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भगवती सूत्र-ग. ९ उ. ३१ असोच्चा मिथ्यादृष्टि से सम्यगदष्टि
होने से, भहयाए-भद्रता से, अण्णयाकयाइ-अन्य किमी दिन, विसुज्नमाणीहि-विगद्धयमान होने के कारण, ईहाऽपोहमग्गणगवेसणं-ईहा, अपोह, मार्गणा गवेपणा (विचार धारा में संलग्न हो ऊहापोह में बढ़ते हुए), पासंडत्थे-पाखंड में रहे, सारंभे-आरंभवाले. संकिलिस्समाणे-संक्लेश को प्राप्त हुए, रोएइ-रुचि करते हैं, परिहायमाणेहि-क्षीण होते हुए, परिवड्डमाणेहि-बढ़ते हुए, खिप्पामेव-गीघ्र ही, परावत्तइ-परिवर्तन होता है।
भावार्थ-११-निरन्तर छठ-छठ का (वेले, बेले का) तप करते हुए सूर्य के संमुख ऊँचे हाथ करके, आतापना भूमि में आतापना लेते हुए, उस जीव के प्रकृति की भद्रता, प्रकृति की उपशांतता, स्वभाव से ही क्रोध-मान-माया-लोभ के अत्यन्त अल्प होने, अत्यन्त मार्दव-नम्रता, अर्थात् प्रकृति की कोमलता, कामभोगों में आसक्ति नहीं होने, भद्रता और विनीतता से, किसी दिन शुभ अध्यवसाय, शुभपरिणाम, विशद्ध लेश्या एवं तदावरणीय (विभंगज्ञानावरणीय) कर्मों के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए 'विभंग' नामक अज्ञान उत्पन्न होता है। उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान द्वारा बह जवन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट असंख्यात हजार योजन तक जानता और देखता है । उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान द्वारा वह जीवों को भी जानता है और अजीवों को भी जानता है। वह पाखण्डी, आरम्भी, परिग्रही और संक्लेश को प्राप्त हुए जीवों को भी जानता है और विशुद्ध जीवों को भी जानता है । इसके बाद वह विभंगज्ञानी, सर्व प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करता है । उसके बाद श्रमग-धर्म पर रुचि करता है, रुचि करके चारित्र अंगीकार करता है । फिर लिंग (साधुवेश) स्वीकार करता है । तब उस विभंगज्ञानी के मिथ्यात्व के पर्याय क्रमशः क्षीण होते-होते और सम्यग्दर्शन के पर्याय, क्रमशः बढ़ते-बढ़ते वह 'विभंग' नामक अज्ञान, सम्यक्त्व युक्त होता है और शीघ्र ही अवधिरूप में परिवर्तित हो जाता है।
विवेचन-मूल पाठ में -'छठें छद्रेणं' कहा है। इसका अभिप्राय यह है कि प्रायः बेले-बेले की तपस्या करने वाले बाल तपस्वी अज्ञानी जीवों को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है। --..यद्यपि यहाँ मूलपाठ में चारित्र प्राप्ति के बाद 'सम्मत्तपरिग्गहिए' आदि पाठ आया है, तथापि उस पाठ का सम्बन्ध-'सम्मतं पडिवज्जइ, सम्मत्तं पडिवज्जित्ता' के साथ है।
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