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भगवती मूत्र-स. १२ उ. १ श्रमणोपामय गंग्य पुष्कली
१०-वे पुष्कली आदि सभी श्रावक, दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्योदय होने पर स्नानादि करके यावत् शरीर को अलंकृत कर अपने-अपने घर से निकले
और एक स्थान पर एकत्रित होकर भगवान् की सेवा में पहुंचे यावत् पर्युपासना करने लगे। भगवान् ने महा परिषद् को और उन श्रावकों को “आज्ञा के आराधक हो" वैसा धर्मोपदेश दिया। वे सभी श्रावक धर्मोपदेश सुनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट हुए । तत्पश्चात् खड़े होकर भगवान् को वन्दना नमस्कार किया। इसके पश्चात् वे शंख श्रावक के पास आकर इस प्रकार कहने लगे-“हे देवानुप्रिय ! आपने कल हमें विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करने के लिये कहा था और कहा था कि अपन अशनादि खाते-पीते हुए पौषध करेंगे । तदनुसार हमने अशनादि तैयार करवाया, किन्तु फिर आप नहीं आये और आपने बिना खाये-पीये पौषध कर लिया। हे देवानुप्रिय ! आपने हमारी अच्छी हंसी की ।" उन श्रावकों को इस बात को सुनकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने इस प्रकार कहा-“हे आर्यो ! तुम शंख श्रावक की हेलना, निन्दा, खिसना, गर्हा और अवमानना (अपमान) मत करो । क्योंकि शंख श्रावक प्रियधर्मा और दृढ़धर्मा है। इसने प्रमाद और निद्रा का त्याग करके सुदर्शन ज.गरिका जाग्रत की है।"
विवेचन-पापध के चार भेद हैं । यथा:-आहार पौपध, शरीर पापध, ब्रह्मचर्य पौषध और अव्यापार पीपध ।
आहार का त्याग करके धर्म का पोषण करना 'आहार पौपध' है । स्नान, उबटन, वर्णक, विलपन, पुप्प, गंध, ताम्बूल, वस्त्र और आभरण रूप शरीर सत्कार का त्याग करना 'शरीर पौषध' है । अब्रह्म (मैथुन ) का त्याग कर कुशल अनुष्ठानों के सेवन द्वारा धर्म वृद्धि करना 'ब्रह्मचर्य पोषध' है । कृषि, वाणिज्यादि सावध व्यापारों का तथा शस्त्रादि का त्याग कर धर्म का पोषण करना 'अव्यापार पोषध' है। शंखजी ने इन चारों का त्याग करके पोषध किया था। दूसरे दिन प्रातःकाल वस्त्र बदलने रूप शरीर पोषध को पालकर शेष पॉपधों सहित भगवान् की सेवा में गये थे। इसके लिये मूलपाठ में लिखा है कि 'अभिगमो पत्थि' इसका आशय यह है कि उनके पास सचित्त द्रव्य नहीं थे, इसलिये सचित्त द्रव्य त्याग रूप अभिगम नहीं किया था, शेष चार अभिगम तो किये थे।
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