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१९३४
भगवती सूत्र-श. ११ उ. ११ महाबल चरित्र
रयावेइ, रयावित्ता कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी
कठिन शब्दार्थ-पच्चूसकालसमयंसि-प्रातः काल के समय, जवणियं-यवनिका-पर्दा, अट्टणसाला-व्यायामशाला, सेयवत्थपच्चुत्थुयाई-श्वेत वस्त्र से आच्छादित, सिद्धत्थगकयमंगलोवयाराई-सरसों से मंगल उपचार किया है जिसका, अहियपेच्छणिज्ज-अत्यधिक देखने योग्य, महग्ध-मूल्यवान, वरपट्टणुग्गयं-महा नगर में निर्मित, सहपट्टबहुमत्तिसयचित्तताणंबारिक सूत के और सैकड़ों प्रकार की कला से विचित्र तानेवाली, अंछावेइ-लगवाते हैं, भत्थरयम उयमसूरगोत्थयं-गादी तथा कोमल तकियों से युक्त, सुमउयं-सुकोमल ।
. भावार्थ-२२ प्रातः काल के समय बलराजा अपनी शय्या से उठे और पादपीठ से नीचे उतरे । फिर वे व्यायामशाला में गये। वहां के कार्य का तथा स्नान घर के कार्य का वर्णन औपपातिकसूत्र से जानना चाहिये, यावत् चन्द्र के समान प्रियदर्शनी बनकर वह राजा स्नान घर से निकलकर बाहरी उप- , स्थानशाला में आया और पूर्व दिशा को ओर मुंह करके सिंहासन पर बैठा। फिर अपनी बांयी ओर ईशान-कोण में, श्वेत वस्त्र से आच्छादित तथा सरसों आदि मांगलिक पदार्थों से उपचरित आठ भद्रासन रखवाये । तत् पश्चात् प्रभावती देवी के लिए अनेक प्रकार के मणि-रत्नों से सुशोभित, बहुमूल्य, विचित्र कलाकौशल युक्त दर्शनीय, ऐसी सूक्ष्म वस्त्र की एक यवनिका (पर्दा) लगवाई। उसके भीतर अनेक प्रकार के मणि रत्नों से रचित, विचित्र, गद्दीयुक्त, श्वेत वस्त्र से आच्छादित तथा सुकोमल एक भद्रासन रखवाया। फिर बलराजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा
२३-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अटुंगमहाणिमित्तसुत्तत्थधारए, विविहसत्थकुसले, सुविणलक्खणपाढए सद्दावेह' तएणं ते कोडुवियपुरिसा जाव पडिसुणित्ता बलस्स रण्णो अंतियाओ पडि.
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