________________
१६८२
भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ केवली सर्वज्ञ होते हैं
असत् असुरकुमारों में नहीं। इसी प्रकार यावत् सत् वैमानिकों में उत्पन्न होते हैं, असत् वैमानिकों में नहीं । सत् नैरयिकों में से उद्वति है, असत् नैरयिकों में से नहीं, यावत् सत् वैमानिकों में से चवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं।
प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि सत् नरयिकों में उत्पन्न होते हैं, अपत् नरयिकों में नहीं, इसी प्रकार यावत् सत् वैमानिकों से चवते हैं, अप्सत् वैमानिकों से नहीं ? ।
उत्तर-हे गांगेय ! पुरुषादानीय अरिहन्त श्री पार्श्वनाथ ने 'लोक को शाश्वत, अनादि और अनन्त कहा है।' इत्यादि पांचवें शतक के नौवें उद्देशक में कहे अनुसार जानना चाहिये । यावत् "जो अवलोकन किया जाय, उसे 'लोक' कहते हैं," इस कारण हे गांगेय ! ऐसा कहा गया है कि यावत् सत् वैमानिकों से चवते हैं, असत् वैमानिकों से नहीं।
केवली सर्वज्ञ होते है
४७ प्रश्न-सयं भंते ! एवं जाणह, उदाहु असयं, असोचा एए एवं जाणह, उदाहु सोचा; सओ णेरड्या उववजंति, णो असओ णेरइया उववजंति; जाव सओ वेमाणिया चयंति णो असओ वेमाणिया चयंति ?
४७ उत्तर-गंगेया ! सयं एए एवं जाणामि, णो असयं; असोचा एए एवं जाणामि, णो सोचा सओ गेरइया उवषजति, णो असओ णेरड्या उववजंति, जाव सओ वेमाणिया चयंति, णो असओ वेमाणिया चयंति।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org