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________________ भगवती सूत्र- श. ९ उ..३४ एकेंद्रिय जीव और रवासाच्छवान. १७७९ (उत्तर) गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। छ सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति है। ॥ णवमसए चोत्तीसइमो उद्देसो समत्तो ॥ ॥णवमं सयं समत्तं ॥ कठिन शब्दार्थ-आणमइवा पाणमइ वा-श्वासोच्छ्वास के रूप में, पचालेमाणेकम्पाता हुआ. पवाडेमाणे-गिराता हुआ । भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीवों को आभ्यन्तर और बाहरी श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं और छोड़ते ७ उत्तर-हीं, गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीवों को आभ्यन्तर और बाहरी श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं और छोड़ते हैं। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीवों को आभ्यन्तर और बाहरी श्वासोच्छवास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं ? ८ उत्तर-हाँ, गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीवों को यात् ग्रहण करते और छोड़ते है । इसी प्रकार अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों को भी यावत् ग्रहण करते और छोड़ते हैं। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! अकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीवों को आभ्यन्तर और बाहरी श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं ? ९ उत्तर-हाँ, गौतम ! पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिये। १० प्रश्न-हे भगवन् ! अप्कायिक जीव, अप्कायिक जीवों को आभ्यन्तर और बाहरी श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं ? १० उत्तर-हां, गौतम ! पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिये । इसी प्रकार तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के विषय में भी जानना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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