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भगवती मूत्र-ग. १. इ. ३३ जमाली चरित्र
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भावार्थ-२१-जब जमालीकुमार के माता-पिता उसे विषय के अनुकल बहुत-सी उक्तियाँ, प्रज्ञप्तियां, संज्ञप्तियाँ और विज्ञप्तियों द्वारा कहने, जतलाने और समझाने-बुझाने में समर्थ नहीं हुए, तव विषय के प्रतिकूल और संयम में भय तथा उद्वेग उत्पन्न करने वाली उक्तियों से समझाते हुए इस प्रकार कहने लगे-"हे पुत्र ! यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन सत्य, अनुत्तर (अनुपम), अद्वितीय, परिपूर्ण, न्याययुक्त, शुद्ध, शल्य को काटने वाला, सिद्धिमार्ग, मुक्तिमार्ग, निर्यागमार्ग और निर्वागमार्ग रूप है, यह अवितथ (असत्य रहित) है, अविसंधि (निरन्तर) है और समस्त दुःखों का नाश करनेवाला है। इसमें तत्पर जीव सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त होते हैं, निर्वाण प्राप्त करते हैं तथा समस्त दुःखों का अन्त करते हैं । परन्तु हे पुत्र ! यह धर्म, सर्प की एकांत दृष्टि, शस्त्र को एक धार और लोहे के जौ (चने) चाबने के समान दुष्कर है, बालु (रेत) के कवल (ग्रास) के समान निस्वाद है, गंगा महानदी के प्रवाह के सम्मुख जाने के समान तथा भुजाओं से महा-समुद्र तैरने के समान इस का पालन करना बड़ा कठिन है। यह धर्म खड्ग आदि की तीक्ष्ण धार पर चलने के समान दुष्कर है । महाशिला को उठाने के समान है
और तलवार की तीक्ष्ण धारा के समान व्रत का आचरण करना कठिन है। हे पुत्र ! श्रमण-निग्रंथों को इतने कार्य करना नहीं कल्पते, यथा-(१).आधाकर्मिक, (२) औद्देशिक, (३) मिश्र जात, (४) अध्यवपूरक, (५) पूर्तिकर्म, (६) क्रीत, (७) प्रामित्य, (८) अछेद्य, (९) अनिसृष्ट, (१०) अभ्याहुत, (११) कान्तारभक्त, (१२) दुभिक्षभक्त, (१३) ग्लानभक्त, (१४) वादलिकाभक्त, (१५) प्राघुर्णकभक्त, (१६) शय्यातर-पिण्ड और (१७) राजपिण्ड । इसी प्रकार मूल, कन्द, फल, बीज और हरी वनस्पति का भोजन करना
और पीना नहीं कल्पता। हे पुत्र ! तू सुख-भोग करने योग्य है, दुःख के योग्य नहीं है । तू शीत, उष्ण, भूख, प्यास, चोर, श्वापद (हिंसक सर्पादि), डांस और मच्छर के उपद्रव वात, पित्त, कफ और सन्निपात सम्बन्धी अनेक प्रकार के रोग और उन रोगों से होने वाला कष्ट तथा परिषह और उपसर्गों को सहन करने में तू समर्थ नहीं है । हे पुत्र ! हम एक क्षण के लिए भी तेरा वियोग सहन
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