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________________ १६०४ भगवती सूत्र - श९ उ. ३१ असोच्चा लेग्या ज्ञान योगादि लेश्याओं में ही होता है, अप्रशस्त भाव- लेश्याओं में नहीं । सम्यक्त्व प्राप्त होते ही उसका मति अज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान- ये तीनों अज्ञान, ज्ञानरूप में परिणत हो जाते हैं । अवधिज्ञानी के लिये जो वज्रऋषभनाराच संहनन का कथन किया गया है, वह आगे प्राप्त होनेवाले केवलज्ञान की अपेक्षा समझना चाहिये । क्योंकि केवलज्ञान की प्राप्ति वज्रऋषभनाराच संहनन वालों को ही होती है । अवधिज्ञानी दशा में वह सवेदी होता है । सवेदी में भी पुरुषवेदी और पुरुष नपुंसक वेदी होता है । वह संज्वलन कषायवाला होता है । इसके ' पश्चात् भावों की विशुद्धता से नरकादि चारों गतियों के कारणभूत कषाय का क्षय करता है । पश्चात् जिस प्रकार तालवृक्ष की मस्तक - शूचि के भिन्न होने पर, तालवृक्ष नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म का क्षय करता है । जैसा कि कहा है मस्तकसूचिविनाशे तालस्य यथा ध्रुवो भवति नाशः । तद्वत् कर्म विनाशोऽपि मोहनीयक्षय नित्यम् ॥ अर्थ - जिस प्रकार तालवृक्ष की मस्तकशूचि का विनाश होने पर तालवृक्ष का नाश हो जाता है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म का क्षय होने पर शेष कर्मों का भी नाश हो जाता है । अतः मोहनीय कर्म की शेष प्रकृतियों का क्षय करके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय - इन तीनों कर्मों की सभी प्रकृतियों का क्षय कर देता है । इनका क्षय होते ही केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न हो जाते हैं । केवलज्ञान के लिये शास्त्रकार ने विशेषण दिये हैं । यथा-अनन्त-विषय की अनन्तता के कारण केवलज्ञान अनन्त है । वह अनुत्तर है अर्थात् केवलज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई ज्ञान नहीं है, अर्थात् वह सर्वोत्तम ज्ञान है । फिर वह निर्व्याघात होता है अर्थात् भींत आदि के द्वारा वह प्रतिहत ( स्खलित ) नहीं होता । वह सम्पूर्ण आवरणों के क्षय हो जाते से 'निरावरण' होता है । सकल पदार्थों का ग्राहक होने से 'कृत्स्न' होता है । अपने सम्पूर्ण अंशों से युक्त उत्पन्न होने से 'प्रतिपूर्ण' होता है । इसी तरह केवल दर्शन के लिये भी ये ही विशेषण समझ लेने चाहिये । वे असोच्चा केवली किसी के द्वारा प्रश्न पूछने पर उत्तर देते हैं तथा एक उदाहरण देते हैं । इसके अतिरिक्त वे किसी प्रकार का उपदेशादि नहीं देते। किसी को अपना शिष्य नहीं बनाते, किन्तु किसी दीक्षार्थी के उपस्थित होने पर वे केवल इतना कहते हैं कि 'अमुक के पास दीक्षा लो ।' Jain Education International इस प्रकार के असोच्चा केवली ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिरछा लोक-इन तीनों लोकों में होते हैं । महरण आदि का कथन मूल पाठ में ही कर दिया गया है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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