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________________ १७७६ . भगवती सूत्र-श. ९ उ..३४ ऋषि-घातक, अनंत जीवों का घातक कारण यह है कि ऋषि अवस्था में वह सर्व विरत है । इसलिये अनन्त जीवों का रक्षक है। मर जाने के पश्चात् वह अविरत हो जाता है। अविरत होकर वह अनन्त जीवों का घातक बनता है । इसलिये ऋषि की घात करनेवाला पुरुष, अन्य अनन्त जीवों का भी घातक होता है । अथवा जीवित रहता हुआ ऋषि, बहुत से प्रागियों को प्रतिबोध देता है। प्रतिबोध प्राप्त वे प्रागी क्रमशः मोक्ष को प्राप्त होते हैं और मुक्त जीव अनन्त संसारी प्राणियों के अघातक होते हैं । इसलिये उन अनन्त जीवों की रक्षा में ऋषि कारण है । इसलिये ऋषि की घात करने वाला पुरुष, अन्य अनन्त जीवों की भी घात करता है। . पुरुष को मारने वाला व्यक्ति नियम से पुरुष-वध के पाप से स्पृष्ट होता है। यह पहला भंग है। उस पुरुष को मारते हुए यदि किसी दूसरे एक प्राणी की घात करता है, तो वह एक पुरुष-वैर से और एक नोपुरुष-वैर से स्पृष्ट होता है । यह दूसरा भंग है । यदि उस एक पुरुष को घात करते हुए अन्य अनेक प्राणियों की घात करता है, तो वह 'एक पुरुष-वैर से और बहुत नोपुरुष-वैरों से' स्पृष्ट होता है । यह तीसरा भंग है । हस्ती, अश्व आदि के वध में भी सर्वत्र ये तीन भंग पाये जाते हैं, किन्तु ऋषि-घात में केवल एक तीसरा भंग ही पाया जाता है। शंका-जो ऋषि मरकर मोक्ष में चला जाता है, वह वहाँ अविरत नहीं बनता, इसलिये उस ऋषि को घात करने से वह घातक पुरुष, केवल ऋषि-वैर से ही स्पृष्ट होता है । इसलिये प्रथम भंग बन सकता है । तब तीसरा भंग ही क्यों कहा गया ? यदि कोई इसका यह समाधान दे कि चरम-शरोरी जीव तो निरुपक्रम आयष्युवाला होता है, इसलिये उसकी घात नहीं हो सकती । अतः अचरम-शरीरी ऋपि की अपेक्षा केवल तीसरा भंग ही बनता है, प्रथम भंग नहीं, तो यह समाधान भी ठीक नहीं, क्योंकि यद्यपि चरम शरीरी जीव निरुपक्रम आयुष्य वाला होता है, तयापि उसके वध के लिये प्रवृत्ति करनेवाले पुरुष को उसकी हिंसा का पाप लगता ही है और वह ऋषि-वैर से स्पृष्ट होता है । इस प्रकार प्रथम भंग बन सकता है, तब केवल तीसरा भंग ही कहने का क्या कारण है ? समाधान-यद्यपि शङ्काकार का कथन ठीक है, तथापि जिस सौपक्रम आयुष्यवाले ऋषि का पुरुष कृत वध होता है, उसकी अपेक्षा से यह सूत्र कहा गया है । इसलिये तीसरा भंग ही कहा गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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