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भगवती मूत्र-श. ११ ३. ११ महाबल चरित्र
अब्भणुण्णाया समाणी णाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि भद्दासणंसि णिसीयइ, णिसीयित्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया बलं रायं ताहिं इटाहिं कंताहिं जाव-संलवमाणी संलवमाणी एवं वयासी
कठिन शब्दार्थ-सस्सिरियं-श्री (शोभा) युक्त, महासुविणं-महास्वप्न , अब्भणुण्णाया-आज्ञा होने पर, धाराहयकलंबपुप्फगंपिव-मेघ की धारा से विकसित कदम्ब-पुष्प के समान, समूसियरोमकूवा-रोम कूप विकसित (रोमांचित) हुए, गिराहि-वाणी मे, संलवमाणी-बोलती हुई, आसत्या वीसत्या-आश्वस्त एवं विश्वस्त होकर !
भावार्थ-१७-प्रभावती रानी इस प्रकार के उदार यावत् शोभा वाले महा स्वप्न को देखकर जाग्रत हुई। वह हर्षित, सन्तुष्ट हृदय यावत् मेघ की धारा से विकसित कदम्ब-पुष्प के समान रोमाञ्चित होती हुई स्वप्न का स्मरण करने लगी। फिर रानी अपनी शय्या से उठी और शीघ्रता रहित, चपलता, संभ्रम एवं विलम्ब रहित, राजहंस के समान उत्तम गति से चलकर, बलराजा के शयनगृह में आई और इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम, उदार, कल्याण शिव, धन्य, मंगल, सुन्दर, मित, मधुर और मजुल (कोमल) वाणी से बोलती हुई बलराजा को जगाने लगी। राजा जाग्रत हुआ। राजा की आज्ञा होने पर, रानी विचित्र मणि और रत्नों की रचना से चित्रित भद्रासन पर बैठी । सुखासन पर बैठने के बाद स्वस्थ और शान्त बनी हुई प्रभावती रानी इष्ट, प्रिय यावत् मधुर वाणी से इस प्रकार बोली।
१८-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! अन्ज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जसि सालिंगण तं चेव जाव-णियगवयणमइवयं सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, तणं देवाणुप्पिया ! एयस्स ओरालस्स जाव महासुविणस्स के मण्णे कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भवि
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