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भगवती सूत्र-ग. ११ उ. ९ राजपि शिव का वृतांत
१८७७
णिमज्जगा-पानी में कुछ देर इव कर स्नान करने वाले, संपक्खाना-सम्प्रक्षालक (मिट्टी रगड़कर नहाने वाले), उद्धकंडूयगा-ऊपर की ओर ग्बुजालने वाले, दाहिणकूलगा-गंगा के दक्षिण किनारे रहने वाले, संखधमगा-शंब फूंक कर भोजन करने वाले, कूलधमगा-किनारे रह कर शब्द करने वाले. मियलद्धया-मृगलुब्धक, हस्थितावसा-हस्ति तापस (हाथी को मारकर बहुत दिनों तक खाने वाले), जलाभिसेकि ढिणगाया-म्नान किये बिना नहीं खाने वाले, अबुवासियो-बिल में रहने वाले, वाउवासिणो -वायु में रहने वाले, वक्कलवासिणोवल्कलधारी, अंबुभविखणो-जलपान पर ही जीवन बिताने वाले, परिसडिय-गिरे हुए. उदंडाऊंचा दंड रख कर फिरने वाले, पंचगितावेहि-पंचाग्नि तापस, इंगालसोल्लियंपिव-अंगारों से अपने को भुनाने वाले, कंडुसोल्लियं पिव-भइ जे की भाड़ में पकाये हुए के समान, कटुसोल्लियंपिव-काष्ठ के समान शरीर को बनाने वाले, दिसापोक्खी-दिशा-प्रोक्षक, संपेहेइविचार करता है।
___ भावार्थ-२-किसी सजय राजा शिव को रात्रि के पिछले प्रहर में राज्य कार्यभार का विचार करते हुए ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न हुआ कि यह मेरे पूर्व के पुण्य-कर्मों का प्रभाव है, इत्यादि तीसरे शतक के प्रथम उद्देशक में कथित तामली तापस के अनुसार विचार हुआ, यावत् में पुत्र, पशु, राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोष, कोष्ठागार, पुर और अन्तःपुर इत्यादि द्वारा वृद्धि को प्राप्त हो रहा हूँ। पुष्कल धन, कनक, रत्न यावत् सारभूत द्रव्य द्वारा अतिशय वृद्धि को प्राप्त हो रहा हूँ और में पूर्व-पुण्यों के फल स्वरूप एकान्त सुख भोग रहा हूँ, तो अब मेरे लिये यह श्रेष्ठ है कि जब तक मैं हिरण्यादि से वृद्धि को प्राप्त हो रहा हूँ यावत् जब तक सामन्त राजा आदि मेरे आधीन हैं, तब तक कल प्रातःकाल देदीप्यमान सूर्य के उदय होने पर बहुत-सी लोढ़ी, लोह को कड़ाही, कुड़छी और ताम्बे के दूसरे तापसोचित उपकरण बनवाऊँ और शिवभद्र कुमार को राज्य पर स्थापित कर के और पूर्वोक्त तापस के उपकरण लेकर, उन तापसों के पास जाऊँ-जो गंगा नदी के किनारे वानप्रस्थ तापस हैं, यथा-अग्निहोत्री, पोतिक-वस्त्र धारण करने वाले, कौत्रिक, याज्ञिक, श्रद्धालु, खप्परधारी, कुंडिका धारण करनेवाले, फल भोजी उम्मज्जक, समज्जक, निमज्जक, सम्प्रक्षालक, ऊर्ध्वकंडुक, अधोकंडुक, दक्षिग कूलक, उत्तर कूलक, शंखधपक, कूलधमक, मृगलुब्धक, हस्ती-तापत, जलाभिषेक
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