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________________ १८९२ भगवती सूत्र-श. ११. उ. ९ राजर्षि शिव का वृत्तांत १५ हस्तिनापुर नगर में शृंगाटक यावत् अन्य राज-मार्गों पर बहुत-से लोग इस प्रकार कहने एवं प्ररूपणा करने लगे कि-'हे देवानुप्रियो ! शिव राजषि जो कहते एवं प्ररूपणा करते हैं कि 'मुझे अतिशेष ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं जानता-देखता हूँ कि इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र ही है। - इन के आगे द्वीप और समुद्र नहीं हैं,'-उनका यह कथन मिथ्या है । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी इस प्रकार कहते और प्ररूपणा करते हैं कि 'निरन्तर बेलेबेले की तपस्या करते हुए शिवराजर्षि को विभंगज्ञान उत्पन्न हुआ है। जिससे वे सात द्वीप समुद्र तक जानते-देखते हैं और इसके आगे द्वीप समुद्र नहीं है, यह उनका कथन मिथ्या है । क्योंकि जम्बूद्वीप आदि द्वीप और लवगादि समुद्र असंख्यात हैं।' - विवेचन-मिथ्यात्व युक्त अवधि को 'विभंगज्ञान' कहते हैं। किसी वाल-तपस्वी को अज्ञान तप के द्वारा जब दूर के पदार्थ दिखाई देते हैं, तो वह अपने को विशिष्ट ज्ञानवाला ‘समझ कर सर्वज्ञ के वचनों में विश्वास नहीं करता हुआ मिथ्या प्ररूपणा करने लगता है। शिवराजर्षि को भी इसी प्रकार का विभंगज्ञान उत्पन्न हुआ था। वे उस विभंग को ही विशिष्ट एवं पूर्ण ज्ञान समझकर मिथ्या प्ररूपणा करने लगे। श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने शिवराजर्षि का कथन मिथ्या बताया और कहा कि द्वीप और समुद्र असंख्यात हैं । . १६-तए णं से सिवे. रायरिसी बहुजणस्स अंतियं एयमढें सोचा णिसम्म संकिए कंखिए वितिगिच्छिए भेदसमावण्णे कलुस: समावण्णे जाए यावि होत्था । तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स संकियस्स कंखियस्स जाव-कलुससमावण्णस्स से विभंगे अण्णाणे खिष्णामेव परिवडिए। १७-तएणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अज्झथिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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