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भगवती मूत्र-ग. १० उ. ४ बलिन्द्र के त्रायस्त्रिशक देव
१८:५
समणोवासगा पलिस्स वइरोयणिंदस्स सेसं तं चेव जाव णिच्चे अवोच्छित्तिणयट्ठयाए, अण्णे चयंति, अण्णे उववजंति । __६ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! धरणस्म णागकुमारिंदस्म णागकुमाररण्णो तायत्तीसगा देवा ?
६ उत्तर-हंता अस्थि । प्रश्न-से केणटेणं जाव तायत्तीसगा देवा तायत्तीसगा देवा ?
उत्तर-गोयमा ! धरणस्स णागकुमारिंदस्स णागकुमाररण्णो तायत्तीसगाणं देवाणं सासए णामधेजे पण्णत्ते, ज ण कयाई णासी, जाव अण्णे चयंति अण्णे उववति । एवं भूयाणंदस्स वि एवं जाव महाघोसस्स ।
कठिन शब्दार्थ-सण्णिवेसे -सन्निवेश, जप्पभिई-जब से ।
भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि के त्रास्त्रिशक देव हैं ?
' ५ उत्तर-हाँ, गौतम ! हैं।
प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि के त्रास्त्रिशक देव हैं ?
उत्तर-हे गौतम ! बलि के त्रास्त्रिशक देवों का वर्णन इस प्रकार हैंउस काल उस समय इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में बिभेल नाम का सन्निवेश (कस्बा) था (वर्णन)। उस बिभेल सनिवेश में परस्पर सहायता करने वाले तेतीस श्रमणोपासक थे, इत्यादि जैसा वर्णन चमरेन्द्र के लिये कहा है, वैसा यहाँ भी जानना चाहिये । यावत् वे त्रास्त्रिशक देवपने उत्पन्न हुए । जब से वे बिभेल सन्निवेश निवासी परस्पर सहायक तेतीस गृहपति श्रमणोपासक, बलि के
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