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भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३३ जमाली के मिथ्यात्व का उदय
१७५.५
विरमेहि य अंतहि य पंतेहि य लूहेहि य तुच्छेहि य कालाइयकतेहि य, पमाणाइक्कंतेहि य, सीएहि य पाण-भोयणेहिं अण्णया कयाई सरीरगंसि विउले रोगायके पाउन्भूए, उज्जले, विउले, पगाढे, कक्कसे, कडुए, चंडे, दुक्खे, दुग्गे, तिव्वे, दुरहियासे । पित्तज्जरपरिगयसरीरे, दाहवुक्कंतिए या वि विहरइ । तएणं से जमाली अणगारे वेयणाए अभिभूए समाणे समणे णिग्गंथे सद्दावेइ स० सदावित्ता एवं वयासी-तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! मम सेज्जासंथारगम संथरह । तएणं ते समणा णिग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एयमद्वं विणएणं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जमालिस्स अणगाररस सेज्जासंथारगं संथरंति । तएणं से जमाली अणगारे बलियतरं वेयणाए अभिभूए समाणे दोच्चं पि समणे णिग्गंथे सद्दावेइ, सद्दा. वित्ता, दोव्वं पि एवं वयासी-ममं णं देवाणुप्पिया ! सेज्जासंथारए णं किं कडे, कज्जइ ? तएणं ते समणा णिग्गंथा जमालिं अणगार एवं वयासी-णो खलु देवाणुप्पिया णं सेज्जासंथारए कडे, कज्जइ ।
___ कठिन शब्दार्थ-अरसेहि-बिना रस वाले, विरसेहि-खराब रस वाले, अंतेहि-भोजन के बाद बचा हुआ. पंतेहि-तुच्छ (हलका), लूहे-रूक्ष से. कालाइक्कतेहि-जिसका काल बीत चुका ऐसे आहार से, पाउन्भुए-उत्पन्न हुआ, पगाढे-जोरदार, दुग्गे-कष्ट सांध्य, दुरहियासेअसह्य, पित्तजरपरिगयसरीरं-शरीर में पित्तज्वर व्याप्त हुआ, दाहवुक्कंतिए-जलन युक्त हुआ, सेज्जासंथारगं संथरह-बिछौना विछाओ, कि कडे, कज्जइ ?-क्या किया है, या कर रहे हो?
भावार्थ-३१-जमाली अनगार को अरस, विरस, अन्त, प्रान्त, रूक्ष, तुच्छ, कालातिक्रान्त (भूख, प्यास का समय बीत जाने पर किया गया आहार),
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