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________________ भगवती मूत्र-ग. ९. उ. ३२ केवली सर्वज होते हैं १६८३ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ-तं चेव, जाव ‘णो असओ वेमाणिया चयंति? उत्तर-गंगेया ! केवली णं पुरथिमेणं मियं पि जाणइ, अमियं पि जाणइ; दाहिणेणं एवं जहा सद्दुद्देसए, जाव णिव्वुडे णाणे केवलिस्स; से तेणटेणं गंगेया ! एवं वुच्चइ 'तं चेव जाव णो असओ वेमाणिया चयंति'। कठिन शब्दार्थ-सयं-स्वयं, अमियं-अपरिमित (निःमीम = जिसकी कोई सीमा नहीं) णिवुडे-निवृत हुए। ___ भावार्थ-४७. प्रश्न-हे भगवन् ! आप स्वयं इस प्रकार जानते हैं, अथवा अस्वयं जानते हैं, बिना सुने ही इस प्रकार जानते हैं अथवा सुनकर जानते हैं कि 'सत् नरयिक उत्पन्न होते हैं, असत् नरयिक नहीं, यावत् सत् वैमानिकों से चवते हैं, असत् वैमानिकों से नहीं ?' - ४७ उत्तर-हे गांगेय ! ये सभी बातें में स्वयं जानता हूँ, अस्वयं नहीं, "बिना सुने ही जानता हूँ, सुनकर ऐसा नहीं जानता कि 'सत् नैरयिक उत्पन्न होते हैं, असत् नरयिक नहीं, यावत् सत् वैमानिकों से चवते हैं, असत् वैमानिकों से नहीं।' प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है कि 'मैं स्वयं जानता हूँ,' इत्यादि पूर्वोक्त यावत् सत् वैमानिकों से चवते हैं, असत् वैमानिकों से नहीं ? उत्तर-हे गांगेय ! केवलज्ञानी पूर्व में मित (मर्यादित) भी जानते हैं और अमित (अमर्यादित) भी जानते हैं, इसी प्रकार दक्षिण में भी जानते हैं। इस प्रकार शम्ब उद्देशक (छठे शतक के चौथे उद्देशक) में कहे अनुसार जानना चाहिये । यावत् केवली का ज्ञान निरावरण होता है । इसलिए हे गांगेय ! इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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