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भगवती मुत्र-श. ९ . ३१ असोचा-लेश्या ज्ञान योगादि
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उक्कोसेणं दस, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-'असोचा णं केवलिस्स वा जाव अत्थेगइए केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए, अस्थगइए असोचा णं केवलि० जाव णो लभेज्जा सवणयाए, जाव अत्थेगइए केवलणाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगइए केवलणाणं णो उप्पाडेज्जा।
कठिन शब्दार्थ-अहे-नीचे, पायाले-पाताल में। :
भावार्थ-३१ प्रश्न-हे भगवन् ! वे असोच्चाकेवलो क्या ऊर्ध्वलोक में होते हैं, अधोलोक में होते हैं, या तिर्यग्-लोक में होते हैं ?
३१ उत्तर-हे गौतम ! ऊर्ध्वलोक में भी होते हैं, अधोलोक में भी होते हैं और तिर्यग्-लोक में भी होते हैं। यदि ऊर्ध्व-लोक में हैं, तो शब्दापाती, विकटापाती, गन्धापाती और माल्यवन्त नामक वृत्त वैताढय पर्वतों में होते हैं। तथा संहरण की अपेक्षा सौमनस वन में अथवा पाण्डुक वन में होते हैं। यदि अधोलोक में होता है, तो गर्ता (अधोलोक ग्रामादि) में अथवा गुफा में होते हैं। तथा संहरण की अपेक्षा पाताल-कलशों में अथवा भवनवासी देवों के भवनों में होते हैं । यदि तिर्यग्-लोक में होते हैं, तो पन्द्रह कर्मभूमि में होते हैं । तथा संहरण को अपेक्षा ढाई द्वीप और समुद्रों के एक भाग में होते हैं। ___३२ प्रश्न-हे भगवन् ! वे असोच्चा केवली, एक समय में कितने होते हैं?
३२ उत्तर-हे गौतम ! जयन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट दस होते है। इसलिये हे गौतम ! मैं ऐसा कहता हूं कि केवली यावत् केवलिपाक्षिक की उपासिका के पास, केवली प्ररूपित धर्म सुने बिना ही किसी जीव को केवलिप्ररूपित धर्म का बोध होता है और किसी को नहीं होता, यावत् कोई जीव केवलज्ञान उत्पन्न कर लेता है और कोई उत्पन्न नहीं करता।
विवेचन-उपर्युक्त अवधिज्ञानी के विषय में जो कहा गया है, वह सब उस अवधिज्ञानी के लिये समझना चाहिये, जो विभंगज्ञानी से अवधिज्ञानी बना है । वह प्रशस्त भाव
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