SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७४८ भगवती सूत्र - ग. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र जीतो, णिहणाहि - नष्ट करो, धिइधणियबद्ध कच्छे-धैर्यरूपी कच्छ को दृढ़ता से बाँधकर मद्दाहि मर्दन कर, आराहणपडागं-आराधना रूपी पताका, तेलोक्करंगमज्झं- त्रिलोक रूपी रंग मंडप में पावय-प्राप्त करो, अकुडिलेणं - सरलता मे, परिसहचमूं - परिषह रूपी मेना, अभिभविय गामकंटकोवसग्गाणं- इन्द्रियों के प्रतिकूल कंटक समान उपसर्गों को हराकर, अविग्धमत्थु - निर्विघ्न होवो । भावार्थ - २६ - क्षत्रियकुण्डग्राम के बीच से निकलते हुए जमालीकुमार को शृंगाटकं, त्रिक, चतुष्क यावत् राजमार्गों में बहुत-से धनार्थी और कामार्थी पुरुष, अभिनन्दन करते हुए एवं स्तुति करते हुए इस प्रकार कहने लगे - "हे नन्द ( आनन्द - दायक ) ! धर्म द्वारा तेरी जय हो । हे नन्द ! तप से तुम्हारी जय हो । हे नन्द ! तुम्हारा भद्र (कल्याण) हो । हे नन्द ! अखण्डित उत्तम ज्ञान, दर्शन और चारित्र द्वारा अविजित ऐसी इन्द्रियों को जीतें और श्रमण धर्म का पालन करें। धैर्य रूपी कच्छ को मजबूत बाँध कर सर्व विघ्नों को जीतें । इन्द्रियों को वश कर के परीषह रूपी सेनापर विजय प्राप्त करें । तप द्वारा रागद्वेष रूपी मल्लों पर विजय प्राप्त करें और उत्तम शुक्लध्यान द्वारा अष्ट कर्म रूपी शत्रुओं का मर्दन करें । हे धीर ! तीन लोक रूपी विश्व-मण्डप में आप आराधना रूपी पताका लेकर अप्रमत्तता पूर्वक विचरण करें और निर्मल विशुद्ध ऐसे अनुत्तर केवलज्ञान प्राप्त करें तथा जिनवरोपदिष्ट सरल सिद्धि मार्ग द्वारा परम पद रूप मोक्ष को प्राप्त करें। तुम्हारे धर्म मार्ग में किसी प्रकार का विघ्न नहीं हो ।” इस प्रकार लोग अभिनन्दन और स्तुति करते हैं । तणं से जमाली खत्तियकुमारे णयणमाला सहस्सेहिं पिच्छिनमाणे पिच्छिज्जमाणे एवं जहा उववाइए कुणिओ, जाव णिग्गच्छछ; णिग्गच्छित्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे णयरे जेणेव बहुसालए चेहए तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता छत्ताईए तित्थगराइसए पासह, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy