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- भगवती सूत्र-शः ११ उ.१० आकाश के प्रदेश पर जीव-प्रदेश ..१९१३
कठिन शब्दार्थ-आबाह-आवाधा-पीड़ा, वाबाह-त्यावाधा-विशेष पोड़ा, छविच्छेदंछविच्छेद-अवयव का छेद, पट्टिया-नर्तकी-नृत्य करने वाली, अण्णमण्णसमभरघडताएपरस्पर सम्बद्ध, सिंगारागार चारुवेसा-शृंगार मुन्दर आकार और सुन्दर वेश युक्त, जगसयाउलंसि-सैकड़ों मनुष्यों से, पेच्छगा-प्रेक्षक ।
.. भावार्थ--२१ प्रश्न-हे भगवन् ! लोक के एक आकाशप्रदेश पर एफेन्द्रिय जीवों के जो प्रदेश हैं, यावत् पंचेंद्रिय जीवों के और अनिन्द्रिय जीवों के जो प्रदेश हैं, क्या वे सभी अन्योन्य बद्ध हैं, अन्योन्य स्पष्ट हैं, यावत् अन्योन्य संबद्ध हैं ? हे भगवन् ! वे परस्पर एक दूसरे को आबाधा (पीड़ा) और व्याबाधा (विशेष पीड़ा) उत्पन्न करते हैं, तथा उनके अवयवों का छेद करते हैं ?
२१ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं।
(प्र०) हे भगवन् ! इसका क्या कारण है, यावत् वे पीड़ा नहीं पहुंचाते और अवयवों का छेद नहीं करते ?
(उ०) हे गौतम ! जिस प्रकार कोई शृंगारित और उत्तम वेषवाली यावत् मधुर कण्ठवाली नर्तकी सैकड़ों और लाखों व्यक्तियों से परिपूर्ण रंगस्थली में बत्तीस प्रकार के नाटयों में से कोई एक नाट्य दिखाती है, तो हे गौतम ! क्या दर्शक लोग, उस नर्तकी को अनिमेष दृष्टि से चारों ओर से देखते हैं और उनकी दृष्टियां उस नर्तकी के चारों ओर गिरती हैं ? हाँ, भगवन् ! वे दर्शक लोग उसे अनिमेष दृष्टि से देखते हैं और उनकी दृष्टियाँ उसके चारों
ओर गिरती हैं। हे गौतन ! क्या उन दर्शकों की वे दृष्टियाँ उस नर्तकी को किसी प्रकार की पीड़ा पहुँचाती है, या उसके अवयव का छेद करती है ? हे भगवन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं । हे गौतम ! वे दृष्टियाँ परस्पर एक दूसरे को किसी प्रकार की पीड़ा उत्पन्न करती है, या उनके अवयव का छेद करती है ? हे भगवन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं । हे गौतम ! इसी प्रकार जीवों के आत्मप्रदेश परस्पर बद्ध, स्पृष्ट और संबद्ध होने पर भी आबाधा, व्याबाधा उत्पन्न नहीं करते और न अवयव का छेद करते हैं।
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