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भगवती सूत्र-स. ११ उ. ९ राजपि शिव का वृत्तांत
किये बिना भोजन नहीं करने वाले, बिलवासी, वायु में रहने वाले, वल्कलधारी, पानी में रहने वाले, वस्त्रधारी, जलभक्षक, वायुभक्षक, शेवालभक्षक, मूलाहारक कन्दाहारक, पत्राहारक, छाल खाने वाले, पुष्पाहारक, फलाहारी, बीजाहारी, वृक्ष से सड़ कर टूटे या गिरे हुए कन्द, मूल, छाल, पत्र, पुष्प और फल खाने वाले, ऊँचा दंड रख कर चलने वाले, वृक्ष के मूलों में रहने वाले, मांडलिक, वनवासी, बिलवासी, दिशाप्रोक्षी, आतापना से पंचाग्नि तापने वाले और अपने शरीर को अंगारों से तपा कर लकड़े-सा करने वाले इत्यादि औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार यावत् जो अपने शरीर को काष्ठ तुल्य बना देते हैं, उनमें से जो तापस 'दिशाप्रोक्षक' (जल द्वारा दिशा का पूजन करने के पश्चात् फल-पुष्पादि ग्रहण करने वाले) हैं, उनके पास मुण्डित होकर दिक्प्रोक्षक तापस रूप प्रव्रज्या अंगीकार करू। प्रवज्या अंगीकार कर के इस प्रकार का अभिग्रह करूं कि 'यावज्जीवन निरन्तर बेले-बेले की तपस्या द्वारा दिक्चक्रवाल तप-कर्म से दोनों हाथ ऊँचे रख कर रहना मुझं कल्पता है।' इस प्रकार शिवराजा को विचार हुआ।
३-संपेहेत्ता कल्लं जाव जलंते सुवहुं लोही-लोह० जाव घडावेत्ता कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हथिणापुरं णयरं सम्भितरं बाहिरियं आसिय० जाव तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति, तए णं से सिवे राया दोच्चं पि कोडं वियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सिवभइस्म कुमारस्म महत्थं ३ विउलं रायाभिसेयं उबटुवेह ।' तएणं ते कोडुवियपुरिसा तहेव उवट्ठति । तएणं से सिवे राया अणेगगणणायग-दंडणायग० जाव-संधिपालसद्धि संपरिबुडे सिवभई कुमारं सीहामणवरंसि पुरत्थाभिमुहं णिसि.
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