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________________ २१०२ भगवती सूत्र-ग. १२ 3. ९ भव्यद्रव्यादि पांच प्रकार के देव की स्थिति वाला देव, देवलोक से चवकर भव्यद्रव्यदेवाने उत्पन्न होता है और अन्तर्मुहर्त के बाद आयुष्य का बंध करता है। इसलिये अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष का अन्तर होता है। तथा अपर्याप्त जीव देवगति में उत्पन्न नहीं हो सकता, अत: पर्याप्त होने के बाद ही उसे भव्यद्रव्यदेव गिनना चाहिये। इस प्रकार गिनने से जघन्य अन्तर अन्तर्मुहुर्त अधिक दस हजार वर्ष का होता है । यह मान्यता विशेष संगत ज्ञात होती है । क्योंकि चौवीसवें गमा शतक में जघन्य स्थिति वाले देवों का तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय में भव्यद्रव्यदेवपने उत्पन्न होना बताया है । इसलिए यहाँ पर 'बद्धायु' को ही भव्यद्रव्यदेव बताया है । स्थिति द्वार में एक भविक भव्यद्रव्यदेव की स्थिति बताई है। भव्यद्रव्यदेव मरकर देव होता है और वहाँ से चवकर वनस्पति आदि में अनन्त काल तक रहकर फिर भव्यद्रव्यदेव होता है । इस अपेक्षा मे उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल का होता है । कोई नरदेव (चक्रवर्ती) कामभोगों में आसक्त रहता हुआ यहाँ से मरकर पहली नरक में उत्पन्न हो । वहाँ एक सागरोपम की आयुष्य भोगकर पुनः नरदेव हो और जबतक चत्ररत्न उत्पन्न न हो, तबतक उसका जघन्य अन्तर एक सागरोपम से कुछ अधिक होता है। कोई सम्यग्दृष्टि जीव चक्रवर्ती पद प्राप्त करे, फिर वह देगीन अपार्द्ध पुद्गल-परावर्तन काल तक संसार में परिभ्रमण करे, इसके बाद सम्यक्त्व प्राप्त कर चक्रवर्तीपन प्राप्त करे और संयम पालकर मोक्ष जाय, इस अपेक्षा मे नरदेव का उत्कृष्ट अन्तर देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्तन कहा गया है । कोई धर्मदेव (चारित्र युक्त साधु) मौधर्म देवलोक में पल्योपम पृथक्त्व की आयुष्य वाला देव होवे और वहाँ से चवकर पुन: मनुष्य भव प्राप्त करे । वहाँ वह साधिक आठ वर्ष की उम्र में चारित्र स्वीकार करे, इस अपेक्षा से धर्मदेव का जघन्य अन्तर पल्योपम पृथक्त्व कहा गया है। देवाधिदेव (तीर्थकर भगवान् ) मोक्ष में जाते हैं । इसलिये उनका अन्तर नहीं होता है। ३६ प्रश्न-एएसि णं भंते ! भवियदव्वदेवाणं, णरदेवाणं, जाव भावदेवाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? ३६ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा णरदेवा, देवाहिदेवा संखेज. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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