेज्जगुणा, भवियदव्वदेवा असंखेज्जगुणा, भावदेवा असंखेज्जगुणा । ३७ प्रश्न - एएसि णं ते! भावदेवाणं भवणवासीणं, वाणमंतराणं, जोइसियाणं, वेमाणियाणं सोहम्मगाणं, जाव अच्चुयगाणं, गेवेज्जगाणं, अणुत्तरोववाइयाण य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ? २१०३ ३७ उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवा अणुत्तरोववाइया भावदेवा, उवरिमगेवेज्जा भावदेवा संखेज्जगुणा, मज्झिमगेवेज्जा संखेज्जगुणा, हेडिमगेवेज्जा संखेज्जगुणा, अच्चुए कप्पे देवा संखेज्जगुणा, जाव आणयकप्पे देवा संखेज्जगुणा, एवं जहा जीवाभिगमे तिविहे देवपुरिसे अप्पाबहुयं जाव जोइसिया भावदेवा असंखेज्जगुणा । सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥ णवमो उद्देसओ समत्तो ॥ भावार्थ - ३६ प्रश्न - हे भगवन् ! इन भव्यद्रव्यदेव, नरदेव यावत् भावदेव में से कौन किससे अल्प, बहुत या विशेषाधिक हैं ? ३६ उत्तर - हे गौतम ! सबसे थोड़े नरदेव होते हैं, उनसे देवाधिदेव संख्यात गुण, उनसे धर्मदेव संख्यात गुण, उनसे भव्यद्रव्यदेव असंख्यात गुण और उनसे भावदेव असंख्यात गुण होते हैं । ३७ प्रश्न - हे भगवन् ! भावदेव, भवनपति, बाणव्यन्तर, ज्योतिषी, वंमा For Personal & Private Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०४ भगवती सूत्र-ग. १२ उ. १ भव्यद्रव्यादि पाच प्रकार के. देव निक, सौधर्म, ईशान यावत् अच्युत, वेयक और अनुतरौपपातिक-इनमें कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? ३७ उत्तर-हे गौतम ! सबसे थोड़े अनुत्तरोपपातिक भावदेव हैं, उनसे ऊपर के ग्रेवेयक के भावदेव संख्यात गुण हैं, उनसे मध्यम के भावदेव संख्यात गुण हैं, उनसे नीचे के ग्रैवेयक के भावदेव संख्यात गुण हैं, उनसे अच्युतकल्प के देव संख्यात गुण हैं, यावत् आनतकल्प के देव संख्यात गुण हैं । जिस प्रकार जीवाभिगम सूत्र की दूसरी प्रतिपत्ति के त्रिविध जीवाधिकार में देव पुरुषों का अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी यावत् 'ज्योतिषी भावदेव असंख्यात गुण हैं'-तक कहना चाहिए। .... हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। - विवेचन-नरदेव सबसे थोड़े हैं । इसका कारण यह है कि प्रत्येक अवपिणी और उत्सपिणी काल में प्रत्येक भरत और ऐरवत क्षेत्र में, बारह-बारह ही उत्पन्न होते हैं और महाविदेह क्षेत्रों के विजयों में वासुदेवों के होने से सभी विजयों में वे एक साथ उत्पन्न नहीं होते। . नरदेवों से देवाधिदेव संख्यात गुण हैं। इसका कारण यह है कि भरतादि क्षेत्रों में वे चक्रवतियों से दुगुने-दुगुने होते हैं और महाविदेह क्षेत्र के विजयों में वासुदेवों की मौजूदगी में भी वे उत्पन्न होते हैं। देवाधिदेवों से धर्मदेव संख्यात गुण हैं। इसका कारण यह है कि धर्मदेव एक ही समय में जघन्य दो हजार करोड़ और उत्कृष्ट नौ हजार करोड़ पाये जा सकते हैं। ... धर्मदेवों से भव्यद्रव्यदेव असंख्यात गुण हैं । इसका कारण यह है कि देवगति में जाने वाले देशविरत, अविरत सम्यग्दृष्टि आदि (तिर्यंच पंचेन्द्रिय) असंख्यात होते हैं। ... भव्यद्रव्यदेवों से भावदेव असंख्यात गुण हैं। इसका कारण यह है कि भावदेव स्वभावतः ही असंख्यात हैं। 'भावदेवों के अल्प-बहुत्व में जीवाभिगम सूत्र के त्रिविध जीवाधिकार का जो अतिदेश किया है, वहां इस प्रकार अल्प-बहुत्व कहा है-आरणकल्प से सहस्रार कल्प में भावदेव असंख्यात गुण हैं, उससे महाशुक्र में असंख्यात गुण, उससे लान्तक में असंख्यात गुण, For Personal & Private Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १२ उ. १० आत्मा के आठ भेद और उनका संबंध उससे ब्रह्मदेवलोक में असंख्यात गुण, उससे माहेन्द्र में असंख्यात गुण, उससे मनत्कुमार में असंख्यात गुण, उससे ईशान में असंख्यात गुण, उससे सौधर्म में संख्यात गुण, उससे भवनपति देव असंख्यात गुण और उससे वाणव्यन्तर देव असंख्यात गुण हैं । ॥ बारहवें शतक का नौवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १२ उद्देशक १० आत्मा के आठ भेद और उनका सम्बन्ध १ प्रश्न -कइविहा णं भंते ! आया पण्णत्ता ? १ उत्तर - गोयमा ! अद्भुविहा आया पण्णत्ता, तं जहा - १ दवि याया २ कसायाया ३ जोगाया ४ उवओगाया ५ णाणाया ६ दसणाया ७ चरिताया ८ वीरियाया । २ प्रश्न - जस्स णं भंते ! दवियाया तस्स कसायाया, जस्स कसायाया तस्स दवियाया ? २ उत्तर - गोयमा ! जस्स दवियाया तस्स कसायाया सिय अस्थि सिय णत्थि, जस्स पुण कसायाया तस्स दवियाया णियमं अत्थि । ܘܕܕ ३ प्रश्न - जस्स णं भंते ! दवियाया तस्स जोगाया ? ३ उत्तर - एवं जहा दवियाया कसायाया भणिया तहा दवि For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१.६ भगवती सूत्र- श. १२ उ. १० आत्मा के आठ भेद और उनका संबंध - याया जोगाया भाणियब्वा । ४ प्रश्न-जस्स णं भंते ! दवियाया, तस्स उवओगाया-एवं सव्वत्थ पुन्छा भाणियव्वा । ___४ उत्तर-गोयमा ! जस्स दवियाया तस्स उवओगाया णियमं अत्थि, जस्स वि उवओगाया तस्स वि दवियाया णियमं अस्थि, जस्स दवियाया तस्स णाणाया भयणाए जस्स पुण णाणाया तस्स दवियाया णियमं अत्थि, जस्स दवियाया तस्स दंसणाया णियमं अस्थि, जस्स वि दंसणाया तस्स दवियाया णियमं अस्थि, जस्स दवियाया तस्स चरित्ताया भयणाए, जस्स पुण चरित्ताया तस्स दवियाया णियमं अत्थि, एवं वीरियायाए वि समं । कठिन शब्दार्थ-सव्वत्थ-सर्वत्र-सभी जगह । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! आत्मा कितने प्रकार की कही है ? १ उत्तर-हे गौतम ! आत्मा आठ प्रकार की कही है । यथा-द्रव्य आत्मा, कषाय आत्मा, योग आत्ला, उपयोग आत्मा, ज्ञान आत्मा, दर्शन आत्मा, चारित्र आत्मा और वीर्य आत्मा। २ प्रश्न-हे भगवन् ! जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके कषायात्मा होती है और जिसके कषायात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा होती है ? . २ उत्तर-हे गौतम ! जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके कषायात्मा कदाचित् होती है और कदाचित् नहीं भी होती, परन्तु जिसके कषायात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा अवश्य होती है। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके योगात्मा होती है और जिसके योगात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा होती है ? For Personal & Private Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-१२ उ. १० आत्मा के आट मेद और उनका गन्यन्ध २१०७ ३ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार द्रव्यात्मा और कषावात्मा का सम्बन्ध कहा है, उसी प्रकार द्रव्यात्मा और योगात्मा का सम्बन्ध कहना चाहिये। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके उपयोग आत्मा होती है और जिसके उपयोगात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा होती है ? इस प्रकार सभी आत्माओं के सम्बन्ध में प्रश्न करना चाहिये। ४ उत्तर-हे गौतम ! जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके उपयोगात्मा अवश्य होती है और जिसके उपयोगात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा अवश्य होती है। जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके ज्ञानात्मा भजना (विकल्प) से होती है । अर्थात् कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं भी होती । जिसके ज्ञानात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा अवश्य होती है। जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके दर्शनात्मा अवश्य होती है। जिसके दर्शनात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा अवश्य होती है । जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके चारित्रात्मा भजना से होती है और जिसके चारित्रात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा अवश्य होती है। जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके वीर्यात्मा भजना से होती है और जिसके वीर्यात्मा होती है, उसके . . द्रव्यात्मा अवश्य होती है। ..५ प्रश्न-जस्स णं भंते ! कसायाया तस्स जोगाया-पुच्छा । ५ उत्तर-गोयमा ! जस्स कसायाया तस्स जोगाया णियमं अत्थि, जस्स पुण जोगाया तस्स कसायाया सिय अत्थि सिय णत्थि, एवं उवओगायाए वि समं कसायाया णेयव्वा, कसायाया य णाणाया य परोप्परं दो वि भइयवाओ, जहा कसायाया य उव. ओगाया य तहा कसायाया य दंसणाया य कसायाया य चरित्ताया य दो वि परोप्परं भइयव्वाओ, जहा कसायाया य जोगाया य For Personal & Private Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०८ भगवती सूत्र - १२ उ. १० आत्मा के आठ भेद और उनका संबंध तहा कसायाया य वीरियाया य भाणियव्वाओ, एवं जहा कमायाया वत्तव्वया भणिया तहा जोगायाए वि उवरिमाहिं समं भाणि - यव्वाओ । जहा दवियायाए वत्तव्वया भणिया तहा उवयोगायाए वि उवरिल्लाहिं समं भाणियव्वा । जस्स णाणाया तस्स दंसणाया नियमं अस्थि, जस्स पुण दंसणाया तस्स णाणाया भयणाए, जस्स णाणाया तस्स चरिताया सिय अस्थि सिय णत्थि, जस्स पुण चरित्ताया तस्स णाणाया नियमं अस्थि, णाणाया वीरियाया दो वि परोप्परं भयणाए । जस्स दंसणाया तस्स उवरिमाओ दो विभयगाए, जस्स पुण ताओ तस्स दंसणाया नियमं अस्थि । जस्स चरिताया तस्स वीरियाया नियमं अत्थि, जस्स पुण वीरियाया । तस्स चरिताया सिय अस्थि सिय त्थि । ६ प्रश्न - एयासि णं भंते! दवियायाणं, कमायायाणं जाव वीरियायाण य करे करेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ? ६ उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवाओ चरितायाओ, णाणायाओ अनंतगुणाओ, कमायाओ अनंतगुणाओ, जोगायाओ विसेसाहियाओ, वीरियायाओ विसेसाहियाओ, उवयोग-दविय दंसणायाओ तिणि वितुल्लाओ विसेसाहियाओ । कठिन शब्दार्थ -- परोप्परं -- परम्पर । : भावार्थ -- ५ प्रश्न - हे भगवन् ! जिसके कषायात्मा होती है, उसके c. For Personal & Private Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ग. १२ उ. १० आत्मा के आट मेद और उनका संबंध योगात्मा होती है, इत्यादि प्रश्न । ५ उत्तर - हे गौतम! जिसके कषायात्मा होती है, उसके योगात्मा अवश्य होती है, किंतु जिसके योगात्मा होती है, उसके कषायात्मा कदाचित् होती है और कदाचित् नहीं होती। इसी प्रकार उपयोगात्मा के साथ कषायात्मा का संबंध कहना चाहिये । तथा कषायात्मा और ज्ञानात्मा, इन दोनों का परस्पर सम्बन्ध भजना से कहना चाहिये । कषायात्मा और उपयोगात्मा के सम्बंध के समान कायात्मा और दर्शनात्मा का सम्बन्ध कहना चाहिये तथा कषायात्मा और चारित्रात्मा का परस्पर सम्बन्ध भजना से कहना चाहिये । कषायात्मा और • योगात्मा के सम्बन्ध के समान कषायात्मा और वीर्यात्मा का सम्बन्ध कहना चाहिये। जिस प्रकार कषायात्मा के साथ अन्य छह आत्माओं की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार योगात्मा के साथ आगे की पांच आत्माओं की वक्तव्यता कहनी चाहिये। जिस प्रकार द्रव्यात्मा की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार उपयोगात्मा की आगे की चार आत्माओं के साथ वक्तव्यता कहनी चाहिये । जिसके ज्ञानात्मा होती है, उसके दर्शनात्मा अवश्य होती है और जिसके दर्शनात्मा होती है, उसके ज्ञानात्मा भजना से होती है । जिसके ज्ञानात्मा होती है, उसके.. रत्रात्मा भजना से होती है और जिसके चारित्रात्मा होती है, उसके ज्ञानात्मा अवश्य होती है । ज्ञानात्मा और वीर्यात्मा- इन दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध भजना से कहना चाहिये। जिसके दर्शनात्मा होती है, उसके चारित्रात्मा और वीर्यात्मा- ये दोनों भजना से होती है। जिसके चारित्रात्मा और वीर्यात्मा होती है, उसके दर्शनात्मा अवश्य होती है । जिसके चारित्रात्मा होती है, उसके वीर्यात्मा अवश्य होती है और जिसके वीर्यात्मा होती है, उसके चारित्रात्मा कदाचित् होती है और कदाचित् नहीं भी होती । ܕܐ ६ प्रश्न - हे भगवन् ! द्रव्यात्मा, कषायात्मा यावत् वीर्यात्मा- इनमें से कौनसी आत्मा किससे अल्प यावत् विशेषाधिक है ? ६ उत्तर - हे गौतम ! सबसे थोड़ी चारित्रात्मा है, उससे ज्ञानात्मा For Personal & Private Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११० भगवती सूत्र - ग. १२ उ. १० आत्मा के आट भेद और उनका संबंध अनंत गुण है, उससे कषायात्मा अनंत गुणी है, उससे योगात्ना विशेषाधिक है, उससे वीर्यात्मा विशेषाधिक है, उससे उपयोगात्मा, द्रव्यात्मा और दर्शनात्मा ये तीनों विशेषाधिक हैं और ये तीनों परस्पर तुल्य हैं । विवेचन - जो निरन्तर दूसरी - दूसरी स्व-पर पर्यायों को प्राप्त करती रहती है, वह आत्मा है । अथवा जिसमें सदा उपयोग अर्थात् बोधरूप व्यापार पाया जाय, वह आत्मा है । उपयोग की अपेक्षा सामान्य रूप से सभी आत्माएं एक प्रकार की हैं, किन्तु विशिष्ट और उपाधि को प्रधान मानकर आत्मा के आठ भेद बतलाये गये हैं । वे इस प्रकार हैं; - १ द्रव्य आत्मा - त्रिकालवर्ती द्रव्यरूप आत्मा द्रव्यात्मा है । यह द्रव्यात्मा सभी जीवों के होती है । २ कषाय आत्मा - क्रोध, मान, माया, लोभरूप कषाय से युक्त आत्मा - कषायात्मा है । उपशान्त कषाय और क्षीण कषाय आत्माओं के सिवाय शेष सभी संसारी जीवों के यह आत्मा होती है । ३ योग आत्मा- मन, वचन और काय के व्यापार को योग कहते हैं । इन योगों से युक्त आत्मा - योग- आत्मा कहलाती है। योग वाले सभी जीवों में यह आत्मा होती है । अयोगी केवली और सिद्धों के यह आत्मा नहीं होती । ४ उपयोग आत्मा - ज्ञान और दर्शन रूप उपयोग प्रधान आत्मा उपयोग आत्मा है। उपयोगात्मा सिद्ध और संसारी सभी जीवों के होती है । ५ ज्ञान आत्मा - विशेष अनुभव रूप सम्यग् ज्ञान से विशिष्ट आत्मा को ज्ञान आत्मा कहते हैं । ज्ञानात्मा सम्यग्दृष्टि जीवों के होती है । ६ दर्शन आत्मा - सामान्य अवबोधरूप दर्शन से विशिष्ट आत्मा को दर्शनात्मा कहते हैं । दर्शनात्मा सभी जीवों के होती है । ७ चारित्र आत्मा - चारित्र के विशिष्ट गुण से युक्त आत्मा को चारित्रात्मा कहते हैं । चारित्रात्मा विरति वालों के होती है । ८ वीर्य आत्मा - उत्थानादि रूप कारणों से युक्त वीर्य विशिष्ट आत्मा को वीर्यात्मा कहते हैं । यह सभी संसारी जीवों के होती है। यहाँ वीर्य से 'सकरण अकरण वीर्य' लिया जाता है। सिद्धों में वीर्यात्मा नहीं मानी गई है। क्योंकि वे कृतकार्य हो चुके हैं, अर्थात् उन्हें कोई कार्य करना शेष नहीं रहा है । आत्मा के आठ भेदों में परस्पर क्या सम्बन्ध है? एक भेद में दूसरा भेद रहता है For Personal & Private Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शं. १२ उ. १० आत्मा के आठ मंद और उनका संबंध - २१११ या नहीं, इसका उत्तर निम्न प्रकार है: जिस जीव के द्रव्यात्मा होती है, उसके पापात्मा होती भी हैं और नहीं भी होती। सकपायावस्था में द्रव्यात्मा के कषायात्मा होती है और उपशांत-कपाय और क्षीण कषायावस्था में द्रव्यात्मा के कषायात्मा नहीं होती। किन्तु जिस जीव के कषायात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा नियम से होती है। क्योंकि द्रव्यात्मत्व अर्थात् जीवत्व के विना कपायों का संभव ; + नहीं है । जिस जीव के द्रव्यात्मा होती है, उसके योगात्मा होती भी है और नहीं भी होती । सयोगी अवस्था में द्रव्यात्मा के योगात्मा होती है. किन्तु अयोगी अवस्था में द्रव्यात्मा के योगात्मा नहीं होती, परन्तु जिस जीव के योगात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा नियम से होती . है, क्योंकि द्रव्यात्मा जीव रूप है और जीव के बिना योगों का संभव नहीं है । जिस जीव के द्रव्यात्मा होती है, उसके उपयोगात्मा नियम से होती है । और जिसके उपयोगात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा नियम से होती है । द्रव्यात्मा और उपयोगात्मा का परस्पर नित्य सम्बन्ध हैं। सिद्ध और संसारी सभी जीवों के द्रव्यात्मा भी है ओर उपयोगात्मा भी है । क्योंकि द्रव्यांत्मा जीव रूप है और उपयोग उसका लक्षण है । इसलिए दोनों एक दूसरी में नियम में पाई जाती है । जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके ज्ञानात्मा की भजना है । क्योंकि सम्यग्दृष्टि द्रव्यात्मा के ज्ञानात्मा होती है और मिथ्यादृष्टि द्रव्यात्मा के ज्ञानात्मा (सम्यग्ज्ञान रूप ) नहीं होती, किन्तु जिसके ज्ञानात्मा है, उसके द्रव्यात्मा नियम से है । क्योंकि द्रव्यात्मा के बिना ज्ञानात्मा संभव ही नहीं है । जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके दर्शनात्मा नियम से होती है। जैसे कि सिद्ध भगवान् को केवल दर्शन होता है। जिसके दर्शनात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा नियम से होती हैं । जैसे चक्षुदर्शनादि वाले के द्रव्यात्मा होती है । द्रव्यात्मा और उपयोगात्मा के समान द्रव्यात्मा और दर्शनात्मा में भी नित्य सम्बन्ध है । जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके चारित्रात्मा की भजना है, क्योंकि विरति वाले द्रव्यात्मा में ही चारित्रात्मा पाई जाती है, विरति रहित संसारी जीव और सिद्ध नींवों में द्रव्यात्मा होने पर भी चारित्रात्मा नहीं पाई जाती। जिस जीव के चारित्रात्मा होती हैं, उसकै द्रव्यात्मा अवश्य होती है। क्योंकि द्रव्यात्मा के बिना चारित्र सम्भव ही नहीं । जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके वीर्यात्मा की भजना है, क्योंकि सकरण-अकरण वीर्ये रहित For Personal & Private Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११२ भगवती सूत्र-श. १२ उ. १० आत्मा के आठ भेद और उनका संबंध सिद्ध जीवों में द्रव्यात्मा तो है, किन्तु वीर्यात्मा नहीं । संसारी जीवों के द्रव्यात्मा और वीर्यात्मा दोनों ही हैं। जहां वीर्यात्मा है, वहां द्रव्यात्मा अवश्य होती है, वीर्यात्मा वाले सभी संसारी जीवों में द्रव्यात्मा होती ही है। सारांश यह है कि द्रव्यात्मा में कषायात्मा, योगात्मा, ज्ञानात्मा, चारित्रात्मा और वीर्यात्मा की भजना है, परन्तु उक्त आत्माओं में द्रव्यात्मा का रहना निश्चित है । द्रव्यात्मा उपयोगात्मा और दर्शनात्मा का परस्पर नित्य सम्बन्ध है । इस प्रकार द्रव्यात्मा के साथ शेष सात आत्माओं का सम्बन्ध है। कषायात्मा के साथ आगे की छह आत्माओं का सम्बन्ध इस प्रकार है जिस जीव के कषायात्मा होती है, उमके योगात्मा अवश्य होती है, क्योंकि सकषायी आत्मा अयोगी नहीं होती। जिसके योगात्मा होती है, उसके कषायात्मा की भजना है, क्योंकि सयोगी आत्मा सकषायी और अकषायी दोनों प्रकार की होती है । जिस जीव के कषायात्मा होती है, उसके उपयोगात्मा अवश्य होती है, क्योंकि उपयोग रहित तो जड़ पदार्थ है और उस के कषायों का अभाव है। उपयोगात्मा के कषायात्मा की भजना है, क्योंकि ग्यारहवें से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के जीवों में तथा सिद्ध जीवों में उपयोगात्मा तो है, परन्तु कषाय का अभाव है। . - जिस जीव के कपायात्मा होती है, उमक ज्ञानात्मा की भजना है, मिथ्यादष्टि के कषायामा होते हुए भी ज्ञानात्मा नहीं होती। सकपायी सम्यग्दृष्टि के ज्ञानात्मा होती है। जिस जीव के ज्ञानात्मा होती है, उसके कषायात्मा की भजना है । ज्ञानी कषाय सहित भी होते हैं और कषाय रहित भी। जिस जीव के कषायात्मा होती है, उसके दर्शनात्मा अवश्य होती है। दर्शन रहित घटादि जड़ पदार्थों में कषायों का सर्वथा अभाव है। जिसके दर्शनात्मा होती है, उसके कषायात्मा की भजना है, क्योंकि दर्शनात्मा वाले जीव सकषायी और अकषायी दोनों प्रकार के होते हैं । जिस जीव के कषायात्मा होती है, उसके चारित्रात्मा की भजना है और चारित्रात्मा वाले के भी कषायात्मा की भजना है. कषाय वाले जीव संयत और असंयत दोनों प्रकार के होते है । सामायिकादि चारित्र वालों के कषाय रहती है और यथाख्यात चारित्र वाले कपाय रहित होते हैं । जिस जीव के कषायात्मा है, उसके वीर्यात्मा अवश्य होती है । वीर्यरहित जीवों में कषायों का अभाव पाया जाता है । वीर्यात्मा वाले जीवों के कषायात्मा की भजना है। क्योंकि वीर्यात्मा वाले जीव सकषायी और For Personal & Private Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. १२ उ. ?. आत्मा के आठ भेद और उनका संबंध अकषायी दोनों प्रकार के होते हैं। योगात्मा के साथ आग का पांच आत्माओं का पारम्परिक सम्बन्ध इस प्रकार हैं: जिस जीव के योगात्मा होता है, उसके उपयोगात्मा अवश्य होती है। सभी सयोगी जीवों में उपयोग होता ही है, किन्तु जिसके उपयोगात्मा होती है, उसके योगात्मा होती भी है और नहीं मी होती । चौदहवं गणस्थानवर्ती अयोगी केवली और सिद्धात्माओं में उपयोगात्मा होते हुए भी योगात्मा नहीं है। ____ जिस जीव के योगात्मा होती है, उसके ज्ञानात्मा की भजना है । मिथ्यादृष्टि जीवों में योगात्मा होते हुए भी ज्ञानात्मा नहीं होती । इसी प्रकार ज्ञानात्मा वाले जीव के भी योगात्मा की भजना है । चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी-केवली और सिद्ध जीवों में ज्ञानात्मा होते हुए भी योगात्मा नहीं होती। जिस जीव के योगात्मा होती है, उसके दर्शन आत्मा अवश्य होती है। सभी जीवों में सामान्यावबोध रूप दर्शन रहता ही है। किन्तु जिस जीव के दर्शनात्मा होती है, उसके योगात्मा की भजना है । दर्शन वाले जीव योग सहित भी होते हैं और योग रहित भी होते हैं। . जिस जीव के योगात्मा होती है, उसके चारित्रात्मा की भजना है । योगात्मा होते हुए भी अविरत जीवों में चारित्रात्मा नहीं होती। इसी तरह जिस जीव के चारित्रात्मा होती है, उसके भी योगात्मा की भजना है, क्योंकि चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी जीवों के चारित्रात्मा तो है, परन्तु योगात्मा नहीं है । दूसरी वाचना में यह बताया है कि जिसके चारित्रात्मा होती है, उसके नियमपूर्वक योगात्मा होती है । यहाँ प्रत्युपेक्षणादि व्यापाररूप चारित्र की विवक्षा है और यह चारित्र योगपूर्वक ही होता है। . जिसके योमात्मा होती है, उसके वीर्यात्मा अवश्य होतो है। योग होने पर वीर्य अवश्य होता ही है। जिसके बीर्यात्मा होती है, उसके योगात्मा की भजना है. क्योंकि अयोगी केवली में वीर्यात्मा तो है, किन्तु योगात्मा नहीं है। यह बात करण और लब्धि दोनों वीर्यात्माओं को लेकर कही गई है। जहां करण-वीर्यात्मा है, वहाँ योगात्मा अवश्य रहेगी, परतु जहाँ लब्धि-वीर्यात्मा है, वहाँ योगात्मा की भजना है। उपयोगात्मा के साथ ऊपर को चार आत्माओं का सम्बन्ध इस प्रकार है जिस जीव के उपयोगात्मा है, उसके ज्ञानात्मा की भजना है । मिथ्यादष्टि जीवों में उपयोगात्मा होते हुए भी ज्ञानात्मा नहीं होती। जिस जीव के ज्ञानात्मा है, उसके For Personal & Private Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११४ . भगवती सूत्र-श. १२ उ. १० आत्मा के आठ भेद और उनका संबंध उपयोगात्मा अवश्य है। जिस जीव के उपयोगात्मा है, उसके दर्शनात्मा अवश्य होती है और जिस जीव के दर्शनात्मा है, उसके उपयोगात्मा अवश्य हैं। जिस जीव के उपयोगात्मा है, उसके चारित्रात्मा की भजना है । असंयति जीवों के उपयोगात्मा तो होती है, परन्तु चारित्रात्मा नहीं होती । जिस जीव के चारित्रात्मा होती है, उसके उपयोगात्मा अवश्य होती है। जिस जीव के उपयोगात्मा होती है, उसके वीर्यात्मा की भजना है। सिद्धों में उपयोगात्मा के होते हुए भी वीर्यात्मा नहीं पाई जाती। . ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा और वीर्यात्मा में उपयोगात्मा अवश्य रहती है। जीव का लक्षण ही उपयोग है । उपयोग लक्षण वाला जीव ही ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य का धारक होता है । उपयोग-शून्य घटादि में जानादि नहीं पाये जाते । .. ज्ञानात्मा के साथ ऊपर की तीन आत्माओं का सम्बन्ध इस प्रकार है;-.. जिस जीव के ज्ञानात्मा है, उसके दर्शनात्मा अवश्य होती है । ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) सम्यग्दृष्टि जीवों के होता है और वह दर्शनपूर्वक ही होता है । जिस जीव के दर्शनात्मा है, उसके ज्ञानात्मा की भजना है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीवों के दर्शनात्मा होते हुए भी ज्ञानात्मा नहीं होती। . ..... - जिस जीव के ज्ञानात्मा है, उसके चारित्रात्मा की भजना है । अविरति सम्यग्दृष्टि जीब के ज्ञानास्मा होते हुए भी. चारित्रात्मा नहीं होती । जिस जीव के चारित्रात्मा है, उसके ज्ञानात्मा अवश्य होती है । ज्ञान के बिना चारित्र का अभाव है। जिस जीव के ज्ञानात्मा होती है, उसके वीर्यात्मा की भजना है। मिद्ध जीवों में ज्ञानात्मा के होते हुए भी वीर्यात्मा नहीं होती। जिस जीव के वीर्यात्मा' है, उसके ज्ञानात्मा की भजना है । मिथ्यादृष्टि जीवों के . वीर्यात्मा होते हुए भी जानात्मा नहीं होती। . ....... ..... ...... - दर्शनात्मा के साथ चारित्रात्मा और वीर्यात्मा का सम्बन्ध इस प्रकार है;-... जिस जीव के दर्शनात्मा होती है उसके चारित्रात्मा और वीर्यात्मा की भजना है, क्योंकि दर्शनात्मा के होते हुए भी असंयति जीवों के चारित्रात्मा नहीं होती और सिद्धों के वीर्यात्मा नहीं होती । जिस जीव के चारित्रात्मा और वीर्यात्मा होती है उसके दर्शनात्मा अवश्य होती है । सामान्यावबोध रूप दर्शन तो सभी जीवों में होता है। For Personal & Private Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगवती सूत्र-श. १२ उ. १० आत्मा का ज्ञान अज्ञान और दर्शन २११५. चारित्रात्मा और वीर्यात्मा का सम्बन्ध इस प्रकार है जिस जीव के चारित्रात्मा होती है, उसके वीर्यात्मा अवश्य होती है। वीर्य के बिना चारित्र का अभाव है जिस जीव के वीर्यात्मा होती है, उसके चारित्रात्मा की भजना है, क्योंकि असंयत जीवों में वीर्यात्मा के होते हए भी चाग्विात्मा नहीं होती। अल्प-वहत्व-इन आठ आत्माओं का अल्प-बहत्व इस प्रकार है। सबसे कम चारित्रात्मा है, क्योंकि चारित्रवान् जीव संख्यात ही है । चारित्रात्मा से ज्ञानात्मा अनन्त गुण है, क्योंकि सिद्ध और सम्यग्दृष्टि जीव चारित्री जीवों से अनन्त गुण हैं । ज्ञानात्मा से कपायात्मा अनन्तगुण है। क्योंकि सिद्ध जीवों की अपेक्षा कषायों के उदय वाले जीव अनन्तगुण है । कषायात्मा से योगात्मा विशेषाधिक है, क्योंकि योगात्मा में कषायात्मा तो सम्मिलित है ही और कषाय. रहित योग वाले जीवों का भी इसमें समावेश हो जाता है। योगात्मा से वीर्यात्मा विशषाधिक हैं. क्योंकि वीर्यात्मा में अयोगी गणस्थान वाली आत्माओं का समावेश है। उपयोगात्मा, द्रव्यात्मा और दर्शनात्मा-ये तीनों परस्पर तुल्य हैं । ये सभी सामान्य जीव रूप हैं, परन्तु वीर्यात्मा से विशेषाधिक हैं, क्योंकि इन तीन आत्माओं में वीर्यात्मा वाले संसारी जीवों के अतिरिक्त सिद्ध जीवों का भी समावेश होता है। आत्मा का ज्ञान अज्ञान और दर्शन ७ प्रश्न-आया भंते ! णाणे अण्णाणे ? ७ उत्तर-गोयमा ! आया सिय णाणे सिय अण्णाणे, गाणे पुण णियमं आया । ८ प्रश्न-आया भंते ! णेरइयाणं णाणे, अण्णे णेरइयाणं णाणे ? ८ उत्तर-गोयमा ! आया णेरइयाणं सिय णाणे, सिय अण्णाणे। णाणे पुण से णियमं आया, एवं जाव थणियकुमाराणं । ९ प्रश्न-आया भंते ! पुढविकाइयाणं अण्णाणे, अण्णे पुढवि. For Personal & Private Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११६ भगवती मूत्र-स. १२ उ. १० आत्मा का ज्ञान अशान और दर्शन काइयाणं अण्णाणे ? ९ उत्तर-गोयमा ! आया पुढविकाइयाणं णियमं अण्णाणे, अण्णाणे वि णियमं आया, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं, बेइंदियतेइंदिय जाव वेमाणियाणं जहा णेरड्याणं । - १० प्रश्न-आया भंते ! दंसणे, अण्णे दंसणे ? १० उत्तर-गोयमा ! आया णियमं दंसणे, दंसणे वि णियमं आया। ११ प्रश्न-आया भंते ! णेरझ्याणं दंसणे, अण्णे णेरइयाणं दंसणे ? ___११ उत्तर-गोयमा ! आया णेरइयाणं णियमा दंसणे, दंसणे वि से णियमं आया, एवं जाव वेमाणियाणं णिरंतरं दंडओ। भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! आत्मा ज्ञान-स्वरूप है या अज्ञानरूप है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! आत्मा कदाचित् ज्ञान-स्वरूप है और कदाचित् अज्ञान स्वरूप है, परन्तु ज्ञान तो अवश्य आत्म-स्वरूप है। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिकों की आत्मा ज्ञानरूप है या नैरयिक जीवों का ज्ञान उससे भिन्न है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक जीवों की आत्मा कदाचित् ज्ञानरूप है और कदाचित् अज्ञान रूप है, परन्तु उनका ज्ञान अवश्य ही आत्मरूप है। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिये ।। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों की आत्मा अज्ञान है या आत्मा से अन्य अज्ञान है. ?. ... ... .. ... . ९ उत्तर-हे गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों की आत्मा अवश्य अज्ञानरूप For Personal & Private Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवती सूत्र--ग.. उ. १० पथ्वी आत्मरूप है ? है और उनका अज्ञान भी अवश्य आत्मरूप है। इस प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक कहना चाहिये। बेइन्द्रिय, तेहन्द्रिय यावत् वैमानिक तक जीवों का कथन नरयिकों के समान जानना चाहिये । १० प्रश्न-हे भगवन् ! आत्मा दर्शनरूप है या दर्शन उससे भिन्न है ? १० उत्तर-हे गौतम ! आत्मा अवश्य दर्शनरूप है और दर्शन भी अवश्य आत्मरूप है। ११ प्रश्न-हे भगवन ! नरयिक जीवों की आत्मा दर्शनरूप है या नरयिक जीवों का दर्शन उससे भिन्न है ? । ११ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक जीवों की आत्मा अवश्य दर्शनरूप है और उनका दर्शन भी अवश्य आत्मरूप है। इस प्रकार यावत् वैमानिकों तक चौवीस ही दण्डक कहना चाहिये । पृथ्वी आत्मरूप है ? . . ... १२ प्रश्न-आया भंते ! रयणप्पभापुढवी अण्णा एयणप्पभा पुढवी? __१२ उत्तर-गोयमा ! रयणप्पभा १ सिय आया २ सिय णो आया ३ सिय अवत्तव्वं आयाइ य णो आयाइ य। प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ-‘रयणप्पभा पुढवी सिय आया, सिय णो आया, सिय अवत्तव्वं आयाइ य णो आयाइ य' ? - उत्तर-गोयमा ! १ अप्पणो आइडे आया, २ परस्स आइडे णो आया, ३ तदुभयस्स आइडे अवत्तव्वं रयणप्पभा पुढवी आयाइ य णो आयाइ य; से तेणटेणं तं चेव जाव णो आयाइ य । For Personal & Private Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११८ भगवती सूत्र - १२ उ. १० पृथ्वी आत्मा रूप है ? जाव असत्तमा । १३ प्रश्न-आया भंते ! सक्करप्पभा पुढवी ? १३ उत्तर - जहा रयणप्पभा पुढवी तहा सकरप्पभा वि, एवं १४ प्रश्न-आया भंते ! सोहम्मे कप्पे पुच्छछ । १४ उत्तर - गोयमा ! १ सोहम्मे कप्पे सिय आया, २ सय णो आया जाव णो आयाइ य । प्रश्न-से केणट्टेणं भंते ! जाव णो आयाइ य ? उत्तर - गोयमा ! १ अप्पणो आइट्ठे आया, २ परस्स आइडें णो आया, ३ तदुभयस्स आइट्ठे अवत्तव्यं आयाइ य णो आयाइ य; से तेणट्टेणं तं चेव जाव णो आयाइ य । एवं जाव अच्चुए कप्पे । १५ प्रश्न - आया भंते ! गेविज्जविमाणे, अण्णे गेविज्जविमाणे ? १५ उत्तर- एवं जहा रयणप्पभा तहेव, एवं अणुत्तरविमाणावि, एवं ईसिप भारा वि । रूप) ? कठिन शब्दार्थ -- माइट्ठे --आदिष्ट- उनके द्वारा कहे जाने पर । १२ प्रश्न - हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी आत्मरूप है या अन्य (असद् १२ उत्तर - हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी कथंचित् आत्मरूप (सद्रूप ) है और कथंचित् नोआत्मरूप ( असद्रूप ) है । सदसद्रूप (उभयरूप ) होने से कथंचित् वक्तव्य है । For Personal & Private Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगवती मूत्र-स. १२ उ. १. पृथ्वी आत्मरूप है ? २११९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि-रत्नप्रभा पृथ्वी कथंचित् सद्रूप, कथंचित् असद्रूप और कथंचित् उभयरूप होने से अवक्तव्य कहते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी अपने स्वरूप से सद्रूप है, पर स्वरूप से असद्रूप है और उभयरूप की विवक्षा से सद्-असद्प होने से अबक्तव्य है । इसलिये पूर्वोक्त रूप से कहा गया है। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! शर्कराप्रभा पृथ्वी आत्मरूप ( सद्रूप ) है, .. इत्यादि प्रश्न । १३ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी का कथन किया है, उसी प्रकार शर्कराप्रभा पृथ्वी के विषय में यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिये। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! सौधर्म देवलोक सद्रूप है, इत्यादि प्रश्न । १४ उत्तर-हे गौतम ! सौधर्म देवलोक कथंचित् सद्रूप है, कथंचित् असद्रूप है और कथंचित् सदसद्रूप होने से अवक्तव्य है। प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? ... उत्तर-हं गौतम ! स्व स्वरूप से सद्रूप है, पर स्वरूप से असद्रूप है और उभय की अपेक्षा अवक्तव्य है। इसलिये उपर्युक्त रूप से कहा है । इसी प्रकार यावत् अच्युत कल्प तक जानना चाहिये । ... १५ प्रश्न-हे भगवन् ! ग्रेवेयक विमान सद्रूप है इत्यादि प्रश्न । १५ उत्तर-हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी के समान कहना चाहिये । इसी प्रकार अनुत्तर विमान तथा ईषत्प्रागभारा पृथ्वी तक कहना चाहिये। विवेचन-यहाँ ज्ञान से सम्यग्ज्ञान का और अज्ञान से मिथ्या ज्ञान का ग्रहण किया गया है । 'आत्मा का अर्थ है सद्रूप और अनात्मा का अर्थ है असद्रूप ।' किसी भी वस्तु को एक साथ सद्रूप और असद्रूप नहीं कहा जा सकता । उस दशा में वस्तु अवक्तव्य कहलाती है । रत्नप्रभा पृथ्वी अपने वर्णादि पर्यायों द्वारा सद्प है, पर-वस्तु की पर्यायों से असद्रूप है, स्व-पर पर्यायों से आत्मस्वरूप और अनात्मरूप अर्थात् सद् और असद्रूपइन दोनों द्वारा एक बार कहना अशक्य है। इसलिये यहाँ सद्रूप, असद्रूप और अवक्तव्यये तीन भंग होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२. भगवती सूत्र-श. १२ ३. १० परमाणु आदि की नद्रूपता परमाणु आदि की सदूपता १६ प्रश्न-आया भंते ! परमाणुपोग्गले, अण्णे परमाणुपोग्गले ? . १६ उत्तर-एवं जहा सोहम्मे कप्पे तहा परमाणुपोग्गले वि भाणियब्वे । - १७ प्रश्न-आया भंते ! दुपएसिए खंधे, अण्णे दुपएसिए खंधे ? १७ उत्तर-गोयमा ! १ दुपएसिए खधे सिय आया २ सिय णोआया ३ सिय अवत्तव्यं आयाइ य णो आयाइ य, ४ सिय आया य णो आया ग, ५ सिय आया य अवत्तव्यं आयाइ य णो आयाइ य ६ सिय णो आया य अवत्तव्यं आयाइ य णो आयाइ य । १८ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं तं चेव जाव 'जो आया य अवत्तव्यं आयाइ य णो आयाइ य' ? १८ उत्तर-गोयमा ! १ अप्पणो आइट्टे आया २ परस्स . आइटे णोआया ३ तदुभयस्स आइडे अवत्तव्यं दुपएसिए खंधे . आयाइ य णो आयाइ य ४ देसे आइटे सम्भावपज्जवे देसे आइट्टे असम्भावपजवे दुप्पएसिए खंधे आया य णो आया य ५ देसे आइटे सम्भावपजवे देमे आइटे तदुभयपजवे दुपएसिए खंधे आया य अवत्तव्यं आयाइ य णोआयाइ य ६ देसे आइट्टे असम्भावपजवे देमे आइट्टे तदभयपज्जवे दुपएमिए खंधे णो आया य अवत्तव्वं For Personal & Private Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगपती मूत्र-ग... १० परमाणु आदि की गदपता २१२१ आयाइ य णो आयाइ य, से तेणटेणं तं चेव जाव ‘णोआयाइ य'। भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! परमाणु-पुद्गल सद्प है या असद्रूप है ? १६ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार सौधर्म देवलोक के विषय में कहा है उसी प्रकार परमाणु-पुद्गल के विषय में भी कहना चाहिये । १७ प्रश्न-हे भगवान ! द्विप्रदेशी स्कन्ध सद्रूप है या असद्रूप ? । १७ उत्तर-हे गौतम ! द्विप्रदेशी स्कन्ध कथंचित् सद्प है । कथंचित असद्प है और सदतद्रूप होने से कथंचित् अवक्तव्य है । ४ कथंचित् सद्प है और कथंचित् असद्रूप है । ५ कथंचित् सद्रूप है और सदसद्उभयरूप होने से अवक्तव्य है । ६ कथंचित् असद्रूप है और संदसद्उभयरूप होने से अवक्तव्य है। १८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि यावत् अवक्तव्यरूप है ? १८ उत्तर-हे गौतम ! द्विप्रदेशी स्कन्ध अपने स्वरूप की अपेक्षा सद्रूप है, परस्वरूप को अपेक्षा असद्रूप है और उभयरूप से अवक्तव्य है । एक देश की अपेक्षा एवं सद्भाव पर्याय की विवक्षा तथा एक देश की अपेक्षा से एवं असद्भाव पर्याय की विवक्षा से द्विप्रदेशी स्कन्ध सद्प और असद्रूप है । ५ एक देश की अपेक्षा, सद्भाव पर्याय की अपेक्षा और एक देश की अपेक्षा से सदभाव और असद्भाव, इन दोनों पर्यायों की अपेक्षा से द्विप्रदेशी स्कन्ध सद्रूप और सदसद्प उभयरूप होने से अवक्तव्य है। ६ एक देश की अपेक्षा, असद्भाव पर्याय की. अपेक्षा और एक देश के सद्भाव असद्भावरूप उभय पर्याय की अपेक्षा द्विप्रदेशी स्कन्ध असद्प और अवक्तव्यरूप है । इस कारण पूर्वोक्त प्रकार से कहा है । विवेचन--द्वि प्रदेशी स्कन्ध के विषय में छह भंग बनते हैं, इनमें से पहले के तीन भग सम्पूर्ण स्कन्ध को अपेक्षा से बनते हैं जो कि पहले कहे गये हैं। ये असंयोगी है । बाकी For Personal & Private Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १२ उ. १० परमाणु आदि की सद्रूपता एक के तीन भंग देश की अपेक्षा हैं, जो कि द्विसंयोगी है । द्विदेशी स्कन्ध होने से उसके देश की स्वपर्यायों द्वारा सद्रूप की विवक्षा की जाय और दूसरे देश की पर पर्यायों द्वारा असद्रूप से विवक्षा की जाय, तो द्विप्रदेशी स्कन्ध अनुक्रम में कथंचित् सद्रूप और कथंचित् असद्रूप होता है । उसके एक देश की स्वपर्यायों द्वारा मद्रूप से विवक्षा की जाय और दूसरे देश से सदसद् उभयरूप से विवक्षा की जाय, तो कथंचित् मद्रूप और कथंचित् अवक्तव्य कहलाता है । उस स्कन्ध के एक देश की पर्यायों द्वारा असद्रूप से विवक्षा की जाय और दूसरे देश की उभयरूप से विवक्षा की जाय, तो अमद्प और अवक्तव्य कहलाता है । कथंचित् सद्रूप कथंचित् असद्रूप और कथंचित् अवक्तव्य संप, इस प्रकार सातवां भंग द्विप्रदेशी स्कन्ध में नहीं बनता है । क्योंकि उसके केवल दो अंग ही हैं । त्रि प्रदेशी आदि स्कन्ध में तो ये सातों भंग बनते हैं । २१२२ १९ प्रश्न - आया भंते! तिपएसिए खंधे अण्णे तिपपसिए स्वधे ? - १९ उत्तर - गोयमा ! तिपएसिए बंधे १ सय आया २ सिय णो आया ३ सिय अवत्तव्वं आयाइ य णो आयाइ य ४ सिय आया य णो आया ५ सय आया य णो आयाओ य ६ सिय आयाओ य आया ७ सय आया य अवत्तव्यं आयाइ य णो आयाइ य ८ सिय आया य अवत्तव्वाई आयाओ य णो आयाओ य ९ सय आयाओ य अवत्तव्वं आयाइ य णो आयाइ य १० सिय णो आया य अवत्तव्वं आयाइ य णो आयाइ य ११ सिय णो आया य अवत्तव्वाई आयाओ यो आयाओ य १२ सिय णो आयाओ य अवत्तव्वं आया य णो आया य १३ सय आया य णो आया य अवत्तव्वं आयाइ य For Personal & Private Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ उ. १ . परमाणु आदि की सद्रूपता २१२३ णोआयाइ य । ___ २० प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं बुचड़-तिपएमिए खधे सिय आया एवं चेव उच्चारेयध्वं जाव सिय आया य णो आया य अवत्तव्यं आयाइ य णोआयाइ य ? . २० उत्तर-गोयमा ! १ अप्पणो आइटे आया, २ परस्स आइडे णोआया, ३ तदुभयस्स आइडे अवत्तव्यं आयाइ य णोआयाइ य, ४ देसे आइढे सम्भावपज्जवे देमे आइट्टे असब्भावपज्जवे तिपए. सिए खंधे आया य णोआया य, ५ देसे आइढे सम्भावपज्जवे देसा आइट्ठा असम्भावपजवा तिपएसिए खंधे आया य णोआयाओ य, ६ देसा आइट्टा सम्भावपजवा देसे आइटे असल्भावपज्जवे तिपएसिए खधे आयाओ य णोआया य, ७ देसे आइडे सम्भावपनवे देसे आइटे तदुभयपजवे तिपएसिए खंधे आया य अवत्तव्यं आयाइ य णोआयाइ य. ८ देसे आइटे सम्भावपजवे देसा आइट्ठा तदुभयपज्जवा तिपएसिए खंधे आया य अवतन्वाइं आयाओ य णोआयाओ य, ९ देसा आइट्ठा सम्भावपज्जवा देसे आइढे तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे आयाओ य अवत्तव्वं आयाइ य णोआयाइ य, एए तिण्णि भंगा, १० देसे आइढे असम्भावपज्जवे देसे आइटे तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे णोआया य, अवत्तन्वं आयाइ य णोआयाइ य, ११ देसे आइडे For Personal & Private Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२४ भगवता मूत्र-... १२ उ. १० परमाण आदि की सद्रूपता असम्भावपज्जवे देसा आइट्टा तदुभयपजवा तिपएसिए खंधे णोआया य अवत्तव्वाइं आयाओ य णोआयाओ य, १२ देसा आइट्ठा असम्भावपज्जवा देसे आइटे तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे णोआयाओ य अवत्तव्यं आयाइ य. णोआयाइ य, १३ देसे आइटे सम्भावपजवे देसे आइटे असम्भावपज्जवे देसे आइटे तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे आया य णोआया य अवत्तव्यं आयाइ य णोआयाइ य । से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-'तिपएसिए खंधे सिय आया तं चेव जाव णोआयाइ य ।' भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध आत्मा (सद्-रूप) है या उससे अन्य है ? १९ उत्तर-हे गौतम ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध १ कथंचित् आत्मा (विद्यमान) है, २ कथंचित् नो आत्मा है, ३ आत्मा तथा नो आत्मा इस उभयरूप से कथंचित् अवक्तव्य है, ४ कथंचित् आत्मा तथा कथंचित् नो आत्मा है, ५ कथंचित् आत्मा और नो आत्माएँ हैं, ६ कथंचित् आत्माएँ और नो आत्मा है, ७ कथंचित् आत्मा और आत्मा तथा नो आत्मा उभय रूप से अवक्तव्य है, ८ कथंचित् आत्मा और आत्माएँ तथा नो आत्माएँ उभय रूप से अवक्तव्य है, ९ कथंचित् आत्माएँ और आत्मा तथा नो आत्मा उभय रूप से अवक्तव्य है, १० कथंचित् नो आत्मा और आत्मा तथा नो आत्मा उभय रूप से अवक्तव्य है, ११ कथंचित् नो आत्मा और आत्माएं तथा नो आत्माएं उभय रूप से अवक्तव्य है । १२ कथंचित् नो आत्माएँ और आत्माएँ तथा नो आत्माएँ उभय रूप से अवक्तव्य है, १३ कथंचित् आत्मा, नो आत्मा और आत्मा तथा नो आत्मा उभय रूप से अवक्तव्य है। For Personal & Private Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १२ उ. १० परमाण आदि की गद्रूपत। २१२५ २० प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि त्रिप्रदेशी स्कन्ध कथंचित् आत्मा है,' इत्यादि ? २० उत्तर-हे गौतम ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध १ अपने आदेश (अपेक्षा) से आत्मा है, २ पर के आदेश से नो आत्मा है, ३ उभय के आदेश से आत्मा और नो आत्मा इस उभय रूप में अदक्तव्य है, ४ एक देश के आदेश से सद्भाव पर्याय की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से असद्भाव पर्याय की अपेक्षा, त्रिप्रदेशी स्कन्ध आत्मा और नो आत्मारूप है, ५ एक देश के आदेश से सद्भाव पर्याय को अपेक्षा और बहुत देशों के आदेश से असद्भाव पर्याय की अपेक्षा से वह त्रिप्रदेशी स्कन्ध आत्मा तथा नोआत्माएँ है, ६ बहुत देशों के आदेश से सद्भाव पर्याय की अपेक्षा और एक देश के आदेश से असद्भाव पर्याय की अपेक्षा से त्रिप्रदेशी स्कन्ध आत्माएँ और नो आत्मा है, ७ एक देश के आदेश से सद्भाव पर्याय की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से उभय (सद्भाव और. असद्भाव) पर्याय की अपेक्षा से त्रिप्रदेशी स्कन्ध . आत्मा और आत्मा तथा , नो आत्मा उभय रूप से अवक्तव्य है ८ एक देश के आदेश से सद्भाव पर्याय की अपेक्षा से और बहुत देशों के आदेश से उभय पर्याय की विवक्षा से त्रिप्रदेशी कन्ध आत्मा और आत्माएँ तथा नो आत्माएँ इस उभय रूप से अवक्तव्य है ९ बहुत देशों के आदेश से सद्भाव पर्याय की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से उभय पर्याय की अपेक्षा से त्रिप्रदेशो स्कन्ध आत्माएँ और आत्मा तथा नो आत्मा इस उभय रूप से अवक्तव्य है । ये तीन भंग जानने चाहिये । १० एक देश के आदेश से असद्भाव पर्याय की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से उभय पर्याय की अपेक्षा से त्रिप्रदेशी स्कन्ध नो आत्मा और आत्मा तथा नो आत्मा से अवक्तव्य है, ११ एक देश के आदेश से असद्भाव पर्याय की अपेक्षा से और बहुत देशों के आदेश से तदुभय पर्याय की अपेक्षा से त्रिदेशी स्कन्ध नो आत्मा और आत्माएँ तथा नो आत्माएं इस उभयरूप से अवक्तव्य है। १२ बहुत देशों के आदेश से असद्भाव पर्याध की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से तदुभय पर्याय की अपेक्षा से त्रिप्रदेशी स्कन्ध नो आत्माएँ और आत्मा तथा नो आत्मा उभय रूप For Personal & Private Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२६ भगवती सूत्र-श. १२ उ. १० परमाणु आदि की सद्रूपता . से अवक्तव्य है, १३ एक देश के आदेश से सद्भाव पर्याय की अपेक्षा, एक देश के आदेश से असद्भाव पर्याय की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से तदुभय पर्याय की अपेक्षा से त्रिप्रदेशी स्कन्ध कथंचित आला, नोआला और आत्मा तथा नोआत्ला उभयरूप से अवक्तव्य है। इसलिये हे गौतम ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध के विषय में उपर्युक्त कथन किया गया है। विवेचन-त्रिप्रदेशी स्कन्ध के विषय में तेरह भंग होते हैं। उनमें से पहले कहे हुए भंगो में से तीन भंग सम्पूर्ण स्कन्ध की अपेक्षा से असंयोगी है, पीछे नौ भंग द्विसंयोगी हैं। तेरहवां भंग त्रिसंयोगी है। २१ प्रश्न-आया भंते ! चउप्पएसिए खंधे अण्णे० पुच्छा ? २१ उत्तर-गोयमा ! चउप्पएसिए खंधे १ सिय आया २ सिय णोआया ३ सिय अवत्तव्यं आयाइ य णोआयाइ य, ४-७ सिय आया य णोआया य ४, ८-११ सिय आया य अवत्तव्वं ४, १२१५ सिय णोआया य अवत्तव्वं ४, १६ सिय आया य णोआया य अवत्तव्यं आयाइ य णोआयाइ य १७ सिय आया य णोआया य अवत्तब्वाई आयाओ य णोआयाओ य १८ सिय आया य णोआयाओ य अवत्तव्वं आयाइ य णोआयाइ य १९ सिय आयाओ य णोआया य अवत्तव्यं आयाइ य णोआयाइ य । २२ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'चउप्पएसिए खंधे सिय आया य णोआया य अवत्तव्वं-तं चेव अढे पडिउच्चारेयव्वं ? २२ उत्तर-गोयमा ! १ अप्पणो आइटे आया २ परस्स For Personal & Private Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शः १२ . १० परमाणु आदि की पता २१२७ आइडे णो आया ३ तदुभयस्स आइडे अवत्तव्यं आयाइ य णो आयाइ य ४ देसे आइने सम्भावपजवे देसे आइडे अमभावपजवे चभंगी, सम्भावपज्जवेणं तदुभएण य चउभंगो, असन्भावेणं तदुभएण य भंगो, देमे आइ सम्भावपज्जवे देस आइडे असम्भाववज्जवे देसे आइडे तदुभयपजवे चउप्पएसिए खंधे आया ये णो आया य अबत्तव्यं आयाइ यणो आयाइ य १६ देसे आइडे सम्भावपज्जवे देसे आइडे असम्भावपज्जवे देमा आइट्टा तदुभयपजवा चउप्पएसिए वंधे आया य णो आया य अवत्तब्वाई आयाओ य णोआयाओ य १७ देसे आइडे सम्भावपज्जवे देसा आइड्डा असम्भावपज्जवा देसे आइडे तदुभयपज्जवे चउप्परसिए खंधे आया यणो आयाओ य अवत्तव्यं आयाइ य णो आयाइ य १८ देसा आइड्डा सम्भावपज्जवा देसे आइडे असम्भावपज्जवे देसे आइट्टे तदुभयपज्जवे उप्परसिए खंधे आयाओ य णो आया य अवत्तव्यं आयाइ य णो आयाइ य १९ से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - चउप्पर सिए धे सिय आया सिय णो आया सिय अवत्तव्वं णिक्खेवे ते चेव भंगा उच्चारेयव्वा जाव णो आयाइ य । भावार्थ - २१ प्रश्न - हे भगवन् ! चतुःप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है या अन्य है, इत्यादि प्रश्न । २१ उत्तर - हे गौतम ! चतुष्प्रदेशी स्कन्ध १ कथंचित् आत्मा है २ कथंचित् नोआत्मा है ३ आत्मा नोआत्मा उभय रूप से कथंचित् अवक्तव्य For Personal & Private Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२८ भगवती सूत्र-श. १२ उ. १० परमाणु आदि की सद्रूपता है । ४-७ कथंचित् आत्मा और नोआत्मा है (एक वचन और बहुचन आश्री चार भंग) । ८-११ कथंचित् आत्मा और अवक्तव्य है (एक वचन और बहुवचन आश्री चार भंग) । १२-१५ कथंचित् नोआत्मा और अवक्तव्य है (एक वचन और बहुवचन आश्री चार भंग)। १६ कथंचित् आत्मा और नोआत्मा तथा आत्मा, नोआत्मा रूप से अवक्तव्य है । १७ कथंचित् आत्ला, नोआत्मा और आत्माएं तथा नोआत्माएं रूप से अवक्तव्य हैं । १८ कथंचित् आत्मा, नोआत्माएं तथा आत्मा और नोआत्मा उभयरूप से अवक्तव्य है । १९ कथंचित् आत्माएं, नोआत्मा और आत्मा तथा नोआत्मा रूप से अवक्तव्य है। २२ प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है ? २२ उत्तर-हे गौतम ! १ अपने आदेश से आत्मा है, २ पर के आदेश से नोआत्मा है, ३ तदुभय के आदेश से आत्मा और नोआत्मा-इस उभय रूप से अवक्तव्य है । ४-७ एक देश के आदेश से सद्भाव पर्याय की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से असद्भाव पर्याय की अपेक्षा से (एक वचन और बहुवचन आश्री)चार भंग होते हैं। ८-११ सद्भाव पर्याय और तदुभय पर्याय की अपेक्षा से (एक वचन बहुवचन आश्री) चार भंग होते हैं । १२-१५ असद्भाव पर्याय और तदुभय पर्याय की अपेक्षा से (एक वचन बहुवचन आश्री) चार भंग होते हैं। १६ एक देश के आदेश से सद्भाव पर्याय की अपेक्षा से, एक देश के आदेश से असद्भाव पर्याय की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से तदुभय पर्याय की अपेक्षा से चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्मा, नोआत्मा और आत्मा नोआत्मा उभयरूप से अवक्तव्य है । १७ एक देश के आदेश से सद्भाव पर्याय की अपेक्षा से, एक देश के आदेश से असद्भाव पर्याय की अपेक्षा से और बहुत देशों के आदेश से तभय पर्याय की अपेक्षा से चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्मा, नोआत्मा और आत्माएँ, नोआत्माएं उभय रूप से अवक्तव्य है । १८ एक देश के आदेश से सद्भाव पर्याय की अपेक्षा से, बहुत देशों के आदेश से असद्भाव पर्याय की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से तदुभयपर्याय की अपेक्षा से चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्मा, For Personal & Private Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूल-म. १२ उ. १० परमाण आदि की मद्पना २१२९ नो आत्माएँ और आत्मा नोआत्मा उभय रूप से अवक्तव्य है । १९ बहुत देशों के आदेश से सद्भाव पर्याय की अपेक्षा से, एक देश के आदेश से असद्भाव पर्याय की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से तदुभय पर्याय की अपेक्षा से चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्माएँ, नोआत्मा और आत्मा नोआत्मा उभयरूप से अवक्तव्य है । इसलिये हे गौतम ! इस कारण ऐसा कहा जाता है कि चतुष्प्रदेशी स्कन्ध कथंचित् आत्मा है, कथंचित् नोआत्मा है और कथंचित् अवक्तव्य है । इस निक्षेप में पूर्वोक्त सभी भंग यावत् 'नोआत्मा है' तक कहना चाहिये । विवेचन-चतुष्प्रदेशी स्कन्ध में भी त्रिप्रदेशी स्कन्ध के समान जानना चाहिये । किन्तु यहाँ उन्नीस भंग बनते हैं। उनमें से तीन भंग सम्पूर्ण पन्ध्र की अपेक्षा से असंयोगी । होते हैं। बाद में बारह भंग द्विमं योगी होते हैं। ग्रंप चार भग त्रिसंयोगी होते हैं। २३ प्रश्न-आया भंते ! पंचपएसिए खंधे, अण्णे पंचपएसिए खंधे ? २३ उत्तर-गोयमा ! पंचपएमिए बंधे १ सिय आया २ सिय णो आया ३ सिय अवत्तव्यं आयाइ य णो आयाइ य ४-७ सिय आया य णो आया य, ८.११ सिय आया य अवत्तव्वं ४,१२-१५ णो आया य अवत्तव्वेण य ४, तियगसंजोगे एको ण पडइ । २४ प्रश्न-से केणट्टेणं भंते ! तं चेव पडिउच्चारेयव्वं ? २४ उत्तर-गोयमा ! १ अप्पणो आइढे आया २ परस्स आइटे णो आया ३ तदुभयस्स आइडे अवत्तव्वं ४ देसे आइढे सम्भावपजवे देसे आइटे असम्भावपज्जवे-एवं दुयगसंजोगे सब्बे पडंति तियगसंजोगे एको ण पडइ । छप्पएसियस्स सब्बे पडंति । जहा उप्पए. For Personal & Private Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३० भगवती सूत्र - श. १२. उ. १० परमाणु आदि की सद्रूपता सिए एवं जाव अनंतपएसिए । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ ॥ वारसमस दसमो उद्देसो समत्तो ॥ ॥ समत्तं बारसमं सयं ॥ भावार्थ - २३ प्रश्न - हे भगवन् ! पञ्चप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है या अन्य है ? २३ उत्तर - हे गौतम! पञ्चप्रदेशी स्कन्ध १ कथंचित् आत्मा है, २ कथंचित् नोआत्मा है, ३ आत्मा नोआत्मा रूप से कथंचित् अवक्तव्य है, ४-७ कथंचित् आत्मा, नोआत्मा है ( एकवचन बहुवचन आश्री ४ भंग ) ८-११ कथंचित् आत्मा और अवक्तव्य के चार भंग, १२-१५ कथंचित् नोआत्मा और अवक्तव्य के चार भंग, त्रिक संयोगी आठ भंग में से एक आठवाँ भंग घटित नहीं होता, अर्थात् सात भंग होते है । कुल मिलाकर बावीस भंग होते हैं । २४ प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया है कि पञ्चप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है, इत्यादि प्रश्न । २४ उत्तर - हे गौतम ! १ पञ्चप्रदेशी स्कन्ध अपने आदेश से आत्मा है, २ पर के आदेश से नोआत्मा है, ३ तदुभय के आदेश से अवक्तव्य है, एक देश के आदेश से सद्भाव पर्याय की अपेक्षा और एक देश के आदेश से असद्भाव पर्याय की अपेक्षा से कथंचित् आत्मा है, कथंचित् नोआत्मा । इस प्रकार द्विक संयोगी सभी भंग पाये जाते हैं । त्रिसंयोगी आठ भंग होते हैं, उनमें से आठवाँ भंग घटित नहीं होता । छह प्रदेशी स्कन्ध के विषय में ये सभी भंग घटित होते हैं। छह प्रदेशी स्कन्ध के समान यावत् अनन्त प्रदेशी तक कहना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ ३.१० परमाणु आदि की गद्रूपता हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-पञ्चप्रदेशी स्कन्ध के २२ भंग होते हैं । इनमें से पहले के तीन भंग पूर्ववत् सकलादेश रूप हैं । इसके बाद द्विसंयोगी वारह भंग हैं। त्रिकसंयोगी आठ भंग होते हैं। उसमें से यहां प्रथम के सात भंग ग्रहण करने चाहिये । आठवां भंग यहाँ असम्भव होने से घटित नहीं हो सकता । छह प्रदेशी स्कन्ध में और इससे आगे यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक तेईस तेईस भंग होते है। वे इस प्रकार हैं ___ असंयोगी तीन भंग १ आत्मा, २ नो आत्मा ३ अवक्तव्य । दो संयोगी १२ भंग १ आत्मा एक, नोआत्मा एक ७ आत्मा बहुत, अवक्तव्य एक २ आत्मा एक, नाआत्मा बहुत ८ आत्मा बहुत, अवक्तव्य बहुत ३ आत्मा बहुत, नोआत्मा एक ९ नोआत्मा एक, अवक्तव्य एक ४ आत्मा बहुत, नोआत्मा बहुत १० नोआत्मा एक, अवक्तव्य बहुत ५ आत्मा एक, अवक्तव्य एक . ११ नोआत्मा बहुत, अवक्तव्य एक ६ आत्मा एक, अवक्तव्य बहुत - १२ नोआत्मा बहुत, अवक्तव्य बहुत .... तीन संयोगी ८ भंग १ आत्मा एक, नोआत्मा एक, अवक्तव्य एक , २ आत्मा एक, नोआत्मा एक, अवक्तव्य बहुत ३ आत्मा एक, नोआत्मा बहुत, अवक्तव्य एक ४ आत्मा एक, नोआत्मा बहुत, अवक्तव्य बहुत ५ आत्मा बहुत, नोआत्मा एक, अवक्तव्य एक ६ आत्मा बहुत, नोआत्मा एक, अवक्तव्य बहुत ७ आत्मा बहुत, नोआत्मा बहुत, अवक्तव्य एक ८ आत्मा बहुत, नोआत्मा बहुत, अवक्तव्य बहुत परमाणु पुद्गल में तीन असंयोगी भंग पाये जाते हैं। दो प्रदेशी स्कन्ध में ६ भंग पाये जाते हैं, असंयोगी ३ और दो संयोगी ३, (पहला, पांचवां, नौवां) । त्रि प्रदेशी स्कन्ध For Personal & Private Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२ उ. १० परमाणु आदि की सद्रूपता में १३ भंग पाये जाते हैं यथा-३ असंयोगी, ९ दो संयोगी (चौथा, आठवां और बारहवां, ये तीन भंग छोड़कर, शेप ९) । तीन संयोगी १ (पहला मंग) । चतुष्प्रदेशी स्कन्ध में १९ भंग पाये जाते हैं, यथा-: असंयोगी, १२ दो संयोगी और ४ तीन संयोगी, (पहला, दूसरा, तीसरा, पांचवां) । पञ्चप्रदेशी स्कन्ध में २२ भंग पाये जाते हैं, यथा-असंयोगी १२ दोसंयोगी और ७ तीन संयोगी (आठवां भंग छोड़कर शेष सात)। छह प्रदेशी स्कन्ध में २३ भंग पाये जाते हैं। इसी प्रकार सात प्रदेशी स्कन्ध में आठ प्रदेशी स्कन्ध में यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध में, प्रत्येक में तेईस-तेईस भंग पाये जाते हैं। ॥ वारहवें शतक का दसवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ बारहवां शतक सम्पूर्ण चतुर्थ भाग सम्पूर्ण For Personal & Private Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i जैन यसुपर ANDROINITION भारतीय Cins Laparee तसकता व्यावर राज AUO For Personal & Private Use Only