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भगवती सूत्र-श. ११ उ. ९ राजर्षि शिव का वृत्तांत
१८६५
१७-इसके पश्चात् शिवराजर्षि को इस प्रकार विचार उत्पन्न हुआ कि 'श्रमण.भगवान् महावीर स्वामी, धर्म की आदि करने वाले, तीर्थकर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हैं, जिनके आगे आकाश में धर्मचक्र चलता है, वे यहां सहस्राम्रवन उद्यान में यथा-योग्य अवग्रह ग्रहण करके यावत् विचरते हैं। इस प्रकार के अरिहंत भगवन्तों का नाम-गोत्र सुनना भी महाफल वाला है, तो उनके सम्मुख जाना, वन्दन करना, इत्यादि का तो कहना ही क्या, इत्यादि औपपातिक सूत्र के उल्लेखानुसार विचार किया, यावत् एक भी आर्य धार्मिक सुवचन का सुनना भी महाफल दायक है, तो विपुल अर्थ के अवधारण का तो कहना ही क्या । अतः मैं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास जाऊं, वन्दन-नमस्कार यावत् पर्युपासना करूं। यह मेरे लिये इस भव और पर भव में यावत् श्रेयकारी होगा।'
१८-ऐसा विचार कर तापसों के मठ में आये और उसमें प्रवेश किया। मठ में से लोढ़ी, लोह-कड़ाह यावत् कावड़ आदि उपकरण लेकर पुनः निकले। विभंगज्ञान रहित वे शिवराजर्षि हस्तिनापुर नगर के मध्य होते हुए सहस्राम्रवन उद्यान में, श्रमण भगवान महावीर स्वामी के निकट आये । भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दन नमस्कार किया और न अति दूर न अति निकट यावत् हाथ जोड़ कर भगवान् की उपासना करने लगे। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने शिवराजर्षि और महा-परिषद् को धर्मोपदेश दिया यावत्-" इस प्रकार पालन करने से जीव आज्ञा के आराधक होते हैं।"
१९-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से धर्मोपदेश सुनकर और अवधारण कर शिवराजर्षि, स्कन्दक की तरह ईशानकोण में गये और लोढ़ी, लोह-कड़ाह यावत् कावड़ आदि तापसोचित उपकरणों को एकान्त स्थान में डाल दिया। फिर स्वयमेव पञ्चमुष्टि लोच किया और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप (नौवें शतक के तेतीसवें उद्देशक में कथित) ऋषभदत्त की तरह प्रव्रज्या अंगीकार की । ग्यारह अंगों का ज्ञान पढ़ा, यावत् वे शिवराजर्षि समस्त दुःखों से
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