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________________ २०५० भगवती सूत्र - १२ उ. ५ पाप कर्म के वर्णादि पर्याय १४ प्रतिकुञ्चनता - सरल भाव से कहे हुए वाक्य का खण्डन करना या विपरीत अर्थ लगाना और १५ सातियोग - उत्तम पदार्थ के साथ हीन पदार्थ मिला देना। ये सभी शब्द 'माया' के एकार्थक शब्द हैं । मूर्च्छा - ममत्व को 'लोभ' कहते हैं - १ लोभ- यह 'लोभ' कषाय का सामान्यवाची नाम है । 'इच्छा' आदि इसके विशेष भेद हैं । २ इच्छा - किसी वस्तु को प्राप्त करने की अभिलाषा । ३ मूर्च्छा-प्राप्त की हुई वस्तुओं की रक्षा के लिए निरन्तर अभिलाषा करना । ४ कांक्षा - अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा । ५ गृद्धि प्राप्त वस्तुओं पर आसक्तिभाव । ६ तृष्णा - प्राप्त पदार्थ का व्यय न हो ऐसी इच्छा । ७ भिध्या-विषयों का ध्यान, विषयों में एकाग्रता । ८ अभिध्या-चित्त का चञ्चलता । ९ आशंसना - अपने इष्ट पदार्थ की इच्छा । १० प्रार्थना - दूसरों से इष्ट पदार्थ की याचना । ११ लालपनता - विशेष रूप से बोल कर प्रार्थना करना । १२ कामाशा - इष्ट शब्द और इष्ट रूप को प्राप्त करने की इच्छा । १३ भोगाशा - इष्ट गन्धादि को प्राप्त करने की इच्छा करना । १४ जीविताशा - जीवन की अभिलाषा करना । १५ मरणाशा - विपत्ति के समय मरण की अभिलाषा करना । १६ नंन्दीराग - विद्यमान सम्पत्ति पर राग भाव होना, अथवा नन्दो अर्थात् वांछित अर्थ की प्राप्ति और राग अर्थात् विद्यमान पर रागभाव - ममत्वभाव होना । 'पेज्ज' - प्रेम - पुत्रादि विषयक स्नेह । द्वेष - अप्रीति । कलह - प्रेम हास्यादि से उत्पन्न क्लेश अथवा वाग्युद्ध | अभ्याख्यान - प्रकट रूप से अविद्यमान दोषों का आरोप लगाना- झूठा कलंक लगाना । पैशुन्य - पीठ पीछे किसी के दोष प्रकट करना चुगली करना । परपरिवाददूसरे की बुराई करना - निन्दा करना । अरतिरति - मोहनीय कर्म के उदय से प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति होने पर जो उद्वेग होता है, वह 'अरति' है और अनुकूल विषयों के प्राप्त होने पर चित्त में जो आनन्द रूप परिणाम उत्पन्न होता है, वह 'रति' हैं। जीव को जब एक विषय में रति होती है, तब दूसरे विषय स्वतः अरति हो जाती । यही कारण है कि एक वस्तु विषयक रति को ही दूसरे विषय की अपेक्षा से अरति कहते हैं । इसलिये दोनों को एक पापस्थानक गिना है। मायामृषा - मायापूर्वक झूठ बोलना । मिथ्यादर्शन शल्य - - श्रद्धा का विपरीत होना । जैसे-शरीर में चुभा हुआ शल्य सदा कष्ट देता हैं, उसी प्रकार मिथ्यादर्शन भी आत्मा को दुःखी बनाये रखता है । प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक ये अठारह ही पापस्थान पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चार स्पर्श वाले हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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