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भगवती मूत्र-ग.
उ.३३ ऋषभदत्त और देवानन्दा
१६९५
देवाणंदा माहणी अंतो अंतेउरंसि बहाया; कयवलिकम्मा, कय. कोउय-मंगल-पायच्छित्ता, किंच वरपायपत्तणेउर-मणिमेहला - हाररचिय -उचियकडग - खुड्डाग - एगावली - कंठमुत्त - उरत्थगेवेज - सोणिसुत्तग-णाणामणि- रयणभूमणविराइयंगी, चीणंसुयवस्थपवरपरिहिया, दुगुल्लसुकुमालउत्तरिजा, मन्बोउयमुरभिकुमुमवरियसिरया, वरचंदणवंदिया, वराभरणभूसियंगी, कालागरुधूवधूविया, सिरिसमाणवेसा, जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा, वहहिं खुजाहिं, चिलाइयाहिं, णाणादेस-विदेमपरिपिंडियाहिं, सदेसणेवत्थगहियवेसाहि, इंगियचिंतिय-पत्थियवियाणियाहिं, कुसलाहिं, विणीयाहिं, चेडियाचकवालवरिसधर-थेरकं वुइज-महत्तरगवंदपरिक्खित्ता अंतेउराओ णिग्गच्छड़, णिग्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा।
कठिन शब्दार्थ-हाए-स्नान किया, अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे-अल्प किंतु महामूल्यवान् आभरणों से शरीर को अलंकृत करके, साओ-स्वयं के, गिहाओ-घर से, पडिणिक्खमइ-निकला, बाहिरिया-बाहर की, उवट्ठाणसाला-उपस्थानशाला, उवागच्छइउपागच्छति-आया, दुरूढे-आरूढ (सवार) हुआ, अंती-भीतर के, अंतेउरंसि-अन्तःपुर के, कयबलिकम्मा-कृतबलिकर्म अर्थात् स्नान के समय करने योग्य कार्य (यह शब्द जहाँ स्नान का अर्थ संक्षिप्त में बतलाना होता है, वहां प्रयुक्त होता है), कयकोउय-कौतुक किया, मंगलपायच्छित्ता-मंगल और प्रायश्चित्त किया, वरपायपत्तणेउर-पाँवों में उत्तम नूपुर पहने, मणिमेहला-मणि जड़ित मेखला (कन्दोरा), हाररचिय-हार (माला)से सुशोभित, उचिय. कडग-उचित कड़े, पुड्डाग–अंगुठियाँ, एकावली-कंठसुत्त-एक लड़ीवाला कंठसूत्र (माला,)
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