________________
भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ ऋपभदत्त और देवानन्दा
यौवन वाले बैलों से, सुजायजुगजोत्तरज्जयजगपसत्यसूविरचियणिमियं-उत्तम काष्ठ के जूए और जोत्र की युगल रस्सियों से सुनियोजित, पवरलक्खणोववेयं - उत्तम लक्षण युक्त, जाणप्पवरं-श्रेष्ठ यान-रथ, जुत्तामेव-जोतकर, उवट्ठवेह-उपस्थित करो, एयमाणत्तियं-यह आजा, पच्चप्पिणह-प्रत्यर्पण करो (पीछी अर्पण करो) तहत्ताणाए-आज्ञा मान्यकर ।
भावार्थ-२-इसके बाद ऋषभदत्त ब्राह्मण ने अपने कौटुम्बिक (सेवक) पुरुषों को बुलाया और इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! जल्दी चलने वाले सुन्दर और समान रूप वाले, समान खुर और पूंछ वाले, समान सींग वाले, स्वर्ण निर्मित कण्ड के आभूषणों से युक्त, उत्तम गति (चाल) वाले चाँदी को घण्टियों से युक्त, स्वर्णमय नासारज्जु (नाथ) द्वारा बांधे हुए, नील-कमल के सिरपेच वाले दो उत्तम युवा बैलों से युक्त, अनेक प्रकार की मणिमय घण्टियों के समूह से व्याप्त, उत्तम काष्ठमय धोंसरा (जुआ) और जोत की दो उत्तम डोरियों से युक्त, प्रवर (श्रेष्ठ) लक्षण युक्त धार्मिक श्रेष्ठ यान (रथ) तैयार करके यहां उपस्थित करो और आज्ञा का पालन कर निवेदन करो (अर्थात् कार्य सम्पूर्ण होजाने की सूचना दो)। ऋषभदत्त ब्राह्मण को इस प्रकार आज्ञा होने पर वे सेवक पुरुष प्रसन्न यावत् आनन्दित हृदय वाले हुए और मस्तक पर अंजली करके इस प्रकार कहा-'हे स्वामिन् ! यह आपकी आज्ञा हमें मान्य है'-ऐसा कहकर विनय पूर्वक उसके वचनों को स्वीकार किया और आज्ञानुसार शीघ्र चलने वाले दो बैलों से युक्त यावत् धार्मिक श्रेष्ठ रथ को शीघ्र उपस्थित किया, यावत् आज्ञा पालन कर निवेदन किया।
३-तएणं से उसभदत्ते माहणे हाए जाव अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छड़, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढे । तएणं सा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org