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भगवती सूत्र - ११ उ. १० अलोक की विशालता
विवेचन-लोक की विशालता को बतलाने के लिये असत् कल्पना मे यह रूपक परिकल्पित किया गया है।
शंका - मेरुपर्वत की चूलिका से पूर्वादि चारों दिशाओं में लोक का विस्तार अर्द्ध रज्जु प्रमाण हैं अधोलोक में सात रज्जु में कुछ अधिक है और ऊर्ध्वलोक में किचिन्न्यून सात रज्जु है । वे सभी देव छहों दिशाओं में समान गति में जाते हैं, फिर छहों दिशाओं में गत क्षेत्र से - अगत क्षेत्र असंख्यातवें भाग एवं अगत क्षेत्र से गत क्षेत्र असंख्यात गुणा कैसे बतलाया गया है ? क्योंकि चारों दिशाओं की अपेक्षा ऊर्ध्व और अधो दिशा में क्षेत्र परिमाण की विषमता I समाधान - शंका उचित है, किन्तु यहाँ घन-कृत ( वर्गीकृत) लोक की विवक्षा करके यह रूपक कल्पित किया गया है, इसलिये कोई दोष नहीं। ऐसा करके मेरु पर्वत को मध्य में रखने पर सभी ओर साढ़े तीन माढ़े तीन रज्जु रह जाता है ।
शंका-यदि उक्त स्वरूप वाली गति से गमन करते हुए वे देव, इतने लम्बे समय में भी जब लोक के अन्त को प्राप्त नहीं कर सकते, तो तीर्थंकर भगवान् के जन्म-कल्याणादिक मे ठ अच्युत देवलोक तक से देव यहाँ कैसे शीघ्र आ जाते हैं ? क्योंकि क्षेत्र बहुत लम्बा है और अवतरण काल ( उन देवों के आने का समय ) अत्यल्प है ?
समाधान- शंका उचित हैं, किन्तु तीर्थंकर भगवान् के जन्म कल्याणादि में आने की गनि शीघ्रतम है । उस गति की अपेक्षा इस प्रकरण में बतलाई हुई देवों की गति अतिमन्द है ।
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अलोक की विशालता
२० प्रश्न - अलोए णं भंते ! के महालए पण्णत्ते ?
२० उत्तर - गोयमा ! अयण्णं समयखेत्ते पणयालीसं जोयणसयसहस्साइं आयामविक्खंभेणं, जहा खंदए, जाव परिक्खेवेणं । तेणं काणं तेणं समरणं दस देवा महिडिढया तहेव जाव संपरिविखत्ता
• वे देव भी कदाचित् तिलोक के होगे ? — डोशी !
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