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________________ १८१४ भगवती सूत्र श. ११ उ. ९ राजर्षि शिव का वृत्तात दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता सुबहुं लोही लोहकडाह० जावकिढिणसंकाइयगं एगंते एडेइ, ए० सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, सयमे० समणं भगवं महावीरं एवं जहेव उसभदत्ते तहेव पव्वइओ, तहेव इक्कारस अंगाई अहिजड़, तहेव सव्वं जाव-सव्वदुवखप्पहीणे। ___ २० प्रश्न-'भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरंमि संघयणे सिझंति ? ___ २० उत्तर-गोयमा ! वइरोसभणारायसंघयणे सिझंति । एवं जहेव उववाइए तहेव “संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउयं च परिवसणा” । एवं सिद्धिगंडिया णिरवसेसा भाणियव्वा, जाव-"अव्वाबाहं सोक्खं अणुहोति सासयं सिद्धा” । ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति के ॥ एक्कारससए णवमो उद्देसो समत्तो ॥ ___ कठिन शब्दार्थ-परिवडिए-नप्ट हो गया, तावसावसहे-तापसावसथ-तापसों का मठ। भावार्थ-१६-शिवराजर्षि, बहुत-से मनुष्यों से यह बात सुन कर और अवधारण कर के शंकित, कांक्षित, संदिग्ध, अनिश्चित और कलुषित भाव को प्राप्त हुए । शंकित, कांक्षित आदि बने हुए शिवराजर्षि का वह विभंग नामक अज्ञान तुरन्त नष्ट हो गया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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