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भगवती मूत्र-स. ११ उ. ११ महापल चरित्र
१९२९
स्सइ ? तएणं से वले राया पभावईए देवीए अंतियं एयमढें सोचा णिसम्म हट्ट-तुटु० जाव हयहियए · धाराहयणीवसुरभिकुसुमचंचु. मालइयतणुयऊसवियरोमकूवे तं सुविणं ओगिण्हइ, ओगिहित्ता ईहं पविस्सइ, ईहं पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धिविण्णाणेणं तस्स मुविणस्स अत्थोग्गहणं करेइ, तस्स० पभावइं देविं ताहिं इटाहिं कंताहिं जाव मंगल्लाहिं मिय-महुर-सस्सिरि० संलवमाणे संलवमाणे एवं वयासी
भावार्थ-१८-'हे देवानुप्रिय ! आज तथाप्रकार की (उपरोक्त वर्णन वाली) सुखशय्या में सोती हुई मैंने, अपने मुख में प्रवेश करते हुए सिंह के स्वप्न को देखा है । हे देवानुप्रिय ! इस उदार महास्वप्न का क्या फल होगा ? प्रभावती रानी को यह बात सुनकर और हृदय में धारण कर राजा हर्षित तुष्ट और संतुष्ट हृदयवाला हुआ । मेघ को धारा से विकसित कदम्ब के सुगंधित पुष्प के समान रोमञ्चित बना हुआ बल राजा, उस स्वप्न का अवग्रह (सामान्य विचार) तथा ईहा (विशेष विचार) करने लगा। ऐसा करके अपने स्वाभाविक बुद्धि-विज्ञान से उस स्वप्न के फल का निश्चय किया। तत्पश्चात् राजा इष्ट, कान्त, मंगल, मित यावत् मधुर वाणी से बोलता हुआ इस प्रकार कहने लगा।
१९-ओराले णं तुमे देवी ! सुविणे दिटे, कल्लाणे णं तुमे जाव सस्सिरीए णं तुमे देवी ! सुविणे दिढे, आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउ. कल्लाण-मंगलकारए णं तुमे देवी ! सुविणे दिटे, अत्थलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलाभो देवाणुप्पिए ! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए !
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