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भगवती सूत्र-श. ११ उ. ४ कुंभिक के जीव
१८६६
विवेचन-देवों से चवकर जीव वनस्पतिकाय में उत्पन्न होते हैं और वनस्पति में भी जो प्रशस्त वनस्पति है, उसी में उत्पन्न होते हैं, अप्रशस्त में उत्पन्न नहीं होते । उत्पल प्रशस्त वनस्पति मानी गई है, इसलिये देव-गति मे चवा हुआ जीव उसमें उत्पन्न होता है। जब तेजो लेश्या युक्त देव, देवभव मे चवकर वनस्पति में उत्पन्न होता है, तब उसमें तेजोलेश्या पाई जाती है । प्रगस्त वनस्पति में पलास नहीं गिना गया है, इसलिये उसमें देव भव से चवा हुआ जीव उत्पन्न नहीं होता। इसलिये उममें तेजो-लेण्या भी नहीं पाई जाती, पहले की तीन अप्रगत लेश्याएँ ही पाई जाती हैं, इसलिथे उसके छब्बीस भंग होते हैं ।
॥ ग्यारहवें शतक का तृतीय उद्देशक सम्पूर्ण ।।
शतक ११ उद्देशक ४
कंभिक के जीव
१ प्रश्न-कुंभिए णं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे ?
१ उत्तर-एवं जहा पलासुद्देसए तहा भाणियब्वे । णवरं ठिइ जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वासपुहत्तं । सेसं तं चेव ।
. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति
॥ चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! एक पत्ते वाला कुंभिक (वनस्पति विशेष) एक जीव वाला होता है या अनेक जीव वाला ?
१ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार पलास के विषय में तीसरे उद्देशक में कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिये, इसमें इतनी विशेषता है कि
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