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भगवती सूत्र-श. १० उ. ४ बलीन्द्र के त्रास्त्रिशक देव
और उग्रविहारी (उदार आचार वाले) थे । वे पहले तो संविग्न (मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक एवं संसार से भयभीत) और संविग्न विहारी (मोक्ष के अनुकूल आचरण करने वाले) थे किन्तु पीछे वे पासत्थ (पार्श्वस्थ-ज्ञानादि से बहिर्भूत) और पासत्थविहारी (जीवन पर्यन्त ज्ञान आदि से बहिर्भूत प्रवृत्ति करने वाले) अवसन्न (उत्तम आचार का पालन करने में थके हुए-आलसी)
और अवसन्न विहारी (जीवन पर्यन्त शिथिलाचारी), कुशील (ज्ञानादि आचार की विराधना करने वाले) और कुशील विहारी (जीवन पर्यन्त ज्ञानादि आचार की विराधना करने वाले), यथाछन्द (आगम से विपरीत अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करने वाले स्वच्छन्दी) और यथाछन्दविहारी (जीवन पर्यन्त स्वच्छन्दी) हो गये थे । इससे काल के समय काल करके
वे चमरेन्द्र के वायस्त्रिशक देवपने उत्पन्न हुए । यह कथानक वर्तमान के त्रायस्त्रिशक देवों • का है। इसी प्रकार अनादिकाल से त्रायस्त्रिशक देवों के स्थान में नवीन जीव उत्पन्न होते
रहते हैं और पुराने चवते जाते हैं ।
बलीन्द्र के प्रायस्त्रिंशक देव
५ प्रश्न-अत्थि णं भंते ! वलिस्स वइरोयणिंदस्स वइरोयणरण्णो तायत्तीसगा देवा तायत्तीसगा देवा ?
५ उत्तर-हंता, अस्थि ।
प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-बलिस्स बहरोयणिंदस्स जाव तायत्तीसगा देवा तायत्तीसगा देवा ?
उत्तर-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे बिभेले णाम सण्णिवेसे होत्था वण्णओ। तत्थ णं विभेले सण्णिवेसे जहा चमरस्स जाव उववण्णा ।
प्रश्न-जप्पभिई च णं भंते ! विभेलगा तायत्तीसं सहाया गाहावई
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