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भगवती सूत्र - श. ११ उ. १ उत्पल के जीव
अवस्था से ऊपर की होती है। जब उसके अधिक पत्ते उत्पन्न होते हैं, तब वह अनेक जीव वाला हो जाता है । उसमें वे जीव नरक गति से आकर उत्पन्न नहीं होते, शेष तीन गतियों से आकर उत्पन्न होते हैं। वे एक समय में जघन्य एक दो या तीन, उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं । उन असंख्यातों का परिमाण बताने के लिये कहा गया है कि यदि उनमें से प्रति समय एक-एक जीव निकाला जाय तो असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी पूरी हो जाने पर भी वे निर्लेप नहीं हो सकते, अर्थात् सम्पूर्ण रूप से नहीं निकाले जा सकते । किसी ने ऐसा कभी किया नहीं और कर भी नहीं सकता, क्योंकि इतने समय तक न तो वे वनस्पति के जीव रहते हैं और न गणना करने वाला ही रहता है । इन जीवों के शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्य भाग जितनी और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार योजन की होती है।
यहां टीका में प्रथम उद्देशक के अर्थ संग्रह की गाथाएँ दी गई हैं। वे इस प्रकार हैं
उववाओ परिमाणं, अवहारुच्चत्त बंध वेदे य ।
उदए उदीरणाए, लेस्सा दिट्ठी य णाणे य ॥ १ ॥ जोगवओगे वण्ण रसमाई, ऊसासगे य आहारे । विरई किरिया बंधे, सण्ण कसायित्थि बंधे य ॥ २ ॥ सदिय अणुइंधे, संवेहाहार ठिइ समुग्धाए ।
मूलादी य, उववाओ सव्व जीवाणं ॥ ३ ॥
अर्थ - १ उपपात, २ परिमाण, ३ अपहार, ४ ऊँचाई - अवगाहना ५ बंध ६ वेद ७ उदय ८ उदीरणा ९ लेश्या १० दृष्टि ११ ज्ञान १२ योग १३ उपयोग १४ वर्ण रसादि १५ उच्छ्वास १६ आहार १७ विरति १८ क्रिया १९ बंधक २० संज्ञा २१ कषाय २२ स्त्री वेदादि बंध २३ संज्ञी २४ इन्द्रिय २५ अनुबंध २६ संवेध २७ आहार २८ स्थिति २९ समुद्घात ३० च्यवन और ३१ सभी जीवों का मूलादि में उपपात ।
इन द्वारों में से उपपात, परिमाण, अपहार और ऊँचाई अर्थात् शरीर की अवगाहनाइन चार द्वारों का वर्णन ऊपर किया गया है, शेष द्वारों का वर्णन आगे किया जायगा ।
७ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्त किं बंधगा अबंधगा ?
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