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भगवती सूत्र - १० उ. ४ चमरेन्द्र के त्रायस्त्रियक देव
कठिन शब्दार्थ - जायसड्ढे - श्रद्धावाले, सहाया - सहायता करनेवाले, उज्मा - उग्र ( उदार भाववाले), उग्गविहारी- उग्र विहारी ( उदार आचारवाले) ।
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भावार्थ - १ उस काल उस समय वाणिज्यग्राम नामक नगर था । उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी (शिष्य) इंद्रभूति नामक अनगार थे । वे ऊर्ध्वजानु यावत् विचरते थे । उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के शिष्य 'श्यामहस्ती' अनगार थे । वे गौतम स्वामी पास आकर, उन्हें तीन बार प्रदक्षिणा एवं वन्दना नमस्कार करके पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले
२ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या असुरकुमारों के राजा, असुरकुमारों के इन्द्र चमर के त्रास्त्रिशक देव हैं ?
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२ उत्तर- हाँ, श्यामहस्ती ! चमरेन्द्र के त्रायस्त्रशक देव हैं । प्र० - हे भगवन् ! क्या कारण है इसका कि असुरेन्द्र असुरकुमारेन्द्र के त्रास्त्रशक देव हैं ?
उ०- हे श्यामहस्ती ! उन त्रायस्त्रशक देवों का वर्णन इस प्रकार है ।
उस काल उस समय इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में काकन्दी नाम की नगरी थी ( वर्णन ) । उस काकन्दी नगरी में एक दूसरे की परस्पर सहायता करने वाले तेतीस श्रमणोपासक गृहपति रहते थे । वे धनिक यावत् अपरिभूत थे । वे जीवाजीव के ज्ञाता और पुण्य-पाप के जानने वाले थे । वे परस्पर सहायक तेतीस श्रमणोपासक गृहपति, पहले उग्र, उग्रविहारी, संविग्न, संविग्नविहारी थे, परन्तु पीछे पासत्य (पार्श्वस्थ ), पासत्थविहारी, अवसन्न, अवसन्नविहारी, कुशील कुशीलविहारी, यथाछन्द और यथाछन्दविहारी हो गये । बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन कर, अर्धमासिक संलेखना द्वारा शरीर को कृश कर, तीस भक्तों का अनशन द्वारा छेदन कर के और उस प्रमाद स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल के समय काल कर वे असुरकुमारराज असुरकुमारेन्द्र चमर के त्रास्त्रशक देवपने उत्पन्न हुए हैं ।
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