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भगवती सूत्र-श. १. उ. .. गजषि शिव का वनात
१८८७..
एवं खलु अस्सि लोए जाव दीवा य समुद्दा य' । तएणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं एयमटुं सोचा णिसम्म हथिणापुरे णयरे सिंघाडग-तिग० जाव-पहेसु बहु जणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ, जाव परूवेड़-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवं आइक्खइ, जाव परूवेइ- 'अस्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अइसेसे णाणदंसणे, जाव तेण परं वोच्छिण्णा दोवा य समुद्दा य' । से कहमेयं मण्णे एवं ? .
कठिन शब्दार्थ-अज्मथिए-अध्यवसाय-विचार, अइसेसे-अतिशेष अर्थात् अतिशय वाला, वोच्छिण्णा-विच्छेद (नहीं है,) तावसावसहे-तापसों के आश्रम में ।
भावार्थ-८-इससे शिवराजर्षि को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ"मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है। इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं, उसके बाद द्वीप और समुद्र नहीं हैं।" ऐसा विचार कर वे आतापना-भूमि से नीचे उतरे और वल्कल वस्त्र पहन कर अपनी झोंपड़ी में आये । अपने लोढ़ी, लोह कड़ाह आदि तापस के उपकरण और कावड़ को लेकर हस्तिनापुर नगर में, तापसों के आश्रम में आये और तापसों के उपकरण रख कर हस्तिनापुर नगर के श्रृंगाटक, त्रिक यावत् राजमार्गों में बहुत-से मनुष्यों को इस प्रकार कहने और प्ररूपणा करने लगे-" हे देवानुप्रियो ! मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं यह जानता देखता हूँ कि इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं" शिवराजर्षि को उपरोक्त बात सुन कर बहुत-से मनुष्य इस प्रकार कहने लगे"हे देवानुप्रियो ! शिवराजर्षि जो यह बात कहते हैं कि 'मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, यावत् इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र ही हैं। इसके आगे द्वीप-समुद्र नही हैं'-उनको यह बात इस प्रकार कैसे मानी जाय ?"
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