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________________ १८६८ णवरं सरीरोगाहणा जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्को - सेणं गाउयपुत्ता, देवा एएस चेव ण उववजंति । २ प्रश्न - लेस्सासु ते णं भंते! जीवा किं कण्हलेस्सा, णीललेस्सा, काउलेस्सा ? २ उत्तर - गोयमा ! कण्हलेस्से वा णीललेस्से वा काउलेस्से वा छवी भंगा | सेसं तं चेव । * भगवती सूत्र - श. ११ उ. ३ पलास के जीव ॥ सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति तइओ उसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ - पलासे - पलाश - ढाक ( खाखरा ) का वृक्ष । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! पलास वृक्ष प्रारम्भ में जब वह एक पत्ते वाला होता है, तब एक जीव वाला होता है या अनेक जीव वाला ? Jain Education International १ उत्तर - हे गौतम ! उत्पल उद्देशक की सारी वक्तव्यता कहनी चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि पलास के शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट गाऊ पृथक्त्व है । देव चवकर पलास वृक्ष में उत्पन्न नहीं होते । २ प्रश्न - हे भगवन् ! पलास वृक्ष के जीव कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले और कापोत लेश्या वाले होते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! वे कृष्ण लेश्या वाले, नील लेश्या वाले या कापोत लेश्या वाले होते हैं । इस प्रकार यहाँ उच्छ्वासक द्वार के समान छब्बीस भंग कहने चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कहकर गौतम स्वामी प्रावत् विचरते हैं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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