________________
१६१४ भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय प्रश्न-सान्तर निरन्तर उत्पत्ति आदि
वह इतना विस्तृत हो सकता है कि अलोक में भी लोक प्रमाण असंख्यात वण्ड जानने की उसकी शक्ति होती है, किन्तु वहाँ ज्ञेय पदार्थ न होने से वह जानता-देखता नहीं।
. सवेदी को अवधिज्ञान होता है, तो वह पुरुषवेदी, स्त्रीवेदी, पुरुष-नपुंसकवेदी को होता है और अवेदी को होता है, तो क्षीणवेदी को होता है, किन्तु उपशान्तवेदी को नहीं होता, क्योंकि आगे इसी अवधिज्ञानी के केवलज्ञान उत्पत्ति का कथन विवक्षित है । इस पाठ से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि चरम शरीरी जीव उस भव में उपशम श्रेणी नहीं करता है । अर्थात् मैद्धान्तिक मान्यता से एक भव में दोनों श्रेणियां नहीं होती है । कर्मग्रन्थ, एक भव में दोनों श्रेणियाँ मानता है।
सकषापी अकषायी के विषय में भी उपरोक्त प्रकार मे स्वयं घटित कर लेना चाहिये।
॥ इति नौवें शतक का इकत्तीसवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥
.
शतक उद्देशक ३२ .
गांगेय प्रश्न-सान्तर निरन्तर उत्पत्ति आदि ... १-तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे णामं णयरे होत्था। वण्णओ । दूइपलासए चेइए । सामी समोसढे । परिसा णिग्गया । धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जे गंगेए णामं अणगारे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता समणस्म भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिचा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी
२ प्रश्न-मंतरं भंते ! णेरड्या उववज्जति, णिरंतरं णेरड्या
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org