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________________ भगवती सूत्र-श. ११ उ. ३ पलास के जीव १८६७ जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उपकोसेणं धणुपुहुत्तं । सेसं तं चेव । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति के ॥ वीओ उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-अपरिसेसा-समस्त । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! एक पत्ते वाला शालूक (वनस्पति विशेष उत्पल कन्द) एक जीव वाला है या अनेक जीव वाला ? १ उत्तर-हे गौतम ! वह एक जीव वाला है। इस प्रकार उत्पलोद्देशक की सभी वक्तव्यता यावत् 'अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं'-तक कहनी चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि शालूक के शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व है । शेष पूर्ववत् जानना चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । ॥ ग्यारहवें शतक का द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण । शतक ११ उद्देशक ३ पलास के जीव १ प्रश्न-पलासे णं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे ? १ उत्तर-एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया अपरिसेसा भाणियव्वा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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