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१८८६
भगवती सूत्र-श. ११ उ. ९ राजर्षि शिव का वृत्तांत
से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पण्णेणं पासइ अस्सि लोए सत्त दीवे सत्त समुद्दे, तेण परं ण जाणइ ण पासइ ।
कठिन शब्दार्थ – अणिक्खित्तेणं-अनिक्षिप्त-निरन्तर, दिसाचक्कवालेणं--दिशा चक्रवाल, आयावेमाणस्स--आतापना लेते हुए।
___ भावार्थ-७-निरन्तर बेले-बेले की तपस्यापूर्वक दिकचक्रवाल तप करने यावत् आतापना लेने और प्रकृति की भद्रता यावत् विनीतता से शिवराजर्षि को किसी दिन तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम होने से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए विभंग नामक अज्ञान उत्पन्न हुआ। उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान से वे इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र देखने लगे। इससे आगे वे जानते-देखते नहीं थे।
८-तएणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अझथिए जाव समुप्पजित्था-'अस्थि णं ममं अइसेसे णाण-दंसणे समुप्पण्णे, एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं वोच्छिण्णा दीवा य समुद्दा य, एवं संपेहेइ, एवं० आयावणभूमीओ पच्चोरहइ, आ० वागलपत्थणियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव० सुबहुं लोही-लोहकडाह-कडुच्छुयं जाव-भंडगं किठिणसंकाइयगं च गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव हथिणापुरे णयरे जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव० भंडणिक्खेवं करेइ, भंड० हत्थिणापुरे णयरे सिंघाडग-तिग० जाव-पहेसु बहु जणस्स एवमाइक्खइ, जाव-एवं परूवेह-अस्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अइसेसे गाण-दंसणे समुप्पण्णे,
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