SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र - श. ९उ. ३१ असोच्चा-लेश्या ज्ञान योगादि जिसका सीधा अर्थ यह होगा कि चारित्र प्राप्ति के पहले ही वह सम्यक्त्व प्राप्त करता है और सम्यक्त्व परिगृहीत होने पर पर उसका विभंगज्ञान अवधिज्ञान रूप में परिणत हो जाता है । फिर श्रमण-धर्म पर रुचि करके चारित्र धर्म को अंगीकार करता है । अंगीकार करके लिंग स्वीकार करता है । विद्यमान पदार्थों के प्रति ज्ञान- चेष्टा को 'ईहा' कहते हैं । 'यह घट है, पट नहीं ।' इस प्रकार विपक्ष के निराकरणपूर्वक वस्तु तत्त्व के विचार को 'अपोह' कहते हैं । अन्वय व्याप्तिपूर्वक पदार्थ के विचार को 'मार्गण' कहते हैं । व्यतिरेक व्याप्तिपूर्वक पदार्थ के विचार को 'गवेषण' कहते हैं । ईहा, अपोह, मार्गण और गवेषण करते हुए आतापनाभूमि में आतापना लेते हुए, उस वाल तपस्वी को शुभ अध्यवसाय आदि कारणों से विभंगज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होकर विभंगज्ञान उत्पन्न होता । इसके पश्चात् परिणाम अध्यवसाय और लेश्या की विशुद्धि से सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । सम्यक्त्व प्राप्ति के साथ ही वह विभंगज्ञान अवधिज्ञान हो जाता है । इसके पश्चात् वह चारित्र स्वीकार कर साधुवेष को अंगीकार करता है । असोच्चा - लेश्या ज्ञान योगादि १२ प्रश्न - से णं भंते ! कइसु लेस्सासु होजा ? १२ उत्तर - गोयमा ! तिसु विसुद्ध लेस्सासु होज्जा, तं जहातेउलेस्साए, पम्हलेस्साए, सुक्कलेस्साए । १३ प्रश्न - से णं भंते ! कइसु णाणेसु होज्जा ? १३ उत्तर - गोयमा ! तिसु आभिणिबोहियणाण-सुयणाणओहिणासु होज्जा । १४ प्रश्न - से णं भंते ! किं सजोगी होज्जा, अजोगी होज्जा ? १४ उत्तर - गोयमा ! सजोगी होजा, णो अजोगी होज्जा । Jain Education International १५९५ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy