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भगवती सूत्र - श. १२ उ. १ श्रमणोपासक शंख पुष्कली
अंतियाओ पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिवखमित्ता सावस्थि यरिं मज्झ-मज्झेणं जेणेव ते समणोवासगा तेणेव उवागच्छइ, ते० ते समणोवास एवं वयासी - ' एवं खलु देवाणुप्पिया ! संखे समणोवासए पोसहसालाए पोसहिए जाव विहरड़, तं छंदेणं देवाणुप्पिया ! तुभे विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं जाव विहरह, संखे णं समणोवास णो हव्वमागच्छछ । तरणं ते समणोवासगा तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा जाव विहरंति ।
कठिन शब्दार्थ-छंदेणं - इच्छा मे ।
भावार्थ - ६ - तब पुष्कली श्रावक, पौषधशाला में शंख श्रावक के समीप आया । गमनागमन का प्रतिक्रमण करके शंख श्रावक को वन्दना नमस्कार किया और इस प्रकार कहा - "हे देवानुप्रिय ! विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम, तैयार करवाया है, अतः अपन चलें और उस आहारादि को खाते-पीते पौषध करें।"
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७-तब शंख श्रावक ने पुष्कली श्रावक से इस प्रकार कहा - "हे देवानुप्रिय ! आहारादि खाते-पीते हुए पौषध करना योग्य नहीं। ऐसा सोचकर मैंने बिना खाये - पीये पौषध अंगीकार कर लिया है। तुम सब अपनी इच्छानुसार आहारादि खाते-पीते हुए पौषध करो ।
८-तब पुष्कली श्रावक वहां से रवाना होकर श्रावस्ती नगरी के मध्य चलकर उन श्रावकों के पास पहुँचा और इस प्रकार बोला- "हे देवानुप्रियो ! शंख श्रावक ने बिना खाये -पीये पौषध अंगीकार कर लिया है। उन्होंने कहा है कि तुम अपनी इच्छानुसार आहारादि करते हुए पौषध करो, शंख श्रावक नहीं आवेगा । यह सुनकर उन श्रावकों ने आहारादि खाते-पीते हुए पौषध किया ।
विवेचन- अपने-अपने घर जाकर जब उन्होंने अशनादि तैयार करवा लिया, तब
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