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________________ १९९४ भगवती सूत्र-श. १२ उ. २ जयन्ती श्रमणोपासिका के प्रश्न अनेक धार्मिक संयोजनाओं में लगाते रहते हैं, तथा धामिक जागरिका द्वारा जाग्रत रहते हैं, इसलिए इन जीवों का जाग्रत रहना अच्छा है। इसलिए हे जयन्ती ! ऐसा कहा जाता है कि कुछ जीवों का सुप्त रहना अच्छा है और कुछ जीवों का जाग्रत रहना अच्छा है। विवेचन-जयन्ती श्रमणोपासिका ने भगवान् से प्रश्न पूछे हैं । भवसिद्धिक जीवों का भवसिद्धिकपना स्वाभाविक है । जैसे पुद्गल में मूर्त्तत्व धर्म स्वाभाविक है, वैसे ही भवसिद्धिक जीवों का भवसिद्धिकपना स्वाभाविक है । जो मुक्ति के योग्य हैं अर्थात् जिन में मुक्ति जाने की योग्यता है, वे भव सिद्धिक कहलाते हैं । सभी भवसिद्धिक जीव सिद्धि प्राप्त करेंगे, अन्यथा उनका भवसिद्धिकपना ही घटित नहीं हो सकता। १. शंका-यदि सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जावेंगे, तो क्या लोक, भवसिद्धिक जीवों से शून्य नहीं हो जायगा? समाधान-नहीं, ऐसा नहीं होगा । जैसे कि-जितना भी भविष्यत्काल है. वह सब वर्तमान होगा। तो क्या कभी ऐसा समय आयेगा कि संसार, भविष्यत्काल से शून्य हो जायेगा? ऐसा कभी नहीं होगा। इसी दृष्टान्त के अनुसार यह समझना चाहिए कि लोक भवसिद्धिक जीवों से कदापि शून्य नहीं होगा। - इस प्रश्न का दूसरा आशय ऐसा भी निकलता है कि जितने भी जीव सिद्ध होंगे, वे " सभी भवसिद्धिक ही होंगे, एक भी अभवसिद्धिक जीव सिद्ध नहीं होगा-ऐसा मानने पर भी प्रश्न वही उपस्थित रहता है कि क्रमशः सभी भवसिद्धिक जीवों के सिद्ध हो जाने पर, लोक की भव्यों से शून्यता कैसे नहीं होगी ? जयन्ती श्रमणोपासिका की इस शंका का समाधान करने के लिये, आकाश-श्रेणी का दृष्टांत देकर यह बतलाया गया है कि जैसे समस्त आकाश की श्रेणी अनादि-अनन्त है, उसमें से एक-एक परमाणु जितना खण्ड प्रति समय निकाला जाय, तो इस प्रकार निकालते-निकालते अनन्त उत्सपिणियाँ और अनन्त अवमपिणियां वीत जाने पर भी वह आकाश-श्रेणो खाली नहीं होती। इसी प्रकार भवसिद्धिक जीवों के मोक्ष जाते रहने पर भी यह लोक, भवसिद्धिक जीवों से खाली नहीं होगा। इसके लिये दूसरा दृष्टान्त यह भी दिया गया है कि जैसे-दो प्रकार के पत्थर हैं । एक वे जिनमें प्रतिमा बनने की योग्यता है । दूसरे वे टोल पत्थरादि जिनमें प्रतिमा बनने की योग्यता नहीं । जिन पत्थरों में प्रतिमा बनने की योग्यता है, वे सभी पत्थर प्रतिमा नहीं बन जाते, किन्तु जिन पत्थरों को तथाप्रकार के कलाकार आदि का संयोग मिल जाता है, वे प्रतिमापन की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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