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भगवती सूत्र-श. १२ उ. ५ विरति आदि आत्मपरिणाम
८प्रश्न-हे भगवन् ! औत्पत्तिकी, वनयिकी, कार्मिको और पारिणामिकी बुद्धि में कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हैं ?
८ उत्तर-हे गौतम ! ये वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित हैं। .९ प्रश्न-हे भगवन् ! अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये सभी कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले हैं ?
९ उत्तर-हे गौतम ! ये सभी वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित हैं।
१० प्रश्न-हे भगवन् ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकारपराक्रमये सभी कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले हैं ?
१० उत्तर-हे गौतम ! ये सभी वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित हैं।
विवेचन-प्राणातिपात विरमणादि जीव के उपयोग स्वरूप हैं और जीव का स्वरूप अमूर्त है, इसलिये अठारह पापों का विरमण, वर्णादि रहित है ।
औत्पत्तिको बुद्धि-जो बुद्धि बिना देखे, सुने और सोचे ही पदार्थों को सहसा ग्रहण कर के कार्य को सिद्ध कर देती है, उसे औत्पत्तिकी बुद्धि कहते हैं ।
. वनयिको बुद्धि-गुरु महाराज की सेवा-शुश्रूषा करने से प्राप्त होने वाली बुद्धिवनयिकी बुद्धि है।
कामिकी बुद्धि-कर्म अर्थात् सतत् अभ्यास और विचार से विस्तृत होने वाली बुद्धि कार्मिकी है । जैसे-सुनार, किसान आदि कर्म करते-करते अपने कार्य में उत्तरोत्तर विशेष दक्ष हो जाते हैं।
पारिणामिकी बुद्धि-अति दीर्घकाल तक पूर्वापर पदार्थों के देखने आदि से उत्पन्न होने वाला आत्मा का धर्म, परिणाम कहलाता है, उस परिणाम के निमित्त से होने वाली बुद्धि को पारिणामिकी बुद्धि कहते हैं । अर्थात् वयोवृद्ध व्यक्ति को बहुत काल तक संसार के अनुभव से प्राप्त होने वाली बुद्धि पारिणामिकी बुद्धि कहलाती है।
अवाह--इन्द्रिय और पदार्थों के योग्य स्थान में रहने पर, सामान्य प्रतिभास रूप दर्शन के बाद होने वाले अवान्तर सत्ता सहित वस्तु के प्रथम ज्ञान को अवग्रह कहते हैं। जैसे-दूर से किसी चीज का ज्ञान होना।
हा-अवग्रह से जाने हुए पदार्थ के विषय में उत्पन्न हुए संशय को दूर करते हुए विशेप की जिज्ञासा को 'हा' कहते हैं ।
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